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Tuesday, March 30, 2010

बिडाल वृत्ति

धर्मघ्वजी सदा लुब्धश्छाद्यिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्ति को ज्ञेयो हिस्त्रः सर्वाभिसन्धकः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपनी कीर्ति पाने की इच्छा पूर्ति करने के लिये झूठ का आचरण करने वाला, दूसरे के धन कर हरण करने वाला, ढौंग रचने वाला, हिंसक प्रवृत्ति वाला तथा सदैव दूसरों को भड़काने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।’
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल ऐसे लोगों की बहुतायत है जो अपनी कीर्ति पाने के लिये झूठ और ढौंग के आचरण का अनुकरण करते हुए दूसरे के धन और रचनाकर्म का अपहरण करते हैं। इतना ही नहीं समाज के विद्वेष फैलाने के लिये दूसरो को भड़काते हैं। आज जो हम समाज में वैमनस्य का बढ़ता हुआ प्रभाव देख रहे हैं वह ऐसे ही ‘बिडाल वृत्ति’ के लोगों के दुष्प्रयासों का परिणाम है। अनेक लोग ऐसे हैं जो दूसरों का धन हरण कर शक्ति और पद प्राप्त कर लेते हैं। वह काम तो दूसरों से करवाते हैं पर उन पर अपने नाम का ठप्पा लगवाते हैं। अनेक बार ऐसी शिकायते अखबारों में छपने को मिलती है कि किसी के शोध या अनुसंधान को किसी ने चुरा कर अपने नाम से कर लिया। इसके अलावा ऐसे भी समाचार आते हैं कि सार्वजनिक और सामाजिक धन संपदा खर्च कहीं की जानी थी पर कहीं अन्यत्र उसका स्थानांतरण कर दिया-सीधी सी बात कहें तो भ्रष्टाचार भी ‘बिडाल वृत्ति’ है।
इसके अलावा अनेक अनेक क्षेत्रों रचना तथा अनुसंधानकर्मी भी यह शिकायत करते हैं कि उनकी रचना या अनुसंधान की चोरी कर ली गयी है। यह मनोवृत्ति आजकल बढ़ गयी है। इसके पीछे कारण यह है कि लोगों के अंदर मान पाने की वृत्ति श्वान की तरह हो गयी है जिसकी चर्चा माननीय संत कवि कबीरदास जी भी करते हैं। मजे की बात यह है कि जो लोग वास्तव में रचना और अनुसंधान करने वाले होते हैं वह इस तरह के प्रपंच में नहीं पड़ते। अगर हम यह कहें कि जो वास्तव में रचनात्मक भाव वाले हैं वह मान की चाहते से परे होते हैं और जो मान पाने की इच्छा रखते हैं वह दूसरे के धन की चोरी और रचनाकर्म के अपहरण का मार्ग अपनाते हैं। इसलिये हमें ऐसे लोगों की पहचान करना चाहिये। जो व्यक्ति सम्मानित होते दिखे उसके पीछे क्या है यह जरूर देखना चाहिये। आजकल हर क्षेत्र में सम्मान और पुरस्कार बांटे जाते हैं और उनको पाने के लिये अनेक लोग छल, कपट, दावपैंच और चाटुकारिता करते हैं। सच बात तो यह है कि अब तो भाषा, कला, विज्ञान तथा अन्य क्षेत्रों में सद्प्रयासों से सम्मान मिलने वाली बात ही नहीं रही। इसलिये जो लोग स्वांत सुखाय रचनाकर्म कर रहे हैं उनको यह नहीं समझना चाहिये कि अगर सम्मान नहीं मिला तो वह कोई कमतर रचनाकार हैं। समाज सेवा, रचनाकर्म तथा अनुसंधान करने का प्रयास इसलिये नहीं छोड़ना चाहिये कि कहीं से सम्मान नहीं मिल रहा है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com
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