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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, August 2, 2009

जड़ चिंतन-हिन्दी व्यंग्य (hindi article)

आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री श्री केविन रूड किसी समय सफाई कर्मचारी का काम करते थे-यह जानकारी अखबार में प्रकाशित हुई देखी। अब वह प्रधानमंत्री हैं पर उन्होंने यह बात साहस के साथ स्वीकार की है। उनकी बात पढ़कर हृदय गदगद् कर उठा। एक ऐसा आदमी जिसने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में पसीना बहाया हो और फिर शिखर पर पहुंचा हो यह आस्ट्रे्रलिया की एक सत्य कहानी है जबकि हमारे यहां केवल ऐसा फिल्मों में ही दिखाई देता है। यह आस्ट्रेलिया के समाज की चेतन प्रवृत्तियों का परिचायक है।
कभी कभी मन करता है कि हम भी ऐसी कहानी हिंदी में लिखें जिसमें नायक या नायिका अपना खून पसीना करते हुए समाज के शिखर पर जा बैठा हो पर फिर लगता है कि यह तो एक झूठ होगा। हम तो बरसों से इस देश में देख रहे हैं जड़ता का वातावरण है। अपने आसपास ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने जीवन भर पसीना बहाया और बुढ़ापे में भी उनका वही हाल है। उनके बच्चे भी अपना पसीना बहाकर दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से कमा रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर देख रहे हैं। फिल्म, पत्रकारिता, धार्मिक प्रचार,संगीत समाज सेवा और अन्य आकर्षक पेशों में जो लोग चमक रहे थे आज उनकी औलादें स्थापित हो गयी हैं। पहले लोग प्रसिद्ध गुरु के नाम पर उसके उतराधिकारी शिष्य को भी गुरु मान लेते थे। अनेक लोग अपनी पहचान बनाने के लिये अपने गुरु का नाम देते थे पर आजकल अपने परिवार का नाम उपयोग करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं। समाज में परिवर्तन तो बस दिखावा भर है! यह परिवर्तन बहुत सहजता से होता है क्योंकि यहां गुरु को नहीं बल्कि को बाप को अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
नारा तो लगता है कि ‘गरीब को रोटी दो,मजदूर को काम दो।’ उसकी यही सीमा है। रोटी और काम देने का ठेका देने वाले अपने कमीशन वसूली के साथ समाज सेवा करते हैं। कोई गरीब या मजदूर सीधे रास्ते शिखर पर न पहुंचे इसका पक्का इंतजाम है। गरीबों और मजदूरों में कैंकड़े जैसी प्रवृत्ति पायी जाती है। वह किसी को अपने इलाके में अपने ही शिखर पर किसी अपने आदमी को नहीं बैठने दे सकते। वहां वह उसी को सहन कर सकते हैं जो इलाके, व्यवसाय या जाति के लिहाज से बाहर का आदमी हो। उनको तसल्ली होती है कि अपना आदमी ऊपर नहीं उठा। इस वजह स समाज में उसकी योग्य पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता। अगर कोई एक आदमी अपने समाज या क्षेत्र में शिखर पह पहुंच गया तो बाकी लोगों का घर में बैठना कठिन हो जायेगा न! बीबीयां कहेंगी कि देखो-‘अमुक कितना योग्य है?’
इसलिये अपने निकट के आदमी को तरक्की मत करने दो-इस सिद्धांत पर चल रहा हमारे देश का समाज जड़ता को प्राप्त हो चुका है। यह जड़ता कितना भयानक है कि जिस किसी में थोड़ी बहुत भी चेतना बची है उसे डरा देती है। फिल्मों और टीवी चैनलों के काल्पनिक पात्रों को निभाने वाले कलाकारों को असली देवता जैसा सम्मान मिल रहा है। चिल्लाने वाले पात्रों के अभिनेता वीरता की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। ठुमके लगाने का अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां सर्वांग सुंदरी के सम्मान से विभूषित हैं।
उस दिन हम एक ठेले वाले से अमरूद खरीद रहे थे। वह लड़का तेजतर्रार था। सड़क से एक साधू महाराज निकल रहे थे। उस ठेले पर पानी का मटका रखा देखकर उस साधु ने उस लड़के से पूछा-‘बेटा, प्यास लगी है थोड़ा पानी पी लूं।’
लड़के ने कहा-‘थोड़ा क्या महाराज! बहुत पी लो। यह तो भगवान की देन है। पूरी प्यास मिटा लो।
साधु महाराज ने पानी पिया। फिर उससे बोले-‘यह अमरूद क्या भाव दे रहे हो। आधा किलो खुद ही छांट कर दे दो।’
लड़का बोला-‘महाराज! आप तो एक दो ऐसे ही ले लो। आपसे क्या पैसे लेना?’
