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Thursday, June 30, 2011

आधुनिक चिकित्सा में ध्यान का उपयोग-हिन्दी लेख *surgery and yoga sadhanna-hindi lekh

                ईरान के डाक्टर का एक किस्सा प्रचार माध्यमों में देखने को मिला जिसे चमत्कार या कोई विशेष बात मानकर चला जाये तो शायद बहस ही समाप्त हो जाये। दरअसल इसमें ध्यान की वह शक्ति छिपी हुई है जिसे विरले ही समझ पाते हैं। साथ ही यह भी कि भारतीय अध्यात्म के दो महान ग्रंथों ‘श्रीमद््भागवत गीता’ तथा ‘पतंजलि योग साहित्य’ को भारतीय शिक्षा प्रणाली में न पढ़ाये जाने से हमारे देश में से जो हानि हो रही है उसका अब शिक्षाविदों को अंांकलन करना चाहिए। यह भी तय करना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इन दो ग्रंथों का शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल न कर कहीं हम अपने देश के लोगों के अपनी पुरानी विरासत से परे तो नहीं कर रहे हैं।
           पहले हम ईरान के डाक्टर हुसैन की चर्चा कर लें। ईरान के हुसैन नाम के चिकित्सक अपने मरीजों को बेहोशी का इंजेक्शन दिये बिना ही उनकी सर्जरी यानि आपरेशन करते हैं। अपने कार्य से पहले वह मरीज को आंखें बंद कर अपनी तरफ घ्यान केंद्रित करते हैं। उसके बाद अपने मुख से वह कुछ शब्द उच्चारण करते हैं जिससे मरीज का ध्यान धीरे धीरे अपने अंगों से हट जाता है और आपरेशन के दौरान उसे कोई पीड़ा अनुभव नहीं होती। इसे कुछ लोग हिप्टोनिज्म विधा से जोड़ रहे हैं तो कुछ डाक्टर साहब की कला मान रहे हैं। हमें यहां डाक्टर हुसैन साहब की प्रशंसा करने में कोई संकोच नहीं है। उनके प्रयासों में कोई दिखावा नहीं है और न ही वह कोई ऐसा काम कर रहे हैं जिससे अंधविश्वास को बढ़ावा मिले। ऐसे लोग विरले ही होते हैं जो अपने ज्ञान का दंभ भरते हुए दिखावा करते हैं। सच कहें तो डाक्टर हुसैन संभवत उन नगण्य लोगों में हैं जो जान अनजाने चाहे अनचाहे ध्यान की विधा का उपयोग अपने तरीक से करना सीख जाते हैं या कहें उनको प्रकृत्ति स्वयं उपहार के रूप में ध्यान की शक्ति प्रदान करती है । उनको पतंजलि योग साहित्य या श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं होती। ध्यान की शक्ति उनको प्रकृति इस तरह प्रदान करती है कि वह समाधि आदि का ज्ञान प्राप्त किये बिना उसका लाभ लेने के साथ ही दूसरों की सहायता भी करते हैं।
           हुसैन साहब के प्रयासों से मरीज का ध्यान अपनी देह से परे हो जाता है और जो अवस्था वह प्राप्त करता है उसे हम समाधि भी कह सकते हैं। उस समय उनका पूरा ध्यान भृकुटि पर केद्रित हो जाता है। शरीर से उनका नाता न के बराबर रहता है। इतना ही नहीं उनके हृदय में डाक्टर साहब का प्रभाव इतना हो जाता है कि वह उनकी हर कही बात मानते है। स्पष्टतः ध्यान के समय वह हुसैन साहब को केंद्र बिन्दु बनाते हैं जो अंततः सर्वशक्मिान के रूप में उनके हृदय क्षेत्र पर काबिज हो जाते हैं। वहां चिक्त्सिक उनके लिये मनुष्य नहीं शक्तिमान का आंतरिक रूप हो जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी देह के विकार वैसे भी स्वतः बाहर निकलने होते है ऐसे में हुसैन जैसे चिकित्सक के प्रयास हों तो फिर लाभ दुगुना ही होता है। देखा जाये तो ध्यान में वह शक्ति है कि वह देह को इतना आत्मनिंयत्रित और स्वच्छ रखता है उसमें विकार अपना स्थान नहीं बना पाते।
