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Monday, April 26, 2010

बेचते है जंग सौदे की तरह-हिन्दी शायरी (sale of war-hindi satire poem)

जिनके महल हैं ऊंचे,
कदम नहीं पड़ते धरती पर उनके
देशभक्ति का पाठ वही पढ़ाते हैं,
कभी खुद जंग में न लड़ें,
एक दिन के लिये आंसु बहायें
जब गरीब शहीद होकर मरें,
कभी खून न बहा जिनका
वह क्रांति का रास्ता दिखाते हैं।
बचाकर रखना खुद को गरीब इंसान
यहां बेचते हैं जंग सौदे की तरह,
लोगों के भले की बात यूं ही बताते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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Friday, April 23, 2010

विकास दर और मजदूर-हिन्दी शायरी (vikas dar aur mazdoor-hindi shayari)

चार मजदूर
रास्ते में ठेले पर सरिया लादे
गरमी की दोपहर
तेज धूप में चले जा रहे थे,
पसीने से नहा रहे थे।
ठेले पर नहीं थी पानी से भरी
कोई बोतल
याद आये मुझे अपने पुराने दिन
पर तब इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी
मेरी देह भी इसी तरह
धूप में जलती थी
पर फिर ख्याल आया
देश की बढ़ती विकास दर का
जिसकी खबर अखबार में पढ़ी थी,
जो शायद प्रचार के लिये जड़ी थी,
और अपने पसीने की बूंदों से नहाए
वह मजदूर अपने पैदों तले रौंदे जा रहे थे

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Friday, April 16, 2010

बेईमानी और ज़मीर-हिन्दी शायरी (beimani aur zamir-hindi shayri)

कोयले की दलाली में
हाथ भी काले हो जाते हैं,
पर सोने के सौदे में
हाथ सोने के कहां हो पाते हैं,
मगर समाज सेवा वह धंधा है
जिसमें आदमी ही सोने के हो जाते हैं।
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किसी ने सच कहा है कि
बेईमानी किये बिना
कोई अमीर नहीं बन सकता,
पर आजकल हर जगह चमक रहे अमीर
उनकी बेईमानी का जिक्र भी
कोई नहीं करता,
किसे दें दोष
झूठी अमीरी की तारीफें
गा रहा है पूरा ज़माना
बेईमानी से
इसलिये अब किसी का जमीर नहीं डरता।
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Sunday, April 11, 2010

अपने अरमानों का आसमान-हिन्दी शायरी (apne araman ka asman-hindi shayri)

उन पर क्या एतबार करें
जो यकीन की बाज़ार कीमत
लगाये जाते हैं,
वफादारी की कसमें खाते हैं रोज
पर किसी से निभाई हो
इसका सबूत नहीं देते
क्या वह रिश्ता निभायेंगे
प्यार और दोस्ती का
जो पहले अपनी जरूरत पूरी करने का
शोर मचाये जाते हैं।
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इस दुनियां में रिश्तों का
मतलब इतना ही रह गया है कि
खुद निभा सको तो निभाओ,
वरना अपने हों या गैर
सारे रिश्ते समय के साथ भूल जाओ।
अपने ऊपर बेवफाई का आरोप न आने देना
रिश्तों का नाम भी रहते लेना
मगर अरमानों का अपना आसमान
उनसे बहुत दूर लगाओ।
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Wednesday, April 7, 2010

मूल प्रश्न यह है कि हथियार आते कहां से हैं-हिन्दी लेख

दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़ में सुरक्षा कर्मियों की हत्या परे भारत के लोगों को जितना क्षोभ हुआ है उसका अंदाजा देश के बुद्धिजीवी और संगठित प्रचार माध्यम नहीं लगा पा रहे। कभी कभी तो इस लेखक को लगता है कि अपना दिमाग ही चल गया है या फिर देश के कथित बुद्धिजीवियों और संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय प्रसिद्ध विशेषज्ञों के पास अक्ल नाम की चीज नहीं है। यह सच है कि समाचार और उनके विश्लेषणों पर विचार करते हुए निष्पक्षता होना चाहिये पर समाज से अपनी प्रतिबद्धताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। व्यवस्था से असंतोष हो सकता है पर उसके लिये देश पर आए संकट पर निरपेक्ष होकर बैठा नहीं जा सकता-खासतौर से जब आप स्वयं दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करते हैं जिसमें किसी भी प्रकार के व्यवस्था के निर्माण या उसकी पुर्नसंरचना में आपकी भूमिका हर हाल में होती है।
हमारे देश के कथित बुद्धिजीवी हमेशा ही बीबीसी और सीएनएन जैसे प्रचार संगठनों की निष्पक्षता का बयान करते हुए नहंी अघाते पर क्या कभी उनको अपने राष्ट्र की प्रतिबद्धताओं से मुंह मोड़ते देखा गया है। जब भी अमेरिका या ब्रिटेन पर कोई आतंकवादी हमला होता है तब यह दोनों चैनल और उनके रेडियो कथित निष्पक्षता छोड़कर अपने देश का मनोबल बनाने में लग जाते हैं।

