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Saturday, October 5, 2013

धर्म के विषय पर आत्ममंथन करना चाहिये-नवरात्रि महोत्सव पर विशेष लेख(dharma ke vishaya par atmamanthan karna chahiye-navradtri mahotsav par vishseh lekh)



                        आज से देश में नवरात्रि महोत्सव प्रारंभ हो गया है। साकार तथा सकाम भक्तों के लिये यह नौ दिन अत्यंत उत्साह के साथ बिताये जाते हैं।  अनेक जगह माता की मूर्तियां स्थापित होने के साथ ही उनकी नित्य प्रातः तथा सायं आरती गायी जाती है। हालांकि इस तरह की परंपरा सदियों से चल रही है पर पिछले बीस वर्षों से राम मंदिर आंदोलन के प्रभाव से इसने व्यापक रूप लिया है। पहले शहरों में कुछ खास स्थानों पर ही माता की मूर्तियां लगती थीं पर राम मंदिर आंदोलन के प्रभाव से लोगों के प्रति धार्मिक पंरपराओं के प्रति जो अधिक उत्साह पैदा हुआ उससे सार्वजनिक धार्मिक कार्यक्रमों में व्यापक भीड़ जुटना प्रारंभ हो गयी।  इतिहास के अनुसार महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने अपने आंदोलन को व्यापक रूप देने के लिये महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी पर उनकी प्रतिमायें स्थापित करने की परंपरा शुरु की। स्वतंत्रता के पश्चात भी यह क्रम चलता रहा और अब तो पूरे भारत के साथ ही  विश्व में भी गणेश जी मूर्ति स्थापित करने के परंपरा देखी जाती हैं।  अगर हम इन एतिहासिक घटनाओं का आंकलन करें तो यह बात समझ में आती है कि भारत में लोग धर्म को लेकर संवेदनशील हैं और इसके सहारे उन्हें किसी भी सार्वजनिक महत्व के कार्यक्रम के लिये अपने साथ उनको सहजता से जोड़ा जा सकता है।  यह अलग बात है कि आजकल इसी धर्म के सहारे अनेक प्रकार के पाखंड चल पड़े हैं।  इतना ही नहीं अनेक लोग तो धर्म के नाम पर अज्ञान का प्रचार कर रहे हैं।
                        आमर्तार से योग तथा ज्ञान साधक निंरकार की उपासना करते हैं फिर भी मंदिरों में जाने से वह परहेज नहीं करते।  इसका कारण यह है कि भगवान की मूतियां चाहे जिस वस्तु की बनी है पर उनमें एक आकर्षण होता है।  उनको देखकर भगवान की उपस्थिति का आभास होता है। ज्ञान साधक यह जानते हैं कि पत्थर, लकड़ी, लोह या मिट्टी के भगवान नहीं होते पर उनसे बनी मूर्तियों में उसकी उपस्थिति की अनुभूति एक सुखद अनुभूति प्रदान करतेी है।   मूर्तियों को देखने से आंनद मिलता  है तो उस पर तर्क वितर्क करना व्यर्थ है।
                        आखिर मंदिरों में जाने पर मन को शांति मिलती क्यों है? कभी इस पर विचार करना चाहिये।  इसके निम्नलिखित कारण हमारी समझ में आते हैं।
                        1-अपने घर और कार्य स्थान पर रहते हुए आदमी को एकरसता का आभास होता है। जिनका योगाभ्यास, ध्यान तथा मंत्र जाप से मन पर निंयत्रण है उनके लिये तो प्रतिदिन पर्व है पर जिनको इस तरह का अभ्यास नहीं है उनका मन उन्हें विचलित करता है-कहीं दूर चलो, कहीं मनोरंजन मिले तो आनंद आये आदि विचार उसके मन में उठते रहते हैं। ऐसे में मंदिर जाने पर आदमी के मस्तिष्क में  नवीनता का आभास होता है।
                        2-दूसरी बात यह है कि अपने घर तथा कार्यस्थल पर हर मनुष्य को प्रतिदिन वही चेहरे मिलते हैं।  दूसरी बात यह कि मार्ग पर चतते और बाज़ार में घूमते हुए उसे भीड़ में उकताहट का अनुभव होता है।  मंदिर में जोने पर उसे नये चेहरे देखने का अवसर तो मिलता ही है वहां भीड़ से परे उसे शांति की अनुभूति होती है।