         इतिहास में ईरान का भारत से अच्छा नाता रहा है। राजनीतिक रूप से विरोध और समर्थन के इतिहास से परे होकर देखें तो अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि ईरान की संस्कृति हमारे भारत के समान ही है। कुछ तो यह मानते हैं कि हमारी संस्कृति वहीं से आकर यहां परिष्कृत हुई पर मूलतत्व करीब करीब एक जैसे हैं।
         ध्यान कहने को एक शब्द है पर जैसे जैसे इसके अभ्यस्त होते हैं वैसे ही इस प्रक्रिया से लगाव बढ़ जाता है। वैसे देखा जाये तो हम दिन भर काम करते हैं और रात को नींद अच्छी आती है। ऐसे में हम सोचते हैं कि सब ठीक है पर यह सामान्य स्थिति है इसमें मानसिक तनाव से होने वाली हानि का शनैः शनै प्रकोप होता है। हम दिन में काम करते है और रात को सोते हैं इसलिये मन और देह की शिथिलता से होने वाले सुख की अनुभूति नहीं कर पाते। जब कोई सामान्य आदमी ध्यान लगाना प्रारंभ करता है तब उसे पता लगता है कि उससे पूर्व तो कभी उसका मन और देह कभी विश्राम कर ही नहीं सकी थी। सोये तो एक दिमाग ने काम कर दिया और दूसरा काम करने लगा और जागे तो पहले वाली दिमाग में वही तनाव फिर प्रारंभ हो गया। इसके बीच में उसे विश्राम देने की स्थिति का नाम ही ध्यान है और जिसे जाग्रत अवस्था में लगाकर ही अनुभव किया जो सकता है।
ध्यान के विषय में यह लेख अवश्य पढ़ें
पतंजलि योग विज्ञान-योग साधना की चरम सीमा है समाधि (patanjali yog vigyan-yaga sadhana ki charam seema samadhi)
        भारतीय योग विधा में वही पारंगत समझा जाता है जो समाधि का चरम पद प्राप्त कर लेता है। आमतौर से अनेक योग शिक्षक योगासन और प्राणायाम तक की शिक्षा देकर यह समझते हैं कि उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया। दरसअल ऐसे पेशेवर शिक्षक पतंजलि योग साहित्य का कखग भी नहीं जानते। चूंकि प्राणायाम तथा योगासन में दैहिक क्रियाओं का आभास होता है इसलिये लोग उसे सहजता से कर लेते हैं। इससे उनको परिश्रम से आने वाली थकावट सुख प्रदान करती है पर वह क्षणिक ही होता है । वैसे सच बात तो यह है कि अगर ध्यान न लगाया जाये तो योगासन और प्राणायाम सामान्य व्यायाम से अधिक लाभ नहीं देते। योगासन और प्राणायाम के बाद ध्यान देह और मन में विषयों की निवृत्ति कर विचारों को शुद्ध करता है यह जानना भी जरूरी है।
    पतंजलि योग साहित्य में बताया गया है कि 
           ------------------------------
      देशबंधश्चित्तस्य धारण।।
    ‘‘किसी एक स्थान पर चित्त को ठहराना धारणा है।’’
     तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम्।।
       ‘‘उसी में चित्त का एकग्रतापूर्वक चलना ध्यान है।’’
        तर्दवार्थमात्रनिर्भासयं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
        ‘‘जब ध्यान में केवल ध्येय की पूर्ति होती है और चित्त का स्वरूप शून्य हो जाता है वही ध्यान समाधि हो जाती है।’’
        त्रयमेकत्र संयम्।।
          ‘‘किसी एक विषय में तीनों का होना संयम् है।’’
           आमतौर से लोग धारणा, ध्यान और समाधि का अर्थ, ध्येय और लाभ नहीं समझते जबकि इनके बिना योग साधना में पूर्णता नहीं होती। धारणा से आशय यह है कि किसी एक वस्तु, विषय या व्यक्ति पर अपना चित्त स्थिर करना। यह क्रिया धारणा है। चित्त स्थिर होने के बाद जब वहां निरंतर बना रहता है उसे ध्यान कहा जाता है। इसके पश्चात जब चित्त वहां से हटकर शून्यता में आता है तब वह स्थिति समाधि की है। समाधि होने पर हम उस विषय, विचार, वस्तु और व्यक्ति के चिंत्तन से