दंतेवाड़ा में अस्सी से अधिक सुरक्षाकर्मियों की हत्या के मामले पर देश के बुद्धिजीवियों और प्रचार माध्यमों का रवैया चौंकाने वाला है। इतनी बड़ी संख्या में तो चीन, पाकिस्तान और अमेरिका जैसे राष्ट्र मिलकर भारत से लड़ें तो भी मैदानी लड़ाई में इतने सैनिक नहीं मार सकते। जिन्हें भ्रष्टाचार या सामाजिक वैमनस्य के कारण भारत के कमजोर होने का शक है उन्हें यह भी समझ लेना चाहिये कि आज कोई भी देश इन समस्याओं से न मुक्त न होने के कारण इतना सक्षम नहीं है कि भारत को हरा सके इसलिये चूहों की तरह यहां कुतरने के लिये वह अपने गुर्गे भेजते हैं । देशों की सामरिक क्षमता की बड़ी बड़ी बातें करने से यहां कोई लाभ नहीं है। ऐसे में नक्सलीवादियों ने यह कारनामा किया तो उसे सिवाय छद्म युद्ध के अलावा दूसरा क्या माना जा सकता है? इतने सारे सुरक्षा कर्मी मरे वह इस देश के ही थे और उनके परिवारों का क्या होगा? इस पर बताने की आवश्यकता नहीं है।
भारत की एक कथित सामाजिक कार्यकर्ता तथा एक विदेशह पुरस्कार विजेता महिला लेखिका आए दिन इन नक्सलियों के समर्थन में बोलती रहती हैं। इसमें एक कथित सामाजिक कार्यकर्ता का बयान तो बेहद चिढ़ाने वाला था। अब यह लगने लगा है कि भारत के बाहर पुरस्कार प्राप्त करने वाले कलाकार, चित्रकार, लेखक तथा सामाजिक कार्यकर्ता पुरस्कृत इसलिये ही किये जाते हैं ताकि वहां रहकर भारत विरोधी बयान देते रहे हैं। इस पर तुर्रा यह कि यह पुरस्कार विजेता भी यहां अपने आपको विदेशी समझते हुए ऐसा बयान देते हैं जैसे कि उनके लिये यहां विदेश हैं। उस कथित सामाजिक कार्यकर्ता/नेत्री का बयान यह आया कि वह इस नक्सली हमले की वह निंदा करती हैं पर इसके लिये सरकार ग्रीन हंट अभियान जिम्मेदार है।’
इससे ज्यादा क्या शर्मनाक बात हो सकती है कि अपने ही देश के सुरक्षाकर्मियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने को आप वर्जित बताने लगते हैं। एक दूसरी मुश्किल यह है कि भारत के पं्रसिद्ध प्रचार माध्यम-टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं तथा रेडियो-वाले देश के मध्य केंद्र में बैठकर काम करते हैं वह उन क्षेत्रों में नहीं जाते जहां नक्सलवाद फैला है इसलिये उस क्षेत्र में काम करने वाले यह कथित कार्यकर्ता बयान देते हैं उसे ही छाप देते हैं। इन्हीं अखबार वालों पर यकीन करें तो देश के चालीस फीसदी इलाकों में नक्सलवाद का दबदबा है पर संगठित प्रचार माध्यमों को तो बाकी साठ प्रतिशत सुरक्षित इलाके में ही इतनी कमाई हो जाती है कि वह उस जगह जाकर सत्य का उद्घाटन नहीं करते-कभी कभी करते भी हैं तो नक्सलवादियों सूरमाओं को प्रस्तुत करते हैं। ऐसे में विदेशी पुरस्कार विजेता कथित लेखक, चित्रकार, कलाकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता वहां के दौरे कर जो भी कहें वही समाचार पत्रों और टीवी चैनलों की सुर्खियां बन जाता है।
समस्या यह है कि नक्सलवाद के विरोधी भी तो कोई सवाल ढंग का नहीं उठाते। रामायण, में शंबुक वध, सीता की अग्नि परीक्षा, तुलसीदास का एक दोहा तथा वेदों के दो चार श्लोकों में भारतीय संस्कृति में खोट देखने वालों को समर्थक बस सफाई देते रह जाते हैं। नक्सलप्रभावित क्षेत्रों की जातिगत स्थिति का वैसा हाल नहीं हो सकता जैसे कि माओवादियों के समर्थक करते हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि वहां भुखमरी, बेरोजगारी और बेबसी का बयान तो सभी नक्सल समर्थक करते हैं पर विरोधी कभी यह नहीं पूछ पाते कि उनके उद्धारकर्ता योद्धाओं के पास लड़ाई का इतना महंगा सामान वहां आता कैसे है? एकदम ढाई सौ सुरक्षाकर्मियों पर हमला करने में जो हथियार इस्तेमाल हुए होंगे वह कोई जंगल में नहीं उगे होंगे। भुखमरी, बेरोजगारी और बेबसी से परेशान लोगों को रोटी नसीब नहीं पर वह हथियार उगा लेते हैं। चलिये वह नहीं करते पर उनके समर्थक कथित वीर भी इतना सारा महंगा असला लाकर गोलियां चलाते हैं पर उनके लिये रोटी का इंतजाम नहंी कर सकते।
संगठित प्रचार माध्यमों में छोटी छोटी खबरों पर यकीन करें तो यह नक्सली हफ्ता वसूली, अपहरण, लूटपाट तथा तस्करी जैसे अपराधों से पैसा बनाते हैं और अपना कार्यक्रम जारी रखने के लिये इस तरह की हिंसा करते हैं। ग्रीन हंट अभियान में सुरक्षा कर्मियां के आने से उनका धंधा बंद हो जायेगाा। इस संबंध में जो निर्दोष आदिवासियों के मरने की बात करते हैं वह सिवाय बकवास के कुछ अन्य नहीं करते हैं। नक्सलियों का ही नहीं पूरे विश्व में आतंकवाद एक व्यापार है भले ही उसके साथ कोई वाद जुड़ा हो। यह वाद जोड़ा इसलिये जाता है कि बुद्धिमान लोगों को बहस में लगाकर मनोरंजन पैदा किया जाये ताकि अपराधियों के कुकर्मों पर किसी की नज़र न जाये।

