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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, July 16, 2018

राजकोष लूटकर उपहार करते प्रदान-दीपकबापूवाणी (rajkosh lootkar dete upahar-DeepakBapuWani)

इंद्रदेव की करें स्तुति तो बरसात हो, डूबते सूरज को भी नमन करें तब शुभरात हो।
‘दीपकबापू’ व्यर्थ लिखी चांद पर शायरी, पानी ऊर्जा देने की जिससे न कभी बात हो।।
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वक्ता की छवि जिनकी शब्द उनके अर्थहीन, भीड़ लगाते पर अकेले में होते दीन।
‘दीपकबापू’ सीना फुलाकर हमेशा गरजते रहे, सजाकर नक्कारखाना बजाते बीन।।
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राजकोष लूटकर उपहार करते प्रदान, कमाये बिना किये जा रहे भीड़ में दान।
‘दीपकबापू’ शास्त्र जाने बिना बनते राजसेवक, डंडधारी साथ लेकर बचाते जाने।।
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कामना न जाने साधु संत सन्यासी, न पूरी हो तब भी पकड़े हो जाये चाहे बासी।
‘दीपकबापू’ त्यागी का रूप धरे घूम रहे, सिर पर चढ़ी माया बताते उसे दासी।।
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अपने दर्द में सब फंसे किसे बेदर्द कहें, बीमारी संग दवा का निभाना कब तक सहें।
‘दीपकबापू’ जिंदा समाज का भ्रम पालते, जिसकी सांसे महंगे इलाज में बहती रहें।।
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दागदार सभी किस पर कैसे भरोसा करें, सत्य के सभी शत्रू किसे क्यों कोसा करें।
‘दीपकबापू’ मिलावटी पदार्थ खायें हर समय, लोग कैसे अंदर शुद्धता पालापोसा करें।।
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गंदगी के ढेर छिपाकर विकास का रूप बतायें, रेत पर खड़ी हरियाली जलायें।
‘दीपकबापू’ बरसों से देख रहे स्वयंभू देवता, न रौशनी करें न जलधारा लायें।।
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Wednesday, June 27, 2018

कठपुतली के खेल पर चलता अब जनतंत्र-(kathputali ke khel par chalata ab Jantantra-DeepakBapuWani0

रोटी की तलाश करें धूप में उनका बसेरा, महलवासी कहें मुफ्त में जमीन को घेरा।
‘दीपकबापू’ परायी करतूतों पर नज़र डालते, अपने काले कारनामें से सभी ने मुंह फेरा।।
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कत्ल हुई लाशों पर जमकर रोते हैं, फिर कातिलों के हक का बोझ भी ढोते हैं।
‘कहें दीपकबापू’ हमदर्दी के सौदे में कमाते, वही बीमारी के साथ दवा भी बोते हैं।।
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वादे लुटाते दिल खोलकर पूरे कौन करे, खाली मटके में पानी शब्द बोलकर कौन भरे।
‘दीपकबापू’ मजबूर बंधक राजपद संभालें, विज्ञापन में वंदना बजे अक्लमंद मौन धरे।।
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ज़माने पर राज का अहंकार कौन छोड़ पाया, गैर दर्द पर हंसना कौन छोड़ पाया।
‘दीपकबापू’ सभी जीवों से ज्यादा अक्ल पाई, फिर भी अहंकार कौन छोड़ पाया।।
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कठपुतली के खेल पर चलता अब जनतंत्र, मांस के बुत पढ़ रहे अभिव्यक्ति मंत्र।
‘दीपकबापू’ धन बल से जीत लेते जनमत, पांच बरस भोगते चलाते राज्य यंत्र।।
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चिराग जलाते और मोर पंख हिलाते, सर्वशक्तिमान को अपनी शक्ति से हिलाते।
सड़क पर थामें भिन्न भिन्न रंग के झंडे, ‘दीपकबापू’ बाहर लड़ें अंदर हाथ मिलाते।।

Tuesday, June 19, 2018

शराबियों का भी बहुत नाम होता है-दीपकबापूवाणी (sharabiyon ka Bhi bahut nam nai-DeepakBapuwani)

