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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, February 23, 2010

भ्रष्टाचार से लड़ाई-हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें (fight against curruption-hindi satire poem)

भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़ने को सभी तैयार हैं
पर उसके रहने की जगह तो कोई बताये,
पैसा देखकर
सभी की आंख बंद हो जाती है
चाहे जिस तरह घर में आये।
हर कोई उसे ईमानदारी से प्यार जताये।
----------
सभी को दुनियां में
भ्रष्ट लोग नज़र आते हैं,
अपने अंदर झांकने से
सभी ईमानदार घबड़ाते हैं।
भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस है
जिसे सभी गाली दे जाते हैं।

सुसज्जित बैठक कक्षों में
जमाने को चलाने वाले
भ्रष्टाचार पर फब्तियां कसते हुए
ईमानदारी पर खूब बहस करते है,
पर अपने गिरेबों में झांकने से सभी बचते हैं।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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Saturday, February 20, 2010

लफ्ज़ बोलकर निभाया-हिन्दी व्यंग्य कविता (lafza bolkar nibhaya-hindi satire poem)

अपने शरीर से निकले पसीने पर भी
कभी तरस नहीं आया,
परिश्रम से हर रिश्ता निभाया।

पांव में लगी कीलें अनेक बार
हाथों मे रस्सियों ने छोड़े निशान
दर्द बांटा अपनों और परायों से
पर अपनी हर जंग में खुद को अकेला पाया।

दोस्तों के विश्वास पर खरे उतरे
पर अपना यकीन उन पर नहीं जताया।
मांगा किसी से कुछ नहीं
कुछ देते वक्त नजरों को छिपाया।

दुनियां का सबसे बड़ा हमदर्द
होने का दावा फिर भी नहीं करते
क्योंकि कभी उसे व्यापार नहीं बनाया।

सीखा है अनुभव से
गरीबों और बेसहारों की विषय वस्तु पर
लिखने और बोलने वाले बहुत हैं
पर हमदर्दी का शऊर उनको न आया,
मदद के लिये उनके हाथ बढे नहीं किसी के लिये
बस जुबां से लफ्ज बोलकर निभाया।

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Tuesday, February 16, 2010

खरीद कर बाजार से सपने-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (parchase of dream-hinci comic poem)

प्लास्टिक की तलवारों से

प्रायोजित जंग को देखकर

कभी असली होने का वहम मत करना।

चाहे  किसी योद्धा के पेट में  

बंधी थैली से

खून बहता दिखे,

उसके असली होने पर

कोई कितने भी शब्द लिखे,

पर्दे पर दिखें या सड़क पर सजें

अफसानों को हकीकत समझ कर

कभी नहीं डरना।

---------

अपने इरादों पर

चले ज़माना तो अफसोस क्यों करते।

यहां तो खरीद कर बाजार से सपने

लोग उसी पर  ही मरते,

उधार पर लेकर दूसरे के ख्याल को

अपनी सोच बनाकर चले रहे सभी

अपनी अक्ल को तोलने में डरते।


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Monday, February 15, 2010

आधी हमदर्दी-हिन्दी हास्य कविता (hamdardi-hindi hasya kavita)

एक आदमी  ने रुंआसा होकर

अपने दोस्त को बताया

‘यार, लुटा हुआ महसूस कर रहा हूं

जब से वह फिल्म देखकर आया,

बहुत शोर मचा था

मैं भी उसके जाल में फंसा था

नायक ने ऐसा वैसा कोई  दिया था बयान,

विरोधियों ने अपने तीर लिये तान,

पता नहीं फिल्म कैसे बीच में आ गयी

मुफ्त में प्रचार पा गयी

दो सौ रुपया खर्च कर

खराब फिल्म देखकर आया

पूरी फिल्म देखी पर समझ में कुछ नहीं आया।’