निवृत्त हो जाते हैं और उससे जब पुनः संपर्क होता है तो नवीनता का आभास होता है। इन क्रियाओं से हम अपने अंदर मानसिक संतापों से होने वाली होनी को खत्म कर सकते हैं। मान लीजिये किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति को लेकर हमारे अंदर तनाव है और हम उससे निवृत्त होना चाहते हैं तो धारणा, ध्यान, और समाधि की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। संभव है कि वस्तु,, व्यक्ति और विषय से संबंधित समस्या का समाधाना त्वरित न हो पर उससे होने वाले संताप से होने वाली दैहिक तथा मानसिक हानि से तो बचा ही जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com


Wednesday, June 22, 2011

रिश्ते बन गये कर्ज जैसे-हिन्दी शायरी (ban gaye karz jaise-hindi shayari)

उधार की रौशनी में
जिंदगी गुजारने के आदी लोग
अंधेरों से डरने लगे हैं,
जरूरतों पूरी करने के लिये
इधर से उधर भगे हैं,
रिश्त बन गये हैं कर्ज जैसे
कहने को भले ही कई सगे हैं।
--------------
आसमान से रिश्ते
तय होकर आते हैं,
हम तो यूं ही अपने और पराये बनाते हैं।
मजबूरी में गैरों को अपना कहा
अपनों का भी जुर्म सहा,
कोई पक्का साथ नहीं
हम तो बस यूं ही निभाये जाते हैं।
--------------
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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Saturday, June 18, 2011

साढ़े चार साल में दो लाख पाठक/पाठ पठन संख्या जुटा सका दीपक बापू कहिन ब्लाग-हिन्दी संपादकीय(hindi editorial on Deepak Bapu kahin)

            कल दीपक बापू कहिन ब्लाग ने दो लाख की पाठ पठन/पाठक संख्या पार कर ली। इसमें उसे चार साल का समय लगा जबकि इससे बाद के बने ब्लाग ‘हिन्दी पत्रिका’ तथा ‘ईपत्रिका’ ने ढाई लाख की सीमा तक पदार्पण कर लिया है। अभी भी यह कहना कठिन है कि हिन्दी ब्लाग जगत अपनी कोई उपस्थिति समाज की प्रक्रिया में दर्ज करा पा रहा है।
दीपक बापू कहिन के दो लाख पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने पर प्रसन्नता व्यक्त करने से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह जिंदगी के अनुभव सिखाने और समझाने वह ब्लाग है जिस पर लिखा जाता है पढ़ने के लिये, पर यह पढ़कर कई चीजें दिखाने वाला साबित हुआ है। यह इस लेखक का सबसे पहला ब्लाग है। ब्लाग बन गया यह भी पता नहीं लगा। यह ब्लाग है इसका पता दूसरा ब्लाग बनाने पर लगा।
       बहरहाल अपने साढ़े चार वर्ष की ब्लाग यात्रा से इस लेखक को बहुत कुछ ऐसी बातें प्रत्यक्ष रूप से अब समझ में आयीं जिनका पहले अनुमान भर  था। यह महत्वपूर्ण बात नहीं है कि हमारे ब्लागों को कितने लोगों ने पढ़ा बल्कि इन ब्लागों ने भारतीय समाज की सच्चाईयों कों गहराई से समझने का अवसर मिला यह तथ्य अत्यंत रोचक है। इसका आभास ब्लागों पर लिखे बिना नहीं हो सकता था क्योंकि बाज़ार, प्रचार तथा समाज के शिखर पुरुषों के लक्ष्य और उनकी पूर्ति में लगे प्रबंधकों ने अभिव्यक्ति के संगठिन साधनों पर इस कदर नियंत्रण कर रखा है उनकी योजनाबद्ध विचारधारा के प्रवाह को कोई समझ ही नहीं सकता। न लेखक न पाठक, न रचनाकार न दर्शक! लेखक रचनाकार प्रायोजित होकर वही लिख और रच रहे हैं जैसे उनके प्रायोजक चाहते हैं तो पाठक और दर्शक उसे स्वतंत्र वह मौलिक कृति समझ लेते हैं। एक सच यह कि प्रायोजित लेखन और रचना में अभिव्यक्ति अपना प्रभाव नहीं दिखाती क्योंकि वह चिंत्तन रहित होती है। दूसरा सच यह कि लेखन