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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, April 27, 2008

माफ़ी किस बात की-हिन्दी शायरी

अपनी जिंदगी में कामयाबी पाने का नशा
आदमी के सिर कुछ यूं चढ़ जाता
कि नाकामी झेलने की मनस्थिति में नहंी आता
जजबातों के खेल में
कुछ ऐसा भी होता है
कि जिसकी चाहत दिल में होती
वही पास नहीं आता है
इस जिंदगी के अपने है दस्तूर
अपने दस्तूरों पर चलने वाला
आदमी हमेशा पछताता है

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अपने वादे से मुकर कर उसने कहा
‘यार माफ करना मैंने तुम्हें धोखा दिया’
हमने कहा
‘माफी किस बात की
भला कब हमने तुम पर यकीन किया’
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Friday, April 25, 2008

स्वयंभू होने का सुख-हास्य व्यंग्य

हम चारों मित्र अलग-अलग जातियों से संबंधित होने के बावजूद कभी ऐसा नहीं लगता कि कोई भेद हो और न ही कभी जातियों पर बातचीत करते हैं और करते हैं तो कभी ऐसा जाहिर नहीं होता कि अपनी जातियों से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। उस दिन पता नहीं अपने मित्र के उपनाम को लेकर चर्चा कर बैठे। हमारे एक मित्र ने उससे पूछा-‘क्या तुम लोगों मे भी कोई गोत्र वगैरह होते है।’’

हमारे मित्र ने कहा-‘‘हां, कभी होते थे पर अब नहीं रहे, पर क्षेत्रवाद के आधार पर तो विभाजन है ही। हालांकि गौत्र के आधार तो हमें भी पता नहीं है।

मुझे अपने एक ऐसे मित्र की याद आयी जो लेखक भी और उससे मेरी पटरी नहीं बैठती। कई बार तो उससे वाद-विवाद काफी तीखा भी हो चुका है। वह कहीं मुलाकात होने पर उल्टी बात शुरू करता और मेरे लिखे पर विवाद करता है। हालांकि जिस मित्र की बात कर रहा हूं वह भी उससे इसी बात से नाराज रहते हैं कि वह हमारे लिखे पर बेकार की कमेंट करता रहता है। बहरहाल हमने अपने उस मित्र से कहा-‘‘हां, मुझे लगता है कि उस बड़बोले का गौत्र तुमसे अलग ही होगा। यार, उससे मेरी कभी नहीं बनती और तुमसे बन जाती है।’8

मेरे मित्र ने मुझसे कहा-‘‘यार, उससे तुम्हारी नहीं बनती यह तो हमें मालुम है पर यह गौत्र वाली बात उससे मत जोड़ो क्योंकि तुम दोनो हो लेखक और मेरे ख्याल से तुम लोगों की वही जाति और गौत्र होता है। कहीं तुम्हारी याद आती है तो हमारे दिमाग में यही बात रहती है कि तुम लेखक हो। तुम तो हिंदी के लेखक हो और कोई अगर तुम में जाति ढूंढेगा तो बेवकूफ ही कहलायेगा। तुम्हारा झगड़ा हिंदी के परंपरांगत लेखकों से कम थोडे+ ही है और हमें उसका लिखा पसंद नहीं है पर है तो वह भी लेखक। वैसे भी तुम लोग अपने लिखे में किसी को बख्शते हो जो हम तुम्हें किसी जाति विशेष से जोड़कर देखें’’

उसकी बात पर सब मित्र सहमत हो गये और मुझे हंसी आयी क्योंकि उसके कहने से मुझे अहसास हुआ कि वह सही कर रहा था-सबसे अच्छा लगा कहने का उसका सहज भाव। वहां एक मौजूद अन्य मित्र बोला-‘‘तभी तो जब हमारे सामने तुम लोगों की बहस होती है तो हम बिल्कुल नहीं बोलते क्योंकि लगता है कि दो लेखकों की लड़ाई में पड़कर अपनी अज्ञानता न दिखा बैठें।’

