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Monday, May 20, 2013

विशेष रविवारीय लेख-क्रिकेट मैचों पर सट्टा लगाने वाले लोग मासूम नहीं special sandey article-cricket matchon par satta lagane wale log masoom nahin



         कभी भारतीय जनमानस के नायक रहे श्रीसंत ने अपने आचरण ने स्वयं को खलनायक के पद पर प्रतिष्ठत कर लिया है।  लोगों की याद्दाश्त कमजोर होती है पर लेखकों को अपने दिमाग में अनेक यादें संजोकर  रखनी पड़ती हैं ताकि कभी उनका उपयोग किया जा सके।  2009 में बीसीसीआई की क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड में बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीती थी। फाइनल में श्रीसंत ने पाकिस्तान के आखिरी खिलाड़ी मिसबा उल हक की चार रन के लिये उड़ती जा रही गेंद लपककर मैच जितवा दिया था। गेंद अगर बाहर जाती तो पाकिस्तान जीत जाता।  उस समय तक क्रिकेट मैचों का बीस ओवरीय प्रारूप भारत में लोकप्रिय नहीं था। इतना ही नहीं भारत में क्रिकेट खेल की प्रतिष्ठा भी कम होती जा रही थी।  उस कैच ने न केवल बीस ओवरीय प्रारूप को भारत में लोकप्रिय बनाया वरन् क्रिकेट खेल की प्रतिष्ठा भी वापस दिलवाई।  हमारे यहंा लोकप्रियता का पैमाना लोगों की आंखों में सम्मान से कम उनके खर्च करने वाले पैसों के आधार पर तय की जाती है।  फिल्म का नायक ज्यादा पैसा लेता तो वह नंबर वन होता है।  खिलाड़ी की  लोकप्रियता इस आधार पर तय होती है कि उसे प्रदर्शन पर  पैसा कितना मिलता है?  खेल की लोकप्रियता इस आधार पर तय होती है कि उस दाव कितना लोग लगाते हैं!
        बहरहाल श्रीसंत चेहरे से जहां सुंदर थे वहीं उनकी गेंदबाजी भी गजब की थी।  पता नहीं लोकप्रियता का मतलब उनकी नज़र मे क्या था?  उन्हें पता ही नहंी भारतीय जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा कितनी थी?  अगर इसका विचार होता तो वह कभी उन आरोपों के शिकार नहीं होते जो उन पर लगे हैं।  श्रीसंत का खेल निरंतर गिरता जा रहा था।  फिर वह अनेक बार जब बीसीसीआई की टीम में नहीं दिखते तो हैरानी होती थी। कहा जाता था कि उनको चोटें परेशान कर रही हैं!  उनके प्रशंसकों  को लगता था कि उनके साथ अन्याय हो रहा है।  यह अब पता चला है कि वह अपनी प्रतिष्ठा का नकदीकरण करने लग गये थे। क्रिकेट में पाने के लिये अब उनके पास कुछ नहीं था!  विश्व कप जीतने वाले खिलाड़ी के लिये बाकी सारे मैच छोटे हो जाते हैं।  श्रीसंत निरंतर अच्छा खेलते तो उनके लिये कोई उपलब्धि विश्व कप से बड़ी नहीं होती।  शायद यही कारण है कि उनके लिये अब धन अधिक महत्वपूर्ण हो गया होगा।   पार्टियों में सुंदरियों के साथ नाचते हुए उनके फोटो इस बात का प्रमाण है कि उनका लक्ष्य केवल अपनी  विश्व कप विजेता की छवि भुनाना भर था।  सच बात तो यह है कि एक खिलाड़ी के रूप में अब उनके सामने अपने अस्तित्व का संकट है पर उनके प्रशंसकों के लिये तो दिल टूटने वाली स्थिति है। बीस ओवरीय प्रतियोगिता के फायनल में मिसबा उल हक का कैच लेकर उन्होंने जो प्रतिष्ठा कमाई थी वह इस तरह मिट्टी में मिल जायेगी यह कल्पना कौन कर सकता था?