दोस्त ने रुमाल जेब से निकाला

उसके आंसु पोंछते हुए बोला

‘ले सौ रुपये रख ले,

दर्द कम करने के लिये

आधी हमदर्दी चख ले,

मगर इसे दोस्ती का अहसान मत समझना,

इसे मदद मानने की गलती मत करना,

सौदागरों, समाज सेवकों और प्रचारकों के

इस मेल से मैं भी भ्रमित हो गया था,

क्योंकि यह चक्कर एकदम नया था,

तुमने फिल्म की कहानी बताकर

मेरी आंखें खोल दी,

अब वहां मेरा जाना नहीं होगा

जो तुमने खराब फिल्म बोल दी,

इसलिये तुम्हारे बयान पर

आधा खर्च बांटने का विचार मेरे मन में आया।’

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Saturday, February 13, 2010

श्लीलता और अश्लीलता का भेद-हिन्दी हास्य कविता (hindi hasya kavita on fasion)

समाज के ठेकेदार से

उसके दोस्त ने पूछा

‘यार, तुम वैलंटाईन डे पर

प्यार की आजादी की जंग लड़ते हो,

जो आधा शरीर ढके वस्त्र पहने

उनके साथ देने का दंभ भरते हो,

क्यों नहीं वस्त्रहीन घूमने पर लगी

रोक ही खत्म करवा देते,

श्लीलता और अश्लीलता का भेद मिटा लेते।’



प्रश्न सुनकर समाज का ठेकेदार

घबड़ा गया और बोला

‘क्या बकवास करते हो,

अर्द्ध नग्न और वस्त्रहीन में

फर्क नहीं समझते हो,

अरे, मूर्ख मित्र

अगर वस्त्रहीन घूमने की

छूट लोगों को मिल गयी,

तो समझो अपनी ठेकेदारी हिल गयी,

बना रहे यह भेद अच्छा है

जहां तक हम कहें वहीं तक

रह पाती है श्लीलता,

विरोधी को निपटाने में

बहाना बनती है उसकी  अश्लीलता.

इसलिये वस्त्रहीन घूमने की

लोगों को छूट नहीं दिलवाते

मौका पड़ते ही बयानों में अपना नाम लिखवाते

फिर किसकी आजादी के लिये लड़ेंगे

वस्त्रहीनों से तो सर्वशक्तिमान भी डरता है

फिर वह क्यों किसी से डरेंगे।

जब तक वस्त्र छिन जाने का डर है

तभी तक ही तो लोग हमारा आसरा लेते।

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Wednesday, February 10, 2010

