लगभग मृतप्रायः हो चुकी भारतीय हाकी को उबारने के लिये बल्ला और गेंद से खेलकर महान बन चुके भगवान अब दर्शक के रूप में अवतरित हो रहे हैं।
‘हमारे देश में हाकी का विश्व कप हो रहा है, क्या उसे हम नहीं देखेंगे?’
‘मैं अब खेलूगा नहीं बल्कि दर्शकों की तरह हाकी के मैच देखूंगा!’
‘अपने देश के हाकी खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ायें।’
इस तरह के नारे उस क्रिकेट खेल के खिलाड़ी दे रहे हैं जिसने राष्ट्रीय खेल कही जाने वाली हाॅकी को लगभग मृत स्थिति में पहुंचा दिया। अगर एतिहासिक उपलब्धियों की बात की जाये तो हाकी में भारत का खाता आज भी चमकदार है क्योंकि ओलंपिक और विश्व कप उसके नाम पर दर्ज हैं जबकि क्रिकेट में केवल एक विश्व कप दर्ज है वह भी 1983 में मिला था। उसके बाद भले ही बल्ले और बाल से खेलने वाले धन कमाते रहे पर इस खाते में 2007 में एक बीस ओवरीय विश्व कप के अलावा कुछ अधिक नहीं जुड़ा। हो सकता है कि देश के युवा क्रिकेट प्रेमी परीक्षण मैच-पांच दिवसीय, पचास ओवरीय तथा बीस ओवरीय-देखकर भले ही बहल जाते हों और खिलाड़ियों के विज्ञापनों से मिलने वाले प्रचार के साथ पैसे मिलने को देखकर युवा खेल प्रशंसिकायें उनकी दीवानी हो जाती हों पर सच यही है कि श्रेष्ठता के लिये वास्तविक पैमाना वैश्विक स्तर की प्रतियोगिताओं से ही प्रमाणित होता है।
हो सकता है कि अनेक युवा खेल प्रशंसकों में कई ऐसे भी हों जिनको हाकी शब्द ही समझ में न आये। कई युवाओं को यह खेल नया ईजाद किया हुआ भी लगा सकता है-क्योंकि उनकी स्मृति में हाकी का स्वर्णिम समय नहीं होगा। कुछ लोगो को यह भ्रम भी हो सकता है कि यही खिलाड़ी किकेट में तो अपनी टीम नहीं उबार सके पर शायद अब राष्ट्रीय खेल हाकी में कुछ जरूर कर दिखायेंगे। देश की हाकी को इन दर्शक अवतारों के सहारे तारने की कोशिश हो रही है या उसके विश्व कप से जुड़ी विज्ञापन कंपनियों के लिये दर्शक जुटाने का यह प्रयास है, यह कहना कठिन है।
पुराणों में कथा आती है कि जब जब प्रथ्वी पर संकट आता है तब वह सर्वशक्तिमान की दरबार में हाजिरी लगाकर अपना बोझ हल्का करने का आग्रह करती है और वह अवतार लेकर उसका उद्धार करते हैं। प्रथ्वी की सांसें शेष होती हैं इसलिये वह चलकर सर्वशक्तिमान के दरबार पहुंचती है। यहां प्राणविहीन हाॅकी से यह आशा करना बेकार है कि उसने क्रिकेट के इन विज्ञापन अवतारों के ‘सजावट कक्ष’ में-अंग्रेजी में बोलें तो ड्रैसिंग रूम-में हाजिरी लगाई होगी।
मृतप्रायः हाकी समझकर कुछ लोग शायद समझें नहीं इसलिये यह बताना जरूरी है कि अगर यह विश्व कप भारत में नहीं हो रहा होता तो भारतीय टीम इसमें नहीं खेल सकती थी क्योंकि वह क्वालीफाइग दौर में बाहर हो चुकी थी-यानि इसमें भाग लेने का अवसर योग्यता के कारण नहीं बल्कि इसके आयोजन पर पैसा खर्च करने के कारण मिल रहा है। दूसरी भाषा में इसे कृपांक से पास होना भी कह सकते हैं-अपने यहां ऐसा भी होता है कि किसी कारण वश कहीं परीक्षा नहीं हो पाती तो सामूहिक रूप से विद्यार्थियों को पास कर दिया जाता है-यह भी इसी तरह का ही है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय हाकी टीम की यह दुर्दशा केवल एक दिन में हुई है। बरसों से हाकी के प्रेमी और शुभचिंतक आर्त भाव से इसके कर्णधारों की तरफ देखते रहे, कुछ लोगों ने अपनी भावनायें अखबारों में भी व्यक्त की। हाॅकी के उद्धार करने के लिये कई महापुरुष प्रकट भी होते रहे पर नतीजा ढाक के तीन पात!
