इंद्रदेव की करें स्तुति तो बरसात हो, डूबते सूरज को भी नमन करें तब शुभरात हो।
‘दीपकबापू’ व्यर्थ लिखी चांद पर शायरी, पानी ऊर्जा देने की जिससे न कभी बात हो।।
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वक्ता की छवि जिनकी शब्द उनके अर्थहीन, भीड़ लगाते पर अकेले में होते दीन।
‘दीपकबापू’ सीना फुलाकर हमेशा गरजते रहे, सजाकर नक्कारखाना बजाते बीन।।
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राजकोष लूटकर उपहार करते प्रदान, कमाये बिना किये जा रहे भीड़ में दान।
‘दीपकबापू’ शास्त्र जाने बिना बनते राजसेवक, डंडधारी साथ लेकर बचाते जाने।।
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कामना न जाने साधु संत सन्यासी, न पूरी हो तब भी पकड़े हो जाये चाहे बासी।
‘दीपकबापू’ त्यागी का रूप धरे घूम रहे, सिर पर चढ़ी माया बताते उसे दासी।।
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अपने दर्द में सब फंसे किसे बेदर्द कहें, बीमारी संग दवा का निभाना कब तक सहें।
‘दीपकबापू’ जिंदा समाज का भ्रम पालते, जिसकी सांसे महंगे इलाज में बहती रहें।।
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दागदार सभी किस पर कैसे भरोसा करें, सत्य के सभी शत्रू किसे क्यों कोसा करें।
‘दीपकबापू’ मिलावटी पदार्थ खायें हर समय, लोग कैसे अंदर शुद्धता पालापोसा करें।।
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गंदगी के ढेर छिपाकर विकास का रूप बतायें, रेत पर खड़ी हरियाली जलायें।
‘दीपकबापू’ बरसों से देख रहे स्वयंभू देवता, न रौशनी करें न जलधारा लायें।।
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