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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, December 26, 2012

अपनी दवा खुद ढूंढ लेते हैं-कविता (apni dawa khud dhoondh lete hain-kavita)

बेदर्द लोग बेच रहे हैं
दर्द दूर करने की दवा,
बहारें लाने का भरोसा
दिखाकर लूट रहे वह लोग वाह वाह
रोके बैठे हैं जो बहती हुई हवा।
कहें दीपक बापू
मन में अंधेरा हैं जिनके  
ज्ञान का दीपक
जगह जगह जला रहे हैं पाखंडी,
बेच दिया ईमान जिन्होंने कौड़ियों के भाव
आदर्श की लगा रहे वही मंडी,
चेहरे चमका लिये हैं नायकों ने
झगड़ रहे हैं इस बात पर
कौन लुटेरा नंबर एक है
कौन बेईमानी में सबसे सवा।
छोड़ दिया है मशहूर लोगों की
बताई राह पर चलना
अपने दिल और दिमाग के दर्द  की
खुद ही ढूंढ  लेते हैं खुश होकर दवा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Friday, December 14, 2012

इंसान ने वफा में शर्तों को जोड़ दिया-हिन्दी कविता (insan ne vafa mein sharton ko jod diya-hindi kavita or poem)

हमने बरसों तक उन पर रखा यकीन
मौका आया तो
पल भर में उन्होंने तोड़ दिया,
हर कदम पर हमसफर रहे
पल भर लड़खड़ायी हमारी किस्मत
उन्होंने हमें अकेला छोड़ दिया।
कहें दीपक बापू
किसके मिलने पर खुश हों
किसके बिछड़ने पर रोयें
धरती पर सांस ले रहे पशु और पक्षी भी
भरोसे के दिखते हैं
इंसानों ने रिश्ते निभाने में
जोड़ दी अपनी अपनी शर्तें
जहां दिखी अपने लिये उम्मीद
वहीं वफा का नाता जोड़ दिया।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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Monday, November 26, 2012

अगर राज्य प्रमुख जाग्रत रहे तो द्वापर काल का दर्शन हो सकता है-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन (agar rajya pramukh jagrat rahe to dwapar kal ka darshan sakta hai-hindu relgion thought besed on kautilya ka arthshastra)

                      हमारे देश में समाज, परिवार और राज्य व्यवस्था से निराश लोग आमतौर से यह सोचकर तसल्ली करते हैं कि यह कलियुग चल रहा है और कभी सतयुग आयेगा तो सभी ठीक हो जायेगा।  इतना ही नहीं  सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग को लेकर हमारे अनेक कथित महान संत देश के धर्मभीरु लोगों को  आज की वर्तमान सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षणिक तथा पारिवारिक स्थितियों से उपजी निराशा को कलियुग होने के कारण सहने का संदेश देते हैं।  यह विश्वास दिलाते हैं कि सतयुग आने वाला है। इतना ही नहीं सतयुग में भगवान विष्णु, त्रेतायुग में भगवान श्रीराम तथा द्वापर में  श्रीकृष्ण के अवतार को लेकर कलियुग में भी कल्कि अवतार होने का दावा प्रस्तुत किया जाता है।  हमारे देश में अनेक धार्मिक पेशेवर लोग श्रीराधा, श्रीकृष्ण और भगवान शिव के अवतार होने का दावा भी इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे कि वह सभी का कल्याण कर देंगे।
            इस तरह युगों के नाम पर यह पाखंड वास्तव में तब मजाक लगता है जब हमें पता लगता है कि दरअसल यह सब राज्य और प्रजा की स्थिति पर निर्भर करता है।  पहले राजतंत्र था अब तो हमारे यहां पाश्चात्य पद्धति के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था है।  यहां कथित रूप से प्रजा से चुने लोग राज्य कर्म  के लिये उच्च पदों पर बैठते हैं।  ऐसी स्थिति में जब हम कहते हैं कि ‘घोर कलियुग आ गया है’ तब न केवल राज्यकर्म में लिप्त लोग के आचरण पर दृष्टिपात किया जाये  बल्कि प्रजा के लिये भी यह आत्ममंथन का विषय होता है। अगर हम धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें तो वास्तव में राज्य व्यवस्था सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर तथा कलियुग का निर्माण करती है। इसके लिये राज्य प्रमुख की चेष्टायें ही आधार होती हैं 
              कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि
              ------------------------
             कृतं त्रेतायुगं चैप द्वापरं कलिरेव च।
             राज्ञोवृत्तानि सर्वाणि राजा के हि युगमुच्यते।
           हिन्दी में भावार्थ-किसी राज्य में राजा जिस तरह प्रजा के लिये व्यवस्था तथा चेष्टा करता है वही युग कहलाती है।  एक तरह से राजा का राज्यकाल ही सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होती है। एक तरह से राजा का कार्यकाल ही युग होता है।
               कलिः प्रसुप्तो भवति सः जाग्रद्द्वापरं युगम।
               कर्मस्यभ्युद्यतस्वेत्ता विचरेस्तु कृतं युगम्।।
             हिन्दी में भावार्थ-राजा के निरुद्यम होने पर कलियुग, जाग्रत रहने पर द्वापर, कर्म में तत्पर रहने पर त्रेता तथा यज्ञानुष्ठान में रत होने पर सतयुग की अनुभूति होती है।

               आधुनिक लोकतंत्र में पूरे विश्व के देशें में राज्य की व्यवस्था में लगे लोग तथा प्रमुख के बीच अनेक प्रकार के पद होते हैं।  इस व्यवस्था में राज्य का आधार किसी राजा की बजाय  संविधान होता है जिसका संरक्षक राज्य प्रमुख प्रजा से चुना जाता है। इस तरह के संविधानों में राज्य प्रमुख की स्थिति निरुद्यम हो जाती है।  वह देख सकता है, बोल सकता है और सुन भी सकता है पर कर कुछ नहीं सकता।  उसे भी संविधान की तरफ देखना होता है।  फिर उस  पद पर उसके बने रहने की  भी निश्चित अवधि होने से  यह भय उसमें होना स्वाभाविक है कि वहां से हटने के बाद कुछ ऊंच नीच होने पर उसे परेशानी होगी। इतना ही एक बार पद से हटे तो सुविधायें, सम्मान और साथी कम हो जायेंगें। यही कारण है कि वह पद पर आने के बाद प्रजाहित की बजाय अपने वैभव को स्थाई बनाये रखने के लिये संचय के मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है। यही प्रवृत्ति उसे भ्रष्टाचार की तरफ ले जाती हैं  पूरे विश्व में इस समय भ्रष्टाचार को लेकर अनेक आंदोलन चल रहे हैं यह उसका प्रमाण है।  
         आमतौर से लोग राज्यतंत्र को आधुनिक समय में एक असभ्य व्यवस्था बताते हैं पर आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राज्य प्रमुख अपनी धवल छवि बनाये रखने के लिये दंड, अपराध की जांच और उद्दंड व्यक्तियों के विरुद्ध कोई भी प्रत्यक्ष कार्यवाही करने से अपने हाथ दूर रखते हैं।  उनके अंतर्गत आने वाली संस्थाओं पर यह जिम्मा रहता है और उनमें कार्यरत लोगों की कार्यप्रणाली में उस मानसिक दृढ़ता का अभाव दिखता है जो  कि प्रत्यक्ष रूप से कार्य करने वाले राज्य प्रमुख में होता है।  इतना ही नहीं आधुनिक लोकतंत्र व्यवथा में सभी पदों पर नियुक्त लोगों की राज्य प्रमुख स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं रहता।  एकदम निचले पद पर काम करने वाले व्यक्ति के लिये राज्य प्रमुख दूर का विषय होता है जबकि कानून, नीतियां, कार्यक्रम तथा प्रजा से प्रत्यक्ष संपर्क करने वाले यही निम्न पदों पर कार्यरत लोग ही होते हैं।  इस तरह राज्य प्रमुख और प्रजा की बहुत दूरी होती है जिसका लाभ भ्रष्टाचार करने वाले खूब उठाते हैं।  प्रजा के सामने राज्य प्रमुख की छवि एक निष्क्रिय पदाधिकारी की होती है जो कलियुग का प्रमाण है।
        इस आधुनिक व्यवस्था में सतयुग और त्रेतायुग के दर्शन तो हो नहीं सकते क्योंकि इसके लिये राज्य प्रमुख का स्वयं ही युद्धवीर होना आवश्यक है  अलबत्ता प्रचलित  लोकतंत्र व्यवथा में राज्य प्रमुख के निरंतर जाग्रत होकर प्रजा हित के लिये तत्पर रहने  पर द्वापर का दर्शन हो सकता है क्यों  उसमें  राज्य प्रमुख को अपनी ही व्यवस्था में लोगों से महाभारत करते रहना होगा।  एक बात तय रही कि हमें इन युगों को प्राकृतिक रूप से परिवर्तन होने वाली स्थिति नहीं माना जा सकता।  अगर ऐसा न होता तो हर युग में भ्रष्टाचारी और अपराधी नहीं होते जिनका संहार करने के लिये भगवान के अवतार होते रहे हैं।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Sunday, October 21, 2012

बेजान सच-हिंदी कविता (bejan sach-hindi kavita)