हाकी का विश्वकप कप होने की घोषणा भी कोई दो चार दिन पहले नहीं हुई। चार साल पहले पता था-पर यह नहीं पता कि इसे जीतने के लिये क्या योजना बनी है? उल्टे कुछ दिन पहले खिलाड़ियों द्वारा वेतन तथा सुविधाऐं न मिलने की शिकायत करते हुए हड़ताल कर दी। बड़ी हायतौबा मची। इस देश में शिखर पर अभी भी सज्जन लोग हैं और वह भारतीय हाकी की मदद के लिये आगे भी आये। अब यह मामला थम गया है पर भारतीय टीम किस स्थिति में है पता नहीं।
बाकी देशों का पता नहीं पर हमारे देश में अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताऐं केवल अपनी वैश्विक छबि बनाने के लिये आयोजित किये जाते हैं। खेल तो जाये भाड़ में बस विश्व में सभ्य देश माना जाना चाहिये! इस छबि का लाभ जिसे मिल सकता है वही उठा सकता है। जहां तक खिलाड़ियों का सवाल है तो जिसमें अपना दमखम हो खेल ले-अगर क्रिकेट के अलावा कोई अन्य खेल खेलता है तो अपने दम पर रोटी कमाये। या फिर जिसे प्रचार चाहिये वह किसी भी अन्य खेल में आये और शिखर पुरुषों की जीहुजूरी कर टीम में स्थान बनाकर प्रचार प्राप्त करे-मतलब जिसे आत्मविज्ञापन की जरूरत हो वही दूसरा खेल खेले। वैसे आजकल सभी प्रकार की खेल प्रतियोगितायें कंपनियों द्वारा ही प्रायोजित किये जाते हैं जिनको अपने विज्ञापन से मतलब होता है-आशय यह है कि हाकी खेल से अधिक कंपनियों के विज्ञापन महत्वपूर्ण है उसके लिये जरूरी है अधिक से अधिक लोग इसके मैचों को देखें।
अगले कुछ दिनों में हम देखेंगे कि अनेक ‘विज्ञापन नायक नायिकायें-फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियां और क्रिकेट के खिलाड़ी-हाकी के लिये अपने आपको विशिष्ट दर्शक के रूप में प्रस्तुत करते नज़र आयेंगे। अब यह कहना कठिन है कि वह इन विज्ञापनों के लिये प्रत्यक्ष धन ले रहे हैं या ‘पुराने ग्राहकों’ के लिये उपहार स्वरूप अभिनय कर रहे हैं-अपने यहां पुराने व्यवसायिक संबंधो के आधार पर रियायत करने की पंरपरा है। अनेक बार दिवाली के अवसर पर अनेक चीजें बड़े व्यापारी छोटे व्यापारियों और ग्राहकों उपहार स्वरूप देते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हाकी के विश्व कप को आकर्षण प्रदान करने के लिये प्रयास हो रहे हैं जिसका खेल से कोई अधिक संबंध नहीं दिखता।
जो हाॅकी के खेल को जानते हैं उनको पता है कि अपनी टीम का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने की बात कहकर केवल विज्ञापनों के लिये दर्शक जुटाना भर है। आखिर हाकी की विश्व कप प्रतियोगिता के लिये प्रायोजक तैयार कैसे हुए? जबकि उनके पास क्रिकेट और टेनिस जैसे भी खेल हैं जहां उनके विज्ञापन देखने वाले दर्शक पहले से ही अधिक होते हैं, तब हाकी की तरफ उनका ध्यान क्यों गया? शायद वह यह सोचकर ही शामिल हुईं होंगी कि इस देश से खेलों के नाम पर बहुत कमाया है चलो ‘हाकी’ के माध्यम से दर्शकों को थोड़ा उपहार दे दो। अब यह देखने वाली बात होगी कि भारत में आयोजित इस हाॅकी प्रतियोगिता को कितना जनसमर्थन मिलेगा? अब वह पहले वाली बात नहीं है कि हाकी का विश्व कहीं भी हो लोग उसका इंतजार ऐसे ही करते थे जैसे कि आजकल क्रिकेट का करते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior‘हमारे देश में हाकी का विश्व कप हो रहा है, क्या उसे हम नहीं देखेंगे?’
