शिष्यों के मार्गदर्शक स्वयं भटके हैं,
गुरू कहलायें बंधनों में अटके हैं।
कहें दीपकबापू भक्त हैं कि नर्तक,
चीखों के साथ हाथ पांव पटके हैं।
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मन में ताप सड़क पर घूप है,
पांव जल रहे नीचे अग्नि कूप है।
कहें दीपकबापू रहो भक्तिलीन
धरा कभी मां कभी प्रलय रूप है।
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अब राजा वही जो झूठ बोले,
राजस्व लूट को छूट जैसे तोले।
कहें दीपकबापू लोकतंत्र है जनाब
जीते वही जो एकता में फूट घोले।।
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कौन भला जिस पर दाग नहीं,
कौन ज्ञानी जिसमें रोग नहीं।
कहें दीपकबापू सत्संगी बहुंत
कौन जिसमें लोभ की आग नहीं।
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सब कर रहे तरक्की के दावे,
पाले बाहुबली होने के छलावे।
कहें दीपकबापू धरा में है ऊर्जा
सबके घर स्वतः रोशनी आवे।
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