लोकतंत्र में
आम आदमी का मन लगाने के लिये
हर रोज नये चेहरे लाना जरूरी है,
चाल जैसी भी हो
मगर अदायें खूबसूरत रहें
भीड़ का दिल बहलाना जरूरी है।
कहें दीपक बापू
बाज़ार के सौदागरों के हाथ में फंसी दुनियां
दौलत से भरे महलों के आदी हैं सभी
ज़माने को काबू रखने के लिये
उनके  पहरेदारों के पास रहता डंडा
बिठा देते सिंहासनों पर खामोश बुत
झूठ छिपा रहे
इसलिये बेजान सच साथ रखना जरूरी है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Wednesday, September 26, 2012

2 अक्टुबर महात्मा गांधी जयंती पर विशेष हिन्दी लेख-उनकी छवि राजनीतिक संत के रूप में रही (special hindi article 2 october mahatam gadhi barth's day)


          2 अक्टोबर को महात्मा गांधी की जयंती है।  आधुनिक भारतीय इतिहास में महात्मा गांधी को पितृपुरुष के रूप में दर्ज किया गया है।  हम जब  भारत की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं कि प्राचीन  समम में इसे भारतवर्ष कहा जाता था।  इतना ही नहीं पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अफगानिस्तान, भूटान, श्रीलंका, माले तथा वर्मा मिलकर हमारी पहचान रही है।  अब यह सिकुड़ गयी है।  भारतवर्ष से प्रथक होकर बने देश अब भारत शब्द से ही इतना चिढ़ते हैं कि वह नहीं चाहते  शेष विश्व उनको भारतीय उपमहाद्वीप माने।  इस तरह भारतवर्ष सिकुड़कर भारत रह गया है।  उसमें भी अब इंिडया की प्रधानता है।  इंडिया हमारे देश की पहचान वाला वह शब्द है जिसे पूरा विश्व जानता है। भारत वह है जिसे हम मानते हैं।  यह वही भारत है जिसका आधुनिक इतिहास है 15 अगस्त से शुरु होता है।  यह अलग बात है कि कुछ राष्ट्रवादी अखंड भारत का स्वप्न देख रहे हैं। 
     बहरहाल विघटित भारतवर्ष के शीर्ष पुरुषों में महात्मा गाधंी का नाम पूज्यनीय है।  उन्होंने भारत की राजनीतिक आजादी की लड़ाई लड़ी।  इसका अर्थ केवल इतना था कि भारत का व्यवस्था प्रबंधन यहीं के लोग संभालें।  संभव है कुछ लोग इस तर्क को  संकीर्ण मानसिकता का परिचायक माने पर तब उन्हें यह जवाब देना होगा देश की आजादी के बाद भी अंग्रेजों के बनाये ढेर सारे कानून अब तक क्यों चल रहे हैं?  देश के कानून ही व्यवस्था के मार्गदर्शक होते हैं और तय बात है कि हमारी वर्तमान आधुनिक व्यवस्था का आधार अंग्रेजों की ही देन है। 
       महात्मा गांधी ने अपना सार्वजनिक जीवन दक्षिण अफ्रीका   में प्रारंभ हुआ था। वहां गोरों के भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष में जो उन्होंने जीत दर्ज की उसका लाभ यहां के तत्कालीन स्वतंत्रता संग्राम आंदोलनकारियों ने उठाने के लिये उनको आमंत्रित किया।  तय बात है कि किसी भी अन्य क्षेत्र में लोकप्रिय चेहरों को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठत कर जनता को संचालित करने का सिलसिला यहीं से शुरु हुआ जो आजतक चल रहा है।  अगर महात्मा गांधी इंग्लैंड से अपनी पढ़ाई प्रारंभ कर भारत लौटते तो यकीनन उस समय स्वतंत्रता संग्राम के तत्कालीन शिखर पुरुष उनको अपने अभियान में सम्म्लिित होने का आंमत्रण नहीं भेजते।
             महात्मा  गाँधी  का जीवनकाल  हम जैसे लोगों के जन्म से बहुत पहले का है।  उन पर जितना भी पढ़ा और जाना उससे लेकर उत्सुकता रहती है। फिर जब चिंत्तन का कीड़ा कुलबुलाता है तो कोई नयी बात नहीं निकलती। इसलिये आजकल के राजनीतिक और सामाजिक हालात देखकर अनुमान करना पड़ता है क्योंकि व्यक्ति बदलते हैं पर प्रकृति नहीं मिलती।  यह अवसर अन्ना हजारे साहब ने प्रदान किया।  वैसे तो अन्ना हजारे स्वयं ही महात्मा गांधी के अनुयायी होने की बात करते हैं पर उन्होंने ही सबसे पहले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के दौरान यह कहकर आश्चर्यचकित किया कि अब वह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘हमें तो अधूरी आजादी मिली थी‘।  ऐसे में हमारे जैसे लोगों किंकर्तव्यमूढ़ रह जाते हैं।  प्रश्न उठता है कि फिर महात्मा गांधी ने किस तरह की आजादी की जंग जीती थी।  अगर अन्ना हजारे के तर्क माने जायें तो फिर यह कहना पड़ेगा कि उन्हें इतिहास एक ऐसे युद्ध के विजेता नायक के रूप में प्रस्तुत करता है जो अभी तक समाप्त नहीं हुआ है।  अनेक लोग अन्ना हजारे की गांधी से तुलना पर आपत्ति कर सकते हैं पर सच यही है कि उनका चरित्र भी विशाल रूप ले चुका है।  उन्होंने भी महात्मा गांधी की तरह राजनीतिक पदों के प्रति अपनी अरुचि दिखाई है।  सादगी, सरलता और स्पष्टतवादिता में वह अनुकरणीण उदाहरण पेश कर चुके हैं। हम जैसे निष्पक्ष और स्वतंत्र लेखक उनकी गतिविधियों में इतिहास को प्राकृतिक रूप से दोहराता हुआ देख रहे हैं। इसलिये भारतीय दृश्य पटल पर स्थापित बुद्धिजीवियों, लेखकों और प्रयोजित विद्वानों का कोई तर्क स्वीकार भी नहीं करने वाले।
               महात्मा गांधी को कुछ विद्वानों ने राजनीतिक संत कहा।  उनके अनुयायी इसे एक श्रद्धापूर्वक दी गयी उपाधि मानते हैं पर इसमें छिपी सच्चाई कोई नहीं समझ पाया।  महात्मा गांधी भले ही धर्मभीरु थे पर भारतीय धर्म ग्रंथों के विषय में उनका ज्ञान सामान्य से अधिक नहीं था।  अहिंसा का मंत्र उन्होंने भारतीय अध्यात्म से ही लिया पर उसका उपयोग  एक राजनीति अभियान में उपयोग करने में सफलता से किया। मगर यह नहीं भूलना चाहिए  पूरे विश्व के लिये वह अनुकरणीय हैं। यह अलग बात है कि जहां अहिंसा का मंत्र सीमित रूप से प्रभावी हुआ तो वहीं राजनीति प्रत्येक जीवन का एक भाग है सब कुछ नहीं।  अध्यात्म की दृष्टि से तो राजनीति एक सीमित अर्थ वाला शब्द है।  यही कारण है कि अध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण कार्य न करने पर महात्मा गांधी का परिचय एक राजनीतक संत के रूप में सीमित हो जाता है।  अध्यात्मिक दृष्टि से महात्मा गांधी कभी श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में नहीं जाने गये।  जिस अहिंसा मंत्र के लिये शेष विश्व उनको प्रणाम करता है उसी के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जैसे परम पुरुष इस धरती पर आज भी उनसे अधिक श्रद्धेय हैं।  कई बार ऐसे लगता है कि महात्मा गांधी वैश्विक छवि और राष्ट्रीय छवि में भारी अंतर है। वह अकेले ऐसे महान पुरुष हैं जिनको पूरा विश्व मानता है पर भारत में भगवान राम, श्रीकृष्ण, महात्मा बुद्ध तथा  महावीर जैसे परमपुरुष आज भी जनमानस की आत्मा का भाग हैं।  इतना ही नहीं गुरुनानक देव, संत कबीर, तुलसीदास, रहीम, और मीरा जैसे संतों की  भी भारतीय जनमानस में ऊंची छवि है। धार्मिक और सामाजिक रूप से स्थापित परम पुरुषों के  क्रम में कहीं महात्मा गांधी का नाम जोड़ा नहीं जाता।  एक तरह से कहें कि कहीं न कहीं महात्मा गांधी वैश्विक छवि की वजह से अपनी छवि यहां बना पाये।
                महात्मा गांधी जब एक रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे तब एक गोरे अधिकारी ने उनको उस बोगी से उतार दिया क्योंकि वह गोरे नहीं थे।  उसके बाद उन्होंने जो अपना जीवन जिया वह एक ऐसी वास्तविक कहानी है जिसकी कल्पना  उस समय बड़े से बड़ा फिल्मी पटकथा लेखक भी नहीं कर सकता था।  उनकी पृष्ठभूमि पर ही शायद बाद में जीरो से हीरो बनने की कहानियां फिल्मों पर आयी होंगी।  उनके जीवन से प्रेरणा लेकर एक स्वाभिमानी व्यक्ति बना जा सकता है।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि भोगी नहीं त्यागी बड़ा होता है। महात्मा गांधी ने सभ्रांत जीवन की बजाय सादा जीवन बिताया। यह उस महान त्याग था क्योंकि उस समय अंग्रेजी जीवन के लिये पूरा समाज लालायित हो रहा था।  उन्होंने सरल, सादा सभ्य जीवन गुजारने की प्रेरणा दी। ऐस महापुरुष को भला कौन सलाम ठोकना नहीं चाहेगा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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Wednesday, September 12, 2012