‘मैं अब खेलूगा नहीं बल्कि दर्शकों की तरह हाकी के मैच देखूंगा!’
‘अपने देश के हाकी खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ायें।’
इस तरह के नारे उस क्रिकेट खेल के खिलाड़ी दे रहे हैं जिसने राष्ट्रीय खेल कही जाने वाली हाॅकी को लगभग मृत स्थिति में पहुंचा दिया। अगर एतिहासिक उपलब्धियों की बात की जाये तो हाकी में भारत का खाता आज भी चमकदार है क्योंकि ओलंपिक और विश्व कप उसके नाम पर दर्ज हैं जबकि क्रिकेट में केवल एक विश्व कप दर्ज है वह भी 1983 में मिला था। उसके बाद भले ही बल्ले और बाल से खेलने वाले धन कमाते रहे पर इस खाते में 2007 में एक बीस ओवरीय विश्व कप के अलावा कुछ अधिक नहीं जुड़ा। हो सकता है कि देश के युवा क्रिकेट प्रेमी परीक्षण मैच-पांच दिवसीय, पचास ओवरीय तथा बीस ओवरीय-देखकर भले ही बहल जाते हों और खिलाड़ियों के विज्ञापनों से मिलने वाले प्रचार के साथ पैसे मिलने को देखकर युवा खेल प्रशंसिकायें उनकी दीवानी हो जाती हों पर सच यही है कि श्रेष्ठता के लिये वास्तविक पैमाना वैश्विक स्तर की प्रतियोगिताओं से ही प्रमाणित होता है।
हो सकता है कि अनेक युवा खेल प्रशंसकों में कई ऐसे भी हों जिनको हाकी शब्द ही समझ में न आये। कई युवाओं को यह खेल नया ईजाद किया हुआ भी लगा सकता है-क्योंकि उनकी स्मृति में हाकी का स्वर्णिम समय नहीं होगा। कुछ लोगो को यह भ्रम भी हो सकता है कि यही खिलाड़ी किकेट में तो अपनी टीम नहीं उबार सके पर शायद अब राष्ट्रीय खेल हाकी में कुछ जरूर कर दिखायेंगे। देश की हाकी को इन दर्शक अवतारों के सहारे तारने की कोशिश हो रही है या उसके विश्व कप से जुड़ी विज्ञापन कंपनियों के लिये दर्शक जुटाने का यह प्रयास है, यह कहना कठिन है।
पुराणों में कथा आती है कि जब जब प्रथ्वी पर संकट आता है तब वह सर्वशक्तिमान की दरबार में हाजिरी लगाकर अपना बोझ हल्का करने का आग्रह करती है और वह अवतार लेकर उसका उद्धार करते हैं। प्रथ्वी की सांसें शेष होती हैं इसलिये वह चलकर सर्वशक्तिमान के दरबार पहुंचती है। यहां प्राणविहीन हाॅकी से यह आशा करना बेकार है कि उसने क्रिकेट के इन विज्ञापन अवतारों के ‘सजावट कक्ष’ में-अंग्रेजी में बोलें तो ड्रैसिंग रूम-में हाजिरी लगाई होगी।
मृतप्रायः हाकी समझकर कुछ लोग शायद समझें नहीं इसलिये यह बताना जरूरी है कि अगर यह विश्व कप भारत में नहीं हो रहा होता तो भारतीय टीम इसमें नहीं खेल सकती थी क्योंकि वह क्वालीफाइग दौर में बाहर हो चुकी थी-यानि इसमें भाग लेने का अवसर योग्यता के कारण नहीं बल्कि इसके आयोजन पर पैसा खर्च करने के कारण मिल रहा है। दूसरी भाषा में इसे कृपांक से पास होना भी कह सकते हैं-अपने यहां ऐसा भी होता है कि किसी कारण वश कहीं परीक्षा नहीं हो पाती तो सामूहिक रूप से विद्यार्थियों को पास कर दिया जाता है-यह भी इसी तरह का ही है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय हाकी टीम की यह दुर्दशा केवल एक दिन में हुई है। बरसों से हाकी के प्रेमी और शुभचिंतक आर्त भाव से इसके कर्णधारों की तरफ देखते रहे, कुछ लोगों ने अपनी भावनायें अखबारों में भी व्यक्त की। हाॅकी के उद्धार करने के लिये कई महापुरुष प्रकट भी होते रहे पर नतीजा ढाक के तीन पात!