           क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग होती है यह चर्चा आम रही है।  लोग कह रहे हैं कि श्रीसंत की वजह से क्रिकेट कलंकित हुई है तो थोड़ा आश्चर्यजनक भी लगता है।  जो लोग इस पर सट्टा लगाकर अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं उनके बारे में भी तो कुछ कहना ही चाहिये।  ऐसा दिखाया जा रहा है कि सट्टा लगाने वाले आम लोग कोई मासूम हों! हैरानी होती है यह सब सुनकर! एक नहीं दस बार यही प्रचार माध्यम कह चुके हैं कि वहां फिक्सिंग वगैरह होती है।  इसके बावजूद क्या लोगों की अक्ल मारी गयी है? कहा जाता है कि भारत में क्रिकेट एक धर्म की तरह है! यह केवल कोरी बकवास है। हमने बरसों से क्रिकेट देखी है। बीसीसीआई को टीम से कभी बहुत लगाव रहा पर अब पता लगा कि वह तो एक निजी संस्था है।  फिर भी अनेक बार समय मिलने पर क्रिकेट मैच देखते हैं। किसी खिलाड़ी के प्रति लगाव होता है तो उसकी सफलता पर खुश होते हैं।  किसी खिलाड़ी से लगाव नहीं है तो फिल्म की तरह देखते हैं।  सट्टा लगाकर स्वयं खिलाड़ी बनेंगे तो फिर खेल का मजा क्या खाक लेंगे? सीधी बात कहें तो सट्टा लगाने वाले अपने लिये खेलते हैं।  वह दर्शक नहीं खिलाड़ी होते हैं। एक खिलाड़ी जब स्वयं खेलता है तो वह दूसरे का खेल नहीं देख पाता। खेल देखने के लिये दर्शक बनकर बैठना जरूरी है।  शायद क्रिकेट में बढ़ता सट्टा ही उसे धर्म के नाम से पुकारने के लिये प्रचार माध्यमों को मजबूर कर रहा है।  जैसे हर धर्म में कर्मकांड होता है वैसे ही क्रिकेट धर्म का कर्मकांड शायद मैच फिक्सिंग है।  क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में छक्के चौके पर नर्तकिंया नृत्य करती हैं। नर्तकियों के भी दो झुंड होते हैं जो अपनी अपनी टीम की सफलता पर त्वरित नृत्य करती हैं।  हमने क्लब सुने हैं, बार सुने हैं जहां नर्तकिंया नृत्य कर आगंतुकों का मन बहलाती हैं पर उनकी स्थापना के लिये सरकारी लायसेंस जरूरी माना गया है।  क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं के नृत्य के लिये लायसेंस अनिवार्य नहीं है यह देखकर हैरानी होती है।
    अभी तो जांच एजेंसियों  ने मैच फिक्सिंग को लेकर कार्यवाही की है। कल को वह इस नृत्य कार्यक्रम के लिये लायसेंस न होने की बात कहकर भी कार्यवाही कर सकती है।  मगर ऐसा होगा नहीं क्योंकि क्रिकेट एक धर्म बनाकर प्रचारित किया जा रहा है। अगर उसमें नृत्य पर पुलिस कार्यवाही करती है तो कहा जायेगा कि सर्वशक्तिमान के अनेक रूप  के दरबार में भी तो नृत्य होते हैं तब वहां कार्यवाही क्यों नहीं करते? तय बात है कि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जायेगी।  देश का चालीस से पचास हजार करोड़ रुपये इस सट्टे की भेंट चढ़ता है।  ऐसे में मन में एक प्रश्न होता है कि क्या क्या गायों, भैंसों या बकरियों के पास पैसा है जो यह धन लगाती हैं। तय बात है कि मनुष्य ही सट्टा लगाते हैं।  जब क्रिकेट को धर्म बताने वाले प्रचार माध्यम ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में सट्टा और मैच फिक्सिंग की बात कहते रहे हैं तो क्या हमारे देश के मनुष्य जातीय समाज को यह बात समझ में नहीं आ रही।
संत कबीर दास जी कह गये है कि
सांई इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय
आप भी भूखा न रहूं, अतिथि भी भूखा न जाये।