बड़े लोगों की बेहतर बातों पर चिंतन-हिन्दी लेख (behtar baton par chintan

प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार कृष्णा सोबती और और नाटककार बादल सरकार ने पद्मविभूषण की उपाधि लेने से इंकार कर दिया है।  उनके द्वारा यह सम्मान न लेने का कारण चाहे जो भी हो पर सच यह है कि ऐसे रचनाकार तथा कलाकार इतना सृजन कर चुके  होते हैं कि कोई भी सम्मान या पुरस्कार उनके सामने छोटा होता है।  वैसे हमारे यहां चाहे निजी क्षेत्र के हों या सार्वजनिक क्षेत्र के सम्मान अब धीरे धीरे अपना महत्व खोते जा रहे हैं।  इसका कारण यह है कि अगली पीढ़ी को साहित्य सृजन, कला, संगीत तथा समाज सेवा के लिये प्रेरित करने का उद्देश्य इनसे अब पूरा नहीं किया जाता बल्कि इसके पीछे आत्मप्रचार का भाव अधिक रहता है।
दरअसल यह सम्मान ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिये जिन्होंने अपने क्षेत्र में वास्तविक रूप से असाधारण कार्य किया और वह उस पुरस्कार से बड़े हों जो दिया जा रहा है ताकि लोग यह समझ सकें कि राज्य, समाज, आर्थिक तथा इतिहास सामाजिक महत्व के लिये कार्यों को सराहता है।  सीधी भाषा में कहें तो किसी असाधारण व्यक्त्तिव को प्रभावित या प्रसन्न करने की बजाय उससे अगली पीढ़ी प्रेरणा ले, यही पुरस्कार या सम्मान प्रदान करने का  उद्देश्य होना चाहिये।  जबकि ऐसा हो नहीं रहा है।  इसके बावजूद जो लोग साहित्य सृजन, कला, संगीत-फिल्मी संगीत नहीं जी-तथा समाज सेवा कर रहे हैं उनकी प्रशंसा की जाना चाहिऐ।  उस पर  ऐसे पुरस्कारों को उनके द्वारा नकारा जाना उनके असाधारण होने का ही प्रमाण है।
प्रोफेसर यशपाल भी ऐसे महानुभावों में हैं जिनका हर वाक्य दिल को छू लेता है।  विज्ञान में महारथ हासिल करने वाले प्रोफेसर यशपाल का मानना है कि तकनीकी शिक्षा पर इतना जोर भी नहीं दिया जाना चाहिये कि  लोग साहित्य, कला या संगीत से परे हो जायें।  उनका यह मानना है कि शैक्षणिक स्थानों पर रैगिंग की प्रवृत्ति इसलिये बढ़ रही है कि लोग रचनात्मक प्रवृत्ति से दूर है।
यह एकदम सच बात है कि हमने अध्यात्मिक साहित्यक विषय  को बड़ी उम्र में अपनाने योग्य मानकर अपने समाज का सत्यानाश किया है।  जब रैगिंग की हृदय विदारक घटनायें सामने आती हैं तब मन में क्रोध भर जाता है।  हम हर क्षेत्र में धर्म की बात लेने के विरुद्ध हैं पर जब रैगिंग की बात आती है तो उसे धर्म विरोधी कहने में संकोच क्यों कर जाते हैं? क्या लगता है कि इससे समाज के युवा वर्ग में हमारी छबि खराब होगी।  इस मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को रोकने के लिये हम धर्म को अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग में लाने के विरुद्ध नहीं है।  