भारत की चौथी बड़ी कंपनी का अध्यक्ष अगर अपनी कंपनी के खातों में जालसाजी की बात स्वीकार करता है तो पूरे विश्व में उसकी प्रतिक्रिया होगी। सत्यम की साख पिछले कुछ वर्षों से इतनी अच्छी बनी हुई थी कि उसके शेयर और म्यूचल फंड खरीदने वालों को अपना विनिवेश फायदे का सौदा लगता था। अब हालत बदल गयी है और उसके शेयरों के भाव बुरी तरह नीचे आ गये हैं।
मध्यम वर्ग के अनेक निवेशकों को इससे जो आघात लगेगा उसकी कल्पना वही कर सकते हैं जिन्होंने उसके शेयर और म्यूचल फंड खरीदे हैं। पिछले कुछ समय से मंदी को जो दौर शुरु हुआ है उसमें कई कंपनियों के पांव लड़खड़ाते हुए नजर आ रहा हैं। यह एक कंप्यूटर कंपनी की जालसाजी तक ही सीमित मुद्दा नहीं है बल्कि अब दुनियां में भारतीयों की विश्वसनीयता पर सवाल उठना प्रारंभ होंगे। जिन लोगों ने जन्म से ही अपने घर में व्यापार के रंग ढंग देखे हैं वह जानते हैं कि किसी एक बड़े व्यवसायिक संस्थान के दिवालिया या बंद होने से उसके साथ जुड़े अन्य छोटे संस्थान भी विकट स्थिति में पहुंच जाते हैं। उसमें विनिवेश करने वाले छोटे और बड़े लोग-जिन्होंने दूसरों से उधार लिया होता है-अपने दायित्वों से भागते हैं।
आप जानते हैं कि आज भी कई महिलायें और पुरुष अपनी बचतें सरकारी बैंकों में ही कम ब्याज पर रखना पसंद करते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि निजी क्षेत्र विश्वसनीय नहीं होते हैं। यहां यह भी याद रखने वाली है कि उनकी बचतें ही इन सार्वजनिक बैंकों के संजीवनी का काम करती हैं। जो लोग देश में सरकारीकरण के विरोधी है वह भी निजीकरण की विश्वसनीयता को संदेह से ही देखते हैं।
बहुत समय पहले एक बिस्कुट कंपनी दिवालिया हुई थी। यह बिस्कुट कंपनी अपना एक बैंक भी चलाती थी और उसमें शहर भर के लोगों के छोटे और बड़े निविशकों ने अधिक ब्याज की लालच में अपना पैसा जमा करा रखा था। वह बिस्कुट कंपनी और उसका बैंक दोनो ही दिवालिया हो गये। उससे अनेक छोटे निवेशकों को रोना तक आ गया। उसमें कुछ औरतों के भी पैसे थे जो अपने परिवार वालों से छिपा कर इस आशा के साथ विनिवेश करती थी कि समय या विपत्ति आने पर वह उस पैसे से अपने आश्रितों की सहायता कर गौरवान्वित अनुभव करेंगी पर बैंक के धोखे ने उनका मन बुझा दिया। बिस्कुट कंपनी की बैंक में कई सेठों ने भी हुंडियों पर पैसा लेकर विनिवेश किया था। जब वह कंपनी फेल हुई तो अनेक सेठ भी शहर छोड़कर भागे। अर्थात उन्होंने अपने विनिवेशकों से मूंह फेर लिया। एक बात याद रखिये जिस तरह भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कृषक हैं उद्योगपति नहीं वैसे ही बाजार का मुख्य आधार आम उपभोक्ता और विनिवेशक मध्यम और निम्न वर्ग हैं सेठ नहीं। बड़े और सेठ लोग तो केवल दोहन करते है।
इन पंक्तियों ने ऐसे लोगों को देखा है जो उस बिस्कुट कंपनी के धोखे से अभी तक नहीं उबर पाये क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी भर की बचतें उसमें गंवा दी थी। कुछ महिलायें जिन्होंने उसमें अपना पैसा गंवाया था अब उम्रदराज हो गयी हैं और वह आज भी डाकघर और सार्वजनिक बैंकों में अपना थोड़ा पैसा रखती हैं। कितना भी लालच दिया जाये वह निजी बैंक पर यकीन नहीं करती। सच बात तो यह है कि जिन्होंने बाजारों में जीवन गुजारते हुए बड़े बड़े सेठों को दिवालिया होते भागते देखा है वह कभी भी निजी क्षेत्र पर विश्वास नहीं करते। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में कृषि या दुग्ध व्यवसाय तथा व्यापार से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि किस तरह आदमी दिवालिया होकर भाग जाता है और उनकी मेहनत की कमाई से बाद में भी अपना जीवन शान से गुजारते हैं।
