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Monday, November 30, 2009

दिल अपना-हिन्दी शायर (Dil apna-hindi shayri)

शर्म आंखों में होती है
पर्दे कभी उसका बयां नहीं करते
इज्जत की जगह दिल में है
शब्दों में बयां कभी नहीं करते।
जब खौफ हो इंसान के अंदर
किसी की दौलत और शौहरत का
उसे दिखाने के लिये
जमाना करता है सलाम,
पर वहां शर्म और इज्जत होती है हराम,
लोग अपने बयां में
दिल की दुआयें नहीं भरते
--------------
जब तक सोचते रहे
अपनी जिंदगी की बदतर हालात पर
तब मन पर बोझ रहा
आंखों से नहीं निकले आंसू
पर दिल में दलदल करते रहे।
जमाना हंसा जब हमने दर्द कहे।
जबसे अपने रोने पर ही
खिलखिलाना सीख लिया
तब से हैरान हैं लोग
अक्सर पूछते हैं कि
‘क्या तुम्हारे गमों ने साथ छोड़ा
कैसे खुशियों को अपनी तरफ मोड़ा
तुम्हारे गमों पर हंसकर
बहलाते थे दिल अपना
उसी से अपना दिल हल्का करते रहे।।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Tuesday, November 17, 2009

अहसास-हिंदी शायरी (ahsas-hindi shayri)

अपने पथ पर चलते हुए
उसके कठिन होने का होता है
सभी को अहसास,
मगर यहाँ किसकी ज़िन्दगी में 
फूल बिछे हैं 
जिन पर किसी के कदम चलते हैं
सच तो यह है कि  
हमेशा ही चारों ओर फ़ैली  सुगन्ध 
बिखरी  हरियाली 
बहुते
हुए पानी के झरने 

देखते  हुए भी मन उकता जाता है
दर्द के बिना भी  बुरा लगता है अहसास..
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Friday, November 13, 2009

मार खाने का खेल-हिंदी व्यंग्य (mar khane ka khel-hindi vyangya)

