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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, April 26, 2009

प्रसिद्धि का बोझ उठाना हरेक के लिए संभव नहीं-आलेख

हिंदी ब्लाग जगत पर अनेक लोग छद्म नाम से लिखते हैं और यह परंपरा उन्होंने अंग्रेजी से ही ली है। जहां तक हिंदी में छद्म नाम से लिखने का सवाल है तो इतिहास में ऐसे कई लेखक और कवि उस नाम से प्रसिद्ध हुए जो उनका असली नाम नहीं था। अनेक लोग अपने नाम के साथ आकर्षक उपनाम-जिसे तखल्लुस भी कहते हैं-लिख देते हैं और उससे उनके कुल का उपनाम विलोपित हो जाता है। इसलिये उनके नाम को छद्म कहना ठीक नहीं है।
हिंदी ब्लाग जगत की शुरुआत करने वाले एक ब्लाग लेखक ने लिखा था कि उसने अपना छद्म नाम इसलिये ही लिखा था क्योंकि अंतर्जाल के ब्लाग या वेबसाईट पर कोई भी गंदी बात लिख सकता है। ऐसे में कोई परिचित पढ़ ले तो वह क्या कहेगा?
उसका यह कथन सत्य है। ऐसे में जब पुरुष ब्लाग लेखकों के यह हाल हैं तो महिला लेखकों की भी असली नाम से लिखने पर चिंता समझी जा सकती है। हालत यह है कि अनेक लोग असली नाम से लिखना शुरु करते हैं और फिर छद्म नाम लिखने लगते हैं।
छद्म नाम और असली नाम की चर्चा में एक बात महत्व की है और वह यह कि आप किस नाम से प्रसिद्ध होना चाहते हैं। जब आप लिखते हैं तो आपको इसी नाम से प्रसिद्धि भी मिलती है। कुछ लोग अपने असली नाम की बजाय अपने नाम से दूसरा उपनाम लगाकर प्रसिद्ध होना चाहते हैं उसे छद्म नाम नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह छिपाने का प्रयास नहीं है।
दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर लोग केवल इस डर की वजह से अपना परिचय नहीं लिख रहे क्योंकि अभी ब्लाग लेखक को कोई सुरक्षा नहीं है। इसके अलावा लोग ब्लाग तो केवल फुरसत में मनोरंजन के साथ आत्म अभिव्यक्ति के लिये लिखते हैं। अपने घर का पता या फोन न देने के पीछे कारण यह है कि हर ब्लाग लेखक अपना समय संबंध बढ़ाने में खराब नहीं करना चाहता। सभी लोग मध्यम वर्गीय परिवारों से है और उनकी आय की सीमा है। जब प्रसिद्ध होते हैं तो उसका बोझ उठाने लायक भी आपके पास पैसा होना चाहिये।
अधिकतर ब्लाग लेखक अपने नियमित व्यवसाय से निवृत होने के बाद ही ब्लाग लिखते और पढ़ते हैं। यह वह समय होता है जो उनका अपना होता है। अगर वह प्रसिद्ध हो जायें या उनके संपर्क बढ़ने लगें ं तो उसे बनाये रखने के लिये इसी समय में से ही प्रयास करना होगा और यह तय है कि इनमें कई लोग इंटरनेट कनेक्शन का खर्चा ही इसलिये भर रहे हैं क्योंकि वह यहां लिख रहे हैं। सीमित धन और समय के कारण नये संपर्क निर्वाह करने की क्षमता सभी में नहीं हो सकती। यहां अपना असली नाम न लिखने की वजह डर कम इस बात की चिंता अधिक है कि क्या हम दूसरों के साथ संपर्क रख कर कहीं अपने लिखने का समय ही तो नष्ट नहीं करेंगे।
