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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, August 30, 2012

कुपोषित और मिलावटी भोजन की समस्या-हिन्दी लेख (kuposhan aur milavat ki samsya-hindi lekh or article)

      देश में कुपोषण की समस्या है।  पहले यह समस्या अकाल ग्रस्त या अन्न के कम पैदावर वाले इलाकों के साथ ही गरीब वर्ग में दिखाई देती थी अब उसके अलग अलग रूप भी सामने आये हैं। एक तो यह  रूप भी है जिसमें आपके पास पैसा हो और आप सामान भी खरीद रहे हैं पर वह देह के लिये पोषक न हो। वह नकली भी हो सकता है और मिलावटी भी।  दूसरा यह कि कुछ लोग पतले दिखने के लिये चर्बी और  चिकनाई युक्त भोजन से बचते हैं।  वह पतले दिखते हैं पर उनके शरीर में अधिक देर तक काम करने की शक्ति नहीं होती।  गरीबों का कुपोषण जहां गरीबी के कारण होता है तो नकली और मिलावटी सामान भी उनके लिये वैसा ही संकट है।  मगर जहां तक ओढ़ी गयी कुपोषण की समस्या का सवाल है वह समाज के सभ्रांत वर्ग में -जिसमें अमीर तथा मध्यम वर्ग की महिलाओं का प्रतिशत अधिक है-देखी जा रही है।
       अभी हाल ही में शिरडी के सांई बाबा मंदिर के बाहर लड्डू बिकने का मामला प्रकाश में आया था।  हम जब कुपोषण की बात करते हैं अपना ध्यान केवल उन भोज्य पदार्थों की तरफ केंद्रित कर रहे हैं जो देह के लिये पोषक अधिक नहीं होते।  इन लड्डुओं के पोषक तथा कुपोषक तत्व कितने हैं इसकी जानकारी नहीं है पर संभवतः कुछ विषैले तत्वों के समावेश की आशंका हो सकती है।  सच बात तो यह है कि कुपोषण जैसी समस्या मिलावट भी हो गयी है। पहले कुपोषण की समस्या गरीब वर्ग तक सीमित थी पर अब मध्यम और उच्च वर्ग मिलावट के कारण इसका शिकार हो रहे हैं। कुपोषित और मिलावटी शरीर के लिये एक समान घातक है।
   मुख्य बात यह है कि इन दोनो ंसमस्याओं से जूझा कैसे जाये? इस पर तो अनंतकाल तक बहस चलेगी।  राज्य और समाज अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते पर इसके लिये जिस संकल्प की आवश्यकता है वह अभी कहीं दिखाई नहीं देता।  देश में विकास बहुत हुआ है पर स्वास्थ्य का स्तर भी बहुत बुरी तरह गिरा है यह अंतिम सत्य है।  स्वास्थ्य विशेषज्ञ अत्यंत डरावने आंकड़े प्रस्तुत करते हैं।  जब देश में कुपोषण या मिलावट की समस्या व्यापक रूप स दिखती हो तब हम समाज में स्वास्थ्य का प्रतिशत अधिक रहने की आशा नहीं कर सकते।  देश में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तथा हृदय के विकारों के मरीब बढ़ रहे हैं तब चिकित्सक उनके परहेज के रूप में यह सलाह देते है कि उनको चिकना, मीठा तथा अधिक देर तक शरीर में रहने वाला भोजन नहंी करना चाहिए। पर जब श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देखते हैं तो पता लगता है कि इस तरह के भोज्य पदार्थ सात्विक व्यक्ति को प्रिय होते हैं।  इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि ऐसे भोजन से मनुष्य में सात्विकता बनी रह सकती है।  जब समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग  लाचारी या स्वेच्छा से ंऐसे भोजन से परहेज कर रहा हो तब सात्विकता का प्रतिशत अधिक रहने की आशा करना व्यर्थ है।  बासी, उच्छिट, तीखा तथा कुपाच्य भोजन तामस वृत्ति के मनुष्य का प्रिय होता है।  ऐसे भोज्य पदार्थों का उपभोग हमारे समाज में बढ़ रहा है।  ऐसे में समाज के दैहिक तथा मानसिक स्वास्थ्यय के अच्छे रहने की आशा करना ही व्यर्थ है।
    जब हम देश में कुपोषण तथा मिलावट वाले भोजन की चर्चा करें तब हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जैसा खाये अन्न वैसा हो मन।  मन पर हमारा नियंत्रण नहीं पर उसे सात्विकता बनाये रखने का उपाय यह है कि हम ऐसे भोजन का प्रबंधन करें जो सुपाच्य तथा शुद्ध हो।  यह जिम्मेदारी सरकार और समाज दोनों की है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com


