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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, December 28, 2013

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख-राज्यकर्म के लिये राजनीति का ज्ञान होना चाहिये(manu smriti -rajya karma ke liye rajneeti ka gyan ka hona chahiye)



            हमारे देश राजतंत्र समाप्त होने के बाद लोकतांत्रिक प्रणाली अपनायी गयी जिसमें चुनाव के माध्यम से  जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं।  भारत एक बृहद होने के साथ भौगोलिक विविधता वाला देश है। लोकसभा राष्ट्रीय, विधानसभा प्रादेशिक, नगर परिषद तथा पंचायत स्थानीय स्तर पर प्रशासन की देखभाल करती हैं। देखा जाये तो राजतंत्र में राजा के चयन का आधार सीमित था इसलिये आम आदमी राजकीय कर्म में लिप्त होने की बात कम ही सोचता था। हालांकि इस संसार में अधिकतर लोग राजसी प्रवृत्ति के ही होते हैं पर राजतंत्र के दौरान क्षेत्र व्यापार, कला, धर्म तथा प्रचार के अन्य क्षेत्रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने तक ही उनका प्रयास सीमित था। लोकतंत्र ने अब उनको आधुनिक राजा बनने की सुविधा प्रदान की है।  चुनावों में वही आदमी जीत सकता है जो आम मतदाता के दिल जीत सके।  बस यहीं से नाटकीयता की शुरुआत हो जाती है।  स्थिति यह है कि कला, पत्रकारिता, फिल्म, टीवी तथा धर्म के क्षेत्र में लोकप्रिय होता है वही चुनाव की राजनीति करने लगता है। वैसे राजनीति राजसी कर्म की नीति का परिचायक होती है जो अर्थोपार्जन की हर प्रक्रिया का भाग होता है।  राज्यकर्म तो इस प्रक्रिया का एक भाग होता है। राजनीति उस हर व्यक्ति को करना चाहिये जो नौकरी, व्यापार अथवा उद्योग चला रहा है।  केवल चुनाव ही राजनीति नहीं होती पर माना यही जाने लगा है।
            इससे हुआ यह है कि बिना राजनीति शास्त्र ज्ञान के लोग पदों पर पहुंच जाते हैं पर काम नहीं कर पाते। राजकीय कर्म की नीतियां हालांकि परिवार के विषय से अलग नहीं होती पर जहां परहित या जनहित का प्रश्न हो वहां शिखर पुरुषों को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है।  इसलिये राजनीति शास्त्र का उनको आम इंसान से अधिक होना आवश्यक है।  भारत में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं  से हमेशा ही लोगों में अंतर्द्वंद्व देखा गया है।  देखा यह गया है कि रचनात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति लंबे समय तक अपना स्थान बनाये रखता है पर अनवरत अंतर्द्वंद्व की प्रक्रिया के बीच जब कोई विध्वंसक प्रवृत्ति का व्यक्ति खड़ा हो जाता है तो तनावग्रस्त समाज में उसकी छवि नायक की बन जाती है। दूसरी बात यह है कि जब लोग अपनी समस्याओं से जूझते हैं तब उनके बीच जोर से ऊंची आवाज में बगावत की बात कहने से लोकप्रियता मिलती है।  यही लोकप्रियता चुनाव जीतने का आधार बनती है।  इससे उन लोगों को जनप्रतिनिधि होने का अवसर भी  मिल जाता है जो बगावती तेवर के होते है पर उनमें रचनात्मकता का अभाव होता है।
मनु स्मृति में कहा गया है कि
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साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक।
विजेतुः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचत्।।
            हिन्दी में भावार्थ-अपने राजनीतिक अभियान में सफलता की कामना रखने वाले पुरुष को साम, दाम तथा भेद नीतियों के माध्यम से पहले अपने अनुकूल बनाना चाहिये। जब यह संभव न हो तभी दंड का प्रयोग करना श्रेयस्कर है।
उपजप्यानुपजपेद् बुध्येतैव च तत्कृतम।
बुत्तों च दैवे बुध्यते जयप्रेप्सुरपीतभीः।।
            हिन्दी में भावार्थ-राजनीतिक अभियान में पहले अपने विरोधी पक्ष के लालची लोगों को अपने पक्ष में करना चाहिये। उनसे अपने विरोधी पक्ष की नीति तथा कमजोरी का पता लगाकर अपने अभियान को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिये।
            हमारे देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक परिदृश्य देखने को मिले हैं।  अनेक संगठन बने और बिगड़े पर देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति यथावत रही।  नारे लगाकर अनेक लोग सत्ता के शिखर पर पहुंचे राजनीति तथा प्रशासन का ज्ञान न होने की वजह से वह प्रजाहित की सोचते तो रहे पर आपने कार्यक्रम क्रियान्वित नहीं कर सके। साहित्य, कला, फिल्म तथा पत्रकारिता के साथ ही जन समस्याओं के लिये जनआंदोलन करने वाले लोग जनमानस में लोकप्रियता प्राप्त कर चुनाव जीत जाते हैं पर जहां प्रशासन चलाने की बात आये वहां उनकी योग्यता अधिक प्रमाणित नहीं हो पाती।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Thursday, December 19, 2013

