प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार कृष्णा सोबती और और नाटककार बादल सरकार ने पद्मविभूषण की उपाधि लेने से इंकार कर दिया है। उनके द्वारा यह सम्मान न लेने का कारण चाहे जो भी हो पर सच यह है कि ऐसे रचनाकार तथा कलाकार इतना सृजन कर चुके होते हैं कि कोई भी सम्मान या पुरस्कार उनके सामने छोटा होता है। वैसे हमारे यहां चाहे निजी क्षेत्र के हों या सार्वजनिक क्षेत्र के सम्मान अब धीरे धीरे अपना महत्व खोते जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि अगली पीढ़ी को साहित्य सृजन, कला, संगीत तथा समाज सेवा के लिये प्रेरित करने का उद्देश्य इनसे अब पूरा नहीं किया जाता बल्कि इसके पीछे आत्मप्रचार का भाव अधिक रहता है।
दरअसल यह सम्मान ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिये जिन्होंने अपने क्षेत्र में वास्तविक रूप से असाधारण कार्य किया और वह उस पुरस्कार से बड़े हों जो दिया जा रहा है ताकि लोग यह समझ सकें कि राज्य, समाज, आर्थिक तथा इतिहास सामाजिक महत्व के लिये कार्यों को सराहता है। सीधी भाषा में कहें तो किसी असाधारण व्यक्त्तिव को प्रभावित या प्रसन्न करने की बजाय उससे अगली पीढ़ी प्रेरणा ले, यही पुरस्कार या सम्मान प्रदान करने का उद्देश्य होना चाहिये। जबकि ऐसा हो नहीं रहा है। इसके बावजूद जो लोग साहित्य सृजन, कला, संगीत-फिल्मी संगीत नहीं जी-तथा समाज सेवा कर रहे हैं उनकी प्रशंसा की जाना चाहिऐ। उस पर ऐसे पुरस्कारों को उनके द्वारा नकारा जाना उनके असाधारण होने का ही प्रमाण है।
प्रोफेसर यशपाल भी ऐसे महानुभावों में हैं जिनका हर वाक्य दिल को छू लेता है। विज्ञान में महारथ हासिल करने वाले प्रोफेसर यशपाल का मानना है कि तकनीकी शिक्षा पर इतना जोर भी नहीं दिया जाना चाहिये कि लोग साहित्य, कला या संगीत से परे हो जायें। उनका यह मानना है कि शैक्षणिक स्थानों पर रैगिंग की प्रवृत्ति इसलिये बढ़ रही है कि लोग रचनात्मक प्रवृत्ति से दूर है।
यह एकदम सच बात है कि हमने अध्यात्मिक साहित्यक विषय को बड़ी उम्र में अपनाने योग्य मानकर अपने समाज का सत्यानाश किया है। जब रैगिंग की हृदय विदारक घटनायें सामने आती हैं तब मन में क्रोध भर जाता है। हम हर क्षेत्र में धर्म की बात लेने के विरुद्ध हैं पर जब रैगिंग की बात आती है तो उसे धर्म विरोधी कहने में संकोच क्यों कर जाते हैं? क्या लगता है कि इससे समाज के युवा वर्ग में हमारी छबि खराब होगी। इस मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को रोकने के लिये हम धर्म को अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग में लाने के विरुद्ध नहीं है। नये लड़के लड़कियों को स्पष्ट रूप से यह बात अपने वरिष्ठ साथियों के समक्ष कह देना चाहिये कि रैगिंग के नाम पर उनकी छोटी से छोटी बात भी नहीं मानेंगे क्योंकि वह उनके धर्म के विरुद्ध है भले ही रैगिंग करने वाले उनके सहधर्मी हों। वरिष्ठ छात्र भले ही दावा करें कि वह भी उसी धर्म की बात मानते हैं तो उनको बता देना चाहिये कि वह इस मामले में कच्चे हैं। हो सके तो अपने गले में गेरुए रंग का साफा डाले लें। उस पर कोई धार्मिक चिन्ह लगा लें या फिर माथे पर तिलक लगाकर तब तक उस शैक्षणिक संस्था में रहें जब तक पुराने छात्रों की श्रेणी में न आ जायें। कहने का आशय यह है कि अपने व्यक्तित्व के तेजस्वी या दूसरे शब्दों में कहें कि आक्रामक होने की अनुभूति करायें। वैसे भी गेरुए रंग कसे वी होने का प्रमाण माना जाता है।
दूसरी बात जो माता पिता हैं वह अपने बच्चों को अध्यात्मिक शिक्षा से परे न रखें क्योंकि उससे जो आत्मविश्वास आता है वह देखने लायक होता हे।
दरअसल जन्मदिन और पुण्यतिथियां मनाने के साथ ही रैंगिंग जैसी प्रथा भी इस देश में आयी है। जिस तरह अनेक युवक युवतियों ने अपने प्राण इसमें गंवायें हैं उससे बचने का उपाय करना ही होगा। यह प्रथा तो पशु प्रवृत्ति का प्रमाण है। जिस तरह कोई श्वान दूसरे मोहल्ले में पहुंचता है तो उसे दूसरे श्वान भौंकने लगते हैं। कभी कोई सुअर आ जाता है तो कुत्ते उस पर भी हमला करने लगते हैं। इसमें जब कोई पशु पलटकर कुतों की तरफ देखता है तो वह वहीं खड़े रह जाते हैं।
एक बार इस लेखक ने अपनी आंखों से देखा कि एक कुत्ता बिल्ली के पीछे दौड़ा। बिल्ली भागते एक ऐसी जगह पहुंच गयी जहां दीवार थी पर निकल नहीं सकती थी। वह पलटकर कुत्ते की तरफ देखने लगी। कुत्ता वही स्तब्ध होकर उसे देखकर भौंकता रहा पर हमला नहीं कर सका। तब वह पलटकर दूसरी तरफ से भागी। कुत्ता फिर उसके पीछे भागा। ऐसा तीन बार हुआ और अंततः बिल्ली अपनी जान बचाने में सफल रही। जिन युवक युवतियों में थोड़ा बहुत भी अध्यात्मिक ज्ञान है वह दृढ़ता पूर्वक रहें तो उनको कोई झुका नहीं सकता। वह स्पष्ट रूप से अपने धर्म का यह संदेश सभी जगह दोहरायें कि वह अपने माता, पिता और गुरु के अलावा किसी अन्य का आदेशा मानना धर्म विरोधी समझते हैं। इसके लिये यह जरूरी है कि उनके पास अपने देश का अध्यात्मिक ज्ञान हो । जब दीवार से कोई चिपका दे तो अपने दिमाग को खोलना ही पड़ता है। अरे, एक बिल्ली कुत्ते तक को हड़का देती है तो फिर मनुष्य का बच्चा क्या नहीं कर सकता?
