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Tuesday, December 29, 2009

नववर्ष के दिन-हिन्दी शायरी (hindi shayri on new year first day)

एक वर्ष में दो बार उसके आने का स्वागत करते दिखेंगे।

पहले ईसवी फिर विक्रम संवत् पर जश्न मनते दिखेंगे।

बस एक दिन नयी सोच का वादा,

नये सपनों के साथ जीने का इरादा,

फिर पुरानी राह पर कदम बढ़ते दिखेंगे।

बाजार के सौदागर पुराने जज़्बातों को

रोज नया सजाकर दिखाते हैं,

एक दिन में सब हवा हो जाते हैं,

नये के साथ पुराने सामान भी बिकेंगे।

देर रात को सोकर दोपहर में उठने वाला

क्या जाने हर पल नया होता है,

जब करना है सुबह की बेला में ताज़गी का अहसास

उस समय वह नींद में सोता है

क्यों नहीं पुरानेपन से घबड़ाये लोग

नये वर्ष में ताजगी लेने के लिये

हुजूम में जुटेंगे,

दुःख से नहीं बल्कि खुशी से लुटेंगे,

बाजार के कलमकार भी

पुराने अहसासों को नये शब्दों में लिखेंगे।

पूरे वर्ष ताजगी और चैन की चाहत लिये लोग

एक दिन में पुराने होते दिखेंगे।



कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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Tuesday, December 22, 2009

अध्यात्म और अर्थशास्त्र-हिन्दी लेख (hindu adhyatm and life's economics-hindi article)

आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन कर ही आर्थिक नीतियां बनायी जानी चाहिये। वैसे अर्थशास्त्र के अनुसार पागलों और सन्यासियों को छोड़कर सभी के क्रियाकलापों का ही अध्ययन किया जाता है । हालांकि इस बात का कहीं उल्लेख तो नहीं मिलता पर आधुनिक अर्थशास्त्र में संभवतः अध्यात्मिक ग्रंथों का उल्लेख नहीं किया जाता। अध्यात्म उस जीवात्मा का नाम है जो इस देह को धारण करती है और जब इस उसकी चेतना के साथ मनुष्य काम करता है तो उसकी गतिविधियां बहुत पवित्र हो जाती हैं जो अंततः उसकी तथा समाज की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करती है। इस देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार तीनों प्रकृतियां स्वाभाविक रूप से अपना काम करती हैं और मनुष्य को अपने अध्यात्म से अपरिचित रखती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र उससे अपरिचित लगता है।
वैसे ही आज के सारे अर्थशास्त्री केवल बाजार, उत्पादन तथा अन्य आर्थिक समीकरणों के अलावा अन्य किसी पर तथ्य पर विचार व्यक्त नहीं कर पाते। कम कम से प्रचार माध्यमों में चर्चा के लिये आने वाले अनेक अर्थशास्त्रियों की बातों से से तो ऐसा ही लगता है। कहीं शेयर बाजार, महंगाई या राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषय पर चर्चा होती है तो कथित रूप से अर्थशास्त्री सीमित वैचारिक आधार के साथ अपना विचार व्यक्त करते हैं जिसमें अध्यात्म तो दूर की बात अन्य विषयों से भी वह अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये कि अध्यात्मिक ज्ञान का कोई आर्थिक आधार नहीं है तो भी आज के अनेक अर्थशास्त्री अन्य राजनीतिक, प्रशासनिक तथा प्रबंधकीय तत्वों को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, तथा खाद्य सामग्री की कमी के पीछे जो बाजार को प्रभावित करने वाले नीतिगत, प्राकृतिक भौगोलिक विषयों के अलावा अन्य कारण है उनको नहीं दिखाई देते हैं।