सीधे शब्दों में कहें तो आत्मनिर्भर कृषकों और व्यवसायियों के लिये बड़े सेठ कभी विश्वसनीय नहीं होते। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय पूंजीपतियों की विदेशों में प्रतिष्ठा का यहां के प्रचार माध्यम अक्सर जिक्र करते हैं मगर भारत के लोग उससे प्रभावित नहीं होते। वजह साफ है कि भारतीय पूंजीपतियों ने समाज से मूंह फेर लिया है और वह विदेशों में अपनी छबि बनाने में लगे हैं क्योंकि वह जानते है कि यहां उनकी विश्वसनीयता हमेशा संदेहास्पद रहेगी। अनेक भारतीय पूंजीपतियों ने विदेशों में नाम कमाया है पर अब एक प्रतिष्ठित कंप्यूटर कंपनी की इस जालसाजी से पर उन सभी की विश्वसनीयता पर पूरे विश्व में सवाल उठेंगे इसमें संदेह नहीं है।
सबसे बड़ी बात यह है कि अमेरिका से आयातित इस कपंनी रूपी व्यवसायिक ढांचा यहां के सेठों को बहुत पंसद आया है। कहने को वह पदासीन अधिकारी की तरह होते हैं पर वास्तव में वह होते तो वैसे ही सेठ हैं। उनके आचार, विचार और रहन सहन से कभी यह नहीं लगता कि वह वेतनभोगी हैं जैसा कि वह प्रचारित करते हैं। उनके मातहत उनको उच्च पदाधिकारी नहीं बल्कि मालिक के रूप में वैसे ही देखते हैं जैसे सेठ को देखा जाता है। इससे उनको फायदा यह होता है जब तक कंपनी हिट है वह सेठ की तरह मजे लेते हैं और जो फ्लाप हुई वैसे ही उससे पीछा छुड़ा लेते हैं। लोग यह नहीं कहते कि अमुक सेठ डूबा बल्कि यही कहते हैं कि ‘वह कंपनी फेल हो गयी।’
हमेशा की तरह यह जुमला लिखना ठीक लगता है कि ‘यह तो तस्वीर वह दिखा रहे हैं पर पीछे क्या है जो वह छिपा रहे हैं’। इन अध्यक्ष महोदय ने जो जालसाजी का बयान दिया है उसके पीछे अन्य बहुत सारे सच भी होंगे पर वह बतायेंगे क्योंकि कोई भी आदमी तस्वीर का वही रूप सामने दिखाता है जो लोगों को अच्छा लगे-न लगे तो कम से बुरा भी अनुभव न हो। वह कहते हैं कि उन्होंने अस्सी हजार करोड़ का धन जाली रूप से दिखाया था। यह तो वह कह रहे हैं कि पर वास्तविकता क्या है? यह तो कोई वही व्यक्ति जान सकता है जो उसकी तह में जाकर जांच करे। वैसे हिंदी या भारतीय आकर्षक नाम देखकर हम बहुत प्रभावित होते हैं जब तक सब ठीक चलता है तब तक हम उसे गाते हैं और जब कोई गड़बड़झाला होता है तो विपरीत शब्द लगाने में नहीं चूकते। यहां यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि अनेक कंपनियों ने अनेक आकर्षक शब्दों से अपने नाम सजा रखे है पर जिस तरह की मंदी चल रही है वह उनके अर्थ के प्रभाव को कितना मंद कर देगी कोइ नहीं कह सकता है। एक बात तय रही कि तेजी एक तूफानी अमृत है जो कई लोगों को न बल्कि जीवन देती है बल्कि उसे चमक भी देती है यह मंदी एक धीमा जहर है जो धीरे धीरे पतन के गर्त में ले जाती है। तेजी में धनाढ्य होते लोग बड़े सज्जन लगते हैं पर मंदी में उनकी पोल खुल जाती है।
---------------------------
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप