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Monday, September 1, 2008

फिर भी अंधों में काने राजा की तरह सज जाते-व्यंग्य कविता

किताबों में स्याही से लिखे शब्द

तब तक ज्ञान नहीं हो जाते

जब तक पढ़ नहीं जाते

पढ़े गये शब्द भी तब तक ज्ञान नहीं होते

जब तक उसके अर्थ समझे नहीं जाते

अर्थ समझने का मतलब भी

ज्ञान का आना नहीं

जब तक उन पर अमल नहीं कर पाते

ढेर सारी किताबों पढ़कर भी

कोई ज्ञान के सिंहासन पर नहीं बैठ जाता

भले ही कितना भी इतराता

जब आंखों से पढ़े

और कानों से सुने जाते हैं

अगर उन पर मनन नहीं करता आदमी तो

कुछ शब्द बाहर बह जाते

कुछ अंदर ही कीचड़ की तरह जम जाते

इसलिये लोग आधे अधूरे ज्ञान को ही

पूरा समझ जाते


इसलिये अहंकार की खाई से कभी नहीं निकल पाते

पर फिर भी अंधों में काने राजा की तरह सज जाते

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2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,बहुत सही व सटीक विचार, रचना में प्रेषित किए हैं।बहुत बेहतरीन लिखा है।

betuki@bloger.com said...

अच्छा लिखा

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