एक चीनी ने अपना ऐसा धंधा प्रारंभ किया है जो यकीनन अनोखा है। ऐसा अनोखा धंधा तो कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। वह यह कि उसने दूसरे घरों में परेशान औरतों को गुस्सा अपने पर उतारने के लिये स्वयं को प्रस्तुत करता है। वह पिटने की फीस लेता है। अगर समाचार को सही माने तो उसका व्यवसाय चल भी रहा है।
वाकई समय के साथ दुनियां बदल रही है और बदल रहे हैं रिश्ते। दूसरा सच यह है कि इस दुनियां में दो ही तत्व खेलते हैं सत्य और माया। इंसान की यह गलतफहमी है कि वह खेल रहा है। पंाच तत्वों से बने हर जीवन में मन बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियां भी होती है। वही आदमी से कभी खेलती तो कभी खिलवाड़ करती हैं।
यहां एक बात याद रखने वाली है कि संस्कार और संस्कृति के मामले में चीन हमसे पीछे नहीं है-कम से कम उसे अपने से हल्का तो नहीं माना जा सकता। पूर्व में स्थित यह देश अनेक मामलों में संस्कृति और संस्कारों में हमारे जैसा है। हां, पिछले पचास वर्षों से वहां की राजनीतिक व्यवस्था ने उसे वैसे ही भौतिकवादी के जाल में लपेटा है जैसे कि हमारे यहां की अर्थव्यवस्था ने। अगर हमारा देश अध्यात्मिक रूप से संपन्न नहीं होता तो शायद चीनी समाज हमसे अधिक बौद्धिक समाज कहलाता। वहां बुद्ध धर्म की प्रधानता है जिसके प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध भारत में ही उत्पन्न हुए थे।
माया का अभिव्यक्त रूप भौतिकतावाद ही है। इसमें केवल आदमी की देह उसकी आवश्यकतायें दिखती हैं और कारों, रेलों, तथा सड़क पर कम वस्त्र पहने युवतियां ही विकास का पर्याय मानी जाती है। विकास का और अधिक आकर्षक रूप माने तो वह यह है कि नारियां अपना घर छोड़कर किसी कार्यालय में नौकरी करते हुए किसी बौस का आदेश मानते हुए दिखें। उससे भी अधिक आकर्षक यह कि नारी स्वयं कार्यालय की बौस बनकर अपने पुरुष मातहतों को आदेश देते हुए नजर आयें। घर का काम न करते हुए बाहर से कमाकर फिर अपने ही घर का बोझ उठाती महिलायें ही उस मायावी विकास का रूप हैं जिसको लेकर आजकल के अनेक बुद्धिजीवी जूझ रहे हैं। बोस हो या मातहत हैं तो सभी गुलाम ही। यह अलग बात है कि किसी गुलाम पर दूसरा गुलाम नहीं होता तो वह सुपर बोस होता है। यह कंपनी प्रणाली ऐसी है जिसमें बड़े मैनेजिंग डाइरेक्टर एक सेठ की तरह व्यवहार करते हैं पर इसके लिये उनको राजकीय समर्थन मिला होता है वरना तो कंपनी के असली स्वामी तो उसके शेयर धारक और ऋणदाता होते हैं। कंपनी पश्चिम का ऐक ऐसा तंत्र हैं जिसमें गुलाम को प्रबंधक निदेशक के रूप में स्वामी बना दिया जाता है। पैसा उसका होता नहीं पर वह दिखता ऐसा है जैसे कि स्वामी हो। इसे हम यूं कह सकते हैं कि गुलामों को स्वामी बनाने का तंत्र हैं कंपनी! जिसमें गुलाम अपनी चालाकी से स्वामी बना रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई स्त्री कंपनी की प्रबंध निदेशक है तो वह अपने धन पर नहीं शेयर धारकों और ऋणदाताओं के कारण है। फिर उसके साथ तमाम तरह के विशेषज्ञ रहते हैं जो अपनी शक्ति से उसे बनाते हैं। कंपनी के प्रबंध निदेशक तो कई जगह मुखौटे होते हैं। ऐसे में यह कहना कठिन है कि किसी स्त्री का शिखर पर पहुंचना अपनी बुद्धि और परिश्रम के कारण है या अपने मातहतों के कारण।
बहरहाल स्त्री का जीवन कठिन होता है। यह सभी जानते हैं कि कोई भी स्त्री अपनी ममता के कारण ही अपनी पति और पुत्र की सेवा करने में जरा भी नहीं झिझकती। पिता अपनी संतान के प्रति मोह को दिखाता नहीं है पर स्त्री की ममता को कोई धीरज का बांध रोक नहीं सकता।
ऐसे में जो कामकाजी औरते हैं उनके लिये दोहरा तनाव होता है। यह तनाव अनेक तरह की बीमारियों का जनक भी होता है।
ऐसे में उन चीनी सज्जन ने जो काम शुरु किया है पता नहीं चल कैसे रहा है? कोई औरत कितनी भी दुःखी क्यों न हो दूसरे को घूंसा मारकर खुश नहीं हो सकती। भारी से भारी तकलीफ में भी वह दूसरे के लिये अपना प्यार ही व्यक्त करती है। अब यह कहना कठिन है कि कथित आधुनिक विकास ने-मायावी विकास का चरम रूप इस समय चीन में दिख रहा है-शायद ऐसी महिलाओं का एक वर्ग बना दिया होगा।
आखिरी बात यह है कि उस व्यक्ति ने अपने घर पर यह नहीं बताया कि उसने दूसरी महिलाओं से पिटने काम शुरु किया है। वजह! अरे, घर पर पत्नी ने मारा तो पैसे थोड़े ही देगी! जब गुस्से में होगी तो एक थप्पड़ मारेगी, पर जिस दिन धंधा मंदा हुआ तो पता लगा कि इस दुःख में अधिक थप्पड़ मार रही है कि पति के कम कमाने के कारण वह बड़ गया। फिलहाल भारत में ऐसे व्यवसाय की सफलता की संभावना नहीं है क्योंकि भारतीय स्त्रियां भले ही मायावी विकास की चपेट में हैं पर सत्य यानि अध्यात्मिक ज्ञान अभी उनका लुप्त नहीं हुआ है। वैसे जब पश्चिम का मायावी विकास कभी इसे खत्म कर देगा इसमें संदेह नहीं है।

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Thursday, November 5, 2009

कुदरत का करिश्मा-काव्य चिंतन (kudrat ka karishma-chinttan kavita)