१४ सितम्बर हिन्दी दिवस पर लेख-हिन्दी अध्यात्म की भाषा है इसलिये जुड़े रहें (hindi adhyatma ki bhasha hai-hindi diwas or hindi divas par lekh and article

         अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस को लेकर जमकर खोज हो रही है।  इस लेखक के ब्लॉगों जिन पाठों में हिन्दी दिवस के विषय पर लिखा गया है उन पर पाठकों की संख्या पहले से इन दिनों  छह गुना अधिक है।  इसका मतलब यह है कि पूरे वर्ष में    कम से कम एक दिन तो ऐसा है जब बौद्धिक प्रवृत्ति के लोगों को हिन्दी की याद आती है। कौन लोग हैं जो सर्च इंजिनों में हिन्दी दिवस से से जुड़े शब्द डालकर इससे संबंधित पाठ खोज रहे होंगे?
     एक बात तय है कि अभी इंटरनेट पर हिन्दी जनसामान्य में लोकप्रिय नहीं है। नयी पीढ़ी के लोग तथा कंप्यूटर के जानकार बौद्धिक व्यक्ति ही यह खोज कर रहे होंगें।  नयी पीढ़ी में वह लोग हैं जिनको शायद हिन्दी दिवस पर अपनी शैक्षणिक संस्थानों के अलावा हिन्दी में अनुदान प्राप्त संघों के यहां  होने वाली निबंध,कहानी, कविता अथवा वाद विवाद प्रतियोगिताओं मे भाग लेना हो। इसलिये  यहां से कुछ प्रेरणा प्राप्त करना चाहते हो।  इसके अलावा कुछ बौद्धिक लोगों को समाचार पत्रपत्रिकाओं के लिये लेख लिखने अथवा राजकीय धन से आयोजित परिचर्चा या भाषण देने के लिये कोई नयी सामग्री की तलाश हो।  वह भी शायद इंटरनेट पर कुछ खोज रहे हों।  इसी कारण इस लेखक को अपने पाठ पढ़ने का दोबारा अवसर मिल रहा है।
         उन लेखों से कोई प्रेरणादायी सामग्री मिल सकती है यह भ्रम लेखक नहीं पालता।  दरअसल हिन्दी के महत्व पर लिखे गये एक लेख पर अनेक टिप्पणीकार यह लिख चुके हैं कि आपने उसमें असली बात नहीं लिखी।  विस्तार से हिन्दी का महत्व बतायें।  इस बात पर हैरानी होती है कि हिन्दी का महत्व अभी भी समझाना बाकी है।  इस लेखक का विश्वास है कि हिन्दी दिवस पर लिखे गये पाठों वाले ब्लॉग इस समय किसी भी हिन्दी वेबसाइट या ब्लॉग  से अधिक पाठक जुटा रहे हैं।  शिनी स्टेटस में साहित्य वर्ग में एक ब्लॉग अंग्रेजी ब्लॉगों को पार करता हुआ तीन नंबर के स्थान में पहुंच गया है। कल इसके एक नंबर पर पहुँचने की संभावना है।  इस वर्ग के पंद्रह ब्लॉग में तीन  इस लेखक के हैं। मनोरंजन के अन्य वर्ग में एक ब्लॉग पंद्रहवें नंबर पर है। 14 सितंबर को हिन्दी दिवस है और 13 सितंबर वह दिन है जब इस लेखक के अनेक ब्लॉग अपनी पिछली संख्या का कीर्तिमान पार करेंगे। यह संख्या एक दिन में ढाई से तीन हजार होगी।
    हिन्दी का महत्व क्या बतायें? यह रोटी देने वाली भाषा नहीं है।  अगर प्रबंध कौशल में दक्ष नही है तो इसमें लिखकर कहीं सम्मान वगैरह की आशा करना भी व्यर्थ है।  फिर सवाल पूछा जायेगा कि इसका महत्व क्या है?

     इसका हम संक्षिप्त जवाब भी देते हैं।  अनेक भाषाओ का ज्ञान रखना अच्छी बात है पर जिस भाषा में सोचते हैं अभिव्यक्ति के लिये वही भाषा श्रेयस्कर है।  फेसबुक पर नयी पीढ़ी के लोगों को देखकर तरस आता है।  वह हिन्दी में सोचते हैं-यह प्रमाण रोमनलिपि में उनकी हिन्दी देखकर लगता है- मगर प्रस्तुति के  समय वह हकला जाते हैं।  हिन्दी लिखने के ढेर सारे टूल उनके पास है वह इसका उपयोग नहीं जानते। जानते हैं तो कट पेस्ट में समय खराब करना उनको अच्छा नहीं लगता।  उनका लिखा हमें हकलाते हुए पढ़ना पढ़ता है।  तय बात है कि वह लिखते हुए समय बचाते हैं पर जब दूसरे का लिखा  पढ़ने का समय आता है तो उनका दिमाग भी लिखे गये विषय को हकलाते हुए पकड़ता है।  कुछ लोग अंग्रेजी में लिखते हैं पर पढ़ते समय साफ लगता है कि उनके मन का विचार हिन्दी में है। हिन्दी भाषा अध्यात्म की भाषा है यह इस लेखक की मान्यता है।  जब हिन्दी में सोचकर अंग्रेजी भाषा या रोमन लिपि में लिखते हैं तो हकलाहट का आभास होता है।  भाषा का संबंध भूमि, भावना और भात यानि रोटी से है।  भारत में रोमन लिपि और अंग्रेजी भाषा की गेयता कभी पूरी तरह से निर्मित नहीं हो सकती।  इस सच्चाई को मानकर जो हिन्दी को अपने बोलचाल के साथ ही अपने जीवन में अध्यात्मिक रूप से उपयोग करेगा उसके व्यक्त्तिव में दृढ़ता, वाणी में शुद्धता और विचारों में पवित्रता का वास होगा।  यह तीनों चीजें अध्यात्मिक तथा भौतिक विकास दोनों में सहायक होती हैं।  अध्यात्मिक विकास की लोग सोचते नहीं है पर भौतिक विकास के पीछे सभी हैं।  कुछ लोग भौतिक संपन्नता प्राप्त भी करते हैं तो उसका सुख नहीं ले पाते।  सीधी मतलब यह है कि अध्यात्मिक शक्तियां ही भौतिक सुख दिलाने में सहायक हैं और इसी कारण हर भारतवासी को हिन्दी के साथ जुड़े रहना होगा। 
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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Thursday, August 30, 2012

कुपोषित और मिलावटी भोजन की समस्या-हिन्दी लेख (kuposhan aur milavat ki samsya-hindi lekh or article)

