समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, December 29, 2009

नववर्ष के दिन-हिन्दी शायरी (hindi shayri on new year first day)

एक वर्ष में दो बार उसके आने का स्वागत करते दिखेंगे।

पहले ईसवी फिर विक्रम संवत् पर जश्न मनते दिखेंगे।

बस एक दिन नयी सोच का वादा,

नये सपनों के साथ जीने का इरादा,

फिर पुरानी राह पर कदम बढ़ते दिखेंगे।

बाजार के सौदागर पुराने जज़्बातों को

रोज नया सजाकर दिखाते हैं,

एक दिन में सब हवा हो जाते हैं,

नये के साथ पुराने सामान भी बिकेंगे।

देर रात को सोकर दोपहर में उठने वाला

क्या जाने हर पल नया होता है,

जब करना है सुबह की बेला में ताज़गी का अहसास

उस समय वह नींद में सोता है

क्यों नहीं पुरानेपन से घबड़ाये लोग

नये वर्ष में ताजगी लेने के लिये

हुजूम में जुटेंगे,

दुःख से नहीं बल्कि खुशी से लुटेंगे,

बाजार के कलमकार भी

पुराने अहसासों को नये शब्दों में लिखेंगे।

पूरे वर्ष ताजगी और चैन की चाहत लिये लोग

एक दिन में पुराने होते दिखेंगे।



कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Tuesday, December 22, 2009

अध्यात्म और अर्थशास्त्र-हिन्दी लेख (hindu adhyatm and life's economics-hindi article)

आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन कर ही आर्थिक नीतियां बनायी जानी चाहिये। वैसे अर्थशास्त्र के अनुसार पागलों और सन्यासियों को छोड़कर सभी के क्रियाकलापों का ही अध्ययन किया जाता है । हालांकि इस बात का कहीं उल्लेख तो नहीं मिलता पर आधुनिक अर्थशास्त्र में संभवतः अध्यात्मिक ग्रंथों का उल्लेख नहीं किया जाता। अध्यात्म उस जीवात्मा का नाम है जो इस देह को धारण करती है और जब इस उसकी चेतना के साथ मनुष्य काम करता है तो उसकी गतिविधियां बहुत पवित्र हो जाती हैं जो अंततः उसकी तथा समाज की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करती है। इस देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार तीनों प्रकृतियां स्वाभाविक रूप से अपना काम करती हैं और मनुष्य को अपने अध्यात्म से अपरिचित रखती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र उससे अपरिचित लगता है।
वैसे ही आज के सारे अर्थशास्त्री केवल बाजार, उत्पादन तथा अन्य आर्थिक समीकरणों के अलावा अन्य किसी पर तथ्य पर विचार व्यक्त नहीं कर पाते। कम कम से प्रचार माध्यमों में चर्चा के लिये आने वाले अनेक अर्थशास्त्रियों की बातों से से तो ऐसा ही लगता है। कहीं शेयर बाजार, महंगाई या राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषय पर चर्चा होती है तो कथित रूप से अर्थशास्त्री सीमित वैचारिक आधार के साथ अपना विचार व्यक्त करते हैं जिसमें अध्यात्म तो दूर की बात अन्य विषयों से भी वह अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये कि अध्यात्मिक ज्ञान का कोई आर्थिक आधार नहीं है तो भी आज के अनेक अर्थशास्त्री अन्य राजनीतिक, प्रशासनिक तथा प्रबंधकीय तत्वों को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, तथा खाद्य सामग्री की कमी के पीछे जो बाजार को प्रभावित करने वाले नीतिगत, प्राकृतिक भौगोलिक विषयों के अलावा अन्य कारण है उनको नहीं दिखाई देते हैं।

