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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, March 5, 2011

बदनामी में फिक्सिंग-हिन्दी चिंत्तन तथा हास्य कविताएँ (badanami mein fixing-hindi chittan and hasya kavitaen)

धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की निष्पक्षता का पता नहीं हमारे देश के बुद्धिजीवी लोग क्या अर्थ निकालते हैं पर सच बात यह है कि इससे व्यवसायिक क्षेत्र के लोगों को उद्दण्डता दिखाने की छूट मिल गयी है। देशभक्ति, समाज कल्याण, गरीबों की आवाज बुलंद करने तथा लोगों का स्वस्थ मनोरंजन से प्रतिबद्धता जताने वाले हमारे देश के प्रचार माध्यम अपने व्यवसायिक हितों के लिये ऐसे कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं जिससे उनकी बौद्धिक क्षमताओं पर संदेह होता हैं। ऐसा लगता है कि देशभक्ति, समाज कल्याण तथा गरीबों की आवाज बुलंद करने वाले उनके कार्यकर्ता इनको बेचने वाले नारों से अधिक नहीं समझते। यही कारण है कि समाचार और मनोरंजन के के नाम पर ऐसे कार्यक्रम बन रहे हैं जिनमें फूहड़ता तो होती है उसके लिये बदनाम लोगों को भी नायक की तरह प्रतिष्ठित किया जाता है। बॉस तथा इंसाफ जैसे आकर्षक शब्दों वाले कार्यक्रमों में बदनाम लोगों को जिस तरह नायक बनाया गया यह उसका प्रमाण है। अब तो हद ही हो गयी है जब उन्हीं बदनाम लोगों को एक कॉमेडी धारावाहिक में लाया गया।
कॉमेडी में उन लोगों को देखकर यह विश्वास हो गया कि धनपति और उनके प्रचार भोंपू हम नये नायकों का निर्माण कर उन्हें समाज पर थोप रहे हैं। यह पक्रिया भी इस तरह चलती है कि पता ही नहीं चलता।
पहले कोई नशे के आरोप में जेल गया। उस समय वह सारे देश में खलनायक बनाया गया। कोई यकीन नहीं कर सकता था कि प्रचार माध्यमों में का यह महान खलनायक कुछ दिन बाद मनोरंजन के क्षेत्र में नायक बनकर आयेगा। फिर कुछ दिन बाद वह स्वयंवर नामक धारावाहिक में आया। फिर बिगबॉस में आया। अब वह कॉमेडी के एक कार्यक्रम में भी आ गया। अपनी अदाओं के लिये अच्छी छवि न रखने वाली एक गायिका भी उस कॉमेडी कार्यक्रम में आ गयी। इससे एक बात लगती है कि समाचार और मनोरंजन के क्षेत्र में फिक्सिंग चल रही है। अच्छे काम से किसी की छवि नहीं बन सकती और बदनाम होना इस संसार में आसान है। इसलिये बाजार तथा उसके भौंपूओं ने बदनामी का संक्षिप्त मार्ग लोगों में नये नायकों और नायिकाओं को स्थापित करने के लिये कर रहे हैं। मतलब आजकल के जमान में बदनामी की भी फिक्सिंग होती है।
बाज़ार और उसके प्रचार भोंपू बकायदा योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। भले ही दोनों अलग दिखते हैं पर ऐसा लगता है कि जिस तरह उनके विज्ञापन देने वाले लोग एक ही होते हैं वैसे ही उनके मालिक भी एक हैं। जैसा कि पहले लोगों ने देखा कि सास बहु के धारावाहिक चल रहे थे। उससे लोग उकता गये। उसके बाद रियल्टी शो की असलियत लोगों को समझ में आ गयी तब उससे भी लोग मुंह फेरने लगे। अब कॉमेडी लोगों को भाने लगी। कॉमेडी के नाम चाहे पर भले ही फूहड़ता दिखाई जा रही है पर कथित टीआरपी रेटिंग के भ्रम ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कॉमेडी इस देश में पसंद की जा रही है। हालत यह हो गयी है कि अभी हाल ही में संपन्न फिल्मी पुरस्कार समारोह में बड़े बड़े अभिनेताओं ने मंचों पर कॉमेडी की। इससे बाज़ार तथा उसके मातहत प्रचारतंत्र के साथ ही पूरे मनोरंजन क्षेत्र का चाल, चरित्र तथा चिंतन का रूप समझा जा सकता है जो कि केवल पैसा कमाने तक ही सीमित है।