और रचनाकारी का प्रभाव अंततः समाज पर पड़ता है चाहे कोई इसे माने या नहीं। अगर हम आज अपने समाज को उथला, अंगभीर, चेतना विहीन, कायर तथा सामयिक विषयों से उदासीन पाते हैं तो इसका कारण यही है कि हमारे अखबार, टीवी, फिल्में और अन्य कलायें समाज के ऐसे ही स्वरूप का निर्माण कर रही हैं जिसमें आम इंसान के समक्ष प्रश्न छोड़ जाते हैं पर उत्तर नहीं होता। संवेदनाओं को उभारकर निराशा के अंधेरे में धकेला जाता है। साफ बात है कि प्रायोजक नहीं चाहते कि समाज स्वतंत्र रूप से मौलिक चिंतन वाला हो क्योंकि इससे वह अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढेगा। निराशा से आगे आकर आशाओं के लिये युद्ध करेगा जो कि उनके व्यापार के लिये खतरनाक है। जड़ समाज शिखर पुरुषों की सत्ता को स्थिर बनाये रखने में सहायक है कालांतर में वह राष्ट्र के लिये चिंत्तन के नाम पर केवल स्वार्थ पूर्ति का भाव संड़ांध फैलाने जा रहा है।
          ऐसे में ब्लाग लेखन एक आशा है पर फिलहाल उस पर विराम लगा मानना चाहिए। वजह यह कि बाज़ार और प्रचार के संयुक्त उपक्रमों ने टेलीफोन कंपनियों के प्रयोक्ता बनाये रखने के लिये एक समय ब्लाग का प्रचार किया। असीमित अभिव्यक्ति और पाठकों के बीच यह सेतु तेजी से बन सकता था पर बाद में ट्विटर और अब फेसबुक के प्रचार ने इसे हाशिए पर डाल दिया है। पहले अभिनेताओं, नेताओं, कलाकारों तथा अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के ब्लागों की चर्चा होती थी। अब यही ट्विटर और फेसबुक के लिये हो रहा है। पहले सुपर स्टार के ब्लाग की चर्चा हुई अब उनके ट्विटर और फेसबुक की बात होने लगी है। मतलब एक सुपर स्टार है जिसे बाज़ार अभिव्यक्ति की हर विधा के प्रचार लिये उपयोग करता है ताकि आम प्रयोक्ता आकर्षण के शिकार बने रहें। लोग भी उधर जाते हैं। अब लोगों से चर्चा में पता लगता है कि फेसबुक उनके लिये महत्वपूर्ण विषय हैं। ऐसे में ब्लाग लेखन निरुत्साहित हुआ है यानि अभी पहने तो यहां नये हिन्दी लेखकों यहां अपेक्षा नहंी करना चाहिए और अगर आयें तो उनको पाठक आसानी से मिलें यह संभव नहीं हैं। ऐसे में पाठक हमारा ब्लाग देखें तो वह कहीं उसे फेसबुक समझकर भूल जायेंगे यह सत्य भी स्वीकार करना चाहिए।
बीच में पाठक संख्या बढ़ती नज़र आती थी पर अब थम गयी है। सही मायने में अपनी औकात बतायें तो वह यह है कि हम अभी भी एक इंटरनेट प्रयोक्ता हैं और लेखक के रूप में हमारी भूमिका एक लेख के रूप में भारत में कहीं चर्चित होने की संभावना नहीं है। हर महीने सवा छह सौ रुपये अगर इंटरनेट पर न भरें तो अपने ही ब्लागों को देखने से वंचित रह जायें। फिर यह कोई कहने वाला भी नहीं है कि आकर दुबारा लिखो। फिर भी विचलित नहीं है क्योंकि बाज़ार, प्रचार और समाज के शिखर पुरुषों के संगठित गिरोह के रूप में कार्य करने का पहले तो अनुमान ही था पर अब लिखते लिखते दिखने भी लगा है। इससे आत्मविश्वास बढ़ा ही है कि चलो किसी का दबाव हम पर नहीं है।
         प्रायोजक लेखकों की औकात देख ली। किसी ने पाठ चुराये तो किसी ने विचार। हमारे एक मित्र ने एक बड़े लेखक का लेख देखकर हमसे कहा कि ‘यार, ऐसा लगता है कि जो बातें तुम हमसे कहते हो वही उसने अब लिखी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं तुम्हारा ब्लाग पढ़ा हो। वरना इतने साल से वह लिख रहे हैं पर ऐसी बात नहीं लिख पाये।’’