      देश में कुपोषण की समस्या है।  पहले यह समस्या अकाल ग्रस्त या अन्न के कम पैदावर वाले इलाकों के साथ ही गरीब वर्ग में दिखाई देती थी अब उसके अलग अलग रूप भी सामने आये हैं। एक तो यह  रूप भी है जिसमें आपके पास पैसा हो और आप सामान भी खरीद रहे हैं पर वह देह के लिये पोषक न हो। वह नकली भी हो सकता है और मिलावटी भी।  दूसरा यह कि कुछ लोग पतले दिखने के लिये चर्बी और  चिकनाई युक्त भोजन से बचते हैं।  वह पतले दिखते हैं पर उनके शरीर में अधिक देर तक काम करने की शक्ति नहीं होती।  गरीबों का कुपोषण जहां गरीबी के कारण होता है तो नकली और मिलावटी सामान भी उनके लिये वैसा ही संकट है।  मगर जहां तक ओढ़ी गयी कुपोषण की समस्या का सवाल है वह समाज के सभ्रांत वर्ग में -जिसमें अमीर तथा मध्यम वर्ग की महिलाओं का प्रतिशत अधिक है-देखी जा रही है।
       अभी हाल ही में शिरडी के सांई बाबा मंदिर के बाहर लड्डू बिकने का मामला प्रकाश में आया था।  हम जब कुपोषण की बात करते हैं अपना ध्यान केवल उन भोज्य पदार्थों की तरफ केंद्रित कर रहे हैं जो देह के लिये पोषक अधिक नहीं होते।  इन लड्डुओं के पोषक तथा कुपोषक तत्व कितने हैं इसकी जानकारी नहीं है पर संभवतः कुछ विषैले तत्वों के समावेश की आशंका हो सकती है।  सच बात तो यह है कि कुपोषण जैसी समस्या मिलावट भी हो गयी है। पहले कुपोषण की समस्या गरीब वर्ग तक सीमित थी पर अब मध्यम और उच्च वर्ग मिलावट के कारण इसका शिकार हो रहे हैं। कुपोषित और मिलावटी शरीर के लिये एक समान घातक है।
   मुख्य बात यह है कि इन दोनो ंसमस्याओं से जूझा कैसे जाये? इस पर तो अनंतकाल तक बहस चलेगी।  राज्य और समाज अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते पर इसके लिये जिस संकल्प की आवश्यकता है वह अभी कहीं दिखाई नहीं देता।  देश में विकास बहुत हुआ है पर स्वास्थ्य का स्तर भी बहुत बुरी तरह गिरा है यह अंतिम सत्य है।  स्वास्थ्य विशेषज्ञ अत्यंत डरावने आंकड़े प्रस्तुत करते हैं।  जब देश में कुपोषण या मिलावट की समस्या व्यापक रूप स दिखती हो तब हम समाज में स्वास्थ्य का प्रतिशत अधिक रहने की आशा नहीं कर सकते।  देश में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तथा हृदय के विकारों के मरीब बढ़ रहे हैं तब चिकित्सक उनके परहेज के रूप में यह सलाह देते है कि उनको चिकना, मीठा तथा अधिक देर तक शरीर में रहने वाला भोजन नहंी करना चाहिए। पर जब श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देखते हैं तो पता लगता है कि इस तरह के भोज्य पदार्थ सात्विक व्यक्ति को प्रिय होते हैं।  इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि ऐसे भोजन से मनुष्य में सात्विकता बनी रह सकती है।  जब समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग  लाचारी या स्वेच्छा से ंऐसे भोजन से परहेज कर रहा हो तब सात्विकता का प्रतिशत अधिक रहने की आशा करना व्यर्थ है।  बासी, उच्छिट, तीखा तथा कुपाच्य भोजन तामस वृत्ति के मनुष्य का प्रिय होता है।  ऐसे भोज्य पदार्थों का उपभोग हमारे समाज में बढ़ रहा है।  ऐसे में समाज के दैहिक तथा मानसिक स्वास्थ्यय के अच्छे रहने की आशा करना ही व्यर्थ है।
    जब हम देश में कुपोषण तथा मिलावट वाले भोजन की चर्चा करें तब हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जैसा खाये अन्न वैसा हो मन।  मन पर हमारा नियंत्रण नहीं पर उसे सात्विकता बनाये रखने का उपाय यह है कि हम ऐसे भोजन का प्रबंधन करें जो सुपाच्य तथा शुद्ध हो।  यह जिम्मेदारी सरकार और समाज दोनों की है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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Thursday, August 23, 2012

सौदागरों से हमदर्दी की आशा बेकार-हिंदी कविता (saudagron se hamdardi kee asha-hindi kavita)

कभी न करना दिल देने का करार-हिन्दी कविता
महलों में रहने,
हवाई जहाज में बैठने,
और अपनी जिंदगी का बोझ
गुलामों के कंधों पर रखने वालों से
हमदर्दी की आशा करना है बेकार,
जिन्होंने दर्द नहीं झेला
कभी अपने हाथ काम करते हुए
ओ मेहनतकश,
 उनसे दाद पाने को न होना बेकरार।
कहें दीपक बापू
चौराहों पर चाहे जितनी बहस कर लो,
अपना दर्द बाजार में बेचने के लिये भर लो,
मगर भले के सौदागरों से न करना कभी
इलाज के बदले दिल देने का करार।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Thursday, August 16, 2012

महंगे सामान और सस्ती ज़िन्दगी-हिंदी व्यंग्य कविता (mahange saman aur sasti zindagi-hindi satire poem)

महंगे सामानों के शौक में
आदमी ने
अपनी जिंदगी को सस्ती बना दिया,
इश्क में खून की तबाही को
अपनी मस्ती बना दिया।
कहें दीपक बापू
कृत्रिम नजारों में आखों फोडना,
ख्याली अफसानों में दिल तोड़ना,
और कभी बेकार वाह वाह करना
कभी आहें भरते हुए सांसें छोड़ना,
बन गया है फैशन
बीमारों से भरे हुए शहर
दिमागों में कूड़ेदानों की  बस्ती को बसा लिया
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लेखक एवं कवि- दीपक राज कुकरेजा,‘‘भारतदीप’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
 
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Wednesday, August 15, 2012

स्वामी रामदेव का ‘योग शिक्षक’ वाला रूप ही सर्वश्रेष्ठ-हिन्दी लेख (baba ramdev is good yog teacher than politician-hindi article or editorial)

               बाबा रामदेव ने अपना अनशन स्थगित  कर दिया है।  उन्होंने देश का विदेशों जमा काला धन वापस लाने के लिये अपना अभियान बहुत समय से चला रखा है और इसके लिये उनको भारी जनसमर्थन भी मिला है।  देश में व्याप्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाने पर ऐसा ही समर्थन अन्ना हजारे को भी मिलता रहा है।  जनकल्याण के लिये नारे लगाने और आंदोलन चलाने वालों को यहां समर्थन मिलना कोई बड़ी बात नहीं है पर इन प्रयासों के परिणाम क्या निकले यह आज तक कभी विश्लेषण कर बताया नहीं जाता।  बहरहाल अन्ना हजारे को जहां केवल अपनी आंदोलन की अनशन शैली के कारण जाना जाता है तो बाबा रामदेव को पहले एक योग शिक्षक के रूप में प्रसिद्धि मिली। 
     हम जब अन्ना हजारे साहब और स्वामी रामदेव के आंदोलनों की तुलना करते हैं तो पाते हैं कि कमोवेश दोनों ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते दिखे। वैसे दोनों में कोई तुंलना करना इसलिये भी व्यर्थ है क्योकि दोनों के सांगठनिक ढांचा प्रथक आधारों टिका है। फिर मुद्दा भी अलग है। अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाते रहे हैं जबकि स्वामी रामदेव काले धन पर बरसते रहे हैं।
         हम दोनों के व्यक्तित्वों की बात करें तो बाबा रामदेव ने कम आयु में जो प्रतिष्ठा प्राप्त की उसका श्रेय उनकी योग शिक्षा को जाता है।  काले धन के विरुद्ध वह अगर अपना अभियान नहीं भी चलाते तो उनकी लोकप्रियता योग शिक्षा की वजह से चरम पर पहुंच गयी  थी।  जिस योग विज्ञान के जनक पतंजलि ऋषि रहे हैं वह उनके नाम पर चला जा रहा था।  काले धन के विरुद्ध अभियान से उनकी प्रतिष्ठा में कोई वृद्धि तो दर्ज नहीं बल्कि विवादों से उनके व्यक्तित्व की छवि आहत होती नजर आती है। योग साधकों की दृष्टि से योग शिक्षा तथा समाज के लिये आंदोलन अलग अलग विषय हैं। अन्ना जहां आंदोलन की वजह से लोकप्रिय हुए तो स्वामी रामदेव योग शिक्षा से लोकपिय्रता प्राप्त कर आंदोलन के लिये तत्पर हुए।
              उन्हें आंदोलन करना चाहिए या नहीं यह उनका निजी विषय है। हम जैसे आम लोग उन्हें राय देने का अधिकार नहीं रखते। इतना अवश्य है कि देश के योग साधकों तथा अध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिये स्वामी रामदेव के क्रियाकलाप अन्य लोगों से अधिक दिलचस्पी का विषय होते हैं।  पतंजलि योग एक महान विज्ञान है  और हमारे पावन  ग्रंथ  श्रीमद्भागवत गीता का वह एक महत्वपूर्ण विषय है। इसलिये तत्वाज्ञान साधकों में बाबा रामदेव की गतिविधियों को अत्यंत व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाता है। जब अन्ना हजारे साहब के क्रियाकलाप की चर्चा होती है तो उसमें अध्यात्मिक श्रद्धा का पुट नहीं होता जबकि बाबा रामदेव के समय संवदेनाओं की लहरें हृदय में गहराई बढ़ जाती हैं।
      यह पता नहीं कि बाबा रामदेव का गीता के बारे में अध्ययन कितना है पर उनके अनशन पर अध्यात्मिक विश्लेषकों की राय अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है।  यह अनशन राजसी कर्म में आता है।  सात्विक, राजस तथा तामस भावों का चक्र कुछ ऐसा है कि आदमी इनमें घूमता रहता है।  यह गुण किसी में स्थाई रूप से नहीं रहते।  कर्मो के अनुसार मनुष्य के भाव बदलते हैं। सुबह आदमी जहां सात्विक होता है तो दोपहर राजस वृत्ति उसे घेर लेती है और रात के अंधेरे को वैसे भी तमस कहा जाता है।  उस समय थका हारा आदमी आलस्य तथा निद्रा में लीन हो जाता है।  अलबत्ता ज्ञानी तीनों स्थितियों में अपने आप नियंत्रण रखता है और अज्ञानी अपने भटकाव को नहीं समझ पाता-तामस तथा राजस भाव को क्या समझेगा वह अपने अंदर के ही सात्विक भाव को भी नहीं देख पाता।  योगी इन तीनों गुणों से परे होता है क्योंकि वह कर्म चाहे कोई भी करे उसमें अपना भाव लिप्त नहीं होने देता।  स्वामी रामदेव ने अभी वह स्थिति प्राप्त नहीं की यह साफ लगता है।
      सच बात कहें तो हम जैसे आम लेखक, योग साधक तथा तथा ज्ञान पाठकों के लिये बाबा रामदेव का सर्वश्रेष्ठ रूप तो योग शिक्षक का ही है।  स्वामी रामदेव अपने योग शिविरों में अपनी शिक्षा से लाभ उठाने वालों को सामने बुलाकर लोगों को दिखाते हैं मगर क्या वह अपने आंदोलन से लाभ उठाने वालों के नाम गिना सकते हैं। वह कह सकते हैं कि यह तो संपूर्ण समाज के लिये तो प्रश्न उठता है कि क्या लोगों को इससे कोई लाभ हुआ?
देश की जो स्थितियां हैं किसी से छिपी नहीं है पर हमारा समाज कैसा है इस पर विश्लेषण कौन करता है? रुग्ण, आलसी तथा संवेदनहीन समाज की दवा योग शिक्षा तो हो सकती है पर कोई आंदोलन उसे दोबारा प्राणवायु देगा इस पर यकीन करना कठिन है।  वैसे रामदेव जी ने अपने आंदोलन के दौरान भी योग शिविर लगाया पर बाद में उनके भाषण से जो नकारात्मक प्रभाव होता है वह भी किसी मानसिक बीमारी से कम दर्द नहीं देता। वैसे हम बाबा रामदेव के आंदोलन का विरोध नहीं कर रहे क्योंकि ज्ञान साधना से इतना तो पता लग गया है कि देहधारी योग साधना से मन विचार, और बुद्धि को शुद्ध तो कर लेता है पर फिर उसका मूल स्वभाव उसके काम में लगा ही देता है हालांकि वह उसमें भी पवित्रता लाने का प्रयास करता है।  स्वामी रामदेव ने योगाभ्यास से जहां दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक शक्ति पाई है उसमें संदेह नहीं है पर कहीं न कहीं उनके अंदर प्रतिष्ठा पाने का मोह रहा है जो उनको ऐसे आंदोलन में लगा रहा है।  बहरहाल हम उनकी योग शिक्षक वाली भूमिका को सराहते हें और आंदोलन की बात करें तो उसके लिये पेशेवर विश्लेषकों का ढेर सारा समूह है जो माथापच्ची कर रहा है।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर, मध्यमप्रदेश