बहरहाल हम दोनों को स्वयंभू लेखक के रूप में मित्र लोगांे में पहचाना जाता है और मेरे ब्लाग पढ़ने वाले मित्र तो मुझे स्वयंभू लेखक और संपादक भी कहने लगे हैं। पहले मैं खूब सुनता था कि अमुक तो स्वयंभू अध्यक्ष है या सचिव है या संपादक है और जब अपने लिये ऐसी उपमाएं सुनता हूं तो हंसी आती है। स्वयंभू का मतलब है कि आप स्वयं घोषित कर देते हैं पर अन्य कोई नहीं मानता। अगर कोई दूसरा बनाये तो आप घोषित हो जाते हैं नहीं तो स्वयंभू कहलाते हैं। हम पुराने संपादक रह चुके हैं पर अब नहीं हैं और ब्लोग पर लिख छोड़ा है तो वह किसी सेठ का नहीं है जो हमें कोई मान लेगा।

इसके बावजूद स्वयंभू होने में सुख तो लगता है। यह अब महसूस होने लगा है। कल मेरा एक ब्लाग बीस हजार की व्यूज संख्या को पार करने वाला है। आज मुझे एक मित्र ने याद दिलाया और कहने लगा कि-‘‘दस हजार का संदेश तो हम नहीं पढ़ पाये थे पर वह तुम्हारा ब्लोग 19900 पार कर चुका है और कोई जोरदार संदेश लिखना।‘‘

हमने पूछा-‘‘क्या जरूरी है? तुंम ही तो कहते हो कि ब्लागरों के लिये कम लिखो। आम पाठकों के लिये व्यंग्य और कहानी लिखो। फिर क्या जरूरी है कि हम लिखें।’’

वह बोला-‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि तुम पाठकों के लिये ही लिखो। यार हम देखना चाहते हैं कि तुंम स्वयंभू संपादक के रूप में कैसे लिखते हो? अगर जोरदार रहा तो हम तुम्हें संपादक के रूप में मान्यता दे देेंगे। तुम ही खुद ही कहते हो कि स्वयंभू उसको कहा जाता है जिसे किसी और की मान्यता नहीं होती। जब मान्यता दे देंगे तो फिर तुम्हारे स्वयंभू होने का प्रश्न नहीं उठता। हां, लेखक तुम हो क्योंकि तुंम्हारा लिखा हमें पसंद है।’

सच बात तो यह है कि हमारे पास इतने ब्लाग हो गये हैं कि और व्यस्तता बढ़ गयी है पर हमारे मित्र वर्डप्रेस के ब्लागों पर व्यूज अवश्य देखते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि हमारे मित्रों ने यह तक अनुमान लगा लिया कि वह एक दो दिन में इस सीमा को पार कर लेगा।
हमने मित्र के कहने पर घर आते ही पाठकों के लिये बीसहजारीय संदेश लिखने का प्रयास किया पर कई कागज फाड़ चुके हैं। कुछ समझ में नही आ रहा कि क्या लिखें? कहीं ऐसा न हो कि मित्रों से संपादक के रूप में मिली मान्यता खतरे मेंे पड़ जाये। काफी माथामच्ची करने के बाद हमने आज लिखने का विचार छोड़ दिया क्योंकि एक तो वह ब्लाग आज उस संख्या को छू नहीं रहा दूसरा हमने सोचा कि जितना सुख स्वयंभू में उतना मान्यता मिलने में नहीं है। स्वयंभू होने पर लोग छींटाकशी कम ही करते हैं क्योंकि उनके दिमाग में वास्तविक छवि वह नहीं होती जो हम बताते हैं। अभी यह कोई नहीं कहता कि‘यार कैसे संपादक हो’, कहीं मान्यता मिल गयी तो फिर ‘यार कैसे लेखक हो’ कि जगह जुमला संपादक वाला हो जायेगा। स्वयंभू का सुख उठा लें यही बहुत है इसलिये सोचा कि जब ब्लाग बीसहजारीय संख्या को पार करेगा तो स्वयंभू लेखक और संपादक की तरह ही लिखेंगे क्योंकि हमें लगता है कि हम तभी लिख पाते हैं जब अपने को स्वयंभू समझते हैं और बचपन से शायद इसलिये यह लिखने का रोग लग गया।


Thursday, April 24, 2008

असली पुतले, नकली पुतले-लघुकथा

कठपुतली का खेल दिखाने वाला एक व्यक्ति अपना काम बंद कर स्टेडियम के बाहर मूंगफली का ठेला लगाकर बैठ गया था। बचपन में उसका खेल देखने वाले व्यक्ति ने जब उसे देखा तो पूछा-‘ तुमने कठपुतली का खेल दिखाना बंद कर यह मूंगफली का ठेला लगाना कब से शुरू कर दिया ?’