नये लड़के लड़कियों को स्पष्ट रूप से यह बात अपने वरिष्ठ साथियों के समक्ष कह देना चाहिये कि रैगिंग के नाम पर उनकी छोटी से छोटी बात भी नहीं मानेंगे क्योंकि वह उनके धर्म के विरुद्ध है भले ही रैगिंग करने वाले उनके सहधर्मी हों। वरिष्ठ छात्र भले ही दावा करें कि वह भी उसी धर्म की बात मानते हैं तो उनको बता देना चाहिये कि वह इस मामले में कच्चे हैं।  हो सके तो अपने गले में गेरुए रंग का साफा डाले लें। उस पर कोई धार्मिक चिन्ह लगा लें या फिर माथे पर तिलक लगाकर तब तक उस शैक्षणिक संस्था में रहें जब तक पुराने छात्रों की श्रेणी में न आ  जायें। कहने का आशय यह है कि अपने व्यक्तित्व के तेजस्वी या दूसरे शब्दों में कहें कि  आक्रामक होने की अनुभूति करायें।  वैसे भी  गेरुए रंग कसे वी होने का प्रमाण माना जाता है।
दूसरी बात जो माता पिता हैं वह अपने बच्चों को अध्यात्मिक शिक्षा से परे न रखें क्योंकि उससे जो आत्मविश्वास आता है वह देखने लायक होता हे।
दरअसल जन्मदिन और पुण्यतिथियां मनाने के साथ ही रैंगिंग जैसी प्रथा भी इस देश में आयी है। जिस तरह अनेक युवक युवतियों ने अपने प्राण इसमें गंवायें हैं उससे बचने का उपाय करना ही होगा।  यह प्रथा तो पशु प्रवृत्ति का प्रमाण है।  जिस तरह कोई श्वान दूसरे मोहल्ले में पहुंचता है तो उसे दूसरे श्वान भौंकने लगते हैं।   कभी कोई सुअर आ जाता है तो कुत्ते उस पर भी हमला करने लगते हैं। इसमें जब कोई पशु पलटकर कुतों की तरफ देखता है तो वह वहीं खड़े रह जाते हैं। 
एक बार इस लेखक ने अपनी आंखों से  देखा कि एक कुत्ता बिल्ली के पीछे दौड़ा। बिल्ली भागते एक ऐसी जगह पहुंच गयी जहां दीवार थी पर निकल नहीं सकती थी। वह पलटकर कुत्ते की तरफ देखने लगी। कुत्ता वही स्तब्ध होकर उसे देखकर भौंकता रहा पर हमला नहीं कर सका।  तब वह पलटकर दूसरी तरफ से भागी। कुत्ता फिर उसके पीछे भागा। ऐसा तीन बार हुआ और अंततः बिल्ली अपनी जान बचाने में सफल रही।  जिन युवक युवतियों में थोड़ा बहुत भी अध्यात्मिक ज्ञान है वह दृढ़ता पूर्वक रहें तो उनको कोई  झुका नहीं  सकता।  वह स्पष्ट रूप से अपने धर्म का यह संदेश सभी जगह दोहरायें कि वह अपने माता, पिता और गुरु के अलावा किसी अन्य का आदेशा मानना धर्म विरोधी समझते हैं।  इसके लिये यह जरूरी है कि उनके पास अपने देश का अध्यात्मिक ज्ञान हो । जब दीवार से कोई चिपका दे तो अपने दिमाग को खोलना ही पड़ता है। अरे, एक बिल्ली कुत्ते तक को हड़का देती है तो फिर मनुष्य का बच्चा क्या नहीं  कर सकता?
 इसके लिये यह जरूरी है कि अपनी तकनीकी और उच्च शिक्षा की पुस्तकों के साथ अपने अध्यात्मिक साहित्यक ज्ञान का भी अध्ययन करना चाहिये। उसमें केवल भक्ति करने का तरीका ही नहीं  जीवन संघर्षों में विजय प्राप्त करने का भी तरीका बताया जाता है। धर्मांध नहीं होना चाहिये पर आत्मरक्षा में अगर सहायता मिले तो दृढ़ धर्मज्ञ दिखने का प्रयास तो करना ही चाहिये। अलबत्ता प्रोफेसर ने अध्यात्मिक ज्ञान होने की बात नहीं कही वह तो हमने अपनी तरफ से जोड़ी है। 