इसके लिये यह जरूरी है कि अपनी तकनीकी और उच्च शिक्षा की पुस्तकों के साथ अपने अध्यात्मिक साहित्यक ज्ञान का भी अध्ययन करना चाहिये। उसमें केवल भक्ति करने का तरीका ही नहीं जीवन संघर्षों में विजय प्राप्त करने का भी तरीका बताया जाता है। धर्मांध नहीं होना चाहिये पर आत्मरक्षा में अगर सहायता मिले तो दृढ़ धर्मज्ञ दिखने का प्रयास तो करना ही चाहिये। अलबत्ता प्रोफेसर ने अध्यात्मिक ज्ञान होने की बात नहीं कही वह तो हमने अपनी तरफ से जोड़ी है।
दरअसल यह सम्मान ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिये जिन्होंने अपने क्षेत्र में वास्तविक रूप से असाधारण कार्य किया और वह उस पुरस्कार से बड़े हों जो दिया जा रहा है ताकि लोग यह समझ सकें कि राज्य, समाज, आर्थिक तथा इतिहास सामाजिक महत्व के लिये कार्यों को सराहता है। सीधी भाषा में कहें तो किसी असाधारण व्यक्त्तिव को प्रभावित या प्रसन्न करने की बजाय उससे अगली पीढ़ी प्रेरणा ले, यही पुरस्कार या सम्मान प्रदान करने का उद्देश्य होना चाहिये। जबकि ऐसा हो नहीं रहा है। इसके बावजूद जो लोग साहित्य सृजन, कला, संगीत-फिल्मी संगीत नहीं जी-तथा समाज सेवा कर रहे हैं उनकी प्रशंसा की जाना चाहिऐ। उस पर ऐसे पुरस्कारों को उनके द्वारा नकारा जाना उनके असाधारण होने का ही प्रमाण है।
प्रोफेसर यशपाल भी ऐसे महानुभावों में हैं जिनका हर वाक्य दिल को छू लेता है। विज्ञान में महारथ हासिल करने वाले प्रोफेसर यशपाल का मानना है कि तकनीकी शिक्षा पर इतना जोर भी नहीं दिया जाना चाहिये कि लोग साहित्य, कला या संगीत से परे हो जायें। उनका यह मानना है कि शैक्षणिक स्थानों पर रैगिंग की प्रवृत्ति इसलिये बढ़ रही है कि लोग रचनात्मक प्रवृत्ति से दूर है।
यह एकदम सच बात है कि हमने अध्यात्मिक साहित्यक विषय को बड़ी उम्र में अपनाने योग्य मानकर अपने समाज का सत्यानाश किया है। जब रैगिंग की हृदय विदारक घटनायें सामने आती हैं तब मन में क्रोध भर जाता है। हम हर क्षेत्र में धर्म की बात लेने के विरुद्ध हैं पर जब रैगिंग की बात आती है तो उसे धर्म विरोधी कहने में संकोच क्यों कर जाते हैं? क्या लगता है कि इससे समाज के युवा वर्ग में हमारी छबि खराब होगी। इस मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को रोकने के लिये हम धर्म को अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग में लाने के विरुद्ध नहीं है। नये लड़के लड़कियों को स्पष्ट रूप से यह बात अपने वरिष्ठ साथियों के समक्ष कह देना चाहिये कि रैगिंग के नाम पर उनकी छोटी से छोटी बात भी नहीं मानेंगे क्योंकि वह उनके धर्म के विरुद्ध है भले ही रैगिंग करने वाले उनके सहधर्मी हों। वरिष्ठ छात्र भले ही दावा करें कि वह भी उसी धर्म की बात मानते हैं तो उनको बता देना चाहिये कि वह इस मामले में कच्चे हैं। हो सके तो अपने गले में गेरुए रंग का साफा डाले लें। उस पर कोई धार्मिक चिन्ह लगा लें या फिर माथे पर तिलक लगाकर तब तक उस शैक्षणिक संस्था में रहें जब तक पुराने छात्रों की श्रेणी में न आ जायें। कहने का आशय यह है कि अपने व्यक्तित्व के तेजस्वी या दूसरे शब्दों में कहें कि आक्रामक होने की अनुभूति करायें। वैसे भी गेरुए रंग कसे वी होने का प्रमाण माना जाता है।
