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Thursday, September 17, 2009

दूसरे की सोच के गुलाम-व्यंग्य कविता (soch ke gulam-vyangya kavita)

हम यूं तन्हा नही रह जाते
अगर उस भीड़ में शामिल होते।
सभी चले जा रहे थे
उम्मीदों के गीत गा रहे थे
हमने वजह पूछी
पर किसी ने नहीं बताई
ऐसा लगा किसी के खुद ही समझ नहीं पाई
हम भी बढ़ाते उनके साथ कदम
अगर दूसरे की सोच के गुलाम होते।
.......................
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1 comment:

Mithilesh dubey said...

बहुत खुब, लाजवाब लिखा है आपने।

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