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Thursday, February 4, 2010

हाकी के नये दर्शक अवतार-हिन्दी लेख (world cup hoicky tournament)

लगभग मृतप्रायः हो चुकी भारतीय हाकी को उबारने के लिये बल्ला और गेंद से खेलकर महान बन चुके भगवान अब दर्शक के रूप में अवतरित हो रहे हैं।
‘हमारे देश में हाकी         का विश्व कप हो रहा है, क्या उसे हम नहीं देखेंगे?’
‘मैं  अब खेलूगा नहीं बल्कि दर्शकों की तरह हाकी के मैच देखूंगा!’
‘अपने देश के हाकी खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ायें।’
इस तरह के नारे उस क्रिकेट खेल के खिलाड़ी दे रहे हैं जिसने राष्ट्रीय खेल कही जाने वाली हाॅकी को लगभग मृत स्थिति में पहुंचा दिया। अगर एतिहासिक उपलब्धियों की बात की जाये तो हाकी में भारत का खाता आज भी चमकदार है क्योंकि  ओलंपिक और विश्व कप उसके नाम पर दर्ज हैं जबकि क्रिकेट में केवल एक विश्व कप दर्ज है वह भी 1983 में मिला था।  उसके बाद भले ही बल्ले और बाल से खेलने  वाले धन कमाते रहे पर इस खाते में 2007 में एक बीस ओवरीय विश्व कप के अलावा कुछ अधिक नहीं जुड़ा।  हो सकता है कि देश के युवा क्रिकेट प्रेमी परीक्षण मैच-पांच दिवसीय, पचास ओवरीय तथा बीस ओवरीय-देखकर भले ही बहल जाते हों और खिलाड़ियों के विज्ञापनों से मिलने वाले प्रचार के साथ पैसे मिलने को देखकर युवा खेल प्रशंसिकायें उनकी दीवानी हो जाती हों पर सच यही है कि श्रेष्ठता के लिये वास्तविक पैमाना वैश्विक स्तर की प्रतियोगिताओं से ही प्रमाणित होता है।
हो सकता है कि अनेक युवा खेल   प्रशंसकों में कई ऐसे भी हों जिनको हाकी शब्द ही समझ में न आये।  कई युवाओं को यह खेल नया ईजाद किया हुआ भी लगा सकता है-क्योंकि उनकी स्मृति में हाकी का स्वर्णिम समय नहीं होगा। कुछ लोगो को यह भ्रम भी हो सकता है कि यही खिलाड़ी किकेट में तो अपनी टीम नहीं उबार सके पर शायद अब राष्ट्रीय खेल हाकी में कुछ जरूर कर दिखायेंगे।  देश की हाकी को इन दर्शक अवतारों के सहारे तारने की कोशिश हो रही है या उसके विश्व कप से जुड़ी विज्ञापन कंपनियों के लिये दर्शक जुटाने का यह प्रयास है, यह कहना कठिन है। 
पुराणों में कथा आती है कि जब जब प्रथ्वी पर संकट आता है तब वह सर्वशक्तिमान की दरबार में हाजिरी लगाकर अपना बोझ हल्का करने का आग्रह करती है और वह अवतार लेकर उसका उद्धार करते हैं। प्रथ्वी की सांसें शेष होती हैं इसलिये वह चलकर सर्वशक्तिमान के दरबार पहुंचती है।  यहां प्राणविहीन हाॅकी से यह आशा करना बेकार है कि उसने क्रिकेट के इन विज्ञापन  अवतारों के  ‘सजावट कक्ष’ में-अंग्रेजी में बोलें तो ड्रैसिंग रूम-में हाजिरी लगाई होगी।
मृतप्रायः हाकी समझकर कुछ लोग शायद समझें नहीं इसलिये यह बताना जरूरी है कि अगर यह विश्व कप भारत में नहीं हो रहा होता तो भारतीय टीम इसमें नहीं खेल सकती थी क्योंकि वह क्वालीफाइग दौर में बाहर हो चुकी थी-यानि इसमें भाग लेने का अवसर योग्यता के कारण नहीं बल्कि इसके आयोजन पर पैसा खर्च करने के कारण मिल रहा है। दूसरी भाषा में इसे कृपांक से पास होना भी कह सकते हैं-अपने यहां ऐसा भी होता है कि किसी कारण वश कहीं परीक्षा नहीं हो पाती तो सामूहिक रूप से विद्यार्थियों को पास कर दिया जाता है-यह भी इसी तरह का ही है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय हाकी टीम की यह दुर्दशा केवल एक दिन में हुई है। बरसों से हाकी के प्रेमी और शुभचिंतक आर्त भाव से इसके कर्णधारों की तरफ देखते रहे, कुछ लोगों ने अपनी भावनायें अखबारों में भी व्यक्त की। हाॅकी के उद्धार करने के लिये कई महापुरुष प्रकट भी होते रहे पर नतीजा ढाक के तीन पात!