ब्लाग पढ़ने वाले अनेक पाठक अपना फोटो, फोन नंबर और घर का पता मांगते हैं। उनकी सदाशयता पर कोई संदेह नहीं है पर अपनी संबंध निर्वाह की क्षमता पर संदेह होता है तब ऐसे संदेशों को अनदेखा करना ही ठीक लगता है। सीमित धन और समय में से सभी ब्लाग लेखकों के लिये यह संभव नहीं है कि वह प्रसिद्धि का बोझ ढो सकें। इसलिये पाठकों पढ़ते देखकर संतोष करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
हां, एक बात मजे की है। भले ही लेखक असली नाम से लिखे या छद्म नाम से उसका चेहरा पहचाना जा सकता है। अगर आपने किसी को असली नाम से लिखते देखा है और अगर वह छद्म नाम से लिखेगा तो भी आप पहचान लेंगे। एक बात याद रखने की है शब्दों के चेहरे तभी पहचाने जा सकते हैं जब आप उस लेखक को नियमित पढ़ते हों।
प्रसंगवश याद आया कि अंतर्जाल पर अपने विरोधियों से निपटने के लिये इस ब्लाग/पत्रिका लेखक ने भी दो ब्लाग अन्य नाम -उसे भी छद्म नहीं कहा जा सकता-से बनाया था और वह अन्य बाईस ब्लाग में सबसे अधिक हिट ले रहे हैं पर उनमें सात महीने से कुछ नहीं लिखा जा रहा है क्योंकि उस नाम से प्रसिद्ध होने की इस लेखक की बिल्कुल इच्छा नहीं है। आज अपने मित्र परमजीत बाली जी का एक लेख पढ़ते हुए यह विचार आया कि क्यों न उनको अपने ही इस नाम से पुनः शुरु किया जाये। उस नाम से दूसरे ब्लाग पर एक टिप्पणी आई थी कि आपकी शैली तो .........................मिलती जुलती है।
मतलब टिप्पणीकर्ता इस लेखक की शैली से पूरी तरह वाकिफ हो चुका था और वह इस समय स्वयं एक प्रसिद्ध ब्लाग लेखक है।
जहां तक शब्दों से चेहरे पहचानने वाली बात है तो यह तय करना कठिन होता है कि आखिर इस ब्लाग जगत में मित्र कितने हैं एक, दो, तीन या चार, क्योंकि उनके स्नेहपूर्ण शब्द एक जैसे ही प्रभावित करतेे हैं? विरोधी कितने हैं? यकीनन कोई नहीं पर शरारती हैं जिनकी संख्या एक या दो से अधिक नहीं है। वह भी पहचान में आ जाते हैं पर फिर यह सोचकर कि क्या करना? कौन हम प्रसिद्ध हैं जो हमारे अपमान से हमारी बदनामी होगी। ले देकर वही पैंच वही आकर फंसता है कि प्रेम और घृणा का अपना स्वरूप होता है और आप कोई बात अंतर्जाल पर दावे से नहीं कह सकते। जब चार लोग प्रेम की बात करेंगे तो भी वह एक जैसी लगेगी और यही घृणा का भी है। कितने प्रेम करने वाले और कितने नफरत करने वाले अंतर्जाल पर उसकी संख्या का सही अनुमान करना कठिन है। रहा छद्म नाम का सवाल तो वह रहने ही हैं क्योंकि आम मध्यम वर्गीय व्यक्ति के लिये अपनी प्रसिद्धि का बोझ उठाना संभव नहीं है। ब्लाग लेखन में वह शांतिप्रिय लेखक मजे करेंगे जो लिखते हैं और प्रसिद्धि से बचना चाहते हैं। अपने लिखे पाठों को प्रसिद्धि भी मिले और लेखक बड़े मजे से बैठकर शांति से उसे दृष्टा की तरह (state counter पर) देखता रहे-यह सुख यहीं नसीब हो सकता है।
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यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
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पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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Wednesday, April 22, 2009