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, August 11, 2012

ओलम्पिक में फिक्सिंग और भारत-हिन्दी लेख (fixing in olampic and india-hindi lekh or article

  
             भारत में ओलम्पिक की इज्जत लगभग खत्म ही हो जायेगी।  अभी तक कोई खिलाड़़ी जब अपनी हेकड़ी दिखाता है तो लोग उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तू ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ला सकता है?‘‘
           जब तक भारत के बैटमिंटन और मुक्केबाजी के खिलाड़ी ओलम्पिक के क्वार्टन फाइनलों तक नहीं पहुंचे थे तब तक  भारत में लोग यह मानते थे कि हमारा देश खेल में फिसड्डी है। क्रिकेट में फिक्सिंग की बात सामने आयी पर ओलम्पिक की पवित्रता की विचार यह बना रहा है।  अब हालत वह नहीं है। 
          ओलम्पिक के दौरान दोनों ही प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग की बात सामने आयी और भारत के खिलाड़ियों के परिणामों पर इसका नकारात्मक प्रभाव दिखा।  स्थिति यह रही कि भारतीयों अपील की तो वह निरस्त हो गयी पर जापान और अमेरिका ने जब अपने परास्त  खिलाड़ियों के लिये प्रतिवाद प्रस्तुत किया तो उसे मानते हुए विजयश्री प्रदान की गयी।  यहां तक ठीक था पर अब पता लगा कि एक देश ने  मुक्केबाजी में दो स्वर्ण पदकों के लिये 78 करोड़ खर्च किये।  अब अमेरिका और जापान के प्रतिवाद भी इसलिये शंका के दायरे में आ गये हैं क्योंकि दोनो अमीर देश हैं। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये पैसा खर्च कर सकते हैं।
               ओलम्पिक में भारत अनेक प्रतियोगिताओं में भाग भी नहीं लेता है।  उनमें भी फिक्सिंग वगैरह होती हो यहां पता लगाना मुश्किल है।  भारतीय मुक्केबाज एक के बाद एक बाहर हुए तो भारत में थोड़ी शर्मिंदगी अनुभव की गयी भले ही उनके हारने पर निर्णायकों के विरुद्ध प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया।  अब तो बीबीसी लंदन ने भी मान लिया है कि मुक्केबाजी में जमकर फिक्सिंग होती रही है।   भारतीय प्रचार माध्यमों की बात पर कोई भरोसा नहीं करता पर अंग्र्रेजों की राय तो यहां ब्रह्म वाक्य मान ली जाती है। यह अलग बात है कि इसके लिये हमारे प्रचार माध्यमों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार हैं।
              बहरहाल अनेक लोग ओलम्पिक खेलों में दिलचस्पी लेते हैं,  भले ही उनको भारत में खेला नहीं जाता।  ओलम्पिक खेलों में ऐसे खेल और खिलाड़ियों को देखना का अवसर मिलता है जिनके हमारे यहां होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती।  इसका कारण यह है कि उन खेलों के लिये धन के साथ खिलाउि़यों को वैसे अवसर भी मिलना अभी हमारे देश में संभव नहीं है।  ऐसे खिलाड़ी पैदा नहीं होते बल्कि बनाये जाते हैं।  हमारे देश के बच्चों में खेल के प्रति रुझान बहुत रहता है पर उनके लिये वैसे अवसर कहां है जो अमीर देशों के पास हैं।  आधुनिक ओलम्पिक के बारे में कहा जाता है कि किसी देश के विकास तथा शक्ति  की नाप उसको मिले स्वर्ण पदकों से होती है।  इस मामले में चीन का विकास प्रमाणिक हो जाता है।
                  चीन के हमारे देश में बहुत प्रशंसक है और उन्हें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए। यह अलग बात है कि सामाजिक विशेषज्ञ चीन के इस विकास को अप्राकृतिक भी मानते है।  उस पर तानाशाही खेलों में भी कठोर व्यवस्था अपनाने का आरोप लगाते हैं।  अभी हाल ही में ऐसे समाचार भी आये जिसमें वहां के बच्चों को उनकी इच्छा जाने बिना  क्रूरतापूर्वक खिलाड़ी बनाया जाता है। इससे  एक बात तय रही कि आधुनिक खेल के खिलाड़ी पैदा नहीं होते उनको बनाया जाता है-धन का लोभ हो या प्रतिष्ठा पाने का मोह देकर उनको प्रेरित किया जाता है।
           दरअसल हमें वैसे भी ओलम्पिक में अपने निराशाजनक प्रदर्शन पर अधिक कुंठा पालने की आवश्यकता नहीं है।  हॉकी में भारत अंतिम स्थान पर रहा इस भी पुराने खेल प्रेमियों को परेशान की जरूरत नहीं है।  दरअसल आज के अधिकांश खेल अपा्रकृतिक और कृत्रिम मैदान पर होते हैं।  जब तक हॉकी घास के मैदान पर खेली जाती थी तब तक भारत पाकिस्तान के आगे सब देश फीके लगते थे।  धीमे धीमें इस खेल को  कृत्रिम मैदान पर लाया गया।  यह कृत्रिम मैदान हर खिलाड़ी को नहीं मिल सकता और जो सामान्य मैदान पर खेलते हैं उनके लिये वह मैदान अनुकूल भी नहीं है।  मतलब यह कि कोई बच्चा हॉकी खिलाड़ी बनना चाहे तो पहले तो उसे मैदान खोजना पड़ेगा फिर हमारे यहां जो बच्चे बिना जूतों के खेल शुरु करते हैं उनके लिये अब हॉकी में पहले जूते होना जरूरी है क्योंकि कृत्रिम मैदान पर उनके बिना खेलना संभव नहीं है।  प्रसंगवश यहां बता दें कि क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर खेलने की बात हाती है पर अंग्रेज नहीं मानते। उनको इसका परंपरागत स्वरूप ही पंसद है।  अंग्रेजों में यह खूबी है कि वह अपनी परंपरा नहीं छोडते। एक तरह से कहें तो यह हमारा सौभाग्य है। अगर कहीं क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर प्रारंभ हो गया तो आप समझ लीजिये कि आजकल के बच्चों के लिये समय बिताने का  साधन गया।  सभी बड़े खिलाड़ी नहीं बनते पर बनने का ख्वाब लेकर अनेक बच्चे व्व्यस्त तो रहते हैं।  इसी तरह कुश्ती, तैराकी, जिम्नस्टिक, साइकिलिंग तथा अनेक खेल हैं जिनको सामान्य वर्ग के बच्चे आसानी से नहीं खेल सकते।  
   मूल बात यह है कि हमारे देश में खेल को प्राकृतिक मैदान पर खेलने की आदत है।  बच्चों के लिये यह संभव नही है कि वह दूर दूर जाकर मैदान ढूंढे और खेलें।  ऐसे में ओलम्पिक हमारे लिये दूर के ढोल बन जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, July 29, 2012