Thursday, August 23, 2012

सौदागरों से हमदर्दी की आशा बेकार-हिंदी कविता (saudagron se hamdardi kee asha-hindi kavita)

कभी न करना दिल देने का करार-हिन्दी कविता
महलों में रहने,
हवाई जहाज में बैठने,
और अपनी जिंदगी का बोझ
गुलामों के कंधों पर रखने वालों से
हमदर्दी की आशा करना है बेकार,
जिन्होंने दर्द नहीं झेला
कभी अपने हाथ काम करते हुए
ओ मेहनतकश,
 उनसे दाद पाने को न होना बेकरार।
कहें दीपक बापू
चौराहों पर चाहे जितनी बहस कर लो,
अपना दर्द बाजार में बेचने के लिये भर लो,
मगर भले के सौदागरों से न करना कभी
इलाज के बदले दिल देने का करार।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Thursday, August 16, 2012

महंगे सामान और सस्ती ज़िन्दगी-हिंदी व्यंग्य कविता (mahange saman aur sasti zindagi-hindi satire poem)

महंगे सामानों के शौक में
आदमी ने
अपनी जिंदगी को सस्ती बना दिया,
इश्क में खून की तबाही को
अपनी मस्ती बना दिया।
कहें दीपक बापू
कृत्रिम नजारों में आखों फोडना,
ख्याली अफसानों में दिल तोड़ना,
और कभी बेकार वाह वाह करना
कभी आहें भरते हुए सांसें छोड़ना,
बन गया है फैशन
बीमारों से भरे हुए शहर
दिमागों में कूड़ेदानों की  बस्ती को बसा लिया
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लेखक एवं कवि- दीपक राज कुकरेजा,‘‘भारतदीप’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
 
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Wednesday, August 15, 2012

स्वामी रामदेव का ‘योग शिक्षक’ वाला रूप ही सर्वश्रेष्ठ-हिन्दी लेख (baba ramdev is good yog teacher than politician-hindi article or editorial)