अच्छी सोच के लिये अच्छा देखना है जरूरी, चलों जहां श्रृंगार से सजी सभा पूरी।
‘दीपकबापू’ बोतल का जिन्न बना न साथी, मयखानों में इलाज की आस रही अधूरी।।
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दिल चाहे औकात से ज्यादा पाने की, दिमाग सोचे ताकत से ज्यादा जाने की।
‘दीपकबापू’ भटक रहे अपनी ख्वाहिशें, खरीददारी जेब में रखे ज्यादा आने की।।
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शराबियों का भी बहुत नाम होता है, उनकी आसक्ति में भक्ति का काम होता है।
‘दीपकबापू’ हर कतरे पर नाम लिखा, शराब से मिला जल ग्लास में जाम होता है।।
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बिछड़े इंसान याद में रहें कई बरस, गुजरे पल फिर मिलने की सोच में रहे तरस।
‘दीपकबापू’ गुरुओं की शरण ने भुलाया नाम, अच्छा हो राम जपें दिल हो सरस।।
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जंग के लिये अपना सीना फुलायें हैं, कब होगी तारीख सबके सामने भुलाये हैं।
दीपकबापू शस्त्र विक्रताअें से निभाते दोस्ती, जनमानस को देशभक्ति में सुलायें हैं।।
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मुंह से दहाड़ कर बन रहे हैं शेर, कर्म के नाम पर लगा रहे शून्य के ढेर।
‘दीपकबापू’ पेड़ के नीचे करें शयनासन, पेट भरे तभी जब हवायें गिरातीं बेर।।
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Friday, June 1, 2018

मन में धन बसा मुख मे सजी भक्ति-दीपकबापूवाणी (Man mein Dhan bas mukh mein saji Bhakti-DeepakBapuWani)

जल का बोझ लादे बादल वर्षा लाते, गर्मी से तपते पेड़ बिना शुल्क आनद पाते।
‘दीपकबापू’ जनसेवा में बनाने लगे महल, बांट रहे कल्याण भारी शुल्क बनाते।।
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जिंदगी में चाहतें कभी पूरी नहीं होती, लालच में जलते पर आसं पूरी नहीं होती।
‘दीपकबापू’ हर सामान पर नज़रें लगाते, जरुरतें कभी खास पूरी नहीं होती।।
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मन में धन बसा मुख मे सजी भक्ति, दयावान बनने के लिये मांग रहे शक्ति।
‘दीपकबापू’ अध्यात्मिक यात्रा में बितायें बरसों, छोड़ न पाये विषयो में आसक्ति।।
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भरोसा किस पर करें शक के दायरे में सब, कौन वफा के नाम करे गद्दारी कब।
‘दीपकबापू’ दोस्तों की फेहरिस्त बड़ी है, पर अभी तक निभा रहा अपना ही रब।।
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थाली में जो मिला खुशी से खालो यार, मिलती नहीं घी में डूबी रोटी हर बार।
‘दीपकबापू’ सुख स्वाद में जिंदगी गुजारते, जुबान से करें सब पर शब्द से वार।।
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सेवक नाम बताकर राजा जैसे चलते, धंधे जैसे राज चलायें साथ परिवार पलते।
‘दीपकबापू’ बचपन में सिंहासन मिले, सदाबहार जवान रहें बुढ़ापे में नहीं ढलते।।
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विकास का मंत्र महंगाई बढ़ना बताते, सबका भला करने के बहाने सबको सताते।
‘दीपकबापू’ बड़ा लंगर चलाने का दावा, खाली सजी थालियां पक्का प्रमाण जताते।।
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तस्वीर में आना हर चेहरे की है चाहत, हर कोई अनाम रहने से है आहत।
‘दीपकबापू‘ अंदर कर लेते अपनी तलाश, उन्हें जिंदगी में अमन की है राहत।।
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Wednesday, May 23, 2018

हुकुम अब नाकाबिलों के हाथ है-दीपकबापूवाणी (Hukum naklabion ke haath hai-DeepakBapuWani)


पद पैसे का बल सबकी गर्दन तनी है,
गोया दुनियां उनके साथ ही बनी है।
कहें दीपकबापू बंदे बहुत कम मिले
जिनकी वाणी ज्ञान में घनी है।
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न घर न दिल की गदगी हटायें,
स्वर्ग की चिंता में उम्र घटायें।
कहें दीपकबापू भक्ति का पाखंड
सोच यह कि धन के सौदे पटायें।
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रास्ते में कहीं धूप कहीं छांव,
साथी उदासी शहर हो या गांव।
कहें दीपकबापू क्यों बेजार दिल
जब चल रहे अपने ही दम पांव।
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हुकुम अब नाकाबिलों के हाथ है,
रहम अब बेदर्दों के साथ है।
कहें दीपकबापू करुण रस सूखा
उम्मीद भी पत्थर दिलों के हाथ है।
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भूख का दौर बार बार क्यों आता है,
रोटी का चेहरा इतना क्यों भाता है।
कहें दीपकबापू देने वाले राम
इंसान को चिंतायें क्यों गाता है।
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Wednesday, May 9, 2018