मतलब कॉमेडी हिट हो गयी। बाज़ार और उसके प्रचारक भोंपूओं के पास जो अपने बदनाम फिक्स नायक नायिका हैं वह खाली बैठे थे। उनके नाम का उपयोग करने के लिये अब उनसे कॉमेडी करवाई जा रही है। वैसे हमारे मनोरंजन क्षेत्र के लोगों के कार्यक्रम देखें तो एक बात लगती है कि एक दूसरे का अपमान करना, इशारों में मां बहिन की गालियों का भाव का निर्माण तथा अस्वाभाविक यौन क्रीड़ाओं की चर्चा करना ही कॉमेडी है। हिन्दी में कथाओं और पटकथाओं का रोना अक्सर रोया जाता है पर मनोरंजन के व्यापारी ही इसके लिये जिम्मेदार हैं। वह चाहती हैं कि हिन्दी कहानीकार उनके घर आये। वह यह नहीं जानते कि हिन्दी का कहानीकार लिखने पर जिंदा नहंी रहता। लिखने वाले बहुत हैं पर उनके पास न पैसा है न समय कि वह चप्पले चटखाते हुए उनके दरवाजे खटखटायें। मनोरंजन के शहंशाहों को पैसा देने वाले धनपतियों को भी हिन्दी से अधिक मतलब नहीं है। यही कारण है कि हिन्दी में अच्छा लिखने के बावजूद स्तरीय लेख उन तक नहीं पहुंच पाता। हिन्दी में लेखक नहीं है यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। मनोरंजन के क्षेत्र के शिखर पुरुष हिन्दी लेखक को लिपिक की तरह उपयोग करना चाहते है जो कि संभव नहीं है। उनको लिपिक तो मिल जायेंगे पर वह इसी तरह का सतही लेखन ही कर पायेंगे जैसा वह दिखा रहे हैं।
हिन्दी में हास्य व्यंग्य लिखने वाले बहुत हैं। यह सही है कि फिल्मी या टीवी धारावाहिक की पटकथा या नाटक लिखने की अलग से कोई विधा हिन्दी में नहीं पढ़ाई जाती पर सच यह है कि हिन्दी में कहानी लेखन ही इस तरह का होता है कि उससे पटकथा और नाटक की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अगर पूरा पैसा मिले तो इस देश में सैंकड़ों लेखक ऐसा मिल जायेंगे जो गज़ब की कहानियाँ   लिखकर दे सकते हैं कि पटकथा या नाटक के रूप में उसे लिखने की आवश्यकता ही नहीं रहे। यह सब होना नहीं है क्योंकि भारत के धनपति और उनके भोंपू पैसा कमाना जानते हैं पर व्यवसायक करने का कौशल उनमें नहीं है। किसी नये समाज का निर्माण करने की क्षमता उनमें नहीं बल्कि जो मौजूद है उसका दोहन करना ही उनको आता है।
इस विषय पर प्रस्तुत है हास्य व्यंग्य कवितायें
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टीवी धारावाहिकों में
कॉमेडी के नाम पर उनकी मूर्खताओं पर भी हसंकर
हम अपना दिल खुश करते हैं,
विज्ञापन वाली चीजों पर खर्च किये हैं
उनका खर्च जो अपनी जेब से भरते हैं।
हंसने जैसा कुछ नहीं होता उनमें
पर रोकर क्यों करें जी खराब
नहीं हंसें तो
अपना ही पैसा जायेगा बेकार
इसलिये मन ही मन डरते हैं।
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पति ने अपनी रोती पत्नी से कहा
‘चिंता क्यों करती हो भागवान,
लड़का नशे के आरोप में जेल गया
तुम क्या जी खराब किये जाती हो,
देखना
बहुत जल्दी शान से लौटकर आयेगा।
दोस्त लोग पहनायेंगे फूल मालायें
वह शहर का बिग बॉस बन जायेगा
फिर अपना स्वयंवर भी रचायेगा।
भगवान की कृपा रही तो
कामेडी किंग भी बन जायेगा।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

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