               बाबा रामदेव ने अपना अनशन स्थगित  कर दिया है।  उन्होंने देश का विदेशों जमा काला धन वापस लाने के लिये अपना अभियान बहुत समय से चला रखा है और इसके लिये उनको भारी जनसमर्थन भी मिला है।  देश में व्याप्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाने पर ऐसा ही समर्थन अन्ना हजारे को भी मिलता रहा है।  जनकल्याण के लिये नारे लगाने और आंदोलन चलाने वालों को यहां समर्थन मिलना कोई बड़ी बात नहीं है पर इन प्रयासों के परिणाम क्या निकले यह आज तक कभी विश्लेषण कर बताया नहीं जाता।  बहरहाल अन्ना हजारे को जहां केवल अपनी आंदोलन की अनशन शैली के कारण जाना जाता है तो बाबा रामदेव को पहले एक योग शिक्षक के रूप में प्रसिद्धि मिली। 
     हम जब अन्ना हजारे साहब और स्वामी रामदेव के आंदोलनों की तुलना करते हैं तो पाते हैं कि कमोवेश दोनों ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते दिखे। वैसे दोनों में कोई तुंलना करना इसलिये भी व्यर्थ है क्योकि दोनों के सांगठनिक ढांचा प्रथक आधारों टिका है। फिर मुद्दा भी अलग है। अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाते रहे हैं जबकि स्वामी रामदेव काले धन पर बरसते रहे हैं।
         हम दोनों के व्यक्तित्वों की बात करें तो बाबा रामदेव ने कम आयु में जो प्रतिष्ठा प्राप्त की उसका श्रेय उनकी योग शिक्षा को जाता है।  काले धन के विरुद्ध वह अगर अपना अभियान नहीं भी चलाते तो उनकी लोकप्रियता योग शिक्षा की वजह से चरम पर पहुंच गयी  थी।  जिस योग विज्ञान के जनक पतंजलि ऋषि रहे हैं वह उनके नाम पर चला जा रहा था।  काले धन के विरुद्ध अभियान से उनकी प्रतिष्ठा में कोई वृद्धि तो दर्ज नहीं बल्कि विवादों से उनके व्यक्तित्व की छवि आहत होती नजर आती है। योग साधकों की दृष्टि से योग शिक्षा तथा समाज के लिये आंदोलन अलग अलग विषय हैं। अन्ना जहां आंदोलन की वजह से लोकप्रिय हुए तो स्वामी रामदेव योग शिक्षा से लोकपिय्रता प्राप्त कर आंदोलन के लिये तत्पर हुए।
              उन्हें आंदोलन करना चाहिए या नहीं यह उनका निजी विषय है। हम जैसे आम लोग उन्हें राय देने का अधिकार नहीं रखते। इतना अवश्य है कि देश के योग साधकों तथा अध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिये स्वामी रामदेव के क्रियाकलाप अन्य लोगों से अधिक दिलचस्पी का विषय होते हैं।  पतंजलि योग एक महान विज्ञान है  और हमारे पावन  ग्रंथ  श्रीमद्भागवत गीता का वह एक महत्वपूर्ण विषय है। इसलिये तत्वाज्ञान साधकों में बाबा रामदेव की गतिविधियों को अत्यंत व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाता है। जब अन्ना हजारे साहब के क्रियाकलाप की चर्चा होती है तो उसमें अध्यात्मिक श्रद्धा का पुट नहीं होता जबकि बाबा रामदेव के समय संवदेनाओं की लहरें हृदय में गहराई बढ़ जाती हैं।