हमने कहा-‘‘पता नहीं, पर इतना जरूर जानते हैं कि आम पाठक भले ही ब्लाग न पढ़ता हो पर ऐसा लगता है कि बौद्धिक लोग पढ़ते होंगे और संभव है उन्होंने भी पढ़ा हो। अलबत्ता हमें आत्ममुग्धता की स्थिति में मत ढकेलो।’’
          हमारे दो पाठों के अनेक अंश लेकर एक लेख बना दिया गया। अध्यात्मिक ब्लाग को तो ऐसा मान लिया गया है जैसे कि कोई मुफ्त में लिख रहा हो। हमें हंसी आती है। पहले दुःख हुआ था पर श्रीमद्भागत गीता, पतंजलि योग शास्त्र, चाणक्य नीति, विदुर नीति, कबीर, रहीम, तुलसीदास,कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा गुरुग्रंथ साहिब पर लिखते लिखते ज्ञान चक्षु खुलते जा रहे हैं। ऐसे में दृष्टा बनकर देह को कर्ता के रूप में देखते हैं। वह दैहिक कर्ता कुछ नहीं कह सकता पर उसकी बात हम उससे लिखवा रहे हैं कि ‘ऐ मित्रों, पाठ चुराते रहो, विचार चुराते रहो इससे कुछ नहीं होने वाला! तुम इसके अलावा कुछ कर भी नहीं सकते। हमने कर्ता को देखा है वह जिन हालातों में लिखता है, सोचता है और चिंत्तन करता है वैसे में रहने की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। सबसे बड़ी बात उस जैसा परिश्रम तुम नहीं कर सकते न तुम में वह योग्यता है। यह योग्यता केवल अध्यात्मिक चेतनाशील व्यक्ति के पास ही आ सकती है। पाखंड, शब्द चोरी, अहंकार और भ्रष्टाचार में लगे तुम जैसे लोगों के पास न भक्ति है न शक्ति! बस आसक्ति है जो कभी तुम्हें ऐसा लिखने नहीं देगी।’’
      किसी से शिकायत करना बेकार है। अंग्रेजी शिक्षा को धारण कर चुका और हिन्दी फिल्मों की नाटकीयता को सत्य मानकर चलने वाला समाज चेतना दिखाये ऐसी अपेक्षा करना भी बेकार है। श्रीमद्भागत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरत रहे हैं‘ और इंद्रियों ही इंद्रिय गुणों में सक्रिय हैं, यह विज्ञान का सूत्र भी है। यह आज तक किसी ने नहीं लिखा कि श्रीमद्भागवत गीता दुनियां के अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान और विज्ञान दोनों ही हैं। ऐसे में जब समाज जिन पदार्थों को ग्रहण कर रहा है, जिन दृश्यों को देख रहा है और जिस गंध को निरंतर सूंध रहा है उसमें विरलों के ही ज्ञानी और चेतनशील होने की संभावना है। अधिक अपेक्षा रखना हम जैसे योग और ज्ञान साधक के लिये उचित भी नहीं है।
          फिर भी हम लिखते रहेंगे क्योंकि आखिरी सच यह कि हजारों में से कोई एक पढ़ेगा। उन हजारों में से भी कोई एक समझेगा। उन हजारों में से भी कोई एक मानेगा। यह हमारे लिये बहुत है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भावगत का संदेश देते समय यह मान लिया था कि सभी उनकी बात नहीं समझेंगे। फिर भी उन्होंने दिया। वह हमारे आदर्श पुरुष हैं। यह उनकी कृपा है कि नित लिखते लिखते या कहें ज्ञान बघारते बघारते हम उस राह पर चल पड़े जिसकी कल्पना भी नहीं की। इसलिये हम तो विरले ही हुए। लोग खूब ज्ञान पर लिखते हैं उसे बघारते हुए धन ंसंपदा भी बना लेते हैं पर वह ज्ञान उनकी जिंदगी में काम नहीं आता। हमारे काम खूब आ रहा है। कई बार वाणी से शब्द निकलते हैं, अपने हाथ से ऐसे काम हो जाते हैं, ऐसे स्वर सुनने में आते हैं और ऐसे दृश्य सामने प्रस्तुत होते हैं जिनके आत्मिक संपर्क से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है। हम कह सकते हैं कि यह पहले भी होता होगा पर सुखद अनुभूतियां अब होने लगी हैं। जिन लोगों को लगता हो कि यह फालतु आदमी है लिखता रहता है उनको बता दें कि हमारे पास अपने मन को लगाने के लिये लिखने के अलावा कोई मार्ग कभी रहा ही नहीं है। जय श्रीकृष्ण, जय श्री राम, हरिओम