साधु ने कहा-‘नहीं! हमारे पास पैसा है और उसे दिये बिना यह नहीं लेंगे। तुम तोल कर दो और हम पैसे देतेे हैं।
लड़के ने हमारे अमरूद तोलने के पहले उनका काम किया। उन साधु महाराज ने अपनी अंटी से पैसे निकाले और उसको भुगतान करते हुए दुआ दी-‘भले बच्चे हो! हमारी दुआ है तरक्की करो और बड़े आदमी बनो।’
वह लड़का बोला-‘महाराज, अब क्या तरक्की होगी। बस यही दुआ करो कि रोजी रोटी चलती रहे। अब तो बड़े आदमी के बेटे ही बड़े बनते हैं हम क्या बड़े बनेंगे?’
साधु महाराज तो चले गये पर उस लड़के को कड़वे सच का आभास था यह बात हमें देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इस देश में जो पसीना बहाकर रोटी कमा रहे हैं वह इस समाज का जितना सच जानते हैं और कोई नहीं जानता। वातानुकूलित कमरों और आराम कुर्सियों पर देश की चिंता करने वाले अपने बयान प्रचार माध्यमों में देकर प्रसिद्ध हो जाते हैं पर सच को वह नहीं जानते। उनके भौंपू बने कलमकार और रचनाकार भी सतही रूप से इस समाज को देखते हैं। उनकी चिंतायें समाज को उठाने तक ही सीमित हैं पर यह व्यक्तियों का समूह है और उसमें व्यक्तियों को आगे लाना है ऐसा कोई नहीं सोचता। चिंता है पर चिंतन नहीं है और चिंतन है तो योजना नहीं है और योजना है तो अमल नहीं है। जड़ता को प्राप्त यह समाज जब विदेशी समाजों को चुनौती देने की तैयारी करता है तो हंसी आती है।
अभी आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने पर यहां सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी शोर मचा रहे थे। वह ललकार रहे थे आस्ट्रेलिया के समाज को! उस समाज को जहां एक आम मेहनतकश अपनी योग्यता से शिखर पर पहुंच सकता है। कभी अपने अंदर झांकने की कोई कोशिश न करता यह समाज आस्ट्रेलिया के चंद अपराधियों के कृत्यों को उसके पूरे समाज से जोड़ रहा था। इस जड़ समाज के बुद्धिजीवियों की बुद्धि भी जड़ हो चुकी है। वह एक दो व्याक्ति या चंद व्यक्तियों के समूहों के कृत्यों को पूरे समाज से जोड़कर देखना चाहते हैं। दुःखद घटनाओं की निंदा करने से उनका मन तब तक नहीं भरता जब तक पूरे समाज को उससे नहीं जोड़ लेते। समाज! यानि व्यक्तियों का समूह! समूह या समाज के अधिकांश व्यक्तियों का उत्थान या पतन समाज का उत्थान या पतन होता है। मगर जड़ चिंतक एक दो व्यक्तियों को उदाहरण बनाकर समाज का उत्थान या पतन दिखाते हैं।
विदेश में जाकर किसी भारतीय ने तरक्की की उससे पूरे भारतीय समाज की तरक्की नहीं माना जा सकता है। मगर यहां प्रचारित होता है। जानते हैं क्यों?
इस जड़ समाज के शिखर पर बैठे लोग और पालतू प्रचारक यहां की नयी पीढ़ी को एक तरह ये यह संदेश देते हैं कि ‘विदेश में जाकर तरक्की करो तो जाने! यहां तरक्की मत करो। यहां तरक्की नहीं हो सकती। यहां तो धरती कम है और जितनी है हमारे लिये है। तुम कहीं बाहर अपने लिये जमीन ढूंढो।’
सामाजिक संगठनों, साहित्य प्रकाशनों, फिल्मों, कला और विशारदों के समूहों में शिखर पर बैठे लोग आतंकित हैंे। वह अपनी देह से निकली पीढ़ी को वहां बिठाना चाहते हैं। इसलिये विदेश के विकास की यहां चर्चा करते हैं ताकि देश का शिखर उनके लिये बना रहे।
यहां का आम आदमी तो हमेशा शिखर पुरुषों को अपना उदाहरण मानता है। शिखर पुरुषों की जड़ बुद्धि हमेशा ही जड़ चिंतकों को सामने लाती है और वह उसी जड़ प्रवृत्ति को प्रचार करते है ताकि ‘जड़ चिंतन’ बना रहे। विकास की बात हो पर उनके आकाओं के शिखर बिगाड़ने की शर्त पर न हो। एक चेतनाशील समाज को जब जड़ समाज ललकारता है तब अगर हंस नहीं सकते तो रोना भी बेकार है।
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