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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, June 30, 2008

तंग दायरों में मुरझा जाती काया-हिंदी शायरी

तिनका तिनका कर बनाया घर
पर वह भी कभी दिल में न बस सका
ख्वाहिशें लिये भटकता शहर-दर-शहर
दोपहर की जलती धूप हो शाम की छाया

कभी चैन नसीब न हो सका
चाहत है पाना कागज के टुकड़ों की माया
देखना है सोने से बनी काया
एक लोहे और लकड़ी की चीज आती
तो दूसरे के लिये मन ललचाया
कहीं देखकर आंखें ललचाती सुंदर कामिनी की काया
तन्हाई में जब होता है मन
तब भी ढूंढता है कुछ नया
जिसका ख्वाब भी नहीं आया
खुले आकाश में कोई देखे
रात के झिलमिलाते सितारे
चंद्रमा की चमक देखे
जो होती सूरज के सहारे
आंखों से ओझल होते हुए भी
कर जाता हमारी रौशनी का इंतजाम
नहीं मांगने आता है नाम
सदियों से वह यही करता आया
इसलिये देखकर हमेशा मुस्कराया

अनंत है कुछ पाने का मोह
जो अंधा बनाकर दौड़ाये जा रहा है
कहीं अंत नहीं आता इंसान की ख्वाहिशों का
जब तक है उसके पास काया
डूबते हुए भी नहीं छोड़ता माया
अपनों के इर्दगिर्द बनाये घेरे को दुनिया कहता
अस्ताचल में जाते हुए भी
जमाने से हमदर्दी नहीं होती
जब चमक रहा होता है तब भी
तंग दायरों मे रहते हुए मुरझा जाती उसकी काया
.......................................
दीपक भारतदीप

Sunday, June 29, 2008

प्यार है वह अहसास जो बस किया जाता है-हिंदी शायरी

यूं तुम अपने लिये
कुछ भी मांग लिया करो
सिवाय प्यार के
क्योंकि यह मांगने की नहीं
अहसास कराने की शय है
अगर होती किसी के लिये दिल में जगह कही
आंखों से जाहिर हो जाता है


जिनके दर्द से आंखों में आंसू आयें नहीं
जिनकी खुशी पर होंठ मुस्कराये नहीं
लफ्जों में चाहे कितनी भी जतायें

झूठी हमदर्दी का बयां जगजाहिर हो जाता है
किसी के दिल में लिखा कौन पढ़ पाया
लफ्जों के मतलब गहरे हैं या उथले
सुरों की धारा से पता चल जाता
चाहे जितनी भी कोशिश कर लो
जब तक दिल में है
प्यार को सलामत समझ लो
जो जुबां से निकला तो कभी कभी
वहां से भी बाहर हो जाता है
फिर लौटकर नहीं आता
अहसास भी बदन से निकल कर
बाहर बदहाल हो जाता है
प्यार है वह अहसास जो बस किया जाता है
........................................
दीपक भारतदीप

Saturday, June 28, 2008

अकेले में भी यादें खत्म कर देतीं एकांत-हिन्दी शायरी


जब याद आती है अकेले में किसी की
खत्म हो जाता है एकांत
जिन्हें भूलने की कोशिश करो
उतना ही मन होता क्लांत
धीमे-धीमे चलती शीतल पवन
लहराते हुए पेड़ के पतों से खिलता चमन
पर अकेलेपन की चाहत में
बैठे होते उसका आनंद जब
किसी का चेहरा मन में घुमड़ता
हो जाता अशांत

अकेले में मौसम का मजा लेने के लिये
मन ही मन किलकारियां भरने के लिये
आंखे बंद कर लेता हूं
बहुत कोशिश करता हूं
मन की आंखें बंद करने की
पर खुली रहतीं हैं वह हमेशा
कोई साथ होता तो अकेले होने की चाहत
अकेले में भी यादें खत्म कर देतीं एकांत
.................................
दीपक भारतदीप

Friday, June 27, 2008

इसलिए दुनिया रंगरंगीली कहलाती हैं-हिंदी शायरी



मेरी नाव डुबोने वाले बहुत हैं
पर उनकी याद कभी नहीं आती
मझधार में भंवर के बीच आकर जो
किनारे तक पहुंचा जाते
फिर नजर नहीं आते
ऐसे मित्रों की याद मुझे सताती

घाव करने के लिए इस जहां में बहुत हैं
जो बदन से रिसता लहू देखकर
जोर से मुस्कराते हैं
जिन्होंने घावों को सहलाया
जब तक दूर नहीं हुआ दर्द
अपना साथ निभाया
फिर ऐसे गायब हुए कि दिखाई न दिए
आँखें उनको देखने को तरस जाती हैं

इस जिन्दगी के खेल बहुत हैं
नाखुश लोगों से दूर नहीं जाने देती
जो तसल्ली देते हैं
उनको आँखों से दूर ले जाती है
शायद इसलिए दुनिया रंगरंगीली कहलाती हैं
-------------------------------
दीपक भारतदीप

Thursday, June 26, 2008

समय रहते होश में आओ-हिंदी शायरी

जिंदगी भर ख्वाहिशों की फसल बोते रहे
कुछ पर फल लगे, बाकी पर उम्मीद ढोते रहे
प्यार के लिये की खाली पलों की तलाश
पर हिसाब किताब में जिंदगी खोते रहे
खुशियां किसी पेड़ पर नहीं उगा सके
जिस दिल में रहती हैं उसे जगा नहीं सके
जुबान जो बात कह सकती हैं लफ्जों में
उसको समझाने के लिये दौलत के
आंकड़ों का बनाया जाल
जिसमें फंसकर बस रोते रहे
कहें महाकवि दीपक बापू
बरसता है पानी तभी होती है फसल
लहलहाते खेत जब मेहनत होती असल
नीयत बूरी हो तो खेल बिगड़ जाते
मतलब अपने हमेशा नहीं निकल पाते
प्यार पाने से पहले करना जरूरी है
समय रहते होश में आ जाओ
नहीं तो फिर आयेगा एक दिन वह जब
कहोगे हम अपनी जिंदगी बिना चैन के ढोते रहे
.................................

