देश में कुपोषण की समस्या है। पहले यह समस्या अकाल ग्रस्त या अन्न के कम पैदावर वाले इलाकों के साथ ही गरीब वर्ग में दिखाई देती थी अब उसके अलग अलग रूप भी सामने आये हैं। एक तो यह रूप भी है जिसमें आपके पास पैसा हो और आप सामान भी खरीद रहे हैं पर वह देह के लिये पोषक न हो। वह नकली भी हो सकता है और मिलावटी भी। दूसरा यह कि कुछ लोग पतले दिखने के लिये चर्बी और चिकनाई युक्त भोजन से बचते हैं। वह पतले दिखते हैं पर उनके शरीर में अधिक देर तक काम करने की शक्ति नहीं होती। गरीबों का कुपोषण जहां गरीबी के कारण होता है तो नकली और मिलावटी सामान भी उनके लिये वैसा ही संकट है। मगर जहां तक ओढ़ी गयी कुपोषण की समस्या का सवाल है वह समाज के सभ्रांत वर्ग में -जिसमें अमीर तथा मध्यम वर्ग की महिलाओं का प्रतिशत अधिक है-देखी जा रही है।
अभी हाल ही में शिरडी के सांई बाबा मंदिर के बाहर लड्डू बिकने का मामला प्रकाश में आया था। हम जब कुपोषण की बात करते हैं अपना ध्यान केवल उन भोज्य पदार्थों की तरफ केंद्रित कर रहे हैं जो देह के लिये पोषक अधिक नहीं होते। इन लड्डुओं के पोषक तथा कुपोषक तत्व कितने हैं इसकी जानकारी नहीं है पर संभवतः कुछ विषैले तत्वों के समावेश की आशंका हो सकती है। सच बात तो यह है कि कुपोषण जैसी समस्या मिलावट भी हो गयी है। पहले कुपोषण की समस्या गरीब वर्ग तक सीमित थी पर अब मध्यम और उच्च वर्ग मिलावट के कारण इसका शिकार हो रहे हैं। कुपोषित और मिलावटी शरीर के लिये एक समान घातक है।
मुख्य बात यह है कि इन दोनो ंसमस्याओं से जूझा कैसे जाये? इस पर तो अनंतकाल तक बहस चलेगी। राज्य और समाज अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते पर इसके लिये जिस संकल्प की आवश्यकता है वह अभी कहीं दिखाई नहीं देता। देश में विकास बहुत हुआ है पर स्वास्थ्य का स्तर भी बहुत बुरी तरह गिरा है यह अंतिम सत्य है। स्वास्थ्य विशेषज्ञ अत्यंत डरावने आंकड़े प्रस्तुत करते हैं। जब देश में कुपोषण या मिलावट की समस्या व्यापक रूप स दिखती हो तब हम समाज में स्वास्थ्य का प्रतिशत अधिक रहने की आशा नहीं कर सकते। देश में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तथा हृदय के विकारों के मरीब बढ़ रहे हैं तब चिकित्सक उनके परहेज के रूप में यह सलाह देते है कि उनको चिकना, मीठा तथा अधिक देर तक शरीर में रहने वाला भोजन नहंी करना चाहिए। पर जब श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देखते हैं तो पता लगता है कि इस तरह के भोज्य पदार्थ सात्विक व्यक्ति को प्रिय होते हैं। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि ऐसे भोजन से मनुष्य में सात्विकता बनी रह सकती है। जब समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग लाचारी या स्वेच्छा से ंऐसे भोजन से परहेज कर रहा हो तब सात्विकता का प्रतिशत अधिक रहने की आशा करना व्यर्थ है। बासी, उच्छिट, तीखा तथा कुपाच्य भोजन तामस वृत्ति के मनुष्य का प्रिय होता है। ऐसे भोज्य पदार्थों का उपभोग हमारे समाज में बढ़ रहा है। ऐसे में समाज के दैहिक तथा मानसिक स्वास्थ्यय के अच्छे रहने की आशा करना ही व्यर्थ है।