       इस अवसर पर अपने पाठकों और साथी ब्लाग लेखकों का आभार इस विश्वास के साथ कि आगे भी अपना सहयेाग बनाये रखेंगे। यह उनके पठन और सत्संग का ही परिणाम है कि हमारे अंदर गजब का आत्मविश्वास आया है। इसके लिये आभारी हैं।जय श्रीकृष्ण, जय श्री राम, हरिओम
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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Saturday, June 11, 2011

द्वन्द्व की पटकथा-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ

अब मंच और पर्दे के नाटक
नहीं किसी को भाते हैं,
खबरों के लिए होने वाले
प्रायोजित आंदोलन और अनशन ही
मनोरंजन खूब कर जाते हैं।
------------------
हर मुद्दे पर
उन्होने समर्थन और विरोध की
अपनी भूमिका तय कर ली है,
उनके आपसी द्वन्द्व के
पर्दे पर चलते हुए दृश्य को
देखकर कभी व्यथित न होना
कुछ हंसी तो
कुछ दर्द की
चाशनी में नहाये शब्दों से
उन्होंने  पहले ही अपनी  पटकथा भर ली है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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Friday, June 3, 2011

आम जीवन शैली वाले लोग बाबा रामदेव को समझा रहे हैं-हिन्दी लेख (baba ramdev aur aam jivan shaili vale log-hindi lekh)

           भारत स्वाभिमान यात्रा करते करते बाबा रामदेव अब ऐसे मोड़ पर आ गये हैं जहां इतिहास अपनी कोई नई पारी खेलने के लिये तैयार खड़ा दिखता है। उन पर लिखने और बोलने वाले बहुत हैं पर उनका दायरा बाबा के ‘सुधार आंदोलन’ के विरोध या समर्थन तक ही सीमित है। बाबा के समर्थक और भक्त बहुत होंगे  पर सच्चे अनुयायी कितने हैं, इसका सही अनुमान कोई नहीं  कर पाया। बाबा के प्रशंसक उनके शिष्यों के अलावा दूसरे ज्ञानी भी हो सकते हैं इसका आभास भी किसी को नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि बाबा रामदेव के सभी प्रशंसक उनके शिष्य हों पर इतना तय है कि उनके कार्यक्रम के प्रति सकारात्मक भाव इस देश के अधिकांश बौद्धिक वर्ग में है। हमारी मुख्य चर्चा का विषय यह है कि बाबा रामदेव की योग शिक्षा की प्रशंसा करने वाले कुछ लोगों को उनकी इतर गतिविधियां पंसद नहीं आ रही हैं और वह उनको ऐसा या वैसा न करने की शिक्षा देते हुए बयान दे रहे हैं तो इधर उनके प्रशंसक भी केवल ‘आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’ का नारे लगाते हुए उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ज्योति प्रज्जवलित किये हुए हैं। इन सभी के बीच स्वामी रामदेव के व्यक्त्तिव का पढ़ने का प्रयास कोई नहीं कर रहा जो कि जरूरी है।
       स्वामी रामदेव के आंदोलन के समर्थन या विरोध से अधिक महत्वपूर्ण बात हमारे नजरिये से यह है कि इससे देश में लोगों के अंदर चेतना और कर्म शक्ति का निर्माण होना चाहिए। अगर उनका यह अभियान ऐसा लाभ देश को देता है तो प्रत्यक्ष उससे हम लाभान्वित न भी हों पर इसकी प्रशंसा करेंगे। मूल बात यह है कि जब हम पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं तो हमारी न केवल शक्ति बढ़ती है बल्कि स्वयं अपना हित भी होता है। जब हम केवल अपने हित पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो शक्ति और चिंतन सिमट जाता है। आजकल मनुष्य का खानपान और रहनसहन ऐसा हो गया है कि उसके अंदर चेतना और कर्म शक्ति का निर्माण वैसे भी सीमित मात्रा में होता है। ऐसे में योग साधना ही एकमात्र उपाय है जिससे कोई मनुष्य अपना सामान्य स्तर प्राप्त कर सकता है वरना तो वह भेड़ों की तरह हालतों के चाबुक खाकर भटकता रहे।
