क्रांति का नाम शब्द बारूद जैसा चलायें, रौशनी बुझाकर अंधेरों को ही जलायें।
‘दीपकबापू’ चेतना की दलाली में बीते बरसों, चिंत्तन का कीड़ा रक्त में नहलायें।।
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टूटे खिलौने कभी जोड़ते नहीं है, दिल के जज़्बात कभी तोड़ते नहीं है।
घाव पर लगे हमदर्दों का मेला, ‘दीपकबापू’ दर्द से ध्यान मोड़ते नहीं है।।
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अभिव्यक्ति कुचलने का गम है,
गालियां देते शब्दों में बम है।
कहें दीपकबापू पाखंडी बने देव
झूठी हमदर्दी में उनकी आंखे नम हैं।
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साथी वह मिलें
हमारी पसंद की जो बात कहें।
कहें दीपकबापू वरना अकेलेपन की
उदासी आनंद से सहें।
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