कहीं बनते हैं
कहीं उजड़ जाते हैं आशियाने,
छत के नीचे खड़े हैं
इस भरोसे कि सदा सिर पर रहेगी
मगर कहीं कुदरत उजाड़ देती है
कहीं बुलडोजर चला आता है
तो कहीं इंसानी बुत चले आते लतियाने।
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भरोसा कर हमेशा धोखा खाया,
मगर मजबूर हुए, तब फिर जताया,
धोखा करने से डरे हैं हम हमेशा,
हैरानी है तब भी किसी का भरोसा न पाया।
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शराब गम भुलाती है,
मगर यह बात केवल लुभाती है,
सच यह है कि
इंसान ज़ाम दर ज़ाम पीते हुए
हो जाता है गुलाम
मर जाती है रूह उसकी
जो नशे में कभी उसे नहीं बुलाती है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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