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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, April 25, 2008

स्वयंभू होने का सुख-हास्य व्यंग्य

हम चारों मित्र अलग-अलग जातियों से संबंधित होने के बावजूद कभी ऐसा नहीं लगता कि कोई भेद हो और न ही कभी जातियों पर बातचीत करते हैं और करते हैं तो कभी ऐसा जाहिर नहीं होता कि अपनी जातियों से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। उस दिन पता नहीं अपने मित्र के उपनाम को लेकर चर्चा कर बैठे। हमारे एक मित्र ने उससे पूछा-‘क्या तुम लोगों मे भी कोई गोत्र वगैरह होते है।’’

हमारे मित्र ने कहा-‘‘हां, कभी होते थे पर अब नहीं रहे, पर क्षेत्रवाद के आधार पर तो विभाजन है ही। हालांकि गौत्र के आधार तो हमें भी पता नहीं है।

मुझे अपने एक ऐसे मित्र की याद आयी जो लेखक भी और उससे मेरी पटरी नहीं बैठती। कई बार तो उससे वाद-विवाद काफी तीखा भी हो चुका है। वह कहीं मुलाकात होने पर उल्टी बात शुरू करता और मेरे लिखे पर विवाद करता है। हालांकि जिस मित्र की बात कर रहा हूं वह भी उससे इसी बात से नाराज रहते हैं कि वह हमारे लिखे पर बेकार की कमेंट करता रहता है। बहरहाल हमने अपने उस मित्र से कहा-‘‘हां, मुझे लगता है कि उस बड़बोले का गौत्र तुमसे अलग ही होगा। यार, उससे मेरी कभी नहीं बनती और तुमसे बन जाती है।’8

मेरे मित्र ने मुझसे कहा-‘‘यार, उससे तुम्हारी नहीं बनती यह तो हमें मालुम है पर यह गौत्र वाली बात उससे मत जोड़ो क्योंकि तुम दोनो हो लेखक और मेरे ख्याल से तुम लोगों की वही जाति और गौत्र होता है। कहीं तुम्हारी याद आती है तो हमारे दिमाग में यही बात रहती है कि तुम लेखक हो। तुम तो हिंदी के लेखक हो और कोई अगर तुम में जाति ढूंढेगा तो बेवकूफ ही कहलायेगा। तुम्हारा झगड़ा हिंदी के परंपरांगत लेखकों से कम थोडे+ ही है और हमें उसका लिखा पसंद नहीं है पर है तो वह भी लेखक। वैसे भी तुम लोग अपने लिखे में किसी को बख्शते हो जो हम तुम्हें किसी जाति विशेष से जोड़कर देखें’’

उसकी बात पर सब मित्र सहमत हो गये और मुझे हंसी आयी क्योंकि उसके कहने से मुझे अहसास हुआ कि वह सही कर रहा था-सबसे अच्छा लगा कहने का उसका सहज भाव। वहां एक मौजूद अन्य मित्र बोला-‘‘तभी तो जब हमारे सामने तुम लोगों की बहस होती है तो हम बिल्कुल नहीं बोलते क्योंकि लगता है कि दो लेखकों की लड़ाई में पड़कर अपनी अज्ञानता न दिखा बैठें।’

बहरहाल हम दोनों को स्वयंभू लेखक के रूप में मित्र लोगांे में पहचाना जाता है और मेरे ब्लाग पढ़ने वाले मित्र तो मुझे स्वयंभू लेखक और संपादक भी कहने लगे हैं। पहले मैं खूब सुनता था कि अमुक तो स्वयंभू अध्यक्ष है या सचिव है या संपादक है और जब अपने लिये ऐसी उपमाएं सुनता हूं तो हंसी आती है। स्वयंभू का मतलब है कि आप स्वयं घोषित कर देते हैं पर अन्य कोई नहीं मानता। अगर कोई दूसरा बनाये तो आप घोषित हो जाते हैं नहीं तो स्वयंभू कहलाते हैं। हम पुराने संपादक रह चुके हैं पर अब नहीं हैं और ब्लोग पर लिख छोड़ा है तो वह किसी सेठ का नहीं है जो हमें कोई मान लेगा।

इसके बावजूद स्वयंभू होने में सुख तो लगता है। यह अब महसूस होने लगा है। कल मेरा एक ब्लाग बीस हजार की व्यूज संख्या को पार करने वाला है। आज मुझे एक मित्र ने याद दिलाया और कहने लगा कि-‘‘दस हजार का संदेश तो हम नहीं पढ़ पाये थे पर वह तुम्हारा ब्लोग 19900 पार कर चुका है और कोई जोरदार संदेश लिखना।‘‘

हमने पूछा-‘‘क्या जरूरी है? तुंम ही तो कहते हो कि ब्लागरों के लिये कम लिखो। आम पाठकों के लिये व्यंग्य और कहानी लिखो। फिर क्या जरूरी है कि हम लिखें।’’

वह बोला-‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि तुम पाठकों के लिये ही लिखो। यार हम देखना चाहते हैं कि तुंम स्वयंभू संपादक के रूप में कैसे लिखते हो? अगर जोरदार रहा तो हम तुम्हें संपादक के रूप में मान्यता दे देेंगे। तुम ही खुद ही कहते हो कि स्वयंभू उसको कहा जाता है जिसे किसी और की मान्यता नहीं होती। जब मान्यता दे देंगे तो फिर तुम्हारे स्वयंभू होने का प्रश्न नहीं उठता। हां, लेखक तुम हो क्योंकि तुंम्हारा लिखा हमें पसंद है।’

सच बात तो यह है कि हमारे पास इतने ब्लाग हो गये हैं कि और व्यस्तता बढ़ गयी है पर हमारे मित्र वर्डप्रेस के ब्लागों पर व्यूज अवश्य देखते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि हमारे मित्रों ने यह तक अनुमान लगा लिया कि वह एक दो दिन में इस सीमा को पार कर लेगा।
हमने मित्र के कहने पर घर आते ही पाठकों के लिये बीसहजारीय संदेश लिखने का प्रयास किया पर कई कागज फाड़ चुके हैं। कुछ समझ में नही आ रहा कि क्या लिखें? कहीं ऐसा न हो कि मित्रों से संपादक के रूप में मिली मान्यता खतरे मेंे पड़ जाये। काफी माथामच्ची करने के बाद हमने आज लिखने का विचार छोड़ दिया क्योंकि एक तो वह ब्लाग आज उस संख्या को छू नहीं रहा दूसरा हमने सोचा कि जितना सुख स्वयंभू में उतना मान्यता मिलने में नहीं है। स्वयंभू होने पर लोग छींटाकशी कम ही करते हैं क्योंकि उनके दिमाग में वास्तविक छवि वह नहीं होती जो हम बताते हैं। अभी यह कोई नहीं कहता कि‘यार कैसे संपादक हो’, कहीं मान्यता मिल गयी तो फिर ‘यार कैसे लेखक हो’ कि जगह जुमला संपादक वाला हो जायेगा। स्वयंभू का सुख उठा लें यही बहुत है इसलिये सोचा कि जब ब्लाग बीसहजारीय संख्या को पार करेगा तो स्वयंभू लेखक और संपादक की तरह ही लिखेंगे क्योंकि हमें लगता है कि हम तभी लिख पाते हैं जब अपने को स्वयंभू समझते हैं और बचपन से शायद इसलिये यह लिखने का रोग लग गया।


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