हम यहां आधुनिक अर्थशास्त्र की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित उन प्राचीन अर्थशास्त्रीय सामग्रियों का संकलित करने का आग्रह कर रहे हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो नाम से ही प्रमाणिक है जबकि चाणक्य नीति में भी आर्थिक विषयों के साथ जीवन मूल्यों की ऐसी व्याख्या है जिससे उसे भी जीवन का अर्थशास्त्र ही कहा जाना चाहिये- आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार भी नैतिक शास्त्र का अध्ययन तो किया ही जाना चाहिये जिनको जीवन मूल्य शास्त्र भी कहा जाता है। आज की परिस्थतियों में यही नैतिक मूल्य अगर काम करें तो देश की अर्थव्यवस्था का स्वरूप एक ऐसा आदर्श सकता है जिससे अन्य राष्ट्र भी प्रेरणा ले सकते हैं।
आधुनिक अर्थशास्त्री अपने अध्ययनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘कुशल प्रबंध का अभाव’ एक बहुत बड़ा दोष मानते हैं। देश के कल्याण और विकास के लिये दावा करने वाले शिखर पुरुष नित्य प्रतिदिन नये नये दावे करने के साथ ही प्रस्ताव प्रस्तुंत करते हैं पर इस ‘कुशल प्रबंध के अभाव के दोष का निराकरण करने की बात कोई नहीं करता। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही इस दोष का परिणाम है या इसके कारण प्रबंध का अभाव है यह अलग से चर्चा का विषय है। अलबत्ता लोगों को अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे होने के कारण लोगों में समाज के प्रति जवाबदेही की कमी हमेशा परिलक्षित होती है।
हम चाहें तो जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों की कार्यपद्धति को देख सकते हैं। छोटा हो या बड़ा हो यह बहस का विषय नहीं है। इतना तय है कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और लापरवाही से काम करने की प्रवृत्ति सभी में है। देश में फैला आतंकवाद जितना बाहर से आश्रय से प्रत्यक्ष आसरा ले रहा है तो देश में व्याप्त कुप्रबंध भी उसका कोई छोटा सहयोगी नहीं है। हर बड़ा पदासीन केवल हुक्म का इक्का बनना चाहता है जमीन पर काम करने वालों की उनको परवाह नहीं है। उद्योग और पूंजी ढांचों के स्वामी की दृष्टि में उनके मातहत ऐसे सेवक हैं जिनको केवल हुक्म देकर काम चलाया जा सकता है। दूसरी भाषा में कहें तो अकुशल या शारीरिक श्रम को करना निम्न श्रेणी का काम मान लिया गया है। हमारी श्रीमद्भागवत गीता इस प्रवृत्ति दसे खारिज करती है। उसके अनुसार अकुशल या शारीरिक श्रम को कभी हेय नहीं समझना चाहिये। संभव है कुछ लोगों को श्रीगीता की यह बात अर्थशास्त्र का विषय न लगे पर नैतिक और राष्ट्रीय आधारों पर विचार करें तो केवल हुक्म देकर जिम्मेदारी पूरी करवाने तथा हुक्म लेकर उस कार्य को करने वालों के बीच जो अहं की दीवार है वह अनेक अवसर परसाफ दिखाई देती है। किसी बड़े हादसे या योजनाओं की विफलता में इसकी अनुभूति की जा सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि उनका काम केवल हुक्म देना है और उसके बाद उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है मगर वह कार्य को अंजाम देने वालो लोगों की स्थिति तथा मनोदशा का विचार नहीं करते जबकि यह उनका दायित्व होता है। इसके अलावा किसी खास कार्य को संपन्न करने के लिये उसकी तैयारी तथा उसे अन्य जुड़े मसलों से किस तरह सहायता ली जा सकती है इस पर योजना बनाने के लिये जिस बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता है वह शायद ही किसी में दिखाई देती है। सभी लोग केवल इस प्रयास में है कि यथास्थिति बनी रहे और इस भाव ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति पैदा कर दी है।
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि केवल आर्थिक विकास ही जीवन की ऊंचाई का प्रमाण नहीं है वरन् स्वास्थ्य, शिक्षा तथा वैचारिक विकास भी उसका एक हिस्सा है जिसमें अध्यात्मिक ज्ञान की बहुत जरूरत होती है। इससे परे होकर विकास करने का परिणाम हमारे सामने है। जैसे जैसे लोगों के पास धन की प्रचुरता बढ़ रही है वैसे वैसे उनका नैतिक आधार सिकुड़ता जा रहा है।
ऐसे में लगता है कि कि हम पश्चात्य समाज पर आधारित अर्थशास्त्र की बजाय अपने ही आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित सामग्री का अध्ययन करें। पाश्चात्य अर्थशास्त्र
वहां के समाजों पर आधारित जो अब हमारे ही देश के अध्यात्मिक ज्ञान पर अनुसंधान कर रहे हैं। यहां यह भी याद रखने लायक है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन केवल भगवान भक्ति तक ही सीमित नहीं है और न ही वह हमें जीवन देने वाली उस शक्ति के आगे हाथ फैलाकर मांगने की प्रेरणा देता है बल्कि उसमें इस देह के साथ स्वयं के साथ ही परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिये अच्छे और बड़े काम करने की प्रेरणा भी है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Saturday, December 12, 2009

तयशुदा शब्दिक कुश्तियां-हिन्दी व्यंग्य साहित्य कविता (tayshuda shabdik kushti-hindi vyangya kavita)

