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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, October 22, 2013

आनंद लेने का सलीका-हिन्दी लघुकथा(anand lene ka tarika-hindi laghu kathaa,trick of enjoyment-short hindi story)



                        वह साधक हमेशा ही योग साधना और ज्ञान के अध्ययन में संलग्न होकर प्रसन्न रहता  था।  एक दिन उसके पास एक मित्र आया और बोला-मेरे साथ गुरु के आश्रम चलना चाहते हो तो चलो! मैं कल अपनी गाड़ी का टिकट आरक्षित कराने जा रहा हूं।’’
                        साधक ने कहा-नहीं, तुम जाओ। मेरा मन तो अब अपनी साधना में ही रम जाता है।
                        मित्र ने कहा‘‘उंह, तुम एक ही शहर में रहते हुए बोर नहीं होते।  अरे, तुम हमारे गुरु के वार्षिक कार्यक्रम में एक बार चलोगे तो तुम्हें पता चल जायेगा कि वहां कितना आनंद मिलता है? एक जगह बैठकर तुम अपनी देह सड़ा क्यों रहे हो। इधर उधर घूमकर तुम अपनी जिंदगी के कुछ मजे लो!’’
                        साधक हंसा और बोला-तुम्हें क्या लगता है कि मैं अपनी जिंदगी बिना बजे के गुजार रहा हूं। परेशान तो तुम लगते हो जो बाहर जाकर मजे लेने की इच्छा तुम्हें वहां ले जा रही है।’’
                        मित्र चला गया।  कुछ दिन बाद फिर वह अपने साधक मित्र के पास आया और अपनी यात्रा का आनंद बखान करने लगा-‘‘यार, बड़ा मजा आया! वहां बहुत सारी भीड़ थी। क्या जोरदार संगीतमय भजन सुनने को मिले।  गुरु जी ने अपने श्रीमुख से भजन भी गाये और प्रवचन भी फरमाये। तुम्हें चलना चाहिये था! वहां बहुत आनंद मिला।’’
                        साधक ने पूछा-तुम्हारे गुरु ने प्रवचनों में क्या कहा? वह हमें भी सुनाओ। ज्ञान की बात सुनने में मेरी  बहुत रुचि है।’’
                        मित्र ने उत्तर दिया-‘‘प्रवचनों में क्या होता है? वही बातें जैसे कि मीठा बोलो, सभी के साथ सद्व्यवहार करो और किसी दूसरे के धन पर वक्रदृष्टि मत डालो। हां, वहां जिस तरह मेला लगा उसमें बहुत आनंद आया।’’
                        साधक ने पूछा-तुम्हारी यात्रा कैसी रही?
                        मित्र ने कहा-‘‘यही मत पूछो। जाते समय तो टिकट आरक्षित था पर आते समय उसकी पुष्टि नहीं हो पायी।  इसलिये तंगहाल में यात्रा की।  अभी तक सारा शरीर टूट रहा है।  मैं तो कल रात से दोपहर तक सोया। लगता नहीं है कि अभी आराम मिला है!
                        साधक ने कहा-‘‘तुम वहां मिला आनंद क्या यहां तक ला सके?
                        मित्र ने कहा-तुम तो व्यंग्य करते हो! भला आनंद भी साथ लाने की वस्तु है?’’