परदे के पीछे और सामने-हिंदी व्यंग्य कविता

परदे के सामने जो उन्होंने दिखाया
अपनी समझ में नहीं आया
हमने कहा
‘हमें परदे के पीछे ले जाओ।
बाकी हम समझ लेंगे
तुम मत समझाओ’।

वह बोले
‘यहां परदे के सामने
आकर ही खेल देखने की
तुमको इजाजत मिली है
परदे के पीछे का खेल
देखना इतना आसान नहीं
वहां की बात तो हम भी
नहीं कर सकते
अपनी जुबान इस तरह सिली है
यहां चलते फिरते और बोलते
हमारे बुत एकदम प्रशिक्षित हैं
खेल चाहे जो भी हो यही सामने आयेंगे
कभी थोड़ी देर के लिये बुत सजायेंगे
फिर उसकी जगह दूसरा ले आयेंगे
यह रंगमंच सजाया है हमने
जिनकी मर्जी से
कितने भी बादशाह हों कहीं के तुम
नाराज हो गये वह तो
शतरंज की इस बिसात पर
देंगे वह मात अपने फर्जी से
परदे के पीछे धुप अंधेरे में बैठे हैं
दौलत और शौहरत बेचने वाले
अंधे सौदागर
तुम उनकी असलियत देख लोगे
तो डर जाओगे
इसलिये परदे के सामने
खेल देखकर सीधे अपने घर जाओ।

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Friday, April 10, 2009

दर्दभरा पैगाम क्यों भेजते हो-हिन्दी शायरी

अपना दिल बना है जंग का मैदान
किसी दूसरे को अमन का
पैगाम क्यों भेजते हो।
निभाना पहले सीखा नहीं
दूसरे को दोस्ती का पैगाम क्यों भेजते हो।

अपने ख्यालों में बसी नीयत है जैसी
दूनियां भी हो जाती है वैसी
अपने अंदर छाया है सोच का अंधेरा
बेकार की चिंताओं और बेदम डर का है डेरा
दूसरे से उधार की रौशनी मांगने के लिये
क्यों उम्मीद भरा पैगाम भेजते हो।

यहां कोई फरिश्ता नहीं है
जो पैगाम पर खुशियां और अमन
उधार में देगा
हर कोई अपनी कीमत वसूल करेगा
अपने ख्यालों की दुनियां में
मत इतना घूमो
अपने जैसे जरूरतमंदों की भीड़ जुटाकर
सबकी ख्वाहिश पूरी करने के लिये करो जंग
अपने अरमान लुटाकर
अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते जाओ
अपने को सहारा खुद ही देना है
यकीन करो इसी सच पर
दूसरों को सहारे देने के लिये
दर्दभरा पैगाम क्यों भेजते हो।

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Friday, April 3, 2009

न्यूड होटल को हिंदी में क्या कहें? वस्त्रहीन भोजनालय! (हास्य-व्यंग्य)

‘न्यूड होटल’ को हिंदी में क्या कहें? वस्त्रहीन भोजनालय! हमें स्वयं ही नहीं जम रहा। वस्त्रों का भोजन से क्या संबंध? अगर कहीं बाहर भोजन करने जाते हैं तो सजधज कर जाते हैं। खासतौर से नारियां किसी शादी विवाह में दावत में जाती हैं तो खाने की कम इस बात की चिंता अधिक करती हैं कि वह वहां मौजूद लोगों को सुंदर लगें-उससे भी अधिक यह कि वह एक आधुनिक युवती लगें। कुछ ही पुरुष ऐसे होते हैं जो इन अवसर पर अपने पहनने से अधिक खाने की फिक्र करते हैं पर अधिकतर अपने आपको हीरो की तरह दिखना चाहते हैं।