अखबार और चलचित्र वालों ने

कुछ चमकदार चेहरे तय

कर लिये हैं

जिनको वह सजाते हैं।

कुछ मशहूर नामों को

रट लिया है

जिनको अपने शब्दों में सजाते हैं।

मशहुर हस्तियों में मुख से निकले

या हाथ से लिखे बयान

ही पाते सुर्खियों में जगह

आम इंसान को खास से छोटा

समझने के संदेश

बड़ी खबर बन जाते हैं।


बाजार चलाता है प्रचारतंत्र

या वह बाजार को

हम समझ नहीं पाते हैं।

अल्बत्ता बड़े लोगों की की

तयशुदा शब्दिक कुश्तियों को देखकर

कभी कभी  हम भी

गलती से सच समझ जाते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Monday, December 7, 2009

निर्जीव वस्तु के लिये शोक-हिन्दी व्यंग्य (bejan vastu ke liey shok-hindi vyangya)

आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’


अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Monday, November 30, 2009

दिल अपना-हिन्दी शायर (Dil apna-hindi shayri)

शर्म आंखों में होती है
पर्दे कभी उसका बयां नहीं करते
इज्जत की जगह दिल में है
शब्दों में बयां कभी नहीं करते।
जब खौफ हो इंसान के अंदर
किसी की दौलत और शौहरत का
उसे दिखाने के लिये
जमाना करता है सलाम,
पर वहां शर्म और इज्जत होती है हराम,
लोग अपने बयां में
दिल की दुआयें नहीं भरते
--------------
जब तक सोचते रहे
अपनी जिंदगी की बदतर हालात पर
तब मन पर बोझ रहा
आंखों से नहीं निकले आंसू
पर दिल में दलदल करते रहे।
जमाना हंसा जब हमने दर्द कहे।
जबसे अपने रोने पर ही
खिलखिलाना सीख लिया
तब से हैरान हैं लोग
अक्सर पूछते हैं कि
‘क्या तुम्हारे गमों ने साथ छोड़ा
कैसे खुशियों को अपनी तरफ मोड़ा
तुम्हारे गमों पर हंसकर
बहलाते थे दिल अपना
उसी से अपना दिल हल्का करते रहे।।
----------------

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Tuesday, November 17, 2009

अहसास-हिंदी शायरी (ahsas-hindi shayri)

अपने पथ पर चलते हुए
उसके कठिन होने का होता है
सभी को अहसास,
मगर यहाँ किसकी ज़िन्दगी में 
फूल बिछे हैं 
जिन पर किसी के कदम चलते हैं
सच तो यह है कि  
हमेशा ही चारों ओर फ़ैली  सुगन्ध 
बिखरी  हरियाली 
बहुते
हुए पानी के झरने 

देखते  हुए भी मन उकता जाता है
दर्द के बिना भी  बुरा लगता है अहसास..
---------------------------
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Friday, November 13, 2009

मार खाने का खेल-हिंदी व्यंग्य (mar khane ka khel-hindi vyangya)