                        साधक ने कहा-‘‘आनंद वस्तु नहीं एक भाव है। अगर तुम वहां का आनंद यहां तक नहीं ला सके तो तुम्हारे गुरु का सारा श्रम व्यर्थ गया। तुम मुझसे वहां चलने को कह रहे थे पर जहां का आनंद घर तक नहीं लाया जा  सके, उसे हम वहां चलकर क्या लेते? हमें तो दिल तक जाने वाला आनंद चाहिये।  ऐसा आनंद जिसके मिलने के पश्चात् किसी असुविधा या अभाव पर कुंठा का भाव पैदा न हो।’’
                        मित्र ने कहा-‘‘यार, तुम तो अपनी बघारते हो! मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आयी।’’
                        मित्र चला गया और साधक अपने ध्यान की प्रक्रिया में लीन हो गया।
                        साधक ने सही कहा था। क्षणिक आनंद कभी हृदय में स्थान नहीं बना पाते।  इसके विपरीत क्षणिक आनंद के बाद जब कोई कष्ट सामने आता है तो मस्तिष्क में इतना तनाव पैदा होता है कि जितना खून आनंद से नहीं बढ़ा होता उससे अधिक तो तनाव से घट जाता है। दूसरी बात यह कि हमारी इंद्रियां बाहर से प्राप्त आनंद का विसर्जन भी जल्दी कर देती हैं। यह उनकी प्रकृत्ति और निवृत्ति का सिद्धांत है। अंदर पैदा हुआ आनंद कभी सहजता से नष्ट नहीं होता। यह आनंद ध्यान, मंत्रजाप तथा योगासन से प्राप्त किया जा सकता है। दूसरा कोई इसका मार्ग कम से कम हमें अपने अनुभव के आधार पर तो नहीं लगता जो कि  किसी को स्थाई आनंद दिला सके।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Monday, October 14, 2013

अस्पताल स्वर्ग, डाक्टर देवता और दवायें अमृत रूप-हिन्दी व्यंग्य(hospital swarg,doctor devta aur dawayen amrit roop-hindi vyangya or satire article)



                         हम अगर देश के वर्तमान कथित सभ्रांत वर्ग के लोगों की शारीरिक, मानसिक, वैचारिक तथा बौद्धिक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो चिकित्सालय स्वर्ग, चिकित्सक देवता, दवायें, अमृत, गोलियां मिष्ठान और बीमारी दर्शन बन गयी है।  कहीं भी शादी या गमी में युवावस्था के ंअंतिम दौर में चलने वाले, बड़ी आयु या वृद्ध लोगों की बैठक हो वहां बीमारियों को लेकर चर्चा जरूर  होती है।  कभी कभी तो लगता है कि सिवाय बीमारियों पर चर्चा को लेकर उनके पास दूसरा कोई विषय नहीं है।  इतना ही नहीं कुछ लोग राजनीतिक विषय पर बात करते हुए बीमारियों पर बात करने लगते हैं।
                        चलते चलते लोग एक दूसरे को टोकने लगते हैं-‘‘आपने शुगर चेक कराई।’’
                        अगर कोई जवाब दे नहीं तो फिर उससे कहा जाता है कि हर महीने चेक कराया करो। आजकल बीमारियों का पता नहीं चलता। अमुक आदमी की मधुमेह से किडनी खराब हो गयी अमुक का लीवर फट गया।  इस प्रकार के ब्रह्मवाक्य सुनने को मिलते है।  जिनको डायबिटीज है उनके लिये हमराही बहुत सारे हो जाते हैं। कभी कभी तो लगता है कि बीमार लोग अपने चिकित्सक से अधिक  जानते हैं।  अगर अध्यात्मिक दृष्टि से कहें तो क्षेत्रज्ञ वही है जो बीमार्री झेल रहा है।
                        उस दिन हम शहर के एक बड़े पार्क घूमने गये। वहां पर एक पुराने परिचित मिल गये। उनका घर पास ही था इसलिये वहां अक्सर वह शाम को आते थे।  हमें देखकर उन्होंने हालचाल पूछे और बताने लगे कि उनका कुछ दिन पहले ही पथरी का आपरेशन हुआ है।
                        हमने पूछा-‘‘आपकी अब तबियत कैसी है?’’