क्या सुपर कूल हैं हम-हिन्दी आलेख (kya super cool hain hum-hindi article or lekh

                          अमेरिका की एक फिल्म की चर्चा पढ़ने का मिली जिसमें एक पात्र से कहलाया गया है कि ‘‘हताश अमेरिका को बचाने के लिये एक हीरो की जरूरत है।’’ यह कोई बड़ी बात नहीं है पर इसे एक संदर्भ मानकर हम आसपास देखें तो पायेंगे कि धर्म, इतिहास, साहित्य तथा राजनीति से जुड़ी अनेक पुस्तकों में अनेक लोगों ने नायक या हीरो की अपनी स्मृतियां समाज में स्थापित की है जिनके दुबारा प्रकट होने की कामना लोग आज  भी करते हैं।  सभी धर्म, समाज, जाति तथा भाषाई समूहों के अपने अपने हीरो हैं।  जिनकी गाथायें गायी जाती हैं।  हमारे देश में तो भगवान या उनके अवतार का दर्जा तक दिया जाता है जिस पर विश्व की बात तो छोड़िये अपने ही देश अनेक विचाकर हंसते हैं-यह अलग बात है कि विदेशी विचाराधाराओं से प्रभावित यह विद्वान विदेशी नायकों पर ऐसी टिप्पणियां नहीं करते जितना देशी नायकों पर करते हैं। 
                        हम इस पर बहस नहीं कर पूरे विश्व के मानव समुदाय की उस कमजोरी की तरफ इशारा करना चाहते हैं जिसमें समस्याओं को परेशानियों का जनक वह स्वयं है पर उनका हल वह आसमानी देवताओं से चाहता है। 
                        आसमानी देवता कभी धरती पर प्रकट नहीं हो सकते यह दूसरा सत्य है। सासंरिक विषयों में ऊंची नीच होता रहता है। जिसने संपदा और प्रतिष्ठा पाई अभावों में जी रहे लोग उन पर भगवान कृपा मानते हैं। उनकी दृष्टि में आसमान में बैठा अदृश्य शक्तिमान ही संसार की गतिविधियों का संचालक है।  वही कर्म प्रेरणा है तो परिणाम भी वही निर्धारित करता है।  अपनी देह में स्थित दो हाथ, दो पांव, दो कान और दो आंख तथा दो नाक (एक योग साधक के रूप में हमें दो नाक का ही अनुभव होता है) लेकर इस संसार में विचर रहा आदमी अपने मन में अनेक सपने पालता है पर बुद्धि की शक्ति से बेखबर रहता है।  वह स्वयं कर्ता है पर भोक्ता की तरह इस संसार में रहना चाहता है।  रोटी नहीं है तो उसकी तलाश और वह पूरी हुई तो मनोरंजन की चाहत उसके मन में उट खड़ी होती है।
                           मनुष्य की बुद्धि से अधिक मन पर निर्भर रहता है। यहीं से चालाक लोग अपने हितों की पूर्ति का मार्ग बनाते हैं।  यही चालाक लोग धन, संपदा के संचय के साथ ही समाज के शिखर पर प्रतिष्ठत हो जाते है।  भगवान की कृपा का प्रसाद उनको मिला यह देखकर आम आदमी भी उनका भक्त बन जाता है।  यही शिखर पुरुष अपना समाज में तानाबाना ऐसे बुनते हैं कि आम आदमी हमेशा ही शोषण, तनाव और रोजीरोटी के संघर्ष का बोझा उठाते हुए लिये महल बनाता  है। जब वह तंग होता है तो एकाध बार उस हाथ फेरकर शाबादी भी यही शिखर पुरुष देवत्व की अनुभूति कराते  हैं।  सामान्य तौर से आम आदमी इन शिखर पुरुषों को दिखावे का सम्मान देता है पर मन में मानता है कि इन पर भगवान की कृपा हुई है। इन्हीं शिखर पुरुषों के स्वार्थों की पूर्ति करते हुए अनेक लोग भी शिखर प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे सफल लोग इन शिखर पुरुषों को नायक की तरह प्रचारित करते हैं। ऐसे में आम आदमी भी अपनी समस्याओं के लिये नायक की प्रतीक्षा करता है।  हम कुछ नहीं कर सकते कोई नायक आकर हमारी समस्या का हाल करेगा यह सोचकर लोग अपना दिल बहलाते हैं।
                         इधर फिल्मों और टीवी धारावाहिकों ने इस कदर लोगों की बुद्धि का हरण किया है कि कल्पित कहानियों पर बनी मनोरंजन सामग्री को ही संसार की हकीकत माना जाने लगा है।  इनमें काम करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को संसार का नायकत्व मिल जाता है।  यहां किसी को रोटी मिलती है तो नहीं भी मिलती है। किसी के पास रोजगार है तो कोई बेरोजगारी में ही सड़क नाप रहा है।  कामयाबी का पैमाना भगवान की कृपा है तो कामयाब और प्रतिष्ठित आदमी देवत्व का दर्जा पा लेता है।  लोकप्रियता का पैमाना आदमी का व्यवहार नहीं बल्कि उसके साथ खड़ी भीड़ है।  भीड़ में खड़ा आदमी नायक और अकेला खड़ा आदमी मूर्ख है-यह भाव आम हो गया है।
                      इधर एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी ‘क्या कूल हैं हम,’ उसके क्रम में ही दूसरी फिल्म आ गयी है‘क्या सुपर कूल हैं हम’।  इन फिल्मों के प्रदर्शन में अधिक अंतराल नहीं है पर हमने पहले के समाज से कही वर्तमान में  अधिक लोगों को निष्क्रियता की स्थिति में देख रहे हैं। पहले तो लोग कूल या ठंडे थे अब तो सुपर कूल या एकदम ठंडे हो गये हैं। पहले तो यह था कि सभी नहीं तो कुछ लोग यह सोचते थे कि चलो समाज के लिये कुछ कर लें पर आजकल तो समाज में यह मान लिया गया है कि केवल शिखर पुरुष ही यह काम करेंगे। वाकई सुपर कूल हैं हम। 
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, April 14, 2012

सादगी का भरोसा-हिन्दी शायरी (sadagi ka bharosha-hindi shayari)

हमने देखा उनकी तरफ
बड़ी उम्मीद के साथ
शायद वह हमारी जिंदगी में
कभी बहार लायेंगे,
दोष हमारा ही था कि
बिना मतलब के
उनका साथ निभाया,
उनमें वफा करने की कला है कि नहीं
यह जाने बिना
जरूरत से ज्यादा
अपनी सादगी का रूप दिखाया,
फिर भी भरोसा है कि
इस भटकाव में भी
हम कोई नया रास्ता पायेंगे।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, March 24, 2012

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का तृतीय चरण-हिन्दी लेख (anna hazare's anti corruption movement part -3-hindi lekh or article

            अन्ना हजारे साहब फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने आंदोलन की तीसरा चरण शुरु करने वाले हैं। वह एक दिन के लिये अनशन पर बैठेंगे और इस बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध शहीद होने वाले लोगों के परिवार जन भी उनके साथ होंगे। ऐसे में देश के लोगों की हार्दिक संवेदनाऐं उनके साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ेंगी जिसकी इस समय धीमे पड़ रहे इस आंदोलन को सबसे अधिक आवश्यकता है । अन्ना हजारे के समर्थकों ने इस बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत करने वालों को संरक्षण देने के लिये भी कानून बनाने की मांग का मामला उठाया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि विषयवस्तु की दृष्टि से उनके विचारों में कोई दोष नहीं है। वैसे भी उन्होंने जब जब जो मुद्दे उठाये हैं उनको चुनौती देना अपनी निष्पक्ष विचार दृष्टि तथा विवेक का अभाव प्रदर्शित करना ही होगा।
          मूल बात यह है कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन की गति कभी मंथर, कभी मध्यम तो कभी तीव्र होने की स्थिति आम निष्पक्ष तथा स्वतंत्र विश्लेषकों के लिये विचार का विषय बनती रही है। अन्ना हजारे और उनके समर्थक कहीं न कहीं से प्रायोजित हैं यह आरोप तो बहुत पहले से ही उसके विरोधी लगाते हैं पर मौलिक तथा असंगठित क्षेत्र के आम लेखक भी यह प्रश्न उठाते हैं कि आखिर उनकी गतिविधियों के लिये धन कहां से आ रहा है? अन्ना बड़ी आयु के हैं और उनका स्वास्थ्य खराब रहना स्वाभाविक है पर उनके इलाज का समय और स्थान अनेक तरह के प्रश्नों को जन्म देते हैं। जब प्रायोजन की बात भी जब सामने हो तब आंदोलन की गति तथा गतिविधियों दोनों की अनेक प्रश्नों को जन्म देती हैं। हमारे लेखों पर अनेक लोगों ने आपत्तियां की हैं। हम जब यह लिखते हैं कि यह आंदोलन भी बाज़ार के सौदागरों के धन तथा प्रचार समूहों के प्रबंधकों के सहारे चल रहा है जो जनता के असंतोष को भटकाने के लिये चलाया जा रहा है क्योंकि वह कभी लक्ष्य के पास जाता नहीं दिखता तो अनेक पाठक प्रतिकूल टिप्पणियां लिखते हैं। हमने पहले भी लिखा था कि पांच राज्यों के चुनाव के कारण प्रचार माध्यमों के पास विज्ञापन के लिये प्रस्तुत करने के लिये इन चुनावों के समय ढेर सारी सामग्री मिल रही थी। ऐसे में अन्ना हजारे के आंदोलन पर समाचार और चर्चा के लिये उनके पास समय नहीं था। इसलिये यह आंदोलन ठंडे बस्ते में चला गया या डाल दिया गया वह अलग से विचार का विषय है।
           अब स्कूलों में छुट्टियां होती जा रही हैं। गर्मी का समय है। क्रिकेट का भी कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसे में इस आंदोलन को रंगा जा रहा है। निश्चित रूप से टीवी चैनलों पर भीड़ बनाये रखने में यह सहायक होगा।
          हम जैसे आम लेखकों पास न तो साधन होता है न समय कि कहीं से खबरें निकालें न ही यह सामर्थ्य होता है कि बड़े लोगों से गोपनीय चर्चा कर यहां कोई संकेत दें। पर कहते हैं न कि भगवान एक मार्ग बंद रखता है तो दूसरा खोल देता है। हमें उसने दैहिक तथा भौतिक रूप से इतना सामर्थ्यवान नहीं बनाया कि हम बड़े बड़े लोगों में उठ बैठकर बड़े मंचों पर चर्चा कर सकें पर उसने बौद्धिक रूप से चिंत्तन क्षमता को इतना सक्रिय कर दिया है कि सामने से आ रही खबरों के आगे पीछे अपनी दृष्टि रखकर उनके निष्कर्ष निकाल ही लेते हैं। हमारे अनुमान बाद में सही निकलते हैं इसलिये यह आत्मविश्वास ब्लॉगों पर लिखते हुए तो हो गया है कि अपनी बात लिखते हुए अब डर नहीं लगता। हमने बहुत पहले लिखा था कि यह यह आंदोलन प्रायोजित है, उस समय अनेक लोगों ने इस पर नाराजगी जताई पर हम देख रहे हैं बाद में अनेक इंटरनेट लेखक इसे स्वीकारने लगे। बहरहाल हमारे विचार और प्रयासों का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं पड़ता यह बात दिल को तसल्ली देती है । देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सफल हो यह तो हम भी कहते हैं इसलिये आंदोंलन की सक्रियता के लिये हम बाधक नहीं कहलाते वहीं अपनी बात भी कह जाते हैं। अलबत्ता हमें इसके परिणामों में बहुत दिलचस्पी है। देखें आगे क्या होता है?
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, March 4, 2012