अब इस देश में भी आगे पीछे न्यूड होटल का युग आयेगा। हुआ यूं कि इंटरनेट पर एक समाचार पढ़ने को मिला जिसमें एक पश्चिमी देश में ‘न्यूड होटल’ खुलने की जानकारी थी। उसके अनुसार होटल प्रबंधन ने बताया कि वहां अंदर प्रवेश होने वाले ग्राहक को सारे कपड़े प्रवेश द्वार पर उतारकर निर्धारित जगह पर रखने होंगे। उसके बाद ही वह खाने पीने के लिये अंदर प्रवेश कर सकता है। तय बात है कि जब ग्राहक वस्त्रहीन होगा तो वहां पर कर्मचारी कोई हीरो जैसे कपड़े नहीं पहने होंगे। प्रबंधन इस बात की गारंटी ले रहा है कि वहां कोई भी अभद्र किस्म की वारदात नहीं होगी।

आज वहां होटल खुल रहा है कल भारत में भी इसकी संभावना बनेगी। पश्चिम की रीति नीति पर चलना हमारे देश में स्वतंत्रता का प्रमाण माना जाता है। तय बात है कि किसी दिन ऐसा समाचार आयेगा कि अमुक जगह ‘न्यूड होटल’ खुला रहा है। उसके बाद क्या होगा? हमारे देश में बुद्धिजीवियों के दोनों वर्ग इसके लिये तैयार हो जायें। तीसरा वर्ग तो खैर हास्य कवितायें या व्यंग्य लिखकर अपना काम चला लेगा पर विकासवादी और परंपरावादियों को अभी से ही अपने तर्क तैयार कर लेना चाहिये। हम जैसे आम लोगों को इस बहस को देखने की तैयारी कर लेना चाहिये। कभी यहां पब में नारियों के जाने को लेकर झगड़ा होता है तो उसकी कसर वैलंटाईन डे पर नारी स्वतंत्रता दिवस मनाकर पूरी की जाती है। शाब्दिक शस्त्रार्थ जो कि मनोरंजक होता है पढ़ने और देखने में अच्छा लगता है। पहली बात तो यह है कि पब में नारियों के प्रवेश पर चिढ़ने वाले ‘न्यूड होटल’ की खबर सुनकर ही उत्तेजित हो जायेंगे।

उनकी यह उत्तेजना उनके विकासवादी मित्रों को भी इस बात के लिये प्रेरित करेगी कि वह अपनी तरफ से कुछ कहें। जब पब में महिलाओं के प्रवेश पर बहस चली थी तो विकासवादी इस बात को भूल गये थे कि वहां शराब पी जाती है, बकौल फिल्मी संवाद ‘दारु लीवर को खराब करती है’। परंपरावादियों ने भी अपने तमाम तरह के तर्क दिये। बहरहाल यह अच्छा रहा कि वैलंटाईन डे के बाद यह मामला शांत हो गया। यह अलग बात है कि कुछ लोगों ने ऐसी जानकारी भी दी कि पब पर हुआ उधम कुछ प्रायोजित सा लग रहा था। जिस तरह यह मामला थमा उससे तो लगता है कि कहीं न कहीं इस देश में बहस और चर्चा के लिये मुद्दे बनाने वाली कोई स्वयं सेवी संस्था भी सक्रिय है जो निस्वार्थ भाव से लोगों का मन लगाने के लिये ऐसे विवाद प्रायोजित करती है।
मगर यह ‘न्यूड होटल’! इस पर किस तरह बहस चलेगी। हमारे देश के नर नारी तो सज संवर कर इसलिये ही बाहर निकलते हैं कि कोई उनको देखकर प्रभावित हो। कुछ जवां दिल तेा होटल जाते हैं इसलिये हैं कि ताकि उनके कपड़े देखकर कोई उनके मोहपाश या प्रेमपाश में पड़ जाये।