एक चीनी ने अपना ऐसा धंधा प्रारंभ किया है जो यकीनन अनोखा है। ऐसा अनोखा धंधा तो कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। वह यह कि उसने दूसरे घरों में परेशान औरतों को गुस्सा अपने पर उतारने के लिये स्वयं को प्रस्तुत करता है। वह पिटने की फीस लेता है। अगर समाचार को सही माने तो उसका व्यवसाय चल भी रहा है।
वाकई समय के साथ दुनियां बदल रही है और बदल रहे हैं रिश्ते। दूसरा सच यह है कि इस दुनियां में दो ही तत्व खेलते हैं सत्य और माया। इंसान की यह गलतफहमी है कि वह खेल रहा है। पंाच तत्वों से बने हर जीवन में मन बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियां भी होती है। वही आदमी से कभी खेलती तो कभी खिलवाड़ करती हैं।
यहां एक बात याद रखने वाली है कि संस्कार और संस्कृति के मामले में चीन हमसे पीछे नहीं है-कम से कम उसे अपने से हल्का तो नहीं माना जा सकता। पूर्व में स्थित यह देश अनेक मामलों में संस्कृति और संस्कारों में हमारे जैसा है। हां, पिछले पचास वर्षों से वहां की राजनीतिक व्यवस्था ने उसे वैसे ही भौतिकवादी के जाल में लपेटा है जैसे कि हमारे यहां की अर्थव्यवस्था ने। अगर हमारा देश अध्यात्मिक रूप से संपन्न नहीं होता तो शायद चीनी समाज हमसे अधिक बौद्धिक समाज कहलाता। वहां बुद्ध धर्म की प्रधानता है जिसके प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध भारत में ही उत्पन्न हुए थे।
माया का अभिव्यक्त रूप भौतिकतावाद ही है। इसमें केवल आदमी की देह उसकी आवश्यकतायें दिखती हैं और कारों, रेलों, तथा सड़क पर कम वस्त्र पहने युवतियां ही विकास का पर्याय मानी जाती है। विकास का और अधिक आकर्षक रूप माने तो वह यह है कि नारियां अपना घर छोड़कर किसी कार्यालय में नौकरी करते हुए किसी बौस का आदेश मानते हुए दिखें। उससे भी अधिक आकर्षक यह कि नारी स्वयं कार्यालय की बौस बनकर अपने पुरुष मातहतों को आदेश देते हुए नजर आयें। घर का काम न करते हुए बाहर से कमाकर फिर अपने ही घर का बोझ उठाती महिलायें ही उस मायावी विकास का रूप हैं जिसको लेकर आजकल के अनेक बुद्धिजीवी जूझ रहे हैं। बोस हो या मातहत हैं तो सभी गुलाम ही। यह अलग बात है कि किसी गुलाम पर दूसरा गुलाम नहीं होता तो वह सुपर बोस होता है। यह कंपनी प्रणाली ऐसी है जिसमें बड़े मैनेजिंग डाइरेक्टर एक सेठ की तरह व्यवहार करते हैं पर इसके लिये उनको राजकीय समर्थन मिला होता है वरना तो कंपनी के असली स्वामी तो उसके शेयर धारक और ऋणदाता होते हैं। कंपनी पश्चिम का ऐक ऐसा तंत्र हैं जिसमें गुलाम को प्रबंधक निदेशक के रूप में स्वामी बना दिया जाता है। पैसा उसका होता नहीं पर वह दिखता ऐसा है जैसे कि स्वामी हो। इसे हम यूं कह सकते हैं कि गुलामों को स्वामी बनाने का तंत्र हैं कंपनी! जिसमें गुलाम अपनी चालाकी से स्वामी बना रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई स्त्री कंपनी की प्रबंध निदेशक है तो वह अपने धन पर नहीं शेयर धारकों और ऋणदाताओं के कारण है। फिर उसके साथ तमाम तरह के विशेषज्ञ रहते हैं जो अपनी शक्ति से उसे बनाते हैं। कंपनी के प्रबंध निदेशक तो कई जगह मुखौटे होते हैं। ऐसे में यह कहना कठिन है कि किसी स्त्री का शिखर पर पहुंचना अपनी बुद्धि और परिश्रम के कारण है या अपने मातहतों के कारण।
बहरहाल स्त्री का जीवन कठिन होता है। यह सभी जानते हैं कि कोई भी स्त्री अपनी ममता के कारण ही अपनी पति और पुत्र की सेवा करने में जरा भी नहीं झिझकती। पिता अपनी संतान के प्रति मोह को दिखाता नहीं है पर स्त्री की ममता को कोई धीरज का बांध रोक नहीं सकता।
ऐसे में जो कामकाजी औरते हैं उनके लिये दोहरा तनाव होता है। यह तनाव अनेक तरह की बीमारियों का जनक भी होता है।
ऐसे में उन चीनी सज्जन ने जो काम शुरु किया है पता नहीं चल कैसे रहा है? कोई औरत कितनी भी दुःखी क्यों न हो दूसरे को घूंसा मारकर खुश नहीं हो सकती। भारी से भारी तकलीफ में भी वह दूसरे के लिये अपना प्यार ही व्यक्त करती है। अब यह कहना कठिन है कि कथित आधुनिक विकास ने-मायावी विकास का चरम रूप इस समय चीन में दिख रहा है-शायद ऐसी महिलाओं का एक वर्ग बना दिया होगा।
आखिरी बात यह है कि उस व्यक्ति ने अपने घर पर यह नहीं बताया कि उसने दूसरी महिलाओं से पिटने काम शुरु किया है। वजह! अरे, घर पर पत्नी ने मारा तो पैसे थोड़े ही देगी! जब गुस्से में होगी तो एक थप्पड़ मारेगी, पर जिस दिन धंधा मंदा हुआ तो पता लगा कि इस दुःख में अधिक थप्पड़ मार रही है कि पति के कम कमाने के कारण वह बड़ गया। फिलहाल भारत में ऐसे व्यवसाय की सफलता की संभावना नहीं है क्योंकि भारतीय स्त्रियां भले ही मायावी विकास की चपेट में हैं पर सत्य यानि अध्यात्मिक ज्ञान अभी उनका लुप्त नहीं हुआ है। वैसे जब पश्चिम का मायावी विकास कभी इसे खत्म कर देगा इसमें संदेह नहीं है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Thursday, November 5, 2009

कुदरत का करिश्मा-काव्य चिंतन (kudrat ka karishma-chinttan kavita)