सभी लोग हमेशा दूसरे के सुख देखकर मन में अपने लिये उसकी कमी का विचार करते हुए अपने को दुःख देते हैं। दूसरे का दुःख देकर अपने आपको यह संतोष देते हैं कि वह उसके मुकाबले अधिक सुखी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग बहिर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं और अपने बारे में उनके चिंतन के आधार बाह्य दृश्यों से प्रभावित होते हैं। यह प्रवृत्ति असहज भाव को जन्म देती है। इसके फलस्वरूप लोग अपनी बात ही सही ढंग से सही जगह प्रस्तुत नहीं करते। अनेक जगह इसी बात को लेकर विवाद पैदा होते हैं कि अमुक ने यह इस तरह कहा तो अमुक ने गलत समझा। आप अगर देखें तो कुदरत ने सभी को जुबान दी है पर सभी अच्छा नहीं बोलकर नहीं कमाते। सभी को स्वर दिया है पर सभी गायक नहीं हो जाते। भाषा ज्ञान सभी को है पर सभी लेखक नहीं हो जाते। जिनको अपने जीवन के विषयों का सही ज्ञान होता है तथा जो अपने गुण और दुर्गुण को समझते हैं वही आगे चलकर समाज के शिखर पर पहुंचते हैं। इस संदर्भ में दो कवितायें प्रस्तुत हैं।
सोचता है हर कोई
पर अल्फाजों की शक्ल और
अंदाज-ए-बयां अलग अलग होता है
बोलता है हर कोई
पर अपनी आवाज से हिला देता है
आदमी पूरे जमाने को
कोई बस रोता है।।
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पी लोगे सारा समंदर भी
तो तुम्हारी प्यास नहीं जायेगी।
ख्वाहिशों के पहाड़ चढ़ते जाओ
पर कहीं मंजिल नहीं आयेगी।
रुक कर देखो
जरा कुदरत का करिश्मा
इस दुनियां में
हर पल जिंदगी कुछ नया सिखायेगी।
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Saturday, October 31, 2009

अंधेरे उजाले का द्वंद्व-हिंदी लघु व्यंगकथा (andhera aur ujala-hindi labhu katha)

वैसे तो उन सज्जन की कोई इतनी अधिक उम्र नहीं थी कि दृष्टिदोष अधिक हो अलबत्ता चश्मा जरूर लगा हुआ था। एक रात को वह स्कूटर से एक ऐसी सड़क से निकले जहां से भारी वाहनों का आवागमन अधिक होता था। वह एक जगह से निकले तो उनको लगा कि कोई लड़की सड़क के उस पार जाना चाहती है। इसलिये उन्होंने अपने स्कूटर की गति धीमी कर ली थी। जब पास से निकले तो देखा कि एक श्वान टांग उठाकर अपनी गर्दन साफ कर रहा था। उन्हें अफसोस हुआ कि यह क्या सोचा? दरअसल सामने से एक के बाद एक आ रही गाड़ियों की हैडलाईट्स इतनी तेज रौशन फैंक रही थी कि उनके लिये दायें बायें अंधेरे में हो रही गतिविधि को सही तरह से देखना कठिन हो रहा था।
थोड़ी दूर चले होंगे तो उनको लगा कि कोई श्वान वैसी ही गतिविधि में संलग्न है पर पास से निकले तो देखा कि एक लड़की सड़क पार करने के लिये तत्पर है। अंधेरे उजाले के इस द्वंद्व ने उनको विचलित कर दिया।
अगले दिन वह नज़र का चश्मा लेकर बनाने वाले के पास पहुंचे और उसे अपनी समस्या बताई। चश्में वाले ने कहा‘ मैं आपके चश्में का नंबर चेक कर दूसरा बना देता हूं पर यह गारंटी नहीं दे सकता कि दोबारा ऐसा नहीं होगा क्योंकि कुछ छोटी और बड़ी गाड़ियों की हैड्लाईटस इतनी तेज होती है जिन अंधेरे वाली सड़कों से गुजरते हुए दायें बायें ही क्या सामने आ रहा गड्ढा भी नहीं दिखता।’
वह सज्जन संतुष्ट नहीं हुए। दूसरे चश्मे वाले के पास गये तो उसने भी यही जवाब दिया। तब उन्होंने अपने मित्र से इसका उपाय पूछा। मित्र ने भी इंकार किया। वह डाक्टर के पास गये तो उसने भी कहा कि इस तरह का दृष्टिदोष केवल तात्कालिक होता है उसका कोई उपाय नहीं है।
अंततः वह अपने गुरु की शरण में गये तो उन्होंने कहा कि ‘इसका तो वाकई कोई उपाय नहीं है। वैसे अच्छा यही है कि उस मार्ग पर जाओ ही नहीं जहां रौशनी चकाचौध वाली हो। जाना जरूरी हो तो दिन में ही जाओ रात में नहीं। दूसरा यह कि कोई दृश्य देखकर कोई राय तत्काल कायम न करो जब तक उसका प्रमाणीकरण पास जाकर न हो जाये।
उन सज्जन ने कहा‘-ठीक है उस चकाचौंध रौशनी वाले मार्ग पर रात को नहीं जाऊंगा क्योंकि कोई राय तत्काल कायम न करने की शक्ति तो मुझमें नहीं है। वह तो मन है कि भटकने से बाज नहीं आता।’
गुरुजी उसका उत्तर सुनकर हंसते हुए बोले-‘वैसे यह भी संभव नहीं लगता कि तुम चका च ौंधी रौशनी वाले मार्ग पर रात को नहीं जाओ। वह नहीं तो दूसरा मार्ग रात के जाने के लिये पकड़ोगे। वहां भी ऐसा ही होगा। सामने रौशनी दायें बायें अंधेरा। न भी हो तो ऐसी रौशनी अच्छे खासे को अंधा बना देती है। दिन में भला खाक कहीं रौशनी होती है जो वहां जाओगे। रौशनी देखने की चाहत किसमें नहीं है। अरे, अगर इस रौशनी और अंधेरे के द्वंद्व लोग समझ लेते तो रौशने के सौदागर भूखे मर गये होते? सभी लोग उसी रौशनी की तरफ भाग रहे हैं। जमाना अंधा हो गया है। किसी को अपने दायें बायें नहीं दिखता। अरे, अगर तुमने तय कर लिया कि चकाचौंध वाले मार्ग पर नहीं जाऊंगा तो फिर जीवन की किसी सड़क पर दृष्टिभ्रम नहीं होगा।सवाल तो इस बात का है कि अपने निश्चय पर अमल कर पाओगे कि नहीं।’’
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Friday, October 23, 2009

