तंग गली में दिन गुजारने वालों से
रोशन ख्याल की उम्मीद क्यों करते हो,
नीयत है जिनकी काली
उन सफेदपोशों से भले की उम्मीद क्यों करते हो.
लगता है जिंदगी की हकीकतों को नहीं जानते
इसलिए इंसानी खोल ओढ़े जो बुत
अपनी भूख बहुत ढेर सारी दौलत से नहीं मिटा सके
और महलों में अपने आदतों के गुलाम की तरह पके
उनके अपने फ़रिश्ते होने के दावे को सच समझते हो..
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बीमारी का इलाज करने वह नहीं आये,
इसलिए ही दवा बेचने से पहले
कहर बरसने का खौफ साथ लाये.
इंसानी ख़ुशी से बस उनका इतना है वास्ता कि
उनकी गोली की पुडिया बिक जाये,
इसलिए एक बीमारी के मिटने से पहले ही
दूसरी का खौफ भी साथ लाये.
बैठें है फ़रिश्ते, बोर्ड पर हर बीमारी का नाम सजाये..
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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