जब हम देश में कुपोषण तथा मिलावट वाले भोजन की चर्चा करें तब हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जैसा खाये अन्न वैसा हो मन। मन पर हमारा नियंत्रण नहीं पर उसे सात्विकता बनाये रखने का उपाय यह है कि हम ऐसे भोजन का प्रबंधन करें जो सुपाच्य तथा शुद्ध हो। यह जिम्मेदारी सरकार और समाज दोनों की है।
अभी हाल ही में शिरडी के सांई बाबा मंदिर के बाहर लड्डू बिकने का मामला प्रकाश में आया था। हम जब कुपोषण की बात करते हैं अपना ध्यान केवल उन भोज्य पदार्थों की तरफ केंद्रित कर रहे हैं जो देह के लिये पोषक अधिक नहीं होते। इन लड्डुओं के पोषक तथा कुपोषक तत्व कितने हैं इसकी जानकारी नहीं है पर संभवतः कुछ विषैले तत्वों के समावेश की आशंका हो सकती है। सच बात तो यह है कि कुपोषण जैसी समस्या मिलावट भी हो गयी है। पहले कुपोषण की समस्या गरीब वर्ग तक सीमित थी पर अब मध्यम और उच्च वर्ग मिलावट के कारण इसका शिकार हो रहे हैं। कुपोषित और मिलावटी शरीर के लिये एक समान घातक है।
मुख्य बात यह है कि इन दोनो ंसमस्याओं से जूझा कैसे जाये? इस पर तो अनंतकाल तक बहस चलेगी। राज्य और समाज अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते पर इसके लिये जिस संकल्प की आवश्यकता है वह अभी कहीं दिखाई नहीं देता। देश में विकास बहुत हुआ है पर स्वास्थ्य का स्तर भी बहुत बुरी तरह गिरा है यह अंतिम सत्य है। स्वास्थ्य विशेषज्ञ अत्यंत डरावने आंकड़े प्रस्तुत करते हैं। जब देश में कुपोषण या मिलावट की समस्या व्यापक रूप स दिखती हो तब हम समाज में स्वास्थ्य का प्रतिशत अधिक रहने की आशा नहीं कर सकते। देश में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तथा हृदय के विकारों के मरीब बढ़ रहे हैं तब चिकित्सक उनके परहेज के रूप में यह सलाह देते है कि उनको चिकना, मीठा तथा अधिक देर तक शरीर में रहने वाला भोजन नहंी करना चाहिए। पर जब श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देखते हैं तो पता लगता है कि इस तरह के भोज्य पदार्थ सात्विक व्यक्ति को प्रिय होते हैं। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि ऐसे भोजन से मनुष्य में सात्विकता बनी रह सकती है। जब समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग लाचारी या स्वेच्छा से ंऐसे भोजन से परहेज कर रहा हो तब सात्विकता का प्रतिशत अधिक रहने की आशा करना व्यर्थ है। बासी, उच्छिट, तीखा तथा कुपाच्य भोजन तामस वृत्ति के मनुष्य का प्रिय होता है। ऐसे भोज्य पदार्थों का उपभोग हमारे समाज में बढ़ रहा है। ऐसे में समाज के दैहिक तथा मानसिक स्वास्थ्यय के अच्छे रहने की आशा करना ही व्यर्थ है।
जब हम देश में कुपोषण तथा मिलावट वाले भोजन की चर्चा करें तब हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जैसा खाये अन्न वैसा हो मन। मन पर हमारा नियंत्रण नहीं पर उसे सात्विकता बनाये रखने का उपाय यह है कि हम ऐसे भोजन का प्रबंधन करें जो सुपाच्य तथा शुद्ध हो। यह जिम्मेदारी सरकार और समाज दोनों की है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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