कंप्यूटर पर भाषा सौंदर्य का ध्यान रखना कठिन-आलेख (computer and hindi bhasha-a hindi article)

कंप्यूटर पर लिखना इतना आसान काम नहीं है जितना समझा जाता है। दरअसल कंप्यूटर पर विचारों के क्रम के अनुसार अपनी सभी उंगलियां सक्रिय रखनी पड़ती हैं और उससे रचना सामग्री में भाषा सौंदर्य बनाये रखना सहज नहीं रह जाता। अगर वाक्य लंबा हो तो अनेक बार ‘होता है’, ‘रहता है’, ‘आता है’ तथा ‘जाता है’ जैसी क्रियाओं का दोहराव दिखने लगता है। इसका कारण यह है कि कंप्यूटर पर दिमाग तीन भागों में बांटना संभव नहीं लगता। एक तो आप विषय सामग्री पर चिंतन करते हैं दूसरी तरफ अपनी उंगलियों पर नियंत्रण का भी प्रयास करना होता है। ऐसे में भाषा सौंदर्य की सोचने की प्रक्रिया में लिप्त होना संभव नहीं है। फिर अगर आप अंतर्जाल पर कार्य कर रहे हैं और उससे आपको कोई आय नहीं है तो एक तरह से उन्मुक्तता का भाव उत्पन्न होकर नियंत्रित होने की शर्त से मुक्त कर देता है। यही कारण है कि अंतर्जाल पर आम तौर से भाषा सोंदर्य का अभाव दिखाई देता है। यही कारण अंतर्जाल पर गंभीर लेखन को प्रोत्साहित न करने के लिये जिम्मेदार है।
गंभीर लेखन के लिये एक तो स्थितियां अनुकूल नहीं है। आप किसी विषय पर बहुत गंभीरता से लिखें पर उसका उपयोग करने वाले आपका नाम तक न डालें या आपके विचार से प्रभावित होकर उसे अपने नाम से रखें तब निराशा उत्पन्न होती है। ऐसे में गंभीर लेखन की धारा प्रभावित होगी। साथ ही अगर गंभीर लेखक अगर केवल इसलिये लिखे कि उसका नाम चलता रहे तो वह उथली रचनायें लिखने में भी नहीं हिचकेगा।