ऐसे में जो नक्सलवादियों की समस्याओं और अपने कथित समाज को बचाने का समर्थन कर रहे हैं उनकी बकवास पर अधिक समय देना अपनी ऊर्जा बेकार नष्ट करना है। जो राष्ट्रवाद चिंतक, निष्पक्ष प्रेक्षक तथा हम जैसे लेखक विचारधाराओं के आधार पर अगर उनका जवाब देंगे तो उसका कोई लाभ नहीं है। उनसे तो बस यही सवाल करना चाहिये कि ‘यह खतरनाक हथियार, महंगी गाड़ियां और अन्य महंगा सामान उनके कथित योद्धाओं के पास से आया कैसे।
दूसरी बात यह है कि देश के संगठित प्रचार माध्यम यह विचार कर लें कि इस समय ऐसे कथित लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के यह किन्तु परंतु वाले बयान न छापें। हमसे न तो अपने अग्रज बीबीसी और सीएनएन से सीखें जो बिना किसी लाग लपेटे के अपने देश के प्रति समर्पित हो जाते हैं। याद रखें कि वह स्वयं इस देश में रहते हैं और उनकी पीढ़ियां भी यहां रहेंगी। सभी को अमेरिका, ब्रिटेन या कनाडा में रहने के लिये जगह नहीं मिलेगी। अब वह समय आ गया है जब नक्सलसमर्थकों की इन संगठित प्रचार माध्यमों को उपेक्षा शुरु कर देना चाहिये। अगर वह ऐसा नहंीं करते तो उनकी नीयत पर संदेह बढ़ता जायेगा। अपने काम के प्रति ऐसी निष्पक्षता दिखाने से कोई लाभ नहीं है जिसमें देशभक्ति के प्रति निरपेक्षता का भाव झलकता हो।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, April 3, 2010

दौलत का किला-हिन्दी शायरी (daulat ka kila_hindi shayri)

कैसे यकीन करें
उनके वादों पर
खड़े कर लिये अपने रहने के लिये महल,
करते हैं गरीबों के लिये झुग्गियों की पहल,
लोहे के चलते किलें में करते हैं सफर,
टूटी सड़कों बनाने का वादा करते मगर,
हर बार चमकते हैं आंखों के सामने
जब वादों का मौसम आता है।
उनकी ईमानदारी की कसमों पर यकीन
कैसे करें
क्योंकि दौलत का किला तो
बेईमानी और छलकपट से ही तो बन पाता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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