      यह पता नहीं कि बाबा रामदेव का गीता के बारे में अध्ययन कितना है पर उनके अनशन पर अध्यात्मिक विश्लेषकों की राय अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है।  यह अनशन राजसी कर्म में आता है।  सात्विक, राजस तथा तामस भावों का चक्र कुछ ऐसा है कि आदमी इनमें घूमता रहता है।  यह गुण किसी में स्थाई रूप से नहीं रहते।  कर्मो के अनुसार मनुष्य के भाव बदलते हैं। सुबह आदमी जहां सात्विक होता है तो दोपहर राजस वृत्ति उसे घेर लेती है और रात के अंधेरे को वैसे भी तमस कहा जाता है।  उस समय थका हारा आदमी आलस्य तथा निद्रा में लीन हो जाता है।  अलबत्ता ज्ञानी तीनों स्थितियों में अपने आप नियंत्रण रखता है और अज्ञानी अपने भटकाव को नहीं समझ पाता-तामस तथा राजस भाव को क्या समझेगा वह अपने अंदर के ही सात्विक भाव को भी नहीं देख पाता।  योगी इन तीनों गुणों से परे होता है क्योंकि वह कर्म चाहे कोई भी करे उसमें अपना भाव लिप्त नहीं होने देता।  स्वामी रामदेव ने अभी वह स्थिति प्राप्त नहीं की यह साफ लगता है।
      सच बात कहें तो हम जैसे आम लेखक, योग साधक तथा तथा ज्ञान पाठकों के लिये बाबा रामदेव का सर्वश्रेष्ठ रूप तो योग शिक्षक का ही है।  स्वामी रामदेव अपने योग शिविरों में अपनी शिक्षा से लाभ उठाने वालों को सामने बुलाकर लोगों को दिखाते हैं मगर क्या वह अपने आंदोलन से लाभ उठाने वालों के नाम गिना सकते हैं। वह कह सकते हैं कि यह तो संपूर्ण समाज के लिये तो प्रश्न उठता है कि क्या लोगों को इससे कोई लाभ हुआ?
देश की जो स्थितियां हैं किसी से छिपी नहीं है पर हमारा समाज कैसा है इस पर विश्लेषण कौन करता है? रुग्ण, आलसी तथा संवेदनहीन समाज की दवा योग शिक्षा तो हो सकती है पर कोई आंदोलन उसे दोबारा प्राणवायु देगा इस पर यकीन करना कठिन है।  वैसे रामदेव जी ने अपने आंदोलन के दौरान भी योग शिविर लगाया पर बाद में उनके भाषण से जो नकारात्मक प्रभाव होता है वह भी किसी मानसिक बीमारी से कम दर्द नहीं देता। वैसे हम बाबा रामदेव के आंदोलन का विरोध नहीं कर रहे क्योंकि ज्ञान साधना से इतना तो पता लग गया है कि देहधारी योग साधना से मन विचार, और बुद्धि को शुद्ध तो कर लेता है पर फिर उसका मूल स्वभाव उसके काम में लगा ही देता है हालांकि वह उसमें भी पवित्रता लाने का प्रयास करता है।  स्वामी रामदेव ने योगाभ्यास से जहां दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक शक्ति पाई है उसमें संदेह नहीं है पर कहीं न कहीं उनके अंदर प्रतिष्ठा पाने का मोह रहा है जो उनको ऐसे आंदोलन में लगा रहा है।  बहरहाल हम उनकी योग शिक्षक वाली भूमिका को सराहते हें और आंदोलन की बात करें तो उसके लिये पेशेवर विश्लेषकों का ढेर सारा समूह है जो माथापच्ची कर रहा है।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर, मध्यमप्रदेश