         अब बात करें सीधी! जो लोग योग साधना करने और न करने वालों के बीच का देख पायें या समझ पायें हों वही अगर स्वामी रामदेव के कर्म पर टिप्पणियां करें तो बात समझ में आये। दो फिल्मी हीरो बाबा रामदेव के आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। अगर हम उनके विरोध का विश्लेषण करें तो शायद बात रास्ते से भटक जायेगी पर यह बताना जरूरी है कि उन दोनों में से कोई योग साधना की प्रक्रिया और साधक की शक्ति को नहीं जानता।
          एक कह रहा है कि ‘बाबा रामदेव को अपने काम से काम रखना चाहिए।’
        दूसरा कह रहा है कि ‘स्वामी रामदेव को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की बजाय अपने भक्तों को इससे बचने की सलाह देना चाहिए।’’
         कुछ समय पहले जब अन्ना हजारे जी के आंदोलन के समय इन्हीं अभिनेताओं ने उनका समर्थन किया था और अब उनका यह रुख उनको संदेहास्पद बना देता है। इस पर हम शायद टिप्पणी नहीं करते पर यह दोनो उस ं बाज़ार और प्रचार तंत्र के मुखपत्र की तरह पेश आ रहे हैं जो भारतीय अध्यात्म से घबड़ाया रहता है। उसमें उसे कट्टरत्व की बू आने लगती है। इधर अन्ना हजारे की कथित सिविल सोसाइटी ने भी बाबा रामदेव को सलाह दे डाली कि वह अपने आंदोलन से धार्मिक तत्वों को दूर रखें।
     ऐसे में यह सवाल उठाता है कि विश्व का बाज़ार तथा प्रचारतंत्र-हम यहां मानकर चल रहे हैं कि अब आर्थिक उदारीकरण के चलते सारे विश्व के आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष संगठित होकर काम करते हैं-कहीं दो भागों मे बंट तो नहीं गया है।
      वैसे तो किसी आम लेखक की औकात नहीं है कि वह इतने बड़े आंदोलनों के शिखर पुरुषों पर टिप्पणी करे पर ब्लाग लिखने वालों के पास अपनी भड़ास निकालने का अवसर आता है तो वह चूकते नहीं है। जिस तरह भारतीय प्रचार माध्यमों ने हिन्दी ब्लाग लेखकों को अनदेखा किया उससे यह बात साफ लगती है कि बाज़ार अपने प्रचार तंत्र के साथ अनेक घटनाओं को रचता है। वह घटना के नायकों को धन देता है खलनायकों को पालता है। सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक आर्थिकीकरण ने हालत यह कर दिया है कि कोई भी आंदोलन धनपतियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग के बिना चल ही नहीं सकता। ऐसे में अन्ना हज़ारे और स्वामी रामदेव के आंदोलनों का परिणाम जब तक प्रथ्वी पर प्रकट नहीं होता तब तक उन पर भी संदेह बना रहेगा। मतलब यह कि हम तो कथित सिविल सोसइटी और कथित नायकों के विरोध तथा संदेहास्पद रवैये से आगे जाकर अपनी बात कह रहे हैं जो कि स्वयं ही बाज़ार के प्रायोजित लगते हैं। हम जैसे लेखकों की जिज्ञासा के कारण ऐसे आंदोलनों में रु.िच रहती है। फिर जब बात योग शिक्षक की अध्यात्मिक से इतर गतिविधियों की हो और उनके विरोध करने वाले ज्ञान और सात्विकता से पैदल हों तो उनका प्रतिवाद करने का मजा किसी भी ऐसे योग साधक को आ सकता है जो हिन्दी में लिखना जानता हो। हिन्दी फिल्मों के जिन दो अभिनेताओं ने स्वामी रामदेव का विरोध किया है वह हिन्दी नहीं जानते कम से कम उनकी पत्रकार वार्ताऐं और टीवी साक्षात्कार देखकर तो यही लगता है। ऐसे में वह दोनों इस लेख को पढ़ेंगे या उनके समर्थक इसे समझेंगे यह खतरा कम ही हो जाता है। बहरहाल बुढ़ा चुके और अभिनय की बजारय विवादों से