अब नहीं आती उनकी बेदर्दी पर
हमें भी शर्म,
क्योंकि बिके हुए हैं सभी बाज़ार में
चलेंगे वही रास्ता
जिस पर चलने की कीमत उन्होंने पाई।
आजादी के लिये जूझने का
हमेशा स्वांग करते रहेंगे,
विदेशी ख्यालों को लेकर
देश के बदलाव लाने के नारे गढ़ते रहेंगे
क्योंकि गुलाम मानसिकता से मुक्ति
कभी उन्होंने नहीं पाई।
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देश के पहरेदारों को
अपने ही घर में गोलियां लगने का
जश्न उन्होंने मनाया,
इस तरह गरीब के हाथों गरीब के कत्ल कों
पूंजीवाद के खिलाफ जंग बताया।
बिकती है कलम अब पूंजीपतियों के हाथ
बड़ी बेशर्मी से,
धार्मिक इंसान को धर्मांध लिखें,
तरक्की के रास्ते का पता लिखवाते अधर्मी से,
गरीबों और मज़दूरों के भले का नारा लगाते
पहुंचे प्रसिद्धि के शिखर पर ऐसे बुद्धिमान
जिन्होंने कभी पसीने की खुशब को समझ नहीं पाया,
भले ही दौलतमंदों के कौड़ियों में
उनकी कलम खरीदकर
समाज कल्याण के नारे लगाते हुए
अपनी तिजोरी का नाप बढ़ाया।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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3 years ago
2 comments:
व्यंग्य कविताएं तो नहीं कहूंगा इनको...
बहुत चिंतन का विषय हैं आपकी कविताएं...
vyang nahi ek teekha prahaar hai...
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