                        3-महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिर और आश्रमों में घर या कार्यालय की अपेक्षा अधिक सफाई रहती है।  घरों में सामान ज्यादा होता है तो कार्यस्थानों पर भी सफाई पूरी तरह नहीं होती। मंदिरों में कोई सामान नहीं होता। जगह खाली मिलती है। घरों में आजकल सामान इतना हो गया है कि बड़े कमरे भी छोटे लगती है।  मंदिर अगर छोटा भी हो तो बड़ा दिखता है। हमारी चक्षु इंद्रियां मंदिर में जाकर इसलिये आनंदा उठा पाती हैं क्योंकि वहां सफाई होती है। यह सफाई हमने स्वयं नहीं की होती बल्कि वहां के सेवादार करते हैं। कहते हैं न हलवाई अपनी मिठाई नहीं खता उसी तरह आदमी को अपनी सफाई से कम दूसरे की सफाई से अधिक आनंद मिलता है।
                        यहां हम तीसरे महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करें।  हमने देखा है कि पार्कों और मंदिरों में भी लोग कचड़ा करने से बाज नहीं आते।  पार्को में सफाई नियमित रूप से नहीं होती। सच बात तो यह है कि जहां पार्क बने हुए हैं उसके लिये हमें भगवान का धन्यवाद करना चाहिये।  न बने होते तो हम क्या कर लेते?  इसके बावजूद लोग वहां जाकर खाने पीने के खाली पैकेट और ग्लास फैंक कर चले आते है।  सभी जानते हैं कि प्लास्टिक कभी नष्ट नहीं होती।  उल्टे वह प्रकृति को नष्ट करती है।  हमने देखा है कि पार्कों में लोग सामूहिक कार्यक्रम कर वहां इतनी गंद्रगी कर आते हैं तब लगता है जैसे कि वास्तव में हमारे देश के अनेक लोगों को जीवन जीने की तमीज नहीं है।  यही हाल मंदिरों का है।  वहां भी लोग लंगर आदि कर कचड़ा डाल देते हैं।  जब तक सफाई न हो तो तब वह मंदिर भी अत्यं दुःखद दृश्य चक्षुओं के समक्ष उपस्थिति करने लगते हैं।  हमें तो लगता है कि इन नवरात्रियों में सार्वजनिक स्थानों पर कचड़ा न करने की शपथ लेने का अभियान चलना चाहिये।
                        चलते चलते पार्कों में अवैध रूप से बनने वाले विभिन्न धर्मो  के पूजा स्थानों के नाम पर अतिक्रमण करने  प्रश्न दिमाग में आ गया है।  हमें याद आ रहा है कि भारत का उच्चतम न्यायालय इस पर संज्ञान ले चुका है। यह स्थिति देश की अनेक कालोनियों में देखी जा सकती है। होता यह है कि जब कालोनी पूरी तरह बसे तब तक कालोनी बसाने वाली एजेंसियां पार्क की जगह खाली छोड़ देती है।  वहां विकास तब तक कोई विकास कार्य नहीं होता जब तब आबादी पर्याप्त न हो जाये।  ऐसे में कथित रूप से  किसी भी धर्म के ठेकेदार वहां धार्मिक स्थान बनाकर पार्क के विकास का दावा करते हैं।  विकास न भी करें तो भी धार्मिक्क  स्थान  दिखाकर यह दावा करते हैं कि उस स्थान  की अतिक्रमण की रक्षा के लिये ऐसा कर रहे हैं। यह अतिक्रमण बाद में कालोनियों के बच्चों के लिये दुःखदायी हो जाता है।  धर्म स्थान पर विराजमान कथित सेवादार उन्हें वहां खेलने नहीं देते।  पार्क में भले ही पेड़ न हो पर खाली जमीन बच्चों के खेलने के काम आती है मगर इस तरह के धर्म स्थान उनके लिये संकट पैदा करते हैं।  आम परिवार के बच्चे किसी बड़े तनाव की आशंका के चलते कुछ कहते नहीं है पर संबंधित धर्म के प्रति उनका मन अप्रसन्नता से भर जाता है।  यह समस्या अनेक लगह है।  कथित धर्म रक्षक भले ही अपने धर्मों को लेकर बड़े प्रसन्न हों पर उनको इस आभास नहीं है कि बच्चों के मन में इससे वितृष्णा का भाव पैदा होता है।  दूसरी बात यह है कि कोई इमारत खड़ी करना महंगा नहीं हैं बल्कि भूखंड महंगा होता है।  यही कारण है कि इन पार्को पर कब्जा कर धर्म रक्षक अपनी पीठ ठोकते हैं।  क्योंकि भूखंड उन्होंने खरीदा नहीं होता और धर्म स्थान के लिये वह आमजनेां से चंदा लेते हैं।  नाम उनका ही होता है। 
                        हमारा मानना है कि वैसे भी धर्म का निर्वाह एकांत का विषय है उसे सार्वजनिक रूप से थोपा नहीं जाना चाहिये। बेहतर यह है कि हम अपने अंदर के विकार बाहर पहले निकाले और बाद में समाज में बदलाव लाने की बात करें।  यह नवरात्रि आत्ममंथन के लिये एक सुअबवसर हो सकता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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