पचास पचास फीसदी (फिफ़्टी फिफ़्टी) के खेल में फिफ़्टी फिफ़्टी-हिन्दी व्यंग्य (pachas pachas fisdi ka khel-hindi vyangya, geme of fifty fifty-hindi satire)

पचास पचास (फिफ्टी फिफ्टी) का खेल-हिन्दी व्यंग्य
लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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             पचास फीसदी सफलता का अनुमान कर कोई भी काम नहीं करना चाहिए न ही किसी खेल में शामिल होना चाहिए। कम से कम हम जैसे आदमी के लिए पचासफ़ीसदी अनुमान के मामले में किस्मत कभी साथ नहीं देती। शाम को कभी देर से घर लौटते है, तब दो चाबियों के बीच के खेल में हम अक्सर यह देखते हैं की यह पचास पचास फीसदी गलत ही निकलता है। अपने घर की चाबियों के गुच्छे में तीन चाबिया होती हैं। दो चाबियों का रूप एक जैसा है। उनके तालों में बस एक ही अंतर है कि एक पुराना है और दूसरा नया। अंधेरे में यह पता नहीं लगता कि हम जिस चाबी को पकड़ कर ताला खोल रहे हैं वह उसी ताले की हैं। अनुमान करते हैं पर वह हमेशा गलत निकलता है। बाद में उसके नाकाम होने पर हम दूसरी चाबी लगाकर खोलते हैं। ताला नया है तो पहले चयन में चाबी पुराने की आती है, अगर पुराना है तो नये ताले की पहले आती है। यही स्थिति पेंट की अंदरूनी जेब में रखे पांच सौ और एक सौ के नोट की भी होती है। मानो दोनों रखे हैं और हमें पांच सौ का चाहिए तो एक सौ का पहले आता है और और जब सौ का चाहिए तो पांच सौ का आता है। उसी तरह जब कभी जेब में एक और दो रुपये का सिक्का है और साइकिल की हवा भराने पर जेब से निकालते हैं तो दो का सिक्का पहले हाथ आता है और जब स्कूटर में हवा भराते हैं तो एक रुपये का सिक्का पहले हाथ में आता है।
         यह बकवास हमने इसलिये लिखी है कि आजकल लोग बातों ही बातों में शर्त की बात अधिक करते हैं। किसी ने कहा ‘‘ऐसा है।’
        दूसरे ने कहा-‘‘ ऐसा नहीं है।’’
         पहले कहता है कि ‘‘लगाओ शर्त।’’
        अब दूसरा शर्त लगता है या नहीं अलग बात है। पहले धड़ा लगता था तो अनेक ऐसे लोग लगाते थे जो निम्न आय वर्ग के होते थे। उस समय हम उन लोगों पर हसंते थे। अब क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले पढ़ेलिखे और नयी पीढ़ी के लोग हैं। पहले तो हम यह कहते थे कि यह सट्टा लगाने वाला अशिक्षित है इसलिये सट्टा लगा रहा है पर अब शिक्षित युवाओं का क्या कहें?
       हमारे देश के शिक्षा नीति निर्माताओं को यह भारी भ्रम रहा है कि वह अंग्रेजी पद्धति से इस देश को शिक्षित कर लेंगे जो की अब बकवास साबित हो रहा है। पहले अंग्रेजी का दबदबा था फिर भी आम बच्चे हिन्दी पढ़ते थे कि अंग्रेजी उनके बूते की भाषा नहीं है। अब तो जिसे देखो अंग्रेजी पढ़ रहा है। इधर हमने फेसबुक पर भी देखा है कि हिन्दी तो ऐसी भाषा है जिससे लिखने पर आप अपने आपको बिचारगी की स्थिति में अनुभव करते हैं। अंग्रेजी वाले दनादन करते हुए अपनी सफलता अर्जित कर रहे हैं। मगर जब रोमन लिपि में हिन्दी सामने आती है तो हमें थोड़ा अड़चन आती है। अनेक बार ब्लॉग पर अंग्रेजी में टिप्पणियां आती हैं तब हम सोचते हैं कि लिखने वाले ने हमारा लेख क्या पढ़ा होगा? उसने शायद टिप्पणी केवल अपना नाम चमकाने के लिये दी होगी।
जब हम ब्लॉग पर किसी पाठ के टिप्पणी सूचक आंकड़े देखते हैं तब मन ही मन पूछते हैं कि हिन्दी में होगी या अंग्रेजी में। उसमें भी इस फिफ्टी फिफ्टी का आंकड़ा फैल होता है। जब सोचते हैं कि यह अंग्रेजी में होगी तो हिन्दी में मिलती है और जब सोचते हैं कि हिन्दी की सोचते हैं तो अंग्रेजी में निकलती है। फेसबुक पर यह आंकड़ा नहीं लगाते क्योंकि पता है कि केवल रोमन या अंग्रेजी में ही विषय होगा। हिन्दी में लिखने वाले केवल ब्लाग लेखक ही हो सकते हैं और उनमें से कोई फेसबुक पर हमारा साथी नहीं है।
            अपनी बकवास हम यह लिखते हुए खत्म कर रहे हैं कि अनुमानों का खेल तभी तक खेलना चाहिए जब तक उसमें अपनी जेब से कोई खर्चा न हो। क्रिकेट हो या टीवी पर होने वाले रियल्टी शो उनमें कभी भी फिफ्टी फिफ्टी यानि पचास पचास फीसदी का खेल नहीं खेलें। वहां अपना नियंत्रण नहीं है। जेब से एक की जगह दो का सिक्का आने पर उसे फिर वापस रखा जा सकता है पर किसी दूसरे के खेल पर लगाया गया पैसा फिर नहीं लौटता है। सत्यमेव जयते

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, February 26, 2012

नेकी कर दरिया में डाल-हिन्दी कविता (neki kar dariya mein daal-hindi kavita or poem)

वादे कर मुकरने से
तुम क्यों घबड़ाते हो।
जमाने को लग गया है यह रोग
तुम क्यों अपने को बचाते हो।
कहें दीपक बापू
नेकी कर दरिया में डाल
करना किसी का भला हो तो
मत ठोको ताल,
छल, कपट और चालाकी फंसे लोग
नित नए प्रपंच रचेंगे,
मतलब की खातिर
एक से उतरकर दूसरे मंच पर नचेंगे,
अपनी बनाए नेक राह पर
चलते रहना बुरा नहीं है
मगर गद्दारों को सबक सिखाने से
भला तुम क्यों परेशान हो जाते हो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, February 15, 2012

इंसानियत के तीमारदार-हिन्दी कविता (insaniyat ke teemardar-hindi kavita or poem)

बहादुरी के दावेदार
जंग के लिये हमेशा तैयार हैं,
बमों के जखीरों पर बैठकर
जहान को दिखा रहे हैं आंखें
दावा यह कि अमन के यार हैं।
कहें दीपक बापू
जब भी खेली जायेगी बारूद की होली
आम इंसानों का खून बहेगा,
सौदागरों के भौंपू सुनायेंगे
खूनखराबे के हाल
आम इंसान का दर्द कौन कहेगा,
बंदूक बना देती है
भले इंसान को भी हैवान,
खंजर जिसकी कमर में बंधा है
बन जाता है शैतान,
कोई खुशी से माने या भय से
उनका यह दावा कि
उनके काले कारनामों में भी
होता इंसानियत का दीदार है।
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Monday, February 6, 2012