कंप्यूटर पर लिखना आसान नहीं है और समस्या यह है कि इसके बिना अब काम भी नहीं चलने वाला। उस दिन एक अध्यात्मिक प्रकाशन की मासिक पत्रिका देखने को मिली। उत्सुकतावश उसे पढ़ा तो अनेक बार ऐसा लगा जैसे कि उसकी विषय सामग्री को गेय करने में बाधा आ रही है। उसका कारण उसमें एक ही वाक्य में क्रियाओं का अनावश्यक रूप से दोहराव था। अगर लेखक चाहता तो संपादन के समय एक ही वाक्य में कम से कम दस से पंद्रह शब्द कम कर सकता था। यह केवल एक जगह नहीं बल्कि उस पत्रिका के समस्त लेखों में दिखाई दिया। ऐसा लगता ँँथा कि प्रकाशकों का उद्देश्य केवल पत्रिका प्रकाशित करना था। वैसे उसके पाठकों का भी यही आलम होगा कि वह पत्रिका केवल पुण्य प्राप्त करने के लिये मंगवाते होंगे न कि पढ़ने के लिये-ऐसी पत्रिकाओं ने भी व्यवसायिक हिंदी पत्र पत्रिकाओं का कबाड़ा किया है इसमें संदेह नहीं है।
ऐसे लेख अनेक जगह पढ़कर लगता है कि लिखने वाले का उद्देश्य सीमित विचारों को अधिक शब्दों के सहारे विस्तार देना है। इसके अलावा लिखने वाले ने उसे सीधे कंप्यूटर पर ही लिखा होगा। कंप्यूटर पर लिखने के बाद उसे दोबारा पढ़ना एक उबाऊ काम है। इसलिये सीधे ही प्रकाशित करना या कहीं भेजने में उतावली करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर हिंदी लेखकों को अभी भी व्यवसायिक स्तर पर कोई अधिक सफलता नहीं मिल पायी-खासतौर से मौलिक और स्वतंत्र लिखने वालों की तरफ तो कोई झांकता भी नहीं है। ऐसे में हिंदी का लेखन प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सका तो उसमें आश्चर्य क्या है।
हाथ से लिखते समय अपने विचारों के क्रम के साथ ही भाषा से सुरुचिपूर्ण शब्दों का प्रवाह स्वतः चला आता है क्योंकि उस समय कलम पकड़े हाथों की उंगलियां मशीनीढंग से कार्यरत होती और उनको निर्देश देने में मस्तिष्क को प्रयास नहीं करना पड़ता-एक तरह से दोनों ही एक दूसरे का भाग होते हैं। हिंदी लिखने वाले कई ऐसे लोग इस देश में होंगे जिनको प्रकाशित होने के अवसर नहीं प्राप्त कर सके। हिंदी में अभी तक संगठित क्षेत्र-समाचार पत्र पत्रिकाओं और व्यवसाय प्रकाशकों के अधीन लेखन-का ही वर्चस्व रहा है। ऐसे में प्रतिबद्ध लेखन की धारा ही प्रवाहित होती रही है और स्वतंत्र मौलिक विषय सामग्री मार्ग अवरुद्ध होता है इधर अंतर्जाल पर लग रहा था कि स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को प्रोत्साहन मिलेगा पर प्रतीत होता है कि संगठित क्षेत्र के प्रचार माध्यम उस पर पानी फेर सकते हैं। वही क्या अंतर्जाल पर ही सक्रिय कुछ तत्व दूसरे की रचनाओं से नकल कर लिख रहे हैं और उनमें इतनी सौजन्तया नहीं दिखाते कि लेखक का नाम लें। यह नकल केवल शब्दों की नहीं वरना विचारों की भी है। वह दूसरे से विचार लिखकर ऐसे लिखते हैें जैसे कि उनके मौलिक विचार हों। यह सही है कि विचारों में समानता हो सकती है पर शैली में बदलाव रहेगा यह निश्चित है-उससे यह तो पता लगता है कि विचार कहां से लिये गये हैं।
अंतर्जाल पर कुछ लोग गजब का लिख रहे हैं। उनके लिखे को पढ़ने से यह पता लगता है कि उनके विचारों में संगठित क्षेत्र के लेखकों जैसी कृत्रिमता का भाव नहीं है। समस्या यह है कि अंतर्जाल पर स्वतंत्र और मौलिक लेखन का तात्पर्य है जेब से पैसे खर्च करने के साथ ही श्रम साध्य कार्य में उलझना। इस पर संगठित क्षेत्र के लेखकों का रवैया ब्लाग लेखकों के प्रति कितना उपेक्षापूर्ण है यह देखकर दुःख होता है। ओबामा को नोबल और गांधीजी पर इस लेखक के दो पाठों से एक अखबार के स्तंभकार ने कई पैरा कापी कर अपने लेख में छापे। उसका लेख बढ़ा था और ऐसा लगता था कि उसने अन्य जगह से भी उसकी नकल की होगी। संभव है उसने स्वयं भी लिखा हो। क्या होता अगर वह अपने लेख में इस लेखक का नाम भी उद्धृत कर देता। इससे वह क्या छोटा हो जाता? संभवतः संगठित क्षेत्र के लेखकों पर जल्दी सफलता का भूत सवार है और ब्लाग लेखक उनके लिये फालतू व्यक्ति है या वह उसी तरह गुलाम है जैसे कि वह अपने संगठनों के हैं।
