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Monday, January 25, 2010

ताजे खून के ढूंढ रहे गुमाश्ते-हिन्दी शायरी (taza khoon dhoondh rahe-hindi shayri)

कभी शिकायत नहीं की अपने दर्द की

शायद इसलिये उन्होंने बेकद्री का रुख दिखाया,

इशारों को कभी समझा नहीं

काम निकलते ही अपनों  से अलग परायों में बिठाया,

जब अपने मसले रखे उनके सामने

बागी कहकर, हमलावरों में नाम लिखाया

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नयी पीढ़ी को आगे लाने के वास्ते,

खोल रहे हैं सभी अपने रास्ते।

पुरानों को बरगलाना मुश्किल है

उनकी जेबें हैं खाली, बुझे दिल हैं

खून जल चुका है जिन बेदर्दो की तोहीन से

ताजे खून के लिये वही ढूंढ रहे गुमाश्ते।

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वह देश और समाज का भविंष्य

सुधारने के लिये उठाते हैं कसम,

जबकि अपनी आने वाले सात पुश्तों का

खाना जुटाने के लिये लगाते दम।

उनके काम पर क्या उठायें उंगली

आखें खुली है

पर अक्ल के पर्दै मिराये बैठे हम।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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