विजेता बनो-हिन्दी हाइकु (vijeta bano-hindi haiku, or poen or kavita)

हर पड़ाव
हमारे सामने है
नए रूप में,

आँखों में भ्रम
पहचान नहीं है
बदलाव की,

जड़ बुद्धि में
एक जगह खड़ा
घमंडी सोच,

नए रूप में
अपने मिटने का
उसे भय है,

बड़ा खतरा
दुश्मन से नहीं
अपने से है,

निरंकुश है
इंसान का दिमाग
बिखरता है,

थोड़े भय में
काँपते हाथ पैर
हारा आदमी,

हाथ उठाता
आकाश की तरफ
रक्षा के लिए,

मुश्किल है
लोगों को समझाना
ज़िंदा दिल हो,

अपनी सोच
काबू में रखा करो
कटार जैसे,

नहीं तो कटो
बेआसरा होकर
जैसे घास हो।

अपनी शक्ति
अपने अंदर है
ढूंढो तो सही

अपने हाथ
याचक न बनाओ
यूं न फैलाओ

अपनी सोच
अपने हाथ लाओ
विजेता बनो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, January 27, 2012

बसंत पंचमी पर विशेष हिन्दी लेख-पहला काम अपने शरीर में ऊर्जा संचय का करें (basant panchami par vishesh hindi lekh or special hindi article-apni urja ka sanchaya karen save -self energy or power))

       बसंत पंचमी का दिन भारतीय मौसम विज्ञान के अनुसार समशीतोष्ण वातावरण के प्रारंभ होने का संकेत है। मकर सक्रांति पर सूर्य नारायण के उत्तरायण प्रस्थान के बाद शरद ऋतु की समाप्ति होती है। हालांकि विश्व में बदले हुए मौसम ने अनेक प्रकार के गणित बिगाड़ दिये हैं पर सूर्य के अनुसार होने वाले परिवर्तनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। एक बार सूर्य नारायण अगर उत्तरायण हुए तो सर्दी स्वतः अपनी उग्रता खो बैठती है। यह अलग बात है कि धीमे धीरे यह परिवर्ततन होता है। फिर अपने यहां तो होली तक सर्दी रहने की संभावना रहती है। पहले दीवाली के एक सप्ताह के अंदर स्वेटर पहनना शुरु करते थे तो होली के एक सप्ताह तक उनको ओढ़ने का क्रम चलता था। अब तो स्थिति यह है दीवाली के एक माह बाद तक मौसम गर्म रहता है और स्वेटर भी तब बाहर निकलता है जब कश्मीर में बर्फबारी की खबर आती है।
         हमारी संस्कृति के अनुसार पर्वों का विभाजन मौसम के अनुसार ही होता है। इन पर्वो पर मन में उत्पन्न होने वाला उत्साह स्वप्रेरित होता है। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बरसात फिर सर्दी का बदलता क्रम देह में बदलाव के साथ ही प्रसन्नता प्रदान करता है। ऐसे में दीपावली, होली, रक्षाबंधन, रामनवमी, दशहरा, मकरसक्रांति और बसंतपंचमी के दिन अगर आदमी की संवेदनाऐं सुप्तावस्था में भी हों तब ही वायु की सुगंध उसे नासिका के माध्यम से जाग्रत करती है। यह अलग बात है कि इससे क्षणिक सुख मिलता है जिसे अनुभव करना केवल चेतनाशील लोगों का काम है।
         हमारे देश में अब हालत बदल गये हैं। लोग आनंद लेने की जगह एंजायमेंट करना चाहते हैं जो स्वस्फूर्त नहीं बल्कि कोशिशों के बाद प्राप्त होता है। उसमें खर्च होता है और जिनके पास पैसा है वह उसके व्यय का आनंद लेना चाहते है। तय बाद है कि अंग्रेजी से आयातित यह शब्द लोगों का भाव भी अंग्रेजियत वाला भर देता है। ऐसे में बदलती हवाओं का स्पर्श भले ही उसकी देह के लिये सुखकर हो पर लोग अनुभूति कर नहीं पाते क्योंकि उनका दिमाग तो एंजॉजमेंट पाने में लगा है। याद रखने वाली बात यह है कि अमृत पीने की केवल वस्तु नहीं है बल्कि अनुभूति करने वाला विषय भी है। अगर श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित विज्ञान को समझें तो यह पता लगता है कि यज्ञ केवल द्रव्य मय नहीं बल्कि ज्ञानमय भी होता है। ज्ञानमय यज्ञ के अमृत की भौतिक उत्पति नहीं दिखती बल्कि उसकी अनुभूति करनाी पड़ती है यह तभी संभव है जब आप ऐसे अवसरों पर अपनी देह की सक्रियता से उसमें पैदा होने वाली ऊर्जा को अनुभव करें। यह महसूस करें कि बाह्य वतावररण में व्याप्त सुख आपके अंदर प्रविष्ट हो रहा है तभी वह अमृत बन सकता है वरना तो एक आम क्षणिक अनुभूति बनकर रह जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि आपकी संवदेनाओं की गहराई ही आपको मिलने वाले सुख की मात्रा तय करती है। यह बात योग साधकों से सीखी जा सकती है।
           जब हम संवेदनाओं की बात करें तो वह आजकल लोगों में कम ही दिखती हैं। लोग अपनी इंद्रियों से व्यक्त हो रहे हैं पर ऐसा लगता है कि उथले हुए हैं। वह किसी को सुख क्या देंगे जबकि खुद लेना नहीं जानते। अक्सर अनेक बुद्धिजीवी हादसों पर समाज के संवेदनहीन होने का रोना रोते हैं। इस तरह रोना सरल बात है। हम यह कहते हैं कि लोग दूसरों के साथ हादसे पर अब रोते नहीं है पर हमारा सवाल यह है कि लोग अपने साथ होने वाले हादसों पर भी भला कहां ढंग से रो पाते है। उससे भी बड़ी बात यह कि लोग अपने लिये हादसों को खुद निमंत्रण देते दिखाई देते है।
       यह निराशाजनक दृष्टिकोण नहीं है। योग और गीता साधकों के लिये आशा और निराशा से परे यह जीवन एक शोध का विषय है। इधर सर्दी में भी हमारा योग साधना का क्रम बराबर जारी रहा। सुबह कई बार ऐसा लगता है कि नींद से न उठें पर फिर लगता था कि अगर ऐसा नहीं किया तो फिर पूरे दिन का बंटाढार हो जायेगा। पूरे दिन की ऊर्जा का निर्माण करने के लिये यही समय हमारे पास होता है। इधर लोग हमारे बढ़ते पेट की तरफ इशारा करते हुए हंसते थे तो हमने सुबह उछलकूद वाला आसन किया। उसका प्रभाव यह हुआ है कि हमारे पेट को देखकर लोग यह नहीं कहते कि यह मोटा है। अभी हमें और भी वजन कम करना है। कम वजन से शरीर में तनाव कम होता है। योग साधना करने के बाद जब हम नहाधोकर गीता का अध्ययन करते हैं तो लगता है कि यही संसार एक बार हमारे लिये नवीन हो रहा है। सर्दियों में तेज आसन से देह में आने वाली गर्मी एक सुखद अहसास देती है। ऐसा लगता है कि जैसे हमने ठंड को हरा दिया है।
          यह अलग बात है कि कुछ समय बाद वह फिर अपना रंग दिखाती है पर क्रम के टूटने के कारण इतनी भयावह नहीं लगती। बहरहाल हमारी बसंत पंचमी तो एक बार फिर दो घंटे के शारीरिक अभ्यास के बाद ही प्रारंभ होगीं पर एक बात है कि बसंत की वायु हमारे देह को स्पर्श कर जो आंनद देगी उसका बयान शब्दों में व्यक्त कठिन होगा। अगर हम करें भी तो इसे समझेगा कौन? असंवदेनशील समाज में किसी ऐसे आदमी को ढूंढना कठिन होता है जो सुख को समझ सके। हालाकि यह कहना कि पूरा समाज ऐसा है गलत होगा। उद्यानों में प्रातः नियमित रूप से धूमने वालों को देखें तो ऐसा लगता है कि कुछ लोग ऐसे हैं जिनके इस तरह का प्रयास एक ऐसी क्रिया है जिसके लिये वह अधिक सोचते नहीं है। बाबा रामदेव की वजह से योग साधना का प्रचार बढ़ा है पार्कों में लोगों के झुड जब अभ्यास करते दिखते हैं तो एक सुखद अनुभूति होती है उनको सुबह पार्क जाना है तो बस जाना है। उनका क्रम नही टूटता और यही उनकी शक्ति का कारण भी बनता है। इस संसार में हम चाहे लाख प्रपंच कर लें पर हम तभी तक उनमें टिके रह सकते हैं जब तक हमारी शारीरिक शक्ति साथ देती है। इसलिये यह जरूरी है कि पहला काम अपने अंदर ऊर्जा संचय का करें बाकी तो सब चलता रहता है।
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