चुनाव और आंदोलन दोनों ही राजसी कर्म के परिचायक-हिन्दी लेख(chunav or election and andolna or agitation rajsi karma ke parichayak-hindi lekh or article)



                        एक बात समझ में नहीं आती कि हमारे भारत में राजनीति का आशय हमेशा ही चुनाव के माध्यम से राजकीय पद प्राप्त करने की प्रक्रिया से ही क्यों जोड़ा जाता है। हम संदर्भ अन्ना हजारे जी के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से ही ले रहे है क्योंकि वह वर्तमानकाल में अधिक प्रासंगिक लगता है।  अन्ना हजारे कहते हैं कि मेरा आंदोलन गैर राजनीतिक है। अन्ना हजारे से संबंधित कुछ उनके भक्तों ने एक राजनीतिक दल का गठन किया तो कहा गया कि वह राजनीति में आ गये हैं।  ऐसा लगता है कि भारत में पश्चिमी आधार पर चलने वाले चिंत्तक राजनीति शब्द के मायने का  संकीर्ण अर्थ ले रहे हैं। 
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के कर्म विभाग का अध्ययन करें तो सात्विक, राजस तथा तामस तीन प्रकार के कर्म होते हैं।  सात्विक कर्म में लगे लोगों का एक ही नियम होता है कि दाल रोटी खाओ प्रभु के गुन गाओ। ऐसे लोग समाज के लिये स्वयं बढ़कर काम नहीं करते पर अगर सामने आ जाये तो मुख नहीं मोड़ते।  अलबत्ता वह समाज में संकट खड़ा नहीं करते इसलिये वह प्रशंसा के पात्र होते हैं। तामसी कर्म में लगे लोगों आलस्य, प्रमाद तथा धीमी गति से काम करने वाले होते हैं इसलिये उनसे भी समाज के परोपकार की आशा करना ही  व्यर्थ है।  सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य राजसी कर्म है जिसकी पहचान है काम, क्रोध, मोह, लोभ, तथा अहंकार  जैसे गुणों के रूप में होती है।  सकारात्मक रूप से यह गुण ही है नकारात्मक रूप से ही इन्हें दुर्गुण कहा जाता है। जिनकी मूल प्रवृत्ति ही राजसी है वह सदा प्रतिफल की आशा से काम करते हैं जो राजसी कर्म की पहचान है।  अपने हितों के मोह में प्रतिफल पाने का लोभ मनुष्य को सक्रिय रखता है। उसके न मिलने पर उसे क्रोध आता ही है। मिल जाये तो वह उससे भरपूर सुविधायें जुटाने की कामना भी वही करता है।  न मिले तो क्रोध और मिल जाये तो अहंकार आता ही है। सात्विक लोग अपनी सुविधानुसार राजसी कर्म करते ही हैं क्योंकि इसके बिना उनका गुजारा नहीं होता। तामसी प्रवृत्ति के लोग भी येनकेन प्रकरेण यह करने के लिये बाध्य होते हैं। किसी भी राजसी कर्म करने के लिये नीतिगत रूप से काम करना ही राजनीति है। कहने का अभिप्राय यह है कि न केवल राज्य कर्म के लिये वरन् व्यक्तिगत राजसी कर्म के लिये भी राजसी प्रवृत्ति में लिप्त होना ही होता है।
            पहले तो हम लोकतंत्र की बात करें जिसमें जिस तरह चुनाव उसका भाग होते हैं। इसी लोकतंत्र में जहां जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकार बनाते है तो ऐसे लोग भी होते है जो अपनी मांगों के लिये आंदोलन चलाते हैं।  यह चुनाव और आंदोलन दोनों ही आज की लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का भाग हैं। अन्ना हजारे स्वयं सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर उनकी छवि राजसी कर्मों में श्रेष्ठता के कारण है।  अन्ना हजारे साहब का आंदोलन अब दो भागों में बंट गया है एक चुनाव की तरफ आया तो दूसरा आंदोलन को ही देश के बदलाव का मार्ग मानकर वहीं डटा है।  जहां प्रजा हित का प्रश्न हो वहां राजा को छल कपट, धोखा तथा राजनीतिक स्वार्थपरायणता के लिये तत्पर रहना चाहिये यह राजनीति शास्त्र कहता है।  सात्विक मनुष्य चूंकि यह काम नहीं कर सकते इसलिये ही राज्यकर्म से दूर ही रहते हैं।  अगर राजसी कर्म में कोई श्रेष्ठ व्यक्ति हो तो वह सात्विक से कम नहीं होता मगर शर्त यह है कि उसे अपने काम की प्रकृत्ति का ज्ञान होना चाहिये।  राजसी कर्म करते समय श्रेष्ठ करते समय सात्विक दिखना तो चाहिये पर उससे दूर होना ही लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकता है।
            अन्ना से अलग हुए लोगों ने चुनाव के क्षेत्र में कदम रखा है। उन्हें सफलता तो मिली है पर वह स्थाई नहीं हो सकती।  आंदोलन चलाना और सरकार चलाने में अंतर होता है। आंदोलन दमदार हो तो सरकार को झुकना पड़ता है पर अगर सरकार दमदार हो तो आंदोलन की हवा भी निकाल सकती है। एक बात तय रही कि राजसी कर्म स्वार्थ से परे नहीं हो सकते। दूसरी बात यह कि राजसी कर्म करते हुए अगर किसी ने अपने लिये संपन्नता नहीं अर्जित की तो उसे समाज बड़ी दयनीय दृष्टि से देखता है।  अन्ना हजारे के चंद भक्त उनसे अलग होकर चुनाव के माध्यम से समाज में बदलाव का जो लक्ष्य सामने रख रहे हैं उनकी नीयत पर हमें संदेह नहीं है पर मुख्य बात यह है कि उनके अनुयायी भी उनकी तरह ही होंगे इस पर संदेह है। कुछ समय के लिये उनको युवाओं का उत्साही वर्ग अवश्य मिल जाये पर कालांतर में राज्य सुख उनको वैसा ही ईमानदार बने रहने देगा इसमें संदेह है जैसा कि प्रारंभ में होंगे।  बहरहाल अभी तो यह कहना कठिन है कि अन्ना हजारे के उनसे अलग हुए पुराने भक्त कि चुनाव के माध्यम से समाज में कितना बदलाव ला पायेंगे पर एक बात तय है कि उन्होंने भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा देने का प्रयास तो किया है। आगे देखें क्या होता है। 


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Monday, December 2, 2013

इस संसार में सभी लोग एक जैसे नहीं होते-हिन्दी चिंत्तन लेख(is sansar mein sabhi log ek jaise nahin hote-hindi chinntan lekh)



                        अभी हाल ही में कुछ प्रसिद्ध लोगों के यौन प्रकरणों तथा बलात्कार के आरोपों पर भारतीय प्रचार माध्यमों ने इतना शोर मचाया है जैसे लगता है कि यहां इस देश में बस केवल यही हो रहा है।  टीवी चैनलों पर जमकर बहसें हो रही हैं।  पुरुषों की मानसिकता पर तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं। कुछ महिला विद्वान तो यह मानने को ही तैयार ही नहीं है कि कोई भला आदमी इस संसार में भी हो सकता है।  बड़े शहरों में रहने वाली इन महिला विद्वानों  पर प्रगतिशील तथा जनवादी विचाराधाराओं का ऐसा प्रभाव है कि उन्हें भारतीय अध्यात्म के संदर्भों का ज्ञान देना ही बेकार है। भारतीय अध्यात्म में इस संबंध में अनेक प्रकार की बातें कही गयी है।
            सच बात तो यह है कि कोई पुरुष बलात्कार के आरोपों से घिरता है तो उसे अत्यंत निकृष्ट माना जाता है। यहां तक कि अपराध जगत के लोग भी इसे घिनौना आरोप मानते हैं। कुछ लोग बताते हैं कि जेलों में चोर तथा बलात्कार के आरोपियों को अन्य कैदी अत्यंत कमजोर मानते हुए उनका उपहास उड़ाते हैं।  टीवी पर जब बहस होती है तो ऐसा लगता है कि जैसे हर पुरुष मौका पड़ने पर यौन दुराचार के लिये तैयार हो जाता है। यह भ्रम है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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वैराग्ये सञ्चरत्येको नीतौ भ्रमति चापरः।
श्रृङ्गरे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में सभी लोग एक जैसे नहंी है। सभी की रीति नीति प्रथक प्रथक हैं। कोई वैराग्य में रत है तो कोई नीतिशास्त्र के अनुसार जीवन जीता है तो कोई काम के अधीन होकर श्रृंगार रस में डूबा रहता है।
            आजकल खुली बाज़ार व्यवस्था ने जहां कथित रूप से जिस विकास का दावा किया जाता है वही ऐसे अपराधों की जननी भी है जिनकी कल्पना आज से कुछ वर्ष पूर्व तक नहीं की जाती थी।  अपराध विशेषज्ञों के अनुसार महिलाओं के प्रति अपराध आमतौर से उनके निकटस्थ लोग ही करते हैं। इस तथ्य पर कोई महिला विद्वान ध्यान नहीं देती और बिना वजह पुरुषवादी मानसिकता को कोसती हैं।  इस संसार में सभी प्रकार के लोग हैं।  यह अलग बात है कि कुछ अपराधिक घटनायें समाज में सनसनी फैलाती हैं पर यहां यह भी याद रखने लायक हैं कि देश की बढ़ती आबादी में बेरोजगारी, महंगाई तथा असुरक्षा के वातावरण में यौन अपराधों का बढ़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।  लोग कड़े कानून बनाने की मांग तो करते हैं पर उसे लागू करने वाली व्यवस्था पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जबकि अगर हम देखें तो समस्या यह नहीं है कि कानून कड़े नहीं है वरन् कहीं न कहीं हम ऐसी व्यवस्था को अपनाये हैं जो उस ढंग से काम नहीं कर पा रही जैसी की हम अपेक्षा करते है।



लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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