हाकी का विश्वकप कप होने की घोषणा भी कोई दो चार दिन पहले नहीं  हुई। चार साल पहले पता था-पर यह नहीं पता कि इसे जीतने के लिये क्या योजना बनी है? उल्टे कुछ दिन पहले खिलाड़ियों द्वारा वेतन तथा सुविधाऐं न मिलने की शिकायत करते हुए हड़ताल कर दी।  बड़ी हायतौबा मची।  इस देश में शिखर पर अभी भी सज्जन लोग हैं और वह भारतीय हाकी की मदद के लिये आगे भी आये।  अब यह मामला थम गया है पर भारतीय टीम किस स्थिति में है पता नहीं।
बाकी देशों का पता नहीं पर हमारे देश में अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताऐं केवल अपनी वैश्विक छबि बनाने के लिये आयोजित किये जाते हैं।  खेल तो जाये भाड़ में बस विश्व में सभ्य देश माना जाना चाहिये!  इस छबि का लाभ जिसे मिल सकता है वही उठा सकता है। जहां तक खिलाड़ियों का सवाल है तो जिसमें अपना दमखम हो खेल ले-अगर क्रिकेट के अलावा कोई अन्य खेल खेलता है तो अपने दम पर रोटी कमाये।  या फिर जिसे प्रचार चाहिये वह किसी भी अन्य खेल में आये और शिखर पुरुषों की जीहुजूरी कर टीम में स्थान बनाकर प्रचार प्राप्त करे-मतलब जिसे आत्मविज्ञापन की जरूरत हो वही दूसरा खेल खेले।  वैसे आजकल सभी प्रकार की खेल प्रतियोगितायें कंपनियों द्वारा ही प्रायोजित किये जाते हैं जिनको अपने विज्ञापन से मतलब होता है-आशय यह है कि हाकी खेल से अधिक कंपनियों के विज्ञापन महत्वपूर्ण है उसके लिये जरूरी है अधिक से अधिक लोग इसके मैचों को देखें।
अगले कुछ दिनों में हम देखेंगे कि अनेक ‘विज्ञापन नायक नायिकायें-फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियां और क्रिकेट के खिलाड़ी-हाकी के लिये अपने आपको विशिष्ट दर्शक के रूप में प्रस्तुत करते नज़र आयेंगे।  अब यह कहना कठिन है कि वह इन विज्ञापनों के लिये प्रत्यक्ष धन ले रहे हैं या ‘पुराने ग्राहकों’ के लिये उपहार स्वरूप अभिनय कर रहे हैं-अपने यहां पुराने व्यवसायिक संबंधो के आधार पर रियायत करने की पंरपरा है। अनेक बार दिवाली के अवसर पर अनेक चीजें बड़े व्यापारी छोटे व्यापारियों और ग्राहकों उपहार स्वरूप देते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हाकी के विश्व कप को आकर्षण प्रदान करने के लिये प्रयास हो रहे हैं जिसका खेल से कोई अधिक संबंध नहीं दिखता।
जो हाॅकी के खेल को जानते हैं उनको पता है कि अपनी टीम का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने की बात कहकर केवल विज्ञापनों के लिये दर्शक जुटाना भर है।  आखिर हाकी की विश्व कप प्रतियोगिता के लिये प्रायोजक तैयार कैसे हुए? जबकि उनके पास क्रिकेट और टेनिस जैसे भी खेल हैं जहां उनके विज्ञापन देखने वाले दर्शक पहले से ही अधिक होते हैं, तब हाकी की तरफ उनका ध्यान क्यों गया? शायद वह यह सोचकर ही शामिल हुईं होंगी कि इस देश से खेलों के नाम पर बहुत कमाया है चलो ‘हाकी’ के माध्यम से दर्शकों  को थोड़ा उपहार दे दो।  अब यह देखने वाली बात होगी कि भारत में  आयोजित इस हाॅकी प्रतियोगिता को कितना जनसमर्थन मिलेगा? अब वह पहले वाली बात नहीं है कि हाकी का विश्व कहीं भी हो लोग उसका इंतजार ऐसे ही करते थे जैसे कि आजकल क्रिकेट का करते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, February 1, 2010

देश की अकल पर अंग्रेज ताला जड़ भी गये-हिन्दी व्यंग्य कविता (desh aur akal-hindi vyangya kavita)

एक बार कोई नारा लगाकर

शिखर पर चढ़ गये

ऐसे इंसान बुत की तरह

पत्थर में तस्वीर बनकर जड़ गये।

नीचे गिरने का खौफ उनको

हमेशा सताता है,

बचने के लिये

बस, वही नारा लगाना आता है,

दशकों तक वह खड़े रहेंगे,

उनके बाद उनके वंशज भी

उसी राह पर चलेंगे,

करते हैं अक्लमंद भी हर बार

उनकी चर्चा,

क्योंकि नहीं होता अक्ल का खर्चा,

करोड़ों शब्द स्याही से

कागज पर सजाये गये,

पर्द पर भी हर बार नये दृश्य रचाये गये,

कहें दीपक बापू

जमाने भर में कई विषयों पर

चल रही बहस खत्म नहीं होगी,

नारे पर न चलें तो कहलायें विरक्त योगी,

चले तो खुद को ही लगें रोगी,

भारत छोड़ते छोड़ते अंग्रेजों ने

कुछ इंसान बुतों के रूप में छोड़े,

जिन्होंने अपनी जिंदगी में बस नारे जोड़े,

तो अकलमंदों की भी चिंतन क्षमता हर गये

इसलिये देश खड़ा है

बरसों से पुराने मुद्दों पर अटका

अपने ही आदर्श से भटका

सच कहते हैं ज्ञानी

देश की अकल  पर अंग्रेज  ताला भी जड़ गये।

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