सभी लोग हमेशा दूसरे के सुख देखकर मन में अपने लिये उसकी कमी का विचार करते हुए अपने को दुःख देते हैं। दूसरे का दुःख देकर अपने आपको यह संतोष देते हैं कि वह उसके मुकाबले अधिक सुखी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग बहिर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं और अपने बारे में उनके चिंतन के आधार बाह्य दृश्यों से प्रभावित होते हैं। यह प्रवृत्ति असहज भाव को जन्म देती है। इसके फलस्वरूप लोग अपनी बात ही सही ढंग से सही जगह प्रस्तुत नहीं करते। अनेक जगह इसी बात को लेकर विवाद पैदा होते हैं कि अमुक ने यह इस तरह कहा तो अमुक ने गलत समझा। आप अगर देखें तो कुदरत ने सभी को जुबान दी है पर सभी अच्छा नहीं बोलकर नहीं कमाते। सभी को स्वर दिया है पर सभी गायक नहीं हो जाते। भाषा ज्ञान सभी को है पर सभी लेखक नहीं हो जाते। जिनको अपने जीवन के विषयों का सही ज्ञान होता है तथा जो अपने गुण और दुर्गुण को समझते हैं वही आगे चलकर समाज के शिखर पर पहुंचते हैं। इस संदर्भ में दो कवितायें प्रस्तुत हैं।
सोचता है हर कोई
पर अल्फाजों की शक्ल और
अंदाज-ए-बयां अलग अलग होता है
बोलता है हर कोई
पर अपनी आवाज से हिला देता है
आदमी पूरे जमाने को
कोई बस रोता है।।
---------------
पी लोगे सारा समंदर भी
तो तुम्हारी प्यास नहीं जायेगी।
ख्वाहिशों के पहाड़ चढ़ते जाओ
पर कहीं मंजिल नहीं आयेगी।
रुक कर देखो
जरा कुदरत का करिश्मा
इस दुनियां में
हर पल जिंदगी कुछ नया सिखायेगी।
__________________________


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Saturday, October 31, 2009

अंधेरे उजाले का द्वंद्व-हिंदी लघु व्यंगकथा (andhera aur ujala-hindi labhu katha)

वैसे तो उन सज्जन की कोई इतनी अधिक उम्र नहीं थी कि दृष्टिदोष अधिक हो अलबत्ता चश्मा जरूर लगा हुआ था। एक रात को वह स्कूटर से एक ऐसी सड़क से निकले जहां से भारी वाहनों का आवागमन अधिक होता था। वह एक जगह से निकले तो उनको लगा कि कोई लड़की सड़क के उस पार जाना चाहती है। इसलिये उन्होंने अपने स्कूटर की गति धीमी कर ली थी। जब पास से निकले तो देखा कि एक श्वान टांग उठाकर अपनी गर्दन साफ कर रहा था। उन्हें अफसोस हुआ कि यह क्या सोचा? दरअसल सामने से एक के बाद एक आ रही गाड़ियों की हैडलाईट्स इतनी तेज रौशन फैंक रही थी कि उनके लिये दायें बायें अंधेरे में हो रही गतिविधि को सही तरह से देखना कठिन हो रहा था।
थोड़ी दूर चले होंगे तो उनको लगा कि कोई श्वान वैसी ही गतिविधि में संलग्न है पर पास से निकले तो देखा कि एक लड़की सड़क पार करने के लिये तत्पर है। अंधेरे उजाले के इस द्वंद्व ने उनको विचलित कर दिया।
अगले दिन वह नज़र का चश्मा लेकर बनाने वाले के पास पहुंचे और उसे अपनी समस्या बताई। चश्में वाले ने कहा‘ मैं आपके चश्में का नंबर चेक कर दूसरा बना देता हूं पर यह गारंटी नहीं दे सकता कि दोबारा ऐसा नहीं होगा क्योंकि कुछ छोटी और बड़ी गाड़ियों की हैड्लाईटस इतनी तेज होती है जिन अंधेरे वाली सड़कों से गुजरते हुए दायें बायें ही क्या सामने आ रहा गड्ढा भी नहीं दिखता।’
वह सज्जन संतुष्ट नहीं हुए। दूसरे चश्मे वाले के पास गये तो उसने भी यही जवाब दिया। तब उन्होंने अपने मित्र से इसका उपाय पूछा। मित्र ने भी इंकार किया। वह डाक्टर के पास गये तो उसने भी कहा कि इस तरह का दृष्टिदोष केवल तात्कालिक होता है उसका कोई उपाय नहीं है।
अंततः वह अपने गुरु की शरण में गये तो उन्होंने कहा कि ‘इसका तो वाकई कोई उपाय नहीं है। वैसे अच्छा यही है कि उस मार्ग पर जाओ ही नहीं जहां रौशनी चकाचौध वाली हो। जाना जरूरी हो तो दिन में ही जाओ रात में नहीं। दूसरा यह कि कोई दृश्य देखकर कोई राय तत्काल कायम न करो जब तक उसका प्रमाणीकरण पास जाकर न हो जाये।
उन सज्जन ने कहा‘-ठीक है उस चकाचौंध रौशनी वाले मार्ग पर रात को नहीं जाऊंगा क्योंकि कोई राय तत्काल कायम न करने की शक्ति तो मुझमें नहीं है। वह तो मन है कि भटकने से बाज नहीं आता।’
गुरुजी उसका उत्तर सुनकर हंसते हुए बोले-‘वैसे यह भी संभव नहीं लगता कि तुम चका च ौंधी रौशनी वाले मार्ग पर रात को नहीं जाओ। वह नहीं तो दूसरा मार्ग रात के जाने के लिये पकड़ोगे। वहां भी ऐसा ही होगा। सामने रौशनी दायें बायें अंधेरा। न भी हो तो ऐसी रौशनी अच्छे खासे को अंधा बना देती है। दिन में भला खाक कहीं रौशनी होती है जो वहां जाओगे। रौशनी देखने की चाहत किसमें नहीं है। अरे, अगर इस रौशनी और अंधेरे के द्वंद्व लोग समझ लेते तो रौशने के सौदागर भूखे मर गये होते? सभी लोग उसी रौशनी की तरफ भाग रहे हैं। जमाना अंधा हो गया है। किसी को अपने दायें बायें नहीं दिखता। अरे, अगर तुमने तय कर लिया कि चकाचौंध वाले मार्ग पर नहीं जाऊंगा तो फिर जीवन की किसी सड़क पर दृष्टिभ्रम नहीं होगा।सवाल तो इस बात का है कि अपने निश्चय पर अमल कर पाओगे कि नहीं।’’
--------------------
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Friday, October 23, 2009