संगठित क्षेत्रों में घुसे लोग भी क्या करें? वेतन या शुल्क से ही उनके घर चलते हैं। इसलिये उनको जहां से जैसा मिलता है वैसा ही वह अपने नाम से कर लेते हैं। यकीनन वह कंप्यूटर पर ही काम करते हैं और इंटरनेट की सुविधा होने से उनके लिये लिखने में अधिक समय नहीं लगता क्योंकि केवल कापी ही तो करनी है? यह लेखक शिकायत नहीं कर रहा है बल्कि उस लेख में अपने अंशों को पढ़ने से ही यह पता लगा कि उसमें क्रियाओं का दोहराव था जो कि गुस्सा कम दुःख अधिक दे रहे थे। वह आईना दिखा रहे थे कि ‘देखों क्या कचड़ा लेखन करते हो?‘
संयोगवश एक दो दिन बाद ही अध्यात्मिक पत्रिका पर नजर पडी तब पता लगा कि हमारा लिखा पढ़ने में कितना तकलीफदेह है। कभी कभी तो इच्छा होती है कि अपने हाथ से लिखकर ही टाईप करें फिर लगता है कि ‘यार, कौनसा यहां पैसा मिल रहा है।’ वैसे इस लेखक ने अपने जीवन की शुरुआत ही एक अखबार में आपरेटर के रूप में कंप्यूटर पर अपनी कविता लिखने से की थी। आज से तीस साल पहले। हां, एक बात लगती है कि चूंकि यह लेखक घर पर ही कंप्यूटर पर लिखने का काम करता है तब बीच में अन्य काम भी करने पड़ते हैं। कोई आ जाता है तो मिलना पड़ता है। कहीं स्वयं जाना पड़ता है। ऐसे में बड़े लेख एक बैठक में टाईप नहीं होते। फिर घर में बैठे अनेक प्रकार के अन्य विचार भी आते हैं। यह भी किसी से नहीं कहा जा सकता कि ‘हम कोई काम कर रहे हैं।’ अगर कहें तो पूछेंगे कि इसमें आपको मिलता क्या है? फिर कभी कभी तबियत खराब हो जाये तो कहते हैं कि यह सब कंप्यूटर की वजह से हुआ है।
वैसे दुनियां ही फालतू कामों में लगी है पर लेखक का लिखना उनके लिये तब तक फालतू है जब तक उससे कुछ नहीं मिलता हो। ऐसे में लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखकर कोई असाधारण लिखकर भी नाम और नामा नहीं कमा सकता अलबत्ता उसका लिखे विचार और विषयों की कापी कर संगठित क्षेत्र के लेखक ही बल्कि अंतर्जाल के लेखक भी अपनी रचना सामग्री सजायेंगे। कम से कम अभी तो यही लगता है। आगे क्या होगा कहना मुश्किल है।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, October 17, 2009

क्या रौशन करेंगे यह तेल के दिये-हिंदी कविता (roshni aur andhera-hindi kavita)


दीपावली पर घर में
आले में बने मंदिर से लेकर
गली के नुक्कड़ तक
प्रकाश पुंज सभी ने जला दिये।

अंतर्मन में छाया अंधेरा
सभी को डराता है
लोग बाहर ढूंढते हैं, रौशनी इसलिये।

ज्ञान दूर कर सकता है
अंदर छाये उस अंधेरे को
पर उसके लिये जानना जरूरी है
अपने साथ कड़वे सत्य को
जिससे दूर होकर लोग
हमेशा भाग लिये।

कौन कहता है कि
लोग खुशी में रौशनी के चिराग जला रहे है,ं
सच तो यह है कि लोग
बाहर से अंदर रौशनी अंदर लाने का
अभियान सदियों से चला रहे हैं
मगर आंखों से आगे सोच का दरवाजा बंद है
बाहर प्रकाश
और अंदर अंधेरा देख कर
घबड़ा जाते हैं लोग
धरती को रौशन करने वाला आफताब भी
इंसान के मन का
अंधेरा दूर न कर सका
तो क्या रौशन करेंगे यह तेल के दिये।

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