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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, November 26, 2012

अगर राज्य प्रमुख जाग्रत रहे तो द्वापर काल का दर्शन हो सकता है-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन (agar rajya pramukh jagrat rahe to dwapar kal ka darshan sakta hai-hindu relgion thought besed on kautilya ka arthshastra)

                      हमारे देश में समाज, परिवार और राज्य व्यवस्था से निराश लोग आमतौर से यह सोचकर तसल्ली करते हैं कि यह कलियुग चल रहा है और कभी सतयुग आयेगा तो सभी ठीक हो जायेगा।  इतना ही नहीं  सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग को लेकर हमारे अनेक कथित महान संत देश के धर्मभीरु लोगों को  आज की वर्तमान सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षणिक तथा पारिवारिक स्थितियों से उपजी निराशा को कलियुग होने के कारण सहने का संदेश देते हैं।  यह विश्वास दिलाते हैं कि सतयुग आने वाला है। इतना ही नहीं सतयुग में भगवान विष्णु, त्रेतायुग में भगवान श्रीराम तथा द्वापर में  श्रीकृष्ण के अवतार को लेकर कलियुग में भी कल्कि अवतार होने का दावा प्रस्तुत किया जाता है।  हमारे देश में अनेक धार्मिक पेशेवर लोग श्रीराधा, श्रीकृष्ण और भगवान शिव के अवतार होने का दावा भी इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे कि वह सभी का कल्याण कर देंगे।
            इस तरह युगों के नाम पर यह पाखंड वास्तव में तब मजाक लगता है जब हमें पता लगता है कि दरअसल यह सब राज्य और प्रजा की स्थिति पर निर्भर करता है।  पहले राजतंत्र था अब तो हमारे यहां पाश्चात्य पद्धति के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था है।  यहां कथित रूप से प्रजा से चुने लोग राज्य कर्म  के लिये उच्च पदों पर बैठते हैं।  ऐसी स्थिति में जब हम कहते हैं कि ‘घोर कलियुग आ गया है’ तब न केवल राज्यकर्म में लिप्त लोग के आचरण पर दृष्टिपात किया जाये  बल्कि प्रजा के लिये भी यह आत्ममंथन का विषय होता है। अगर हम धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें तो वास्तव में राज्य व्यवस्था सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर तथा कलियुग का निर्माण करती है। इसके लिये राज्य प्रमुख की चेष्टायें ही आधार होती हैं 
              कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि
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             कृतं त्रेतायुगं चैप द्वापरं कलिरेव च।
             राज्ञोवृत्तानि सर्वाणि राजा के हि युगमुच्यते।
           हिन्दी में भावार्थ-किसी राज्य में राजा जिस तरह प्रजा के लिये व्यवस्था तथा चेष्टा करता है वही युग कहलाती है।  एक तरह से राजा का राज्यकाल ही सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होती है। एक तरह से राजा का कार्यकाल ही युग होता है।
               कलिः प्रसुप्तो भवति सः जाग्रद्द्वापरं युगम।
               कर्मस्यभ्युद्यतस्वेत्ता विचरेस्तु कृतं युगम्।।
             हिन्दी में भावार्थ-राजा के निरुद्यम होने पर कलियुग, जाग्रत रहने पर द्वापर, कर्म में तत्पर रहने पर त्रेता तथा यज्ञानुष्ठान में रत होने पर सतयुग की अनुभूति होती है।

               आधुनिक लोकतंत्र में पूरे विश्व के देशें में राज्य की व्यवस्था में लगे लोग तथा प्रमुख के बीच अनेक प्रकार के पद होते हैं।  इस व्यवस्था में राज्य का आधार किसी राजा की बजाय  संविधान होता है जिसका संरक्षक राज्य प्रमुख प्रजा से चुना जाता है। इस तरह के संविधानों में राज्य प्रमुख की स्थिति निरुद्यम हो जाती है।  वह देख सकता है, बोल सकता है और सुन भी सकता है पर कर कुछ नहीं सकता।  उसे भी संविधान की तरफ देखना होता है।  फिर उस  पद पर उसके बने रहने की  भी निश्चित अवधि होने से  यह भय उसमें होना स्वाभाविक है कि वहां से हटने के बाद कुछ ऊंच नीच होने पर उसे परेशानी होगी। इतना ही एक बार पद से हटे तो सुविधायें, सम्मान और साथी कम हो जायेंगें। यही कारण है कि वह पद पर आने के बाद प्रजाहित की बजाय अपने वैभव को स्थाई बनाये रखने के लिये संचय के मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है। यही प्रवृत्ति उसे भ्रष्टाचार की तरफ ले जाती हैं  पूरे विश्व में इस समय भ्रष्टाचार को लेकर अनेक आंदोलन चल रहे हैं यह उसका प्रमाण है।  
         आमतौर से लोग राज्यतंत्र को आधुनिक समय में एक असभ्य व्यवस्था बताते हैं पर आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राज्य प्रमुख अपनी धवल छवि बनाये रखने के लिये दंड, अपराध की जांच और उद्दंड व्यक्तियों के विरुद्ध कोई भी प्रत्यक्ष कार्यवाही करने से अपने हाथ दूर रखते हैं।  उनके अंतर्गत आने वाली संस्थाओं पर यह जिम्मा रहता है और उनमें कार्यरत लोगों की कार्यप्रणाली में उस मानसिक दृढ़ता का अभाव दिखता है जो  कि प्रत्यक्ष रूप से कार्य करने वाले राज्य प्रमुख में होता है।  इतना ही नहीं आधुनिक लोकतंत्र व्यवथा में सभी पदों पर नियुक्त लोगों की राज्य प्रमुख स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं रहता।  एकदम निचले पद पर काम करने वाले व्यक्ति के लिये राज्य प्रमुख दूर का विषय होता है जबकि कानून, नीतियां, कार्यक्रम तथा प्रजा से प्रत्यक्ष संपर्क करने वाले यही निम्न पदों पर कार्यरत लोग ही होते हैं।  इस तरह राज्य प्रमुख और प्रजा की बहुत दूरी होती है जिसका लाभ भ्रष्टाचार करने वाले खूब उठाते हैं।  प्रजा के सामने राज्य प्रमुख की छवि एक निष्क्रिय पदाधिकारी की होती है जो कलियुग का प्रमाण है।
        इस आधुनिक व्यवस्था में सतयुग और त्रेतायुग के दर्शन तो हो नहीं सकते क्योंकि इसके लिये राज्य प्रमुख का स्वयं ही युद्धवीर होना आवश्यक है  अलबत्ता प्रचलित  लोकतंत्र व्यवथा में राज्य प्रमुख के निरंतर जाग्रत होकर प्रजा हित के लिये तत्पर रहने  पर द्वापर का दर्शन हो सकता है क्यों  उसमें  राज्य प्रमुख को अपनी ही व्यवस्था में लोगों से महाभारत करते रहना होगा।  एक बात तय रही कि हमें इन युगों को प्राकृतिक रूप से परिवर्तन होने वाली स्थिति नहीं माना जा सकता।  अगर ऐसा न होता तो हर युग में भ्रष्टाचारी और अपराधी नहीं होते जिनका संहार करने के लिये भगवान के अवतार होते रहे हैं।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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