कंप्यूटर पर भाषा सौंदर्य का ध्यान रखना कठिन-आलेख (computer and hindi bhasha-a hindi article)

कंप्यूटर पर लिखना इतना आसान काम नहीं है जितना समझा जाता है। दरअसल कंप्यूटर पर विचारों के क्रम के अनुसार अपनी सभी उंगलियां सक्रिय रखनी पड़ती हैं और उससे रचना सामग्री में भाषा सौंदर्य बनाये रखना सहज नहीं रह जाता। अगर वाक्य लंबा हो तो अनेक बार ‘होता है’, ‘रहता है’, ‘आता है’ तथा ‘जाता है’ जैसी क्रियाओं का दोहराव दिखने लगता है। इसका कारण यह है कि कंप्यूटर पर दिमाग तीन भागों में बांटना संभव नहीं लगता। एक तो आप विषय सामग्री पर चिंतन करते हैं दूसरी तरफ अपनी उंगलियों पर नियंत्रण का भी प्रयास करना होता है। ऐसे में भाषा सौंदर्य की सोचने की प्रक्रिया में लिप्त होना संभव नहीं है। फिर अगर आप अंतर्जाल पर कार्य कर रहे हैं और उससे आपको कोई आय नहीं है तो एक तरह से उन्मुक्तता का भाव उत्पन्न होकर नियंत्रित होने की शर्त से मुक्त कर देता है। यही कारण है कि अंतर्जाल पर आम तौर से भाषा सोंदर्य का अभाव दिखाई देता है। यही कारण अंतर्जाल पर गंभीर लेखन को प्रोत्साहित न करने के लिये जिम्मेदार है।
गंभीर लेखन के लिये एक तो स्थितियां अनुकूल नहीं है। आप किसी विषय पर बहुत गंभीरता से लिखें पर उसका उपयोग करने वाले आपका नाम तक न डालें या आपके विचार से प्रभावित होकर उसे अपने नाम से रखें तब निराशा उत्पन्न होती है। ऐसे में गंभीर लेखन की धारा प्रभावित होगी। साथ ही अगर गंभीर लेखक अगर केवल इसलिये लिखे कि उसका नाम चलता रहे तो वह उथली रचनायें लिखने में भी नहीं हिचकेगा।

