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Saturday, March 15, 2014

रहीम दर्शन पर आधारित लेख-सस्ते खूंटे में बंधा घोड़ा भी आकर्षक दिख्ता है(rahim darshan par adharti chinttan lekh-saste khoonte mein bandha ghoda bhi akarshak lagta hai)



      उस दिन एक टीवी चैनल पर देश की हालातों पर एक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया जिसमें कृषि पर 20 तथा अन्य कार्यों में 19 प्रतिशत श्रमिकों की निर्भरता का जिक्र इस तरह किया जा रहा था जैसे कि श्रम का कार्य करना  समाज के लिये अभिशाप हैं। हमने देखा है कि पाश्चात्य सभ्यता तथा शिक्षा में रचा बसा बौद्धिक समूह मजदूरों और श्रमिकों के हित की बात इस तरह करता है जैसे कि वह गये गुजरे लोग हों। हमारे देश के कुछ बुद्धिमान लोग समाज में श्रम आधारित लोगों के प्रति इस तरह चर्चा करते हैं गोया कि वह भिखारी हों जिनको कहीं से बिना श्रम किये  धन की आवश्यकता हो। सच बात तो यह है कि श्रमिक वर्ग के सदस्य ऐसे बौद्धिक लोगों से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं जो अपनी देह के खून से पसीना बहाकर अन्य मनुष्यों का जीवन सहज बनाते हैं।  हम जैसे ज्ञान तथा योग साधक तो यह मानते हैं कि हर व्यक्ति को अपना जीवन श्रमशील बनाना चाहिये तो जिनके पास अधिक धन हैं वह अपने पास आने वालों श्रमिकों को न केवल पर्याप्त धन दें वरन् उनसे सम्मानजनक व्यवहार भी करें।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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कविवर सों सोहिं बड़े कहि रहीम यह लेख।
सहसत को हथ बांधियत, लै दमरी की मेख।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में छोटा हो या बड़ा आदमी सभी समान हैं यह बात मन में हमेशा रखना चाहिये। बाज़ार में घोड़े को  सस्ते खूंटे में बांधकर बेचने के लिये प्रस्तुत किया जाता है पर फिर भी वह सभी को  आकर्षित करता है।

      ऐसी कथित बहसों में अनेक विद्वान गरीबों और आदिवासियों में अशिक्षा व्याप्त होने की बात करते हैं वह गलत है। गरीब और आदिवासी अगर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का अनुकरण नहीं करते तो इसका यह आशय कदापि नही है कि वह अशिक्षित है।  इधर जिस तरह हमने यह भी देखा है कि जिसने वर्तमान शिक्षा पद्धति की संगत की वह फिर परिश्रम का कार्य करना हेय समझने लगता है। सरकारी या निजी क्षेत्र में इतनी नौकरियां होती नहीं है इसलिये अनेक शिक्षित बेरोजगार घूम रहे हैं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है कि दो भाई या मित्रों के बीच शिक्षित तो बेकार घूम रहा है और कथित रूप से अशिक्षित या अल्पशिक्षित मेहनत से व्यवसाय कर ज्यादा कमा रहा है।  अशिक्षित से अधिक शिक्षित बेरोजगारों की संख्या अधिक है। जिन शिक्षितों के पास रोजगार नहीं है वह परिश्रम करने को तैयार नहीं है और सफेदपोश नौकरियां उनको मिलती नहीं है। इधर हम यह भी देख रहे हैं कि अपराध में लिप्त संख्या  अब अशिक्षितों के बनिस्पत शिक्षितों की अधिक पाई जा रही है।  इसका कारण यह है कि श्रम कार्य को हेय मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है। वातानुकूलित कमरों में सांस लेने और कारों में चलने वाले जब देश की हालातों पर चर्चा करते हैं तो गंभीर की बजाय हास्य का भाव आता है।  इनमें से तो कई ऐसे है जिनके शरीर में से बरसों से पसीने की बूंद भी नहीं टपकी होगी।
      कहने का अभिप्राय यह है कि श्रम करना बुरा नहीं है और न ही कोई श्रमिक छोटा होता है। अगर सच बात कहें तो श्रमिक के धनिक  पर्याप्त धन दे तो वह अधिक अच्छे ढंग से काम करता है और उसे सम्मान दें तो उसका मनोबल इतना ऊंचा हो जाता है कि वह अपने काम को पूजा की तरह करता है। हम समाज में जो धनी और श्रमिक के बीच द्वंद्व देख रहे हैं वह केवल दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण है और उसे समझदारी से कम किया जा सकता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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