आशिक ने माशुका से कहा
‘कल गुरूपूर्णिमा है
इसलिये तुमसे नहीं मिल पाऊंगा,
जिसकी कृपा से हुआ तुमसे मिलन
उस गुरु से मिलने
उनके गुप्त अड्डे पर जाऊंगा,
क्योंकि उन पर एक प्रेम प्रसंग को लेकर
कसा है कानून का शिकंजा
पड़ सकता है कभी भी उन पर धाराओं का पंजा
इसलिये इधर उधर फिर रहे हैं,
फिर भी चारों तरफ से घिर रहे हैं,
उन्होंने ही मुझे तुमसे प्रेम करने का रास्ता बताया,
इसलिये तुम्हें बड़ी मुश्किल से पटाया,
वही प्रेम पत्र लिखवाते थे,
बोलने का अंदाज भी सिखाते थे,
जितनी भी लिखी तुम्हें मैंने शायरियां,
अपने असफल प्रेम में उनसे ही भरी थी
मेरे गुरूजी ने अपनी डायरियां,
इसलिये कल मेरी इश्क से छुट्टी होगी।’
सुनकर भड़की माशुका
और लगभग तलाक की भाषा में बोली
‘अच्छा हुआ जो गुरुजी की महिमा का बखान,
धन्य है जो पूर्णिमा आई
हुआ मुझे सच का भान,
कमबख्त, इश्क गुरु से अच्छा किसी
अध्यात्मिक गुरु से लिया होता ज्ञान,
ताकि समय और असमय का होता भान,
मैं तो तुम्हें समझी थी भक्त,
तुम तो निकले एकदम आसक्त,
मंदिर में आकर तुमने मुझे अपने
धार्मिक होने का अहसास दिलाया,
मगर वह छल था, अब यह दिखाया,
कविता की बजाय शायरियां लिखते थे,
बड़े विद्वान दिखते थे,
अपनी और गुरुजी की असलियत बता दी,
इश्क की फर्जी वल्दियत जता दी,
इसलिये अब कभी मेरे सामने मत आना
कल से तुम्हारे इश्क से मेरी कुट्टी,
मैं तुमसे और तुम मुझसे पाओ छुट्टी।।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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