कंप्यूटर पर लिखना आसान नहीं है और समस्या यह है कि इसके बिना अब काम भी नहीं चलने वाला। उस दिन एक अध्यात्मिक प्रकाशन की मासिक पत्रिका देखने को मिली। उत्सुकतावश उसे पढ़ा तो अनेक बार ऐसा लगा जैसे कि उसकी विषय सामग्री को गेय करने में बाधा आ रही है। उसका कारण उसमें एक ही वाक्य में क्रियाओं का अनावश्यक रूप से दोहराव था। अगर लेखक चाहता तो संपादन के समय एक ही वाक्य में कम से कम दस से पंद्रह शब्द कम कर सकता था। यह केवल एक जगह नहीं बल्कि उस पत्रिका के समस्त लेखों में दिखाई दिया। ऐसा लगता ँँथा कि प्रकाशकों का उद्देश्य केवल पत्रिका प्रकाशित करना था। वैसे उसके पाठकों का भी यही आलम होगा कि वह पत्रिका केवल पुण्य प्राप्त करने के लिये मंगवाते होंगे न कि पढ़ने के लिये-ऐसी पत्रिकाओं ने भी व्यवसायिक हिंदी पत्र पत्रिकाओं का कबाड़ा किया है इसमें संदेह नहीं है।
ऐसे लेख अनेक जगह पढ़कर लगता है कि लिखने वाले का उद्देश्य सीमित विचारों को अधिक शब्दों के सहारे विस्तार देना है। इसके अलावा लिखने वाले ने उसे सीधे कंप्यूटर पर ही लिखा होगा। कंप्यूटर पर लिखने के बाद उसे दोबारा पढ़ना एक उबाऊ काम है। इसलिये सीधे ही प्रकाशित करना या कहीं भेजने में उतावली करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर हिंदी लेखकों को अभी भी व्यवसायिक स्तर पर कोई अधिक सफलता नहीं मिल पायी-खासतौर से मौलिक और स्वतंत्र लिखने वालों की तरफ तो कोई झांकता भी नहीं है। ऐसे में हिंदी का लेखन प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सका तो उसमें आश्चर्य क्या है।
हाथ से लिखते समय अपने विचारों के क्रम के साथ ही भाषा से सुरुचिपूर्ण शब्दों का प्रवाह स्वतः चला आता है क्योंकि उस समय कलम पकड़े हाथों की उंगलियां मशीनीढंग से कार्यरत होती और उनको निर्देश देने में मस्तिष्क को प्रयास नहीं करना पड़ता-एक तरह से दोनों ही एक दूसरे का भाग होते हैं। हिंदी लिखने वाले कई ऐसे लोग इस देश में होंगे जिनको प्रकाशित होने के अवसर नहीं प्राप्त कर सके। हिंदी में अभी तक संगठित क्षेत्र-समाचार पत्र पत्रिकाओं और व्यवसाय प्रकाशकों के अधीन लेखन-का ही वर्चस्व रहा है। ऐसे में प्रतिबद्ध लेखन की धारा ही प्रवाहित होती रही है और स्वतंत्र मौलिक विषय सामग्री मार्ग अवरुद्ध होता है इधर अंतर्जाल पर लग रहा था कि स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को प्रोत्साहन मिलेगा पर प्रतीत होता है कि संगठित क्षेत्र के प्रचार माध्यम उस पर पानी फेर सकते हैं। वही क्या अंतर्जाल पर ही सक्रिय कुछ तत्व दूसरे की रचनाओं से नकल कर लिख रहे हैं और उनमें इतनी सौजन्तया नहीं दिखाते कि लेखक का नाम लें। यह नकल केवल शब्दों की नहीं वरना विचारों की भी है। वह दूसरे से विचार लिखकर ऐसे लिखते हैें जैसे कि उनके मौलिक विचार हों। यह सही है कि विचारों में समानता हो सकती है पर शैली में बदलाव रहेगा यह निश्चित है-उससे यह तो पता लगता है कि विचार कहां से लिये गये हैं।
अंतर्जाल पर कुछ लोग गजब का लिख रहे हैं। उनके लिखे को पढ़ने से यह पता लगता है कि उनके विचारों में संगठित क्षेत्र के लेखकों जैसी कृत्रिमता का भाव नहीं है। समस्या यह है कि अंतर्जाल पर स्वतंत्र और मौलिक लेखन का तात्पर्य है जेब से पैसे खर्च करने के साथ ही श्रम साध्य कार्य में उलझना। इस पर संगठित क्षेत्र के लेखकों का रवैया ब्लाग लेखकों के प्रति कितना उपेक्षापूर्ण है यह देखकर दुःख होता है। ओबामा को नोबल और गांधीजी पर इस लेखक के दो पाठों से एक अखबार के स्तंभकार ने कई पैरा कापी कर अपने लेख में छापे। उसका लेख बढ़ा था और ऐसा लगता था कि उसने अन्य जगह से भी उसकी नकल की होगी। संभव है उसने स्वयं भी लिखा हो। क्या होता अगर वह अपने लेख में इस लेखक का नाम भी उद्धृत कर देता। इससे वह क्या छोटा हो जाता? संभवतः संगठित क्षेत्र के लेखकों पर जल्दी सफलता का भूत सवार है और ब्लाग लेखक उनके लिये फालतू व्यक्ति है या वह उसी तरह गुलाम है जैसे कि वह अपने संगठनों के हैं।
संगठित क्षेत्रों में घुसे लोग भी क्या करें? वेतन या शुल्क से ही उनके घर चलते हैं। इसलिये उनको जहां से जैसा मिलता है वैसा ही वह अपने नाम से कर लेते हैं। यकीनन वह कंप्यूटर पर ही काम करते हैं और इंटरनेट की सुविधा होने से उनके लिये लिखने में अधिक समय नहीं लगता क्योंकि केवल कापी ही तो करनी है? यह लेखक शिकायत नहीं कर रहा है बल्कि उस लेख में अपने अंशों को पढ़ने से ही यह पता लगा कि उसमें क्रियाओं का दोहराव था जो कि गुस्सा कम दुःख अधिक दे रहे थे। वह आईना दिखा रहे थे कि ‘देखों क्या कचड़ा लेखन करते हो?‘
संयोगवश एक दो दिन बाद ही अध्यात्मिक पत्रिका पर नजर पडी तब पता लगा कि हमारा लिखा पढ़ने में कितना तकलीफदेह है। कभी कभी तो इच्छा होती है कि अपने हाथ से लिखकर ही टाईप करें फिर लगता है कि ‘यार, कौनसा यहां पैसा मिल रहा है।’ वैसे इस लेखक ने अपने जीवन की शुरुआत ही एक अखबार में आपरेटर के रूप में कंप्यूटर पर अपनी कविता लिखने से की थी। आज से तीस साल पहले। हां, एक बात लगती है कि चूंकि यह लेखक घर पर ही कंप्यूटर पर लिखने का काम करता है तब बीच में अन्य काम भी करने पड़ते हैं। कोई आ जाता है तो मिलना पड़ता है। कहीं स्वयं जाना पड़ता है। ऐसे में बड़े लेख एक बैठक में टाईप नहीं होते। फिर घर में बैठे अनेक प्रकार के अन्य विचार भी आते हैं। यह भी किसी से नहीं कहा जा सकता कि ‘हम कोई काम कर रहे हैं।’ अगर कहें तो पूछेंगे कि इसमें आपको मिलता क्या है? फिर कभी कभी तबियत खराब हो जाये तो कहते हैं कि यह सब कंप्यूटर की वजह से हुआ है।
वैसे दुनियां ही फालतू कामों में लगी है पर लेखक का लिखना उनके लिये तब तक फालतू है जब तक उससे कुछ नहीं मिलता हो। ऐसे में लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखकर कोई असाधारण लिखकर भी नाम और नामा नहीं कमा सकता अलबत्ता उसका लिखे विचार और विषयों की कापी कर संगठित क्षेत्र के लेखक ही बल्कि अंतर्जाल के लेखक भी अपनी रचना सामग्री सजायेंगे। कम से कम अभी तो यही लगता है। आगे क्या होगा कहना मुश्किल है।