दूसरी बात जो माता पिता हैं वह अपने बच्चों को अध्यात्मिक शिक्षा से परे न रखें क्योंकि उससे जो आत्मविश्वास आता है वह देखने लायक होता हे।
दरअसल जन्मदिन और पुण्यतिथियां मनाने के साथ ही रैंगिंग जैसी प्रथा भी इस देश में आयी है। जिस तरह अनेक युवक युवतियों ने अपने प्राण इसमें गंवायें हैं उससे बचने का उपाय करना ही होगा। यह प्रथा तो पशु प्रवृत्ति का प्रमाण है। जिस तरह कोई श्वान दूसरे मोहल्ले में पहुंचता है तो उसे दूसरे श्वान भौंकने लगते हैं। कभी कोई सुअर आ जाता है तो कुत्ते उस पर भी हमला करने लगते हैं। इसमें जब कोई पशु पलटकर कुतों की तरफ देखता है तो वह वहीं खड़े रह जाते हैं।
एक बार इस लेखक ने अपनी आंखों से देखा कि एक कुत्ता बिल्ली के पीछे दौड़ा। बिल्ली भागते एक ऐसी जगह पहुंच गयी जहां दीवार थी पर निकल नहीं सकती थी। वह पलटकर कुत्ते की तरफ देखने लगी। कुत्ता वही स्तब्ध होकर उसे देखकर भौंकता रहा पर हमला नहीं कर सका। तब वह पलटकर दूसरी तरफ से भागी। कुत्ता फिर उसके पीछे भागा। ऐसा तीन बार हुआ और अंततः बिल्ली अपनी जान बचाने में सफल रही। जिन युवक युवतियों में थोड़ा बहुत भी अध्यात्मिक ज्ञान है वह दृढ़ता पूर्वक रहें तो उनको कोई झुका नहीं सकता। वह स्पष्ट रूप से अपने धर्म का यह संदेश सभी जगह दोहरायें कि वह अपने माता, पिता और गुरु के अलावा किसी अन्य का आदेशा मानना धर्म विरोधी समझते हैं। इसके लिये यह जरूरी है कि उनके पास अपने देश का अध्यात्मिक ज्ञान हो । जब दीवार से कोई चिपका दे तो अपने दिमाग को खोलना ही पड़ता है। अरे, एक बिल्ली कुत्ते तक को हड़का देती है तो फिर मनुष्य का बच्चा क्या नहीं कर सकता?
इसके लिये यह जरूरी है कि अपनी तकनीकी और उच्च शिक्षा की पुस्तकों के साथ अपने अध्यात्मिक साहित्यक ज्ञान का भी अध्ययन करना चाहिये। उसमें केवल भक्ति करने का तरीका ही नहीं जीवन संघर्षों में विजय प्राप्त करने का भी तरीका बताया जाता है। धर्मांध नहीं होना चाहिये पर आत्मरक्षा में अगर सहायता मिले तो दृढ़ धर्मज्ञ दिखने का प्रयास तो करना ही चाहिये। अलबत्ता प्रोफेसर ने अध्यात्मिक ज्ञान होने की बात नहीं कही वह तो हमने अपनी तरफ से जोड़ी है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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3 comments:
अपनी तकनीकी और उच्च शिक्षा की पुस्तकों के साथ अपने अध्यात्मिक साहित्यक ज्ञान का भी अध्ययन करना चाहिये। उसमें केवल भक्ति करने का तरीका ही नहीं जीवन संघर्षों में विजय प्राप्त करने का भी तरीका बताया जाता है। धर्मांध नहीं होना चाहिये पर आत्मरक्षा में अगर सहायता मिले तो दृढ़ धर्मज्ञ दिखने का प्रयास तो करना ही चाहिये।
कितनी अच्छी बातें की है .. दरअसल आज के बच्चों को महसूस होता है कि उनके पास इतनी सारी डिग्रियां है .. इसलिए उनके सामने कोई बुरी परिस्थितियां आ ही नहीं सकती .. इसलिए आध्यात्मिक ज्ञान का कोई महत्व नहीं .. उनका यह भ्रम तभी तक बना रहता है .. जबतक उनके समक्ष विपरीत परिस्थितियां नहीं आती हैं .. पर जैसे ही उनके जीवन में कुछ अनहोनी होती है .. वे इतने परकशान हो जाते हैं कि पूछिए मत !!
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