प्लास्टिक की तलवारों से
प्रायोजित जंग को देखकर
कभी असली होने का वहम मत करना।
चाहे किसी योद्धा के पेट में
बंधी थैली से
खून बहता दिखे,
उसके असली होने पर
कोई कितने भी शब्द लिखे,
पर्दे पर दिखें या सड़क पर सजें
अफसानों को हकीकत समझ कर
कभी नहीं डरना।
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अपने इरादों पर
चले ज़माना तो अफसोस क्यों करते।
यहां तो खरीद कर बाजार से सपने
लोग उसी पर ही मरते,
उधार पर लेकर दूसरे के ख्याल को
अपनी सोच बनाकर चले रहे सभी
अपनी अक्ल को तोलने में डरते।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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3 years ago
2 comments:
दीपक जी,दूसरी वाली बहुत जोरदार रचना है....अच्छा कटाक्ष किया है.....
बहुत अच्छा ।
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