कौन भला जिस पर दाग नहीं-दीपकबापूवाणी (Kaun Bhala Jis par Daag nahin hai-DeepakBapuWani)


शिष्यों के मार्गदर्शक स्वयं भटके हैं,
गुरू कहलायें बंधनों में अटके हैं।
कहें दीपकबापू भक्त हैं कि नर्तक,
चीखों के साथ हाथ पांव पटके हैं।
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मन में ताप सड़क पर घूप है,
पांव जल रहे नीचे अग्नि कूप है।
कहें दीपकबापू रहो भक्तिलीन
धरा कभी मां कभी प्रलय रूप है।
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अब राजा वही जो झूठ बोले,
राजस्व लूट को छूट जैसे तोले।
कहें दीपकबापू लोकतंत्र है जनाब
जीते वही जो एकता में फूट घोले।।
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कौन भला जिस पर दाग नहीं,
कौन ज्ञानी जिसमें रोग नहीं।
कहें दीपकबापू सत्संगी बहुंत
कौन जिसमें लोभ की आग नहीं।
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सब कर रहे तरक्की के दावे,
पाले बाहुबली होने के छलावे।
कहें दीपकबापू धरा में है ऊर्जा
सबके घर स्वतः रोशनी आवे।
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Saturday, March 17, 2018

भूख से ज्यादा रोटी पकाने में हैं अटके-दीपकबापूवाणी (Bhookh se Jyada roti Pakane mein Atake-DeepakbapuWani)



जहां पेड़ पर पत्ते थे वहां लोहे के जंगलें लगे हैं, दीवाने दिल अब परायेपन के सगे हैं।
‘दीपकबापू’ दौलत की चमक से चक्षु दृष्टिहीन हुए, चालाक उनसे पूरी रौशनी ठगे हैं।।
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भूख से ज्यादा रोटी पकाने में हैं अटके, पांव से ज्यादा सिर के बाल हैं झटके।
‘दीपकबापू’ पैसा और पद पाकर हुए अंधे, नीचे गिरने के भय से ऊपर हैं अटके।।
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सत्ता के घोड़े पर सवार सभी पवित्र होते, भ्रष्टाचार रस में जो नहाये वही इत्र होते।
‘दीपकबापू’ राजधर्म निभा रहे कातिल बाज़ बड़े पाखंडी ही अब सच्चे जनमित्र होते।।
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दावे बहुत कातें राज करना आता नहीं, शास्त्र रटेते पर काज करना आता नहीं।
‘दीपकबापू’ सीना फुलाकर घूम रहे शहर में, ताकत पर नाज करना आता नहीं।।
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इष्ट जैसे ही भक्त भी हो जाते, गुण दोष न जाने पूजा में खो जाते।
‘दीपकबापू’ तस्वीरों के वादों पर फिदा, नारेबाजी का बोझ ढो जाते।।
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बाग़ के मीठे फल रखवाले स्वयं खायें, मालिक के मुंह कड़वा स्वाद चखायें।
‘दीपकबापू’ कलियुग का साथी लोकतंत्र, प्रजा का माल राजा अपना बखायें।।
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Sunday, March 4, 2018

राजाओं के खेल में प्रजा बनती खिलौना-दीपकबापूवाणी (RAJAON KE KHEL MEIN PRAJ BANTI KHILONA-DEEPAKBAPUWANI)

वह बड़े दिखते क्योंकि आंखों से परे हैं, प्रचार के नायक मानो सिर पर बोझ धरे हैं।
‘दीपकबापू’ विज्ञापनों से भ्रमित हो जाते, वीर पद पर विराजे लोग तो रोगों से भरे हैं।।
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पर्दे के नायकों के घर भी मन रहता है, नकली हंसी आंसुओ से वहां धन बहता है।
‘दीपकबापू’ अपने अंदर नहीं झांकते कभी, परायी अदाओं पर वाह हर जन कहता है।।
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भीड़ बहुत दिखती फिर भी होता सन्नाटा, चीखती आवाजों को खामोशी से पाटा।
दीपकबापू स्वार्थियों से खरीद लेते परोपकार, जिनके सौदे में कभी नहीं होता घाटा।।
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विकास क्रम में मंगल पर हम पहुंच गये, धरती पर खोद डालते गड्ढे रोज नये।
‘दीपकबापू’ रुपये का मोल गिराते जा रहे, डॉलर की आशिकी में बर्बाद हो गये।।
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राजाओं के खेल में प्रजा बनती खिलौना, तख्त पर बैठ चरित्र का हो जो बौना।
‘दीपकबापू’ घर का आश्रम मन ही मंदिर बनाते, लगाते तख्ती हम बाबा मौना।।
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शोर के बीच मजा तलाशते हुए लोग, बाहर ढूंढते दवा अंदर स्वयं पालते रोग।
‘दीपकबापू’ त्यागी ढूंढते दरबार में जाकर, जहां पाखंडी सजाते नये भिन्न भोग।।
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गैर को पापी कहकर स्वयं धर्म धारा में बहें, अपने स्वार्थ का काम परमार्थ कहें।
भीड़ में शोर मचाकर ले रहे नाम, ‘दीपकबापू’ सोने से र्घर भरकर उदासीन रहें।।
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अच्छे दिन की प्रतीक्षा में सब जन खड़े, चढ़ना है बस वादों के पहाड़ बड़े बड़े।
‘दीपकबापू’ आंखें खोलकर इधर उधर देखते, सपनों के घर बेबसी के ताले जड़े।।
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Thursday, February 22, 2018