मगर ‘न्यूड होटल’! सारे किये धराये पर पानी फेर देगा! अगर किसी शहर में ऐसा होटल खुल गया तो आधुनिक लोगों को जाना ही पड़ेगा। न गये तो विकासवादी बुद्धिजीवी कहेंगे ‘पिछड़ा है’। गये तो फिर बिना कपड़े कदर ही क्या रह जायेगी? आखिरी फैसला तो जाने का ही होगा। मगर इससे पहले जो विवाद होगा उसका क्या? परंपरावादियो के पास तो बस एक ही रटा रटाया तर्क है कि ‘हमारी संस्कृति के विरुद्ध है’। मगर विकास वादी क्या करेंगे। स्वातंत्रय समर्थक इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे? कपड़ों के रग होते हैं-’काला,पीला,नीला,हरा,सफेद और गुलाबी। ‘न्यूड होटल’ यहां भी प्रसिद्ध होंगे पर इसके समर्थन के लिये वह कौनसे रंग की कौनसी चीज चुनकर परंपरवादियों को भेजेंगे जैसे कि पूर्व में वैलंटाईन डे के अवसर पर विरोधस्वरूप गुलाबी रंग का वस्त्र चुना था। ‘न्यूड होटल के लिये कौनसा कलर प्रतीक के रूप में होगा क्योंकि वहां तो कोई वस्त्र ही नहीं है। वस्त्रहीनता उस होटल की प्रतीक होगी। वस्त्रहीनता यानि रंगहीनता की स्थिति है।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य प्रारंभ में निर्वस्त्र ही रहता था। अब भी अनेक ऐसे स्थान हैं जहां आदिवासी नाममात्र के वस्त्र पहनते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि उस समय मनुष्य के शरीर पर वैसे ही बड़े बाल थे जैसे आज वानर प्रजाति के जीवों पर दिखते हैं पर कपड़े पहनने की वजह से वह झड़ते गये। अब तेा हालत यह है कि मौसम के अनुसार मनुष्य कपड़ों में बदलाव करता है। अगर वह ऐसा न करे तो उसका जीवनयापन कठिन हो जाये। सच बात तो यह है कि वस्त्र के बिना आदमी अपने आपको नहीं सुहाता है दूसरे को क्या सुहायेगा। वैसे तो कोई कोई संत वस्त्र नहीं पहनते पर भक्त उसे स्वीकार कर लेते हैं। यही भक्त किसी आम आदमी का नंगा घूमना नहीं सहन कर सकते। फिर ऐसे होटलों में वस्त्र त्याग करने वाले साधु तो जाने से रहे।

ऐसे में इन होटलों में कोई नहीं जायेगा यह कहना भी कठिन है। इस देश में पश्चिम का अंधानुकरण करना एक रोग की तरह हो गया है। ऐसे मेें बाजार के प्रचारकों ने अपनी कला से कहीं इसमें आम आदमी के अंदर प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता का प्रतीक बना लिया तो जाने वालों की भी कमी नहीं होगी। यह अलग बात है कि लोग घर से संज संवरकर निकलेंगे और वहां जाकर वस्त्रों का त्याग कर देंगे। हां, पश्चिम में लोग सहज है पर यहां असहज लोग अधिक हैं सो वह अंदर वस्त्र त्याग कर जायेंगे पर कुविचार नहीं। बाहर आकर एक दूसरे के अंगों का नाम ले लेकर उन पर व्यंग्य कसेंगे। फिर देखना झगड़े इसी बात पर होंगे कि अमुक ने अमुक के अंग पर यह टिप्पणी की इसलिये झगड़ा हो गया। यह अलग बात है कि इन झगड़ों से ऐसे ही होटलों को प्रचार भी खूब मिलेगा।
मगर यह न्यूड होटल! इसे हिंदी में क्या कहें। इसके लिये जो वास्तविक शब्द हैं उसे हम अपनी इस आलीशान साहित्यक रचना में नहीं लिख सकते। हम सभी लोगों से कहते हैं कि बुरे अर्थ वाले भाव हों तो भी उसके लिये शालीन शब्द प्रयोग में लाओ। इसलिये हम तो यही कहेंगे कि वस्त्रहीन भोजनालय।
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