हाकी का विश्वकप कप होने की घोषणा भी कोई दो चार दिन पहले नहीं हुई। चार साल पहले पता था-पर यह नहीं पता कि इसे जीतने के लिये क्या योजना बनी है? उल्टे कुछ दिन पहले खिलाड़ियों द्वारा वेतन तथा सुविधाऐं न मिलने की शिकायत करते हुए हड़ताल कर दी। बड़ी हायतौबा मची। इस देश में शिखर पर अभी भी सज्जन लोग हैं और वह भारतीय हाकी की मदद के लिये आगे भी आये। अब यह मामला थम गया है पर भारतीय टीम किस स्थिति में है पता नहीं।
बाकी देशों का पता नहीं पर हमारे देश में अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताऐं केवल अपनी वैश्विक छबि बनाने के लिये आयोजित किये जाते हैं। खेल तो जाये भाड़ में बस विश्व में सभ्य देश माना जाना चाहिये! इस छबि का लाभ जिसे मिल सकता है वही उठा सकता है। जहां तक खिलाड़ियों का सवाल है तो जिसमें अपना दमखम हो खेल ले-अगर क्रिकेट के अलावा कोई अन्य खेल खेलता है तो अपने दम पर रोटी कमाये। या फिर जिसे प्रचार चाहिये वह किसी भी अन्य खेल में आये और शिखर पुरुषों की जीहुजूरी कर टीम में स्थान बनाकर प्रचार प्राप्त करे-मतलब जिसे आत्मविज्ञापन की जरूरत हो वही दूसरा खेल खेले। वैसे आजकल सभी प्रकार की खेल प्रतियोगितायें कंपनियों द्वारा ही प्रायोजित किये जाते हैं जिनको अपने विज्ञापन से मतलब होता है-आशय यह है कि हाकी खेल से अधिक कंपनियों के विज्ञापन महत्वपूर्ण है उसके लिये जरूरी है अधिक से अधिक लोग इसके मैचों को देखें।
अगले कुछ दिनों में हम देखेंगे कि अनेक ‘विज्ञापन नायक नायिकायें-फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियां और क्रिकेट के खिलाड़ी-हाकी के लिये अपने आपको विशिष्ट दर्शक के रूप में प्रस्तुत करते नज़र आयेंगे। अब यह कहना कठिन है कि वह इन विज्ञापनों के लिये प्रत्यक्ष धन ले रहे हैं या ‘पुराने ग्राहकों’ के लिये उपहार स्वरूप अभिनय कर रहे हैं-अपने यहां पुराने व्यवसायिक संबंधो के आधार पर रियायत करने की पंरपरा है। अनेक बार दिवाली के अवसर पर अनेक चीजें बड़े व्यापारी छोटे व्यापारियों और ग्राहकों उपहार स्वरूप देते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हाकी के विश्व कप को आकर्षण प्रदान करने के लिये प्रयास हो रहे हैं जिसका खेल से कोई अधिक संबंध नहीं दिखता।
जो हाॅकी के खेल को जानते हैं उनको पता है कि अपनी टीम का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने की बात कहकर केवल विज्ञापनों के लिये दर्शक जुटाना भर है। आखिर हाकी की विश्व कप प्रतियोगिता के लिये प्रायोजक तैयार कैसे हुए? जबकि उनके पास क्रिकेट और टेनिस जैसे भी खेल हैं जहां उनके विज्ञापन देखने वाले दर्शक पहले से ही अधिक होते हैं, तब हाकी की तरफ उनका ध्यान क्यों गया? शायद वह यह सोचकर ही शामिल हुईं होंगी कि इस देश से खेलों के नाम पर बहुत कमाया है चलो ‘हाकी’ के माध्यम से दर्शकों को थोड़ा उपहार दे दो। अब यह देखने वाली बात होगी कि भारत में आयोजित इस हाॅकी प्रतियोगिता को कितना जनसमर्थन मिलेगा? अब वह पहले वाली बात नहीं है कि हाकी का विश्व कहीं भी हो लोग उसका इंतजार ऐसे ही करते थे जैसे कि आजकल क्रिकेट का करते हैं।
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यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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