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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, May 29, 2010

फरिश्ता और हैवान-हिन्दी शायरी (farishta aur haivan-hindi shayari)

इंसानों में फरिश्ता दिखने की चाहत
उसे हैवान बना देती है,
बात करते हैं जो लोग सभी के भले की
मशहूरी पाने की उनकी चाहत
बंदूकें हाथ में थमा देती है।
मज़दूरों और गरीब की
इबादत करने का दिखावा है उनका
उनके बिछाये बम की धमक
बेबसों को भी लाश बना देती है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, May 24, 2010

ज़िंदगी का सबसे बड़ा अर्थ-हिन्दी शायरी (zindagi ka arth-hindi shayari)

जो चले हैं स्वयं कालिख की राह,
उनसे स्वच्छ चरित्र के लिये
प्रमाण पाने की चाह,
एकदम व्यर्थ है,
काला अक्षर भैंस बराबर मानते जो लोग
उनके लिये गाय के गुण में भी अनर्थ है।

हर इंसान ढूंढता है
अपने ही जैसे साथी
अच्छा यह बुरा होना नहीं कोई शर्त है।

दागदार है जिनके चरित्र
रंगीन कहलाते हैं खुद को
साफ चेहरे उनको कबाड़ नज़र आते हैं,
रंगे हैं हाथ जिनके खून से
आत्मीय उनके बन जाते हैं,
बदनाम न हो इसलिये
लगाते हैं पैबंद इनामों का,
मुश्किल हो जाये तो उनके लिये
झूंड चल पड़ता लड़ने बेईमानों का
उनसे दरियादिली की आशा करना बेकार है
अपना साम्राज्य हर कीमत पर बचाने में ही
उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा अर्थ है।
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Sunday, May 16, 2010

खौफ के साये में जीने के आदी लोग-हिन्दी शायरी (kauf sa saaye men log-hindi shayari)

तारीफों के पुल अब उनके लिये बांधे जाते हैं,
जिन्होंने दौलत का ताज़ पहन लिया है।
नहीं देखता कोई उनकी तरफ
जिन्होंने ज़माने को संवारने के लिये
करते हुए मेहनत दर्द सहन किया है।
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खौफ के साये में जीने के आदी हो गये लोग,
खतरनाक इंसानों से दोस्ती कर
अपनी हिफाजत करते हैं,
यह अलग बात उन्हीं के हमलों से मरते हैं।
बावजूद इसके
सीधी राह नहीं चलते लोग,
टेढ़ी उंगली से ही घी निकलेगा
इसी सोच पर यकीन करते हैं।
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Monday, May 10, 2010

गुलाम मानसिकता-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (gulam mansikata-hindi satire poem)

अब नहीं आती उनकी बेदर्दी पर
हमें भी शर्म,
क्योंकि बिके हुए हैं सभी बाज़ार में
चलेंगे वही रास्ता
जिस पर चलने की कीमत उन्होंने पाई।
आजादी के लिये जूझने का
हमेशा स्वांग करते रहेंगे,
विदेशी ख्यालों को लेकर
देश के बदलाव लाने के नारे गढ़ते रहेंगे
क्योंकि गुलाम मानसिकता से मुक्ति
कभी उन्होंने नहीं पाई।
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देश के पहरेदारों को
अपने ही घर में गोलियां लगने का
जश्न उन्होंने मनाया,
इस तरह गरीब के हाथों गरीब के कत्ल कों
पूंजीवाद के खिलाफ जंग बताया।
बिकती है कलम अब पूंजीपतियों के हाथ
बड़ी बेशर्मी से,
धार्मिक इंसान को धर्मांध लिखें,
तरक्की के रास्ते का पता लिखवाते अधर्मी से,
गरीबों और मज़दूरों के भले का नारा लगाते
पहुंचे प्रसिद्धि के शिखर पर ऐसे बुद्धिमान
जिन्होंने कभी पसीने की खुशब को समझ नहीं पाया,
भले ही दौलतमंदों के कौड़ियों में
उनकी कलम खरीदकर
समाज कल्याण के नारे लगाते हुए
अपनी तिजोरी का नाप बढ़ाया।
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Thursday, May 6, 2010

अकेले में कब तक मस्ती मनाओगे-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (masti ki basti-hindi vyangya kavitaen)

ज़माने से अलग कब तक
अपनी बस्ती मनाओगे,
मुश्किल यह है कि
सभी इंसानों के जीने का एक ही सलीका है,
तन्हाईयों में हमेशा रहना कठिन है
दर्द और खुशियां
भीड़ में आने का यही तरीका है,
अकेले में कब तक मस्ती मनाओगे।
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समझौतों से जिंदगी में
ऊब आ जाती है,
बगावत करने पर
जिन्दगी तन्हाई के खतरे में घिर जाती है।
हालत बदलने का ख्याल अच्छा है
पर इंसानी फितरत बदलने में
बहुत मुश्किल आती है।
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समय बदलता है ज़माने को
पर कुछ इंसान उसके लिये
जद्दोजेहद कर रहे हैं,
फुरसत में समय बिताने के लिये
यह अच्छा काम है,
खाली वक्त में खाली जगह पर
बदलाव के नारे भर रहे हैं।
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Saturday, May 1, 2010

कौन जगायेगा अलख-हिन्दी शायरी (kaun jagayega alakh-hindi shayri)

विकास दर इतनी ऊंची हो गयी है
कि नैतिकता कहीं भीड़ में खो गयी है।
आदर्श की बात करना मजाक लगता है
राहजनी की वारदात का इल्जाम
रहबरों के सिर पर डलता है,
माली से उज़ाड़ दिया बाग
शिकायत करना बेकार है,
शैतानियत बन गयी है फैशन
शैतानों के बाहर खड़ा पहरेदार है,
ज़माना काबू है उन लोगों के हाथ में
जिनकी ईमानदारी खो गयी है,
कौन जगायेगा अलख
भेड़ों की भीड़ जो सो गयी है।
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सब कुछ वैसा नहीं रहेगा,
जैसा तुम चाहते हो,
नहीं बैठ पाओगे शौहरत और दौलत के पहाडों़ पर
जो तमाम कोशिशों से बनाते हो।
अपने हाथ कर रहे हो अपनी रूह का कत्ल
उसकी कब्र पर ही अपना महल बनाते हो।
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