दीपक भारतदीप

Sunday, June 22, 2008

खामोशी तब दर्द का इलाज हो जाती है-हिन्दी शायरी

जुबान कभी नहीं बोलती
तब खामोशी बहुत कुछ कह जाती है
शब्दों का दिल से बाहर आना
बेकार लगता है
तब आखें दर्द दिखा जातीं है
जब लोग भीड़ में चिल्ला रहे हों
अकेले में भी अपनी जुबान से इठला रहे हों
तब खामोशी से दोस्ती कर लो
वही दर्द का इलाज हो जाती है
................................
दीपक भारतदीप

Saturday, June 21, 2008

एक बेसिर पैर की हास्य कविता

अंतर्जाल पर लिखने वाले
चिट्ठाकार अपनी तुलना करने लगते श्वान से
बिल्ली से करते क्यों शरमाते
प्रतिदिन नजरें गढ़ाये रहते हैं
ब्लागवाणी पर हिट पाने के लिये
और कभी भद्र तो कभी अभद्र
नारे लिख आते
भला इसमें कहां श्वान के लक्षण नजर आते हैं
लिखने को भी भौंकना कैसे कह पाते
पता नहीं कौन शिक्षक और कौन शिष्य
सभी वाद पर वाद लाये जाते

कहैं महाकवि दीपक बापू
‘जब सभी अपने पर ही
लगा रहे उपाधियां
तो क्यों हम भी पीछे रह जायें
आज से हम भी अब स्वयं ही महाकवि हो जायें
यह चिट्ठाकार भी किस दुकान का
चिट्ठा लिख कर आते
दस पंक्ति लिख कर ही
जोरदार हिट पा जाते
उनक्र चिट्ठे और हमारी पत्रिकाओं के
चेहरे एक जैसे लगते
पर अंदर कविता हो या दुकान का हिसाब
रजिस्टर सभी एक जैसे फबते
हम लेखक और संपादक ठहरे
चिट्ठाकारों से बहुत डरते
लिखेंगे चंद शब्द और छा जायेंगे
हम कितना भी लिखें फ्लाप ही रह जायेंगे
हम तो समझाते क्यों कोसते हो अपने आपको
ढूंढ लो अपने अंदर भी प्रतिभा
तो हमारी तरह महाकवि बन जाओगे
ब्लागवाणी पर कम हिट होंगे
अपने ब्लाग का नाम भी अखबार में नहीं
देख पाओगे
पर हमारी तरह आम पाठकों में
हिट होते जाओगे
चिट्ठाकार से अंतर्जाल के प्रसिद्ध लेखक
बनते नजर आओगे
वाद और नारों पर देश चलता रहा है
इसलिये आज भी वहीं खड़ा है
गहन चिंतन नहीं करेंगे
हर विद्वान इसी पर अड़ा है
हम तो देते हैं मुफ्त में सलाह
शायद कभी हमें ब्लागवाणी पर जोरदार हिट मिल जायें
एक दिन तो हिट पायें
और फिर मित्रों में अपना रुतवा दिखायें
यहां तो फ्लाप होकर ही काम चलाते
अपने ऊपर ही कस कर फब्तियां
वाह-वाह की लगी तख्तियां
कितनी देर देंगी शक्तियां
पर चिट्ठाकारों की इस महफिल में
हम साहित्यकार कहां टिक पाते
फिर भी मित्र हैं हमारे
उनकी कुंठाओं पर हास्य कविता लिखकर उनको हंसाते
...................................
नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता है जो इस फ्लाप पत्रिका को हिट बनाने के लिये विशेष रूप से लिखी गयी है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई लेना देना नहीं है अगर किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

Thursday, June 19, 2008

पीकर जो कविता लिख जाते वह होते भाग्यशाली-हिन्दी शायरी


यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये

कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये

शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये

जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
...........................
दीपक भारतदीप

Monday, June 2, 2008

जब उतर जाता है शराब का नशा-व्यंग्य कविता

शराब के नशे में वादे
कर वह सुबह भूल जाते हैं
पूरे करने की बात कहो तो
याद करने के लिए बोतल
मांगने लग जाते हैं
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आदमी पीता है शराब
या आदमी को शराब
यह एक यक्ष प्रश्न है
जिसका नहीं ढूंढ पाया
कोई भी जवाब
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सिर पर चढ़ती शराब
आदमी को शेर बना देती है
दौड़ता है इधर उधर बेलगाम
काबू में नहीं रहती जुबान
उतरती चूहा बना देती है
घबडा जाता है आदमी
ढूंढता है छिपने की जगह
अपने ही हाथ में नहीं रहती
अपने दिमाग की कमान
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शराब में डूबकर अगर जिन्दगी के
सफर में पार हो जाते
तो फिर फिर झूठी क़समें और
वादों को इस दुनिया में कहाँ देख पाते

भ्रम का सिंहासन दिखाते हैं-व्यंग्य कविता





एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसार सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

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