                        वह तपाक से बोले-‘‘अब तो बढ़िया है।  मैंने अपना इलाज जिस डाक्टर से कराया वह बहुत बड़ा विशेषज्ञ है। उसका निजी अस्पताल भी जोरदार है। एकदम स्वर्ग जैसा।  उसकी दवाओं ने अमृत जैसा काम किया। पैसा हमारा जरूर खर्च किया पर लगता है कि स्वर्ग भोगकर लौटे हैं। अब तो सावधानी रखनी है। डाक्टर ने बताया कि अगर अब तबियत बिगड़ी तो किडनी निकालनी पड़ेगी।’’
                        हमने कहा-‘‘हां, आप अब सावधानी रखा करें।
                        वह बोले-‘‘आप भी अपना चेकअप करा लो। खासतौर से पथरी का पता जरूर करो।  इसका शुरु में पता नहीं चलता अगर चेकअप करा लें तो बुरा नहीं है। अगर पहले ही पता लग जाये तो बिना आपरेशन के ठीक हो जाओगे।’’
                        हमने कहा-‘‘हां, हम करा लेंगे।
                        वह बोले-‘‘डायबिटीज का भी चेकअप करा लो।  ऐसा क्यों नहीं करते, हमारे वाले चिकित्सक के पास जाकर सारे टेस्ट करा लो। उनके सामने मेरा नाम लेना। अब मेरी उस डाक्टर से दोस्ती हो गयी है।’’
                        उन्होंने उस चिकित्सक की ढेंर सारी प्रशंसा की गोया कि इस धरती पर विचरने वाले कोई देवता हों। वैसे हमारे यहां कहा जाता है कि डाक्टर भगवान का रूप है।  हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर सवाल यह है कि यह डाक्टर लोग अपनी अमृतमय दवायें लिखकर वाहवाही तेा बटोरते हैं साथ में परहेज रखने की हिदायत भी देते हैं। ऐसे में हम जैसे क्षेत्र ज्ञान साधक के लिये यह समझना कठिन होता है कि मरीज दवा से ठीक होता है या परहेज से उसका स्वास्थ्य पूर्ववत होता है। अगर दवा से ठीक होता है तो परहेज क्यों बताते हैं, और परहेज से ठीक होता है तो फिर दवा की जरूरत क्या है?
                        कहा जाता है कि कम खाओ, गम खाओ, हमेशा स्वास्थ्य पाओ। हमारी पुरावनी कहावतें और मुहावरे अनेक रहस्यमय बातें एक पंक्ति में कह जाते हैं।  वैसे भी कहा जाता है कि हमारे देश में भुखमरी है पर फिर भी लोग यहां भूख से कम मरते हैं जबकि अधिक खाकर दुःख उठाने वालों की संख्या अधिक होती है।
                        उस दिन मधुमेह का एक पर्चा देखा। उसमें बकायदा बीमारों के लिये मीनू लिखा हुआ था। यह खायें, यह कभी नहीं और यह कभी कभी कम मात्रा में खायें।  हमारे सामने एक महिला दूसरी महिला को यह मीनू नोट करवा रही थी।  दोनों को ही मधुमेह ने घेर रखा था और बातचीत में एक दूसरे को वह अपना अनुभव सुना रही थीं।  जब बीमारी की चर्चा हो तो चिकित्सालय, चिकित्सक, दवायें और खान पान की चर्चा न हो यह संभव नहीं है। अमुक चिकित्सक ज्यादा होशियार है अमुक कम अनुभवी है। उसकी दवा लगती है उसकी नहीं।  जिस तरह फलों का आम और  सब्जियों का आलू राजा होता है उसी तरह मधुमेह उस बीमारी का नाम है जो बीमारियों की रानी है।