खजाना लूटकर लेते दुनियां का मजा-दीपकबापूवाणी (Khazana lootkar lete duniyab ka Maza-DeepakBapuWani)

राजकाज में व्यस्त दौलत के दलाल, पाखंड पर नहीं करते कभी मलाल।
‘दीपकबापू’ भलाई की दुकान खोले बैठे, बेचते हमदर्दी की छाप में बवाल।।
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जनधन लूटकर साहूकार भी बड़े हो गये, सरकार के कदम उनके द्वार खड़े हो गये।
‘दीपकबापू’ सत्ता की दलाली में हाथ सभी के काले, लुटेरे भी सेठ जैसे बड़े हो गये।।
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खजाना लूटकर लेते दुनियां का मजा, सब मिल बांटकर खाते कौन देगा सजा।
‘दीपकबापू’ तिजोरी से लूटे सोने के सिक्के, पहरेदारों के कान में घंटा देर से बजा।।
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न सत्संग किया न कभी ध्यान लगाया, पढ़ किताब बाज़ार मे चेलों का मेला लगाया।
‘दीपकबापू’ ज्ञान की बातें सब जगह करें, जोगी ने अपना मन माया संग्रह में लगाया।।


इंसानी नाम के साथ काम भी बोले, कभी काम भी बुरे नाम का खाता खोले।
‘दीपकबापू’ अपने नाम पर इतराने से डरें, जिंदगी कभी नीचे कभी ऊपर डोले।।
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ताज पहनते ही हर सिर पर घमंड चढ़े, इंसान दिखना चाहते फिर भगवान से बढ़े।
‘दीपकबापू’ दरबार की जुबान पर नहीं करें भरोसा, चाटुकारों जहां लालच से खड़े।।
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Thursday, January 25, 2018

नैतिकता की बात कर छिपाते अपने पाप-दीपकबापूवाणी (Naitika ki bat ka chhipate apna paap-DepakBapuwani)


भ्रष्टाचार में डूबे भलाई की बात करें, भुखमरी पर रोयें अपने मुख में मलाई साथ भरें।
‘दीपकबापू’ पांच साल में एक बार हाथ जोड़ते, फिर तो आमजन के सिर लात धरें।।
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नैतिकता की बात कर छिपाते अपने पाप, ज़माने के भ्रष्टाचार का करें विज्ञापन जाप।
‘दीपकबापू’ गणित पढ़ा समझा नहीं गुणा भाग, सत्ता के दलाल बने इ्र्रमानदार छाप।।
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रुपहले पर्दे पर जंग का समाचार सजा, कभी कभी धर्म संदेश का बाजा भी बजा।
‘दीपकबापू’ खौफ और इश्क से दूर रहते, वह लोग जिनके पास अंदर ही है मजा।।
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पहरेदारों के सामने जिंदा लोग लापता हो जाते, ज़माने के सामने फिर मुर्दा हो जाते।
‘दीपकबापू’ हथियार में डालते कातिल जज़्बात, कायर हाथ में लेकर बहादुर हो जाते।
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दोवास में  व्यापार का ढोल बजा है, दिल्ली में बाज़ार बंद दुकान से सजा है।
स्वदेश का जुमला भूल जाओ यारो, विदेशों में हमारे विकास का डंका बजा है।।
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मनोरंजन के नाम मरा इतिहास हैं पेले, महंगे भवन बन गये सभ्यता के ठेले।
‘दीपकबापू’ पढ़ते अपने अध्यात्मिक पावन ग्रंथ, नहीं भाते उनको ख्वाबी खेले।।
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