अधिक प्रचारित यह दोनों अभिनेता बाज़ार और प्रचारतंत्र के उस हिस्से के मुखौटे हैं जो स्वामी रामदेव के अभियान से भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के प्रचार बढ़ने की आशंका से त्रस्त है। हालांकि ऐसा भी लगता है कि बाज़ार का दूसरा वर्ग उसे हिलाने के लिये भी ऐसे आंदेालन प्रायोजित कर सकता है यह बात हम लिख रहे हैं जो कि इन दोनों अभिनेताओं और सिविल सोसाइटी वालेां की हिम्मत नहीं है क्योंकि तब इनके आर्थिक स्वामियों  की उंगली उठनी शुरु हो जायेंगी। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि हिन्दी से पैदल दोनों यह अभिनेता कहीं स्वामी रामदेव का विरोध इसलिये तो नहीं कर रहे क्योंकि वह हिन्दी के प्रचार का काम भी प्रारंभ कर चुके हैं।
      बाबा रामदेव के आंदोलन में  चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)
      अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।
    उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’
          आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।
            जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।
अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।
            संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।
       मगर यह अनुमान ही है क्योंकि यह दोनों अभिनेता  तो दूसरे के लिखे वाक्य बोलने के आदी हैं इसलिये संभव है कि बाजार और प्रचारतंत्र के संयुक्त प्रबंधकों का यह प्रयास हो कि इस आंदोलन की वजह से देश में किसी ऐसी स्थाई एकता का निर्माण न हो जाये जो बाद में उनके लिये विध्वंसकारी साबित हो। इसलिये साम्प्रदायिक बताकर इसे सीमित रखना चाहिए। शायद प्रबंधक यह नहीं चाहते हों कि कहीं उनका यह प्रायोजित अभियान कभी उनके लिये संकट न बन जाये। कहीं वह सिविल सोसाइटी और इन अभिनेताओं के माध्यम से इस अभियान से किसी वर्ग को दूर रहने का संदेश तो नहीं भेजा जा रहा।
          आखिरी बात बाबा रामदेव के बारे में। देश का कोई मामूली योग साधक भी यह जानता है कि बचपन से योग साधना में रत रामकृष्ण यादव अब स्वामी रामदेव बन गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भौतिक से अधिक उनकी अभौतिक अध्यात्मिक शक्ति है। सिद्धि और चमत्कारों के लिये सर्वशक्तिमान की तरफ हाथ फैलाये रखने वाले लोग इस बात को नहीं समझेंगे कि योग साधना इंसान को कितना शारीरिक तथा मानिसक रूप से शक्तिशाली बनाती है। जबकि फिल्में और टीवी चैनल इस भ्रमपूर्ण संसार मे अधिक भ्रम फैलाते हैं और उनके नायक किंग, भगवान, बॉडी बिल्डर भले ही प्रचारित हों पर उनकी कोई व्यक्तिगत औकात नहीं होती। जो चाहे जैसा नचाता है नचा ले। जो बुलवाता है बुलवा ले। एक महायोगी  की एक एक क्रिया, एक एक शब्द और एक एक कदम मौलिकता धारण किये होंता है। बाबा रामदेव के आंदोलन लंबा चलने वाला है। इस पर बहुत कुछ लिखना है और लिखेंगेे। बाबा रामदेव के हम न शिष्य हैं न समर्थक पर इतना जरूर कहते हैं कि योगियों की लीला अद्भुत होती है, कुछ वह स्वयं करते हैं कुछ योगामाता ही करवा लेती है। सो वह खास लोग जो आम जीवन शैली अपनाते हैं वह उनको समझाने से बाज आयें तो उनके लिये बेहतर रहेगा वरना वैसे ही वह भ्रमपूर्ण जीवन जीते हैं और योग का विरोध उनकी उलझने अधिक बढ़ायेगा।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
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