                        बहरहाल अगर आप स्वस्थ हों तो भी अपने से मिलने जुलने वालों के सामने इसकी चर्चा न करें।  डायबिटीज, एसिडिटी, उच्च रक्तचाप, और थाइराइड के शिकार लोगों की संख्या इतनी अधिक है कि अब स्वस्थ लोगों को ढूंढना पड़ता है।  ऐसे में अगर बीमारी का शिकार कोई मिल जाये तो उसके सामने कभी अपने स्वास्थ्य का बखान न करें। जब किसी बीमार को पता लगता है कि अमुक आदमी बड़ी आयु होने पर भी स्वस्थ है तो वह उसे जांच की सलाह देता है।  अगर कोई योग साधना या प्रातःकाल घूमता है तो भी बीमार लोग उससे कहते हैं कि घूमने से कुछ नहीं होता। बीमारियों का पता नहीं चलता। जांच कराया करो।
                        अगर आप स्वस्थ दिख रहे हैं और बीमारों के सामने यह दावा  करते हैं कि आपको कोई बीमारी नहीं है तो पूछा जायेगा कि आपने चेकअप कराया है।
                        आप कहेंगे नहीं तो नाकभौं सिकोड़ कर कहा जायेगा‘-ऊंह, फिर यह दावा कैसे कर रहे हो कि तुम स्वस्थ हो।’’
                        वहां अपने व्यायाम, सैर सपाटे या योगसाधना की चर्चा न करें वरना ऐसे लोगों की सूची भी बतायी जायेगी जो यह सब करते हुए भी बीमार हों।  यह अलग बात है कि ऐसे बीमार नियम से यह नहीं करते पर दावा यही करते है जिसका प्रचार दूसरे बीमार यह साबित करने के लिये करते हैं कि उन बीमारियों से बचना कठिन है।
                        वैसे भी हमारे चाणक्य महाराज कहते हैं कि अपना धन तथा स्वास्थ्य छिपाकर रखना चाहिये।  इसका सीधा मतलब यही है कि  धन पर किसी दुष्ट की नजर पड़ गयी तो वह वक्रदृष्टि डालेगा और अगर स्वास्थ्य कि चर्चा आप किसी बीमार के सामने करते हैं तो  आह भरते हुए मन ही मन कह सकता है कि हे भगवान, इसे भी मेरी वाली बीमारी लग जाये  कहा भी जाता है कि गरीब और बेबस की आह लग जाती है।  अगर कोई कहे कि अस्पताल में स्वर्ग, डाक्टर में देवता, दवा में अमृत और गोलियों में शहद बसता है तो मान लीजिये। यह जीवन में सहज बने रहने का एक सबसे बेहतर उपाय है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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Saturday, October 5, 2013

धर्म के विषय पर आत्ममंथन करना चाहिये-नवरात्रि महोत्सव पर विशेष लेख(dharma ke vishaya par atmamanthan karna chahiye-navradtri mahotsav par vishseh lekh)



                        आज से देश में नवरात्रि महोत्सव प्रारंभ हो गया है। साकार तथा सकाम भक्तों के लिये यह नौ दिन अत्यंत उत्साह के साथ बिताये जाते हैं।  अनेक जगह माता की मूर्तियां स्थापित होने के साथ ही उनकी नित्य प्रातः तथा सायं आरती गायी जाती है। हालांकि इस तरह की परंपरा सदियों से चल रही है पर पिछले बीस वर्षों से राम मंदिर आंदोलन के प्रभाव से इसने व्यापक रूप लिया है। पहले शहरों में कुछ खास स्थानों पर ही माता की मूर्तियां लगती थीं पर राम मंदिर आंदोलन के प्रभाव से लोगों के प्रति धार्मिक पंरपराओं के प्रति जो अधिक उत्साह पैदा हुआ उससे सार्वजनिक धार्मिक कार्यक्रमों में व्यापक भीड़ जुटना प्रारंभ हो गयी।  इतिहास के अनुसार महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने अपने आंदोलन को व्यापक रूप देने के लिये महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी पर उनकी प्रतिमायें स्थापित करने की परंपरा शुरु की। स्वतंत्रता के पश्चात भी यह क्रम चलता रहा और अब तो पूरे भारत के साथ ही  विश्व में भी गणेश जी मूर्ति स्थापित करने के परंपरा देखी जाती हैं।  