वह बोला-‘बरसों हो गये। जब से इन असली पुतलों का खेल शूरू हुआ है तब से अब लकड़ी के नकली पुतलों का खेल छोड़कर इधर ही आते हैं। इसलिए मैं भी इधर आ गया।

वह आदमी हंस पड़ा तो उसने कहा-‘‘आप अखबार तो पड़ते होंगे। यह हाड़मांस के असली पुतले भी कोई न तो अपनी बोलते हैं न चाल चलते हैं। इनकी भी डोर किसी नट के हाथ में ही तो है। स्टेडियम में लोग तालियां बजाते हैं पर किसके लिये? जो खेल रहे हैं वह क्या अपने मजे के लिये खेल रहे हैं? नहीं वह पैसा कमाने के लिये खेल रहे हैं। आप फिल्मों में हीरो-हीरोइन के देख लीजिये वह भी तो किसी के कहने पर डायलाग बोलते हैं, नाचते हैं और झगड़े के सीन करते हैं। बड़े लोग जिनके पास किसी के पास जाने की फुर्सत नहीं है इन मैचों और संगीत कार्यक्रमों को देखने आते हैं। भला हमारे खेल को कौन देखता? इसलिये अब मैं स्टेडियम के बाहर आते खिलाडियों, अभिनेताओं और दर्शकों को ऐसे ही देखता हूं जैसे वह मेरे पुतलों को देखते थे।

उस आदमी ने कहा-तो तुम अब खेल देखते हो? वह भी बाहर बैठकर।

वह बोला-‘‘दर्शक तो मैं ही हूं जो इतनी सारे पुतलों को देख रहा हूं। बाकी सब तो करतब दिखाने वाले हैं। हां, हमारे खेल में हम दिखते थे पर इनके नट कौन है उनको कोई नहीं देख पाता। यह सब कैमरे का कमाल है।’’

दिल के फासले होते है ज्यादा-हिंदी शायरी

हमें क्या पता वह समय भी आयेगा
जब हम जमीन पर खड़े रह जायेंगे
उनका चेहरा आकाश में नजर आयेगा
हमें वह आकाश में उड़ते नजर आते हैं
पर हमारा चेहरा उनको वहां कैसे नजर आयेगा
हमारे दिल में आज भी उनके लिये जगह है
पर कौन उड़कर उनको यह बतायेगा
जमीन और आसमान की दूरी
बहुत होती ज्यादा
पर दिल के फासले उससे भी ज्यादा
हम उनके उड़ने पर बहुत खुश हैं
भला यह बात उनको कौन समझाएगा

Monday, April 14, 2008

अंतर्जाल लेखकों के वैचारिक धरातल पर एक साथ खडे होने का मतलब-आलेख

जब मेरे ब्लागों पर कुछ ऐसे लोगों के कमेंट आते हैं जिनसे मैं परिचित नहीं हूं तो तत्काल जाकर उनके ब्लाग देखता हूं। मुझे आश्चर्य तब होता है जब वैचारिक धरातल पर सब मेरे साथ ही खड़े दिखाई देते है। परिचितों में तो करीब-करीब सभी एक ही वैचारिक संघर्ष में व्यस्त हैं। मैने ब्लागरों में जो बातें देखीं हैं वह भी गौर करने लायक है-

1. सभी ब्लागर अपने धर्म में आस्थावान हैं पर उनका कर्मकांडों और अंधविश्वासों से बहुत कड़ा विरोध है। इस मामले में वह यह मानने को तैयार नहीं है कि दिखावे की भक्ति कर लोगों को स्वर्ग का रास्ता दिखाया जाये जो कभी बना ही नहीं।