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com


Saturday, August 11, 2012

ओलम्पिक में फिक्सिंग और भारत-हिन्दी लेख (fixing in olampic and india-hindi lekh or article

  
             भारत में ओलम्पिक की इज्जत लगभग खत्म ही हो जायेगी।  अभी तक कोई खिलाड़़ी जब अपनी हेकड़ी दिखाता है तो लोग उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तू ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ला सकता है?‘‘
           जब तक भारत के बैटमिंटन और मुक्केबाजी के खिलाड़ी ओलम्पिक के क्वार्टन फाइनलों तक नहीं पहुंचे थे तब तक  भारत में लोग यह मानते थे कि हमारा देश खेल में फिसड्डी है। क्रिकेट में फिक्सिंग की बात सामने आयी पर ओलम्पिक की पवित्रता की विचार यह बना रहा है।  अब हालत वह नहीं है। 
          ओलम्पिक के दौरान दोनों ही प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग की बात सामने आयी और भारत के खिलाड़ियों के परिणामों पर इसका नकारात्मक प्रभाव दिखा।  स्थिति यह रही कि भारतीयों अपील की तो वह निरस्त हो गयी पर जापान और अमेरिका ने जब अपने परास्त  खिलाड़ियों के लिये प्रतिवाद प्रस्तुत किया तो उसे मानते हुए विजयश्री प्रदान की गयी।  यहां तक ठीक था पर अब पता लगा कि एक देश ने  मुक्केबाजी में दो स्वर्ण पदकों के लिये 78 करोड़ खर्च किये।  अब अमेरिका और जापान के प्रतिवाद भी इसलिये शंका के दायरे में आ गये हैं क्योंकि दोनो अमीर देश हैं। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये पैसा खर्च कर सकते हैं।
               ओलम्पिक में भारत अनेक प्रतियोगिताओं में भाग भी नहीं लेता है।  उनमें भी फिक्सिंग वगैरह होती हो यहां पता लगाना मुश्किल है।  भारतीय मुक्केबाज एक के बाद एक बाहर हुए तो भारत में थोड़ी शर्मिंदगी अनुभव की गयी भले ही उनके हारने पर निर्णायकों के विरुद्ध प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया।  अब तो बीबीसी लंदन ने भी मान लिया है कि मुक्केबाजी में जमकर फिक्सिंग होती रही है।   भारतीय प्रचार माध्यमों की बात पर कोई भरोसा नहीं करता पर अंग्र्रेजों की राय तो यहां ब्रह्म वाक्य मान ली जाती है। यह अलग बात है कि इसके लिये हमारे प्रचार माध्यमों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार हैं।
              बहरहाल अनेक लोग ओलम्पिक खेलों में दिलचस्पी लेते हैं,  भले ही उनको भारत में खेला नहीं जाता।  ओलम्पिक खेलों में ऐसे खेल और खिलाड़ियों को देखना का अवसर मिलता है जिनके हमारे यहां होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती।  इसका कारण यह है कि उन खेलों के लिये धन के साथ खिलाउि़यों को वैसे अवसर भी मिलना अभी हमारे देश में संभव नहीं है।  ऐसे खिलाड़ी पैदा नहीं होते बल्कि बनाये जाते हैं।  हमारे देश के बच्चों में खेल के प्रति रुझान बहुत रहता है पर उनके लिये वैसे अवसर कहां है जो अमीर देशों के पास हैं।  आधुनिक ओलम्पिक के बारे में कहा जाता है कि किसी देश के विकास तथा शक्ति  की नाप उसको मिले स्वर्ण पदकों से होती है।  इस मामले में चीन का विकास प्रमाणिक हो जाता है।
                  चीन के हमारे देश में बहुत प्रशंसक है और उन्हें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए। यह अलग बात है कि सामाजिक विशेषज्ञ चीन के इस विकास को अप्राकृतिक भी मानते है।  उस पर तानाशाही खेलों में भी कठोर व्यवस्था अपनाने का आरोप लगाते हैं।  अभी हाल ही में ऐसे समाचार भी आये जिसमें वहां के बच्चों को उनकी इच्छा जाने बिना  क्रूरतापूर्वक खिलाड़ी बनाया जाता है। इससे  एक बात तय रही कि आधुनिक खेल के खिलाड़ी पैदा नहीं होते उनको बनाया जाता है-धन का लोभ हो या प्रतिष्ठा पाने का मोह देकर उनको प्रेरित किया जाता है।
           दरअसल हमें वैसे भी ओलम्पिक में अपने निराशाजनक प्रदर्शन पर अधिक कुंठा पालने की आवश्यकता नहीं है।  हॉकी में भारत अंतिम स्थान पर रहा इस भी पुराने खेल प्रेमियों को परेशान की जरूरत नहीं है।  दरअसल आज के अधिकांश खेल अपा्रकृतिक और कृत्रिम मैदान पर होते हैं।  जब तक हॉकी घास के मैदान पर खेली जाती थी तब तक भारत पाकिस्तान के आगे सब देश फीके लगते थे।  धीमे धीमें इस खेल को  कृत्रिम मैदान पर लाया गया।  यह कृत्रिम मैदान हर खिलाड़ी को नहीं मिल सकता और जो सामान्य मैदान पर खेलते हैं उनके लिये वह मैदान अनुकूल भी नहीं है।  मतलब यह कि कोई बच्चा हॉकी खिलाड़ी बनना चाहे तो पहले तो उसे मैदान खोजना पड़ेगा फिर हमारे यहां जो बच्चे बिना जूतों के खेल शुरु करते हैं उनके लिये अब हॉकी में पहले जूते होना जरूरी है क्योंकि कृत्रिम मैदान पर उनके बिना खेलना संभव नहीं है।  प्रसंगवश यहां बता दें कि क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर खेलने की बात हाती है पर अंग्रेज नहीं मानते। उनको इसका परंपरागत स्वरूप ही पंसद है।  अंग्रेजों में यह खूबी है कि वह अपनी परंपरा नहीं छोडते। एक तरह से कहें तो यह हमारा सौभाग्य है। अगर कहीं क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर प्रारंभ हो गया तो आप समझ लीजिये कि आजकल के बच्चों के लिये समय बिताने का  साधन गया।  सभी बड़े खिलाड़ी नहीं बनते पर बनने का ख्वाब लेकर अनेक बच्चे व्व्यस्त तो रहते हैं।  इसी तरह कुश्ती, तैराकी, जिम्नस्टिक, साइकिलिंग तथा अनेक खेल हैं जिनको सामान्य वर्ग के बच्चे आसानी से नहीं खेल सकते।  
   मूल बात यह है कि हमारे देश में खेल को प्राकृतिक मैदान पर खेलने की आदत है।  बच्चों के लिये यह संभव नही है कि वह दूर दूर जाकर मैदान ढूंढे और खेलें।  ऐसे में ओलम्पिक हमारे लिये दूर के ढोल बन जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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