अगर हम इन एतिहासिक घटनाओं का आंकलन करें तो यह बात समझ में आती है कि भारत में लोग धर्म को लेकर संवेदनशील हैं और इसके सहारे उन्हें किसी भी सार्वजनिक महत्व के कार्यक्रम के लिये अपने साथ उनको सहजता से जोड़ा जा सकता है।  यह अलग बात है कि आजकल इसी धर्म के सहारे अनेक प्रकार के पाखंड चल पड़े हैं।  इतना ही नहीं अनेक लोग तो धर्म के नाम पर अज्ञान का प्रचार कर रहे हैं।
                        आमर्तार से योग तथा ज्ञान साधक निंरकार की उपासना करते हैं फिर भी मंदिरों में जाने से वह परहेज नहीं करते।  इसका कारण यह है कि भगवान की मूतियां चाहे जिस वस्तु की बनी है पर उनमें एक आकर्षण होता है।  उनको देखकर भगवान की उपस्थिति का आभास होता है। ज्ञान साधक यह जानते हैं कि पत्थर, लकड़ी, लोह या मिट्टी के भगवान नहीं होते पर उनसे बनी मूर्तियों में उसकी उपस्थिति की अनुभूति एक सुखद अनुभूति प्रदान करतेी है।   मूर्तियों को देखने से आंनद मिलता  है तो उस पर तर्क वितर्क करना व्यर्थ है।
                        आखिर मंदिरों में जाने पर मन को शांति मिलती क्यों है? कभी इस पर विचार करना चाहिये।  इसके निम्नलिखित कारण हमारी समझ में आते हैं।
                        1-अपने घर और कार्य स्थान पर रहते हुए आदमी को एकरसता का आभास होता है। जिनका योगाभ्यास, ध्यान तथा मंत्र जाप से मन पर निंयत्रण है उनके लिये तो प्रतिदिन पर्व है पर जिनको इस तरह का अभ्यास नहीं है उनका मन उन्हें विचलित करता है-कहीं दूर चलो, कहीं मनोरंजन मिले तो आनंद आये आदि विचार उसके मन में उठते रहते हैं। ऐसे में मंदिर जाने पर आदमी के मस्तिष्क में  नवीनता का आभास होता है।
                        2-दूसरी बात यह है कि अपने घर तथा कार्यस्थल पर हर मनुष्य को प्रतिदिन वही चेहरे मिलते हैं।  दूसरी बात यह कि मार्ग पर चतते और बाज़ार में घूमते हुए उसे भीड़ में उकताहट का अनुभव होता है।  मंदिर में जोने पर उसे नये चेहरे देखने का अवसर तो मिलता ही है वहां भीड़ से परे उसे शांति की अनुभूति होती है।
                        3-महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिर और आश्रमों में घर या कार्यालय की अपेक्षा अधिक सफाई रहती है।  घरों में सामान ज्यादा होता है तो कार्यस्थानों पर भी सफाई पूरी तरह नहीं होती। मंदिरों में कोई सामान नहीं होता। जगह खाली मिलती है। घरों में आजकल सामान इतना हो गया है कि बड़े कमरे भी छोटे लगती है।  मंदिर अगर छोटा भी हो तो बड़ा दिखता है। हमारी चक्षु इंद्रियां मंदिर में जाकर इसलिये आनंदा उठा पाती हैं क्योंकि वहां सफाई होती है। यह सफाई हमने स्वयं नहीं की होती बल्कि वहां के सेवादार करते हैं। कहते हैं न हलवाई अपनी मिठाई नहीं खता उसी तरह आदमी को अपनी सफाई से कम दूसरे की सफाई से अधिक आनंद मिलता है।