2.अपने विचारों के साथ ईमानदारी के साथ चलने की उनमें दृढ़ता है और वह किसी प्रकार की चाटुकारिता में यकीन नहीं करते।
3.देश के हालातों से बहुत चिंतित हैं और ऐसी घटना जिसमें किसी महिला को अपमानित किया जाता है, गरीब को सताया जाता है और निर्दोष को मारा जाता है उससे वह विचलित होते है।
4.राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अटूट निष्ठा है और जिसको प्रमाणित करने के लिये वह किसी भी हद तक कष्ट उठा सकते हैं।
5. वह वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट हैं। प्रचार माध्यमों के प्रति उनके मन में अनेक संदेह है और वह इसे व्यक्त करते हैं।

लिखने की शैली और प्रस्तुतिकरण के तरीके में अंतर हो सकता है पर कमोवेश मूल विचार में एकरूपता है। अपने आलेखों और कविताओं पर उनके रवैये से एक बात लगती है कि कहीं न कहीं उनके मन में इस समाज को बदलते देखने की इच्छा है। वह जानते हैं कि उनके लिखे से समाज नहीं बदलेगा पर मैं कहता हूं कि आज अगर हम कोई विचार आज लिखकर या बोलकर व्यक्त करते हैं तो कल वह समाज के हिस्सा बन ही जाता है। हमारे सामने भी ऐसा हो सकता है और हमारे बाद भी। काम कहने वाले और करने वाले दोनों मिट जाते हैं पर जो उनके शब्द होते हैं वह आगे चलते जाते हैं।

अक्सर लोग कहते हैं कि लिखे से समाज नहीं बदलता पर शब्द चलते हैं और कोई उनको पढ़कर प्रभावित होता है तो उसके कर्म पर प्रभाव होता है। आज जो मैं लिख रहा हूं वह किसी के शब्दों की प्रेरणा ही हैं न! किसी ने मुझे अभिव्यक्ति का पता दिया था लिखकर। वह मुझे कहां से कहां ले आया। यह तो एक शब्द हैं बहुत सारे शब्द हैं जिनको लेकर मैं आगे बढ़ा। मेरे लिखे से समाज नहीं बदला पर मेरे में बदलाव तो आया न! मैं अगर यहां लिख रहा हूं तो कोई जगह जहां से हट रहा हूं। अपने मनोरंजन के लिये टीवी या अखबार से परे होना पड़ता है। कहीं जाकर फालतू समय नष्ट करने से अच्छा मुझे लिखना लगता है।