       शायद उन्होंने यह याचना इसलिये की थी कि अधिक धन आने पर मति मारी जाती है।  जिनकी मति मारी जाती है वह मनुष्य पशु समान होता है।  तब क्रिकेट मैचों पर सट्टा लगाकर बरबाद होने वाले मनुष्य के हमदर्दी समाप्त हो जाती है।  बहरहाल हम क्रिकेट मैचों के साथ ही उन पर बाहर हो रही चर्चा देखकर यह सोचते हैं कि हम किसमें दिलचस्पी दिखायें। मैचों पर या बहस में!  इधर मैच चल रहा है तो उधर बहस चल रही है।  बार बार टीवी का चैनल बदलते हैं।  न इधर के रहते हैं न उधर के!  तब हमें एक ही मार्ग बेहतर लगता है कि स्वयं ही कुछ लिख डालेें। यह लेख उसी विचार का परिणाम है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Saturday, May 4, 2013

भारतीय योग संस्थान के शिविर में जाने पर कुछ सीखने को मिलता ही है-विशिष्ट रविवारीय हिन्दी लेख (bhartiya yoga sansthan ke shivir mein jane par kucch seekhne ko milta hee hai-special sanday hindi article,visheh ravivariya hindi lekh)



    
भारतीय योग संस्थान के विशेष शिविर का दृश्य
जब कभी भारतीय योग संस्थान के विशेष शिविरों में जाने का अवसर मिलता है तब हमें यह देखकर प्रसन्नता होती है कि वहां विद्वानों के विचार सुनकर कुछ न कुछ नया विचार मिलता है। दरअसल अगर यह कहें कि कोई नया विचार मिलता है तो स्वयं को अजीब लगता है क्योंकि उनके विचार हमारे दिमाग मेंकहीं न कहीं  हमेशा रहते हैं।  बस
, उनको सार्वजनिक रूप से कहने का अवसर नहीं मिलता या हम उनहें  ढूंढते नहीं है।  अपने ब्लॉग पर अक्सर हमने भारतीय योग विद्या के बारे में लिखा है।  उसके लाभों की चर्चा करते हुए हमने अनेक पाठ लिखे हैं।  इन शिविरों में जाने पर हर विचार हमें नया लगता ही है चाहे भले ही वह कभी हमारे अंतर्मन में स्थित होकर विचरता रहा हो।  एक तरह से कहें तो मस्तिष्क में चल रहा विचार जब पुष्ट होता है तो वह नवीन हो जाता है। दूसरी बात यह भी है कि  शब्दों तथा उनको व्यक्त करने की शैली भी उसे नया बना देती है।
          आज हमें अपने ही ग्वालियर शहर के भारतीय योग संस्थान के  दो दिवसीय शिविर में जाने का अवसर मिला।  हम उसमें नियमित रूप से तो शामिल होने में असमर्थ थे पर अपने शिविर के बाहरी साधकों से मिलकर उनको जानने की जिज्ञासा हमें कुछ देर के लिये वहां ले ही गयी।  ऐसे अवसरों पर स्वयं मौन रहकर बहुत सीखा जा सकता है।  सबसे पहले तो उन निष्काम प्रवृत्ति के विद्वानों की सराहना करने का मन करता है जो अपने अनुभव तथा विचार वहां व्यक्त कर रहे थे।  उनके विचार सुनने के साथ ही हम उनके हाव भाव के साथ ही शब्दों पर भी अपना ध्यान रखे हुए थे। 
         आमतौर से पेशेवर धार्मिक तथा योग शिक्षक कामना भाव के कारण पारंगत होकर श्रोताओं को प्रभावित करते हैं पर निष्काम भाव से भी लोगों को प्रभावित किया जा सकता है, यह बात भारतीय योग संस्थान को देखकर सीखी जा सकती है।  भारतीय योग विज्ञान का प्रचार करने की शपथ लेने वाले इन विद्वानों के चेहरे पर तेज टपकता है तो वाणी से निकले शब्द योगरस में नहाये लगते हैं।  वहां मौजूद योग साधकों पर भी दृष्टिपात किया।  भारतीय योग संस्थान में निष्कामी विद्वानों और हमारे बीच तब थोड़ा मार्ग अलग हो जाता है जब हम अपनी गीता ज्ञान की दृष्टि जमाकर विचार करते हैं।  हमारे हिसाब से योगी भी भक्त है जिनके भक्तों की तरह चार प्रकार  होते हैं-ज्ञानी, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा आर्ती।  भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हजारों में कोई एक मुझे भजेगा और उन हजारों में भी कोई मुझे एक पायेगा। फिर वह कहते हैं कि ज्ञानी मेरा ही रूप है और वही मुझे पाता है।  वहां एक विद्वान ने यह भी माना कि हमारा काम है लोगों को बताना। सभी अमल नहीं करेंगे पर कुछ तो उसका असर होगा। 
       वहां लोगों को दो घंटे का मौन रखकर तप करने के लिये कहा गया पर किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। हम तो देरी से पहुंचे थे। वहां लोगों से बात की पर उनके मौन तप के भंग में हमारा कोई योगदान नहीं है क्योंकि वह सभी तो पहले से वार्तालाप में लगे हुए थे। संभव है कुछ लोगों को वह शिविर बोर करने वाला लगे पर इतना तय है कि जिनके मन में योग को लेकर जिज्ञासायें वहां उनके निराकरण के पूरे अवसर हैं।
   अगर योग साधक की अपनी श्रेणी की बात करें तो हम अभी तक स्वयं को अर्थाथी श्रेणी का मानते हैं।  जहां तक प्रचारक के रूप में माने तो वह भी इसी श्रेणी में आता है। इस पर लिखने से हमारे मन की भूख शंात होती है।  यह हम अपने बारे में स्वयं मानते हैं इसका श्रेय श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन को जाता है जिसके प्रति हमारा निष्काम भाव है।  इन शिविरों में जिज्ञासु बनकर जाते हैं। योग साधना की शरण हमने आर्त भाव से ली थी।  जहां तक ज्ञानी का प्रश्न है उसका निर्णय तो हमारे जीवनकाल में तो होना ही नहीं है इसलिये चिंता छोड़ दी है।
         एक महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिलती है कि हम जिन विद्वानों को सुनते हैं ऐसा लगता है कि वह हमारे मन की बात कह रहे हैं।  अच्छा लगता इसलिये क्योंकि वह वही बात कह रहे हैं जो हम सुनना चाहते है।  ऐसे में वक्ता और श्रोता का अंतर हमारे अंदर नहीं रहता।  ऐसा लगता है कि हम अपने से ही बात कर रहे हैं। दूसरी बात यह भी लगती है कि निरंतर योग साधना करने वाले अगर किसी दूसरे की बात न भी सुने तो भी उनके अंदर वैसे ही विचार योग साधना करते हुए स्वतः  एक जैस  हो जायेंगे जो अन्य विद्वानों के हैं।  कोई भी  व्यक्ति नियमित योगाभ्यास से क्षेत्रज्ञ बन जाता है।  वह न केवल अपनी देह बल्कि प्रकृति और अंतरिक्ष की संरचना को भी समझ सकता है।  इसलिये नियमित योग साधकों और शिक्षकों के विचार एक ही मार्ग पर आ जाते हैं। 
      हमने अनेक बार लिखा है कि योग तो हर मनुष्य करता है।  अंतर इतना है कि आम मनुष्य चंचल मन, मुख और मस्तिष्क को इंद्रियों के वश में रखकर असहज योग के मार्ग पर चलता है जबकि योग साधक सहज योग की तरफ जाते हैं।  असहज योग के अनेक मार्ग है पर सहज योग का मार्ग एक ही है। कोई आगे चलते हुए किसी पड़ाव पर आया और उसने उस उस स्थान ं का ज्ञान प्राप्त किया। दूसरा पीछे है और जब वह उसी पड़ाव पर आयेगा तो वह भी वैसा ही ज्ञान प्राप्त करता है।  एक ही मार्ग होने के कारण  सहज योगियों के विचारों में साम्यता होती है जबकि असहज योगी अनेक मार्गों के कारण हमेशा ही संशय में पड़े होते हैं।  असहज योगी को पता ही नहीं कि उसकी देह के विकारों का जनक कौन है? इसके लिये वह अनेक तरह के परीक्षण करता फिरता है।  असहज योगियों के बीच बीमारियों की दवाओं और चिकित्सकों के ही चर्चे होते हैं। जबकि सहज योग प्रवृत्ति और निवृत्ति का मार्ग जानते हैं इसलिये पहले तो विकार पैदा होने ही नहीं देते और हो भी जायें तो उनको निकालना भी जानते हैं।
        आखिर में हमें  यह कहना है कि  कि एक विद्वान ने कहा कि हमें योग संस्थान के प्रचार करना चाहिये। भारतीय योग संस्थान की प्रशिक्षण शैली ऐसी है कि किसी साधक को योग साधन करते  देखकर ही पता चल जाता है कि उसने वहीं से सब सीखा है।  सभी को यह बताना चाहिये कि भारतीय योग संस्थान ही इस विषय में सबसे श्रेष्ठ संगठन है।  हमें यह सुनकर हैरानी हुई क्योंकि यह बात तो हमने अनेक पाठों में पहले ही लिखी है।  यही इस बात का प्रमाण है कि सहज योगियों के आपस में बिना मिले भी एक जैसे विचार हो जाते हैं।     

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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