हम यहां आधुनिक अर्थशास्त्र की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित उन प्राचीन अर्थशास्त्रीय सामग्रियों का संकलित करने का आग्रह कर रहे हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो नाम से ही प्रमाणिक है जबकि चाणक्य नीति में भी आर्थिक विषयों के साथ जीवन मूल्यों की ऐसी व्याख्या है जिससे उसे भी जीवन का अर्थशास्त्र ही कहा जाना चाहिये- आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार भी नैतिक शास्त्र का अध्ययन तो किया ही जाना चाहिये जिनको जीवन मूल्य शास्त्र भी कहा जाता है। आज की परिस्थतियों में यही नैतिक मूल्य अगर काम करें तो देश की अर्थव्यवस्था का स्वरूप एक ऐसा आदर्श सकता है जिससे अन्य राष्ट्र भी प्रेरणा ले सकते हैं।
आधुनिक अर्थशास्त्री अपने अध्ययनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘कुशल प्रबंध का अभाव’ एक बहुत बड़ा दोष मानते हैं। देश के कल्याण और विकास के लिये दावा करने वाले शिखर पुरुष नित्य प्रतिदिन नये नये दावे करने के साथ ही प्रस्ताव प्रस्तुंत करते हैं पर इस ‘कुशल प्रबंध के अभाव के दोष का निराकरण करने की बात कोई नहीं करता। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही इस दोष का परिणाम है या इसके कारण प्रबंध का अभाव है यह अलग से चर्चा का विषय है। अलबत्ता लोगों को अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे होने के कारण लोगों में समाज के प्रति जवाबदेही की कमी हमेशा परिलक्षित होती है।
हम चाहें तो जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों की कार्यपद्धति को देख सकते हैं। छोटा हो या बड़ा हो यह बहस का विषय नहीं है। इतना तय है कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और लापरवाही से काम करने की प्रवृत्ति सभी में है। देश में फैला आतंकवाद जितना बाहर से आश्रय से प्रत्यक्ष आसरा ले रहा है तो देश में व्याप्त कुप्रबंध भी उसका कोई छोटा सहयोगी नहीं है। हर बड़ा पदासीन केवल हुक्म का इक्का बनना चाहता है जमीन पर काम करने वालों की उनको परवाह नहीं है। उद्योग और पूंजी ढांचों के स्वामी की दृष्टि में उनके मातहत ऐसे सेवक हैं जिनको केवल हुक्म देकर काम चलाया जा सकता है। दूसरी भाषा में कहें तो अकुशल या शारीरिक श्रम को करना निम्न श्रेणी का काम मान लिया गया है। हमारी श्रीमद्भागवत गीता इस प्रवृत्ति दसे खारिज करती है। उसके अनुसार अकुशल या शारीरिक श्रम को कभी हेय नहीं समझना चाहिये। संभव है कुछ लोगों को श्रीगीता की यह बात अर्थशास्त्र का विषय न लगे पर नैतिक और राष्ट्रीय आधारों पर विचार करें तो केवल हुक्म देकर जिम्मेदारी पूरी करवाने तथा हुक्म लेकर उस कार्य को करने वालों के बीच जो अहं की दीवार है वह अनेक अवसर परसाफ दिखाई देती है। किसी बड़े हादसे या योजनाओं की विफलता में इसकी अनुभूति की जा सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि उनका काम केवल हुक्म देना है और उसके बाद उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है मगर वह कार्य को अंजाम देने वालो लोगों की स्थिति तथा मनोदशा का विचार नहीं करते जबकि यह उनका दायित्व होता है। इसके अलावा किसी खास कार्य को संपन्न करने के लिये उसकी तैयारी तथा उसे अन्य जुड़े मसलों से किस तरह सहायता ली जा सकती है इस पर योजना बनाने के लिये जिस बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता है वह शायद ही किसी में दिखाई देती है। सभी लोग केवल इस प्रयास में है कि यथास्थिति बनी रहे और इस भाव ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति पैदा कर दी है।
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि केवल आर्थिक विकास ही जीवन की ऊंचाई का प्रमाण नहीं है वरन् स्वास्थ्य, शिक्षा तथा वैचारिक विकास भी उसका एक हिस्सा है जिसमें अध्यात्मिक ज्ञान की बहुत जरूरत होती है। इससे परे होकर विकास करने का परिणाम हमारे सामने है। जैसे जैसे लोगों के पास धन की प्रचुरता बढ़ रही है वैसे वैसे उनका नैतिक आधार सिकुड़ता जा रहा है।
ऐसे में लगता है कि कि हम पश्चात्य समाज पर आधारित अर्थशास्त्र की बजाय अपने ही आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित सामग्री का अध्ययन करें। पाश्चात्य अर्थशास्त्र
वहां के समाजों पर आधारित जो अब हमारे ही देश के अध्यात्मिक ज्ञान पर अनुसंधान कर रहे हैं। यहां यह भी याद रखने लायक है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन केवल भगवान भक्ति तक ही सीमित नहीं है और न ही वह हमें जीवन देने वाली उस शक्ति के आगे हाथ फैलाकर मांगने की प्रेरणा देता है बल्कि उसमें इस देह के साथ स्वयं के साथ ही परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिये अच्छे और बड़े काम करने की प्रेरणा भी है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, December 12, 2009

तयशुदा शब्दिक कुश्तियां-हिन्दी व्यंग्य साहित्य कविता (tayshuda shabdik kushti-hindi vyangya kavita)

अखबार और चलचित्र वालों ने

कुछ चमकदार चेहरे तय

कर लिये हैं

जिनको वह सजाते हैं।

कुछ मशहूर नामों को

रट लिया है

जिनको अपने शब्दों में सजाते हैं।

मशहुर हस्तियों में मुख से निकले

या हाथ से लिखे बयान

ही पाते सुर्खियों में जगह

आम इंसान को खास से छोटा

समझने के संदेश

बड़ी खबर बन जाते हैं।


बाजार चलाता है प्रचारतंत्र

या वह बाजार को

हम समझ नहीं पाते हैं।

अल्बत्ता बड़े लोगों की की

तयशुदा शब्दिक कुश्तियों को देखकर

कभी कभी  हम भी

गलती से सच समझ जाते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, December 7, 2009

निर्जीव वस्तु के लिये शोक-हिन्दी व्यंग्य (bejan vastu ke liey shok-hindi vyangya)

आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’


अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
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