निष्कर्ष यह है कि हिंदी में ब्लाग के पाठक और लेखक आज नहीं तो कल बढ़ेंगे ही। मैने एक चार वर्ष से अधिक पुराना ब्लाग देखा था उसमें उसका लेखक निराशा में था और हिंदी में ब्लाग लेखन की प्रगति से नाखुश था। आज हम देखें तो उसके मुकाबले स्थिति बहुत ठीक है। दरअसल लोग ऊबे हुए हैं और वर्तमान में उनकी अभिव्यक्ति का अपना कोई अधिक सशक्त साधन नहीं हैं, जो हैं उनसे वह संतुष्ट नहीं है। एक बात और है कि जो भी संचार और प्रचार माध्यम है वह चल तो हमारे पैसे से ही रहे हैं कोई अपनी जेब से नहीं चला रहा। हम उनका अप्रत्यक्ष भुगतान करते हैं पर उसका पता नहीं लगता यहां पर प्रत्यक्ष भुगतान कर रहे हैं उसको लेकर हम परेशान होते हें क्योंकि वह दिखता है। मै छह सौ रुपये का इंटरनेट का भुगतान करता हूं यह मानकर कि यह डिस्क कनेक्शन है जिसका डबल भुगतान करना है। लिखना तो मेरे लिये एक साधन है जिससे मुझे जीवन में ऊर्जा मिलती है।
जब मेरा यह सोच है तो ऐसा सोचने वाले और भी होंगे। यह अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने और पढ़ने का सिलसिला इसलिये भी चलता रहेगा क्योंकि लिखने वाले इसका भुगतान करेंगे और जो इनका चला रहे हैं वह इसे बंद नहंी करेंगे। अन्य प्रचार माध्यम जरूर विज्ञापन न मिलने पर संकट में आ सकते हैं। जिस तरह ब्लाग लोगों की अभिव्यक्ति का साधन बन रहा है उससे तो ऐसा लगता है कि लोग अन्य जगह से हटकर इधर आयेंगे और यह एक सशक्त माध्यम बनेगा। ऐसे में जो प्रबंधन कौशल में माहिर होंगे वह आय भी अर्जित करेंगे और कुछ लोग इसका उपभोक्ता की तरह इस्तेमाल कर इसे प्राणवायु देते रहेंगे। आखिर दूसरे संचार और प्रचार माध्यमों में भी तो ऐसा ही हो रहा है। कोई खर्च कर रहा है और कोई कमा रहा है। मोबाइल पर फालतू बातें कर खर्च करने वाले क्या कम हैं? ऐसे में लिखने वाले भी ऐसा ही करेंगे। मेरा मानना है कि आगे संचार और प्रचार माध्यमों को इससे चुनौती मिलने वाली है और इसके कितना समय लगेगा यह कहना कठिन है पर अधिक नहीं लगेगा ऐसा मेरा अनुमान है। एक दृष्टा की तरह ही मैं इस खेल को देख रहा हूं। अभी हाल ही में कृतिदेव का यूनिकोड में परिवर्तित टूल मिलने के बाद तो मैने हास्य कविता लिखना कम ही कर दिया क्योंकि वह अधिक लिखना मुश्किल होने से ही लिखता था। हालांकि मुझे लगता है कि उन हास्य कवितओं के पाठक बहुत हैं और मुझे फिर लिखना शुरू करना पड़ेगा।

Sunday, April 6, 2008

साहब होने के सपने देखते और गुलाम बन जाते-हिन्दी क्षणिकाएँ

साहब जैसी जिंदगी जीने का
सपना लिये निकलते हैं सब
किताबें-दर-किताबें पढ़ते जाते
अपना पसीना बहाते हुए
कागजों के ढेर के ढेर रंगते जाते
फिर नौकरी पाने की कतार में
बड़ी उम्मीद के साथ खडे हो जाते
पता ही नहीं चलता गुलाम बन जाते कब
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साहब क्या जाने गुलाम का दर्द
उनको मालुम रहते अपने हक
याद नहीं रहते फर्ज
उनका किया सब जायज
क्योंकि एक ढूंढो हजार लोग
गुलामी के लिये मिल जातें
साहब बनने की दौड़ में
भला कितने दौड़ पाते
साहब तो टपकते हैं आकाश से
क्या जानेंगे धरती के गुलामों का दर्द
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Wednesday, April 2, 2008

चिड़िया का घरौंदा-हिन्दी शायरी

तिनका-तिनका मूंह में दबाकर
मेरे कमरे में ला रही है
चिडिया अपना घरौंदा बनाने के लिये
कभी पंखे पर रखती है
कभी रोशनदान पर ही रख देती
पंखा चलाने पर
बिखर जाता है घरौंदा
फिर ले आती है तिनके
कहीं दूसरी जगह घरौंदा बनाने के लिये

कई बार चिडिया पंखे से
टकराकर कर गिर जाती है
जिनको बचा सकता हूं
बचाने की कोशिश करता हूं
उसका संघर्ष विचलित किये रहता है कि
कहीं मेरी गलती से
बिखर न जाये उसका घरौंदा
कई बार उसके घरौंदे
उठाकर दूसरी
सुरक्षित जगह पहुंचा देता हूं
पर वह तैयार नहीं होती इसके लिये
हमेशा चुनती है वही जगह
जो मेरी दृष्टि में उसके लिये असुरक्षित हैं
पर मैं नहीं समझा पाता उसे
वह तो चलती है
अपने पथ पर अपने इरादे लिये
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