                        यहां हम तीसरे महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करें।  हमने देखा है कि पार्कों और मंदिरों में भी लोग कचड़ा करने से बाज नहीं आते।  पार्को में सफाई नियमित रूप से नहीं होती। सच बात तो यह है कि जहां पार्क बने हुए हैं उसके लिये हमें भगवान का धन्यवाद करना चाहिये।  न बने होते तो हम क्या कर लेते?  इसके बावजूद लोग वहां जाकर खाने पीने के खाली पैकेट और ग्लास फैंक कर चले आते है।  सभी जानते हैं कि प्लास्टिक कभी नष्ट नहीं होती।  उल्टे वह प्रकृति को नष्ट करती है।  हमने देखा है कि पार्कों में लोग सामूहिक कार्यक्रम कर वहां इतनी गंद्रगी कर आते हैं तब लगता है जैसे कि वास्तव में हमारे देश के अनेक लोगों को जीवन जीने की तमीज नहीं है।  यही हाल मंदिरों का है।  वहां भी लोग लंगर आदि कर कचड़ा डाल देते हैं।  जब तक सफाई न हो तो तब वह मंदिर भी अत्यं दुःखद दृश्य चक्षुओं के समक्ष उपस्थिति करने लगते हैं।  हमें तो लगता है कि इन नवरात्रियों में सार्वजनिक स्थानों पर कचड़ा न करने की शपथ लेने का अभियान चलना चाहिये।
                        चलते चलते पार्कों में अवैध रूप से बनने वाले विभिन्न धर्मो  के पूजा स्थानों के नाम पर अतिक्रमण करने  प्रश्न दिमाग में आ गया है।  हमें याद आ रहा है कि भारत का उच्चतम न्यायालय इस पर संज्ञान ले चुका है। यह स्थिति देश की अनेक कालोनियों में देखी जा सकती है। होता यह है कि जब कालोनी पूरी तरह बसे तब तक कालोनी बसाने वाली एजेंसियां पार्क की जगह खाली छोड़ देती है।  वहां विकास तब तक कोई विकास कार्य नहीं होता जब तब आबादी पर्याप्त न हो जाये।  ऐसे में कथित रूप से  किसी भी धर्म के ठेकेदार वहां धार्मिक स्थान बनाकर पार्क के विकास का दावा करते हैं।  विकास न भी करें तो भी धार्मिक्क  स्थान  दिखाकर यह दावा करते हैं कि उस स्थान  की अतिक्रमण की रक्षा के लिये ऐसा कर रहे हैं। यह अतिक्रमण बाद में कालोनियों के बच्चों के लिये दुःखदायी हो जाता है।  धर्म स्थान पर विराजमान कथित सेवादार उन्हें वहां खेलने नहीं देते।  पार्क में भले ही पेड़ न हो पर खाली जमीन बच्चों के खेलने के काम आती है मगर इस तरह के धर्म स्थान उनके लिये संकट पैदा करते हैं।  आम परिवार के बच्चे किसी बड़े तनाव की आशंका के चलते कुछ कहते नहीं है पर संबंधित धर्म के प्रति उनका मन अप्रसन्नता से भर जाता है।  यह समस्या अनेक लगह है।  कथित धर्म रक्षक भले ही अपने धर्मों को लेकर बड़े प्रसन्न हों पर उनको इस आभास नहीं है कि बच्चों के मन में इससे वितृष्णा का भाव पैदा होता है।  दूसरी बात यह है कि कोई इमारत खड़ी करना महंगा नहीं हैं बल्कि भूखंड महंगा होता है।  यही कारण है कि इन पार्को पर कब्जा कर धर्म रक्षक अपनी पीठ ठोकते हैं।  क्योंकि भूखंड उन्होंने खरीदा नहीं होता और धर्म स्थान के लिये वह आमजनेां से चंदा लेते हैं।  नाम उनका ही होता है। 
                        हमारा मानना है कि वैसे भी धर्म का निर्वाह एकांत का विषय है उसे सार्वजनिक रूप से थोपा नहीं जाना चाहिये। बेहतर यह है कि हम अपने अंदर के विकार बाहर पहले निकाले और बाद में समाज में बदलाव लाने की बात करें।  यह नवरात्रि आत्ममंथन के लिये एक सुअबवसर हो सकता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
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