.........................................
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Saturday, October 17, 2009

क्या रौशन करेंगे यह तेल के दिये-हिंदी कविता (roshni aur andhera-hindi kavita)


दीपावली पर घर में
आले में बने मंदिर से लेकर
गली के नुक्कड़ तक
प्रकाश पुंज सभी ने जला दिये।

अंतर्मन में छाया अंधेरा
सभी को डराता है
लोग बाहर ढूंढते हैं, रौशनी इसलिये।

ज्ञान दूर कर सकता है
अंदर छाये उस अंधेरे को
पर उसके लिये जानना जरूरी है
अपने साथ कड़वे सत्य को
जिससे दूर होकर लोग
हमेशा भाग लिये।

कौन कहता है कि
लोग खुशी में रौशनी के चिराग जला रहे है,ं
सच तो यह है कि लोग
बाहर से अंदर रौशनी अंदर लाने का
अभियान सदियों से चला रहे हैं
मगर आंखों से आगे सोच का दरवाजा बंद है
बाहर प्रकाश
और अंदर अंधेरा देख कर
घबड़ा जाते हैं लोग
धरती को रौशन करने वाला आफताब भी
इंसान के मन का
अंधेरा दूर न कर सका
तो क्या रौशन करेंगे यह तेल के दिये।

.............................
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Tuesday, October 13, 2009

पुरानी याद-हिंदी साहित्यक कविता (purani yad-hindi sahitya kavita)

सपने जैसे शहर में
ख्वाब लगती उस इमारत की छत के नीचे
रौशनी की चमक से आंखें चुंधिया गयी हैं
फिर याद आती है
पीछे छोड़ आये उस शहर और घर की
जहां अंधेरे भी अक्सर आ जाते हैं।
राहें ऊबड़ खाबड़ है
गिरने का डर साथ लिये हर पल चलते जाते हैं
सपना जो सच बन कर सामने खड़ा है
फिर एक ख्वाब बन जायेगा
लौटकर कदम जाने हैं अपने शहर और घर
कितना अजीब है
अपना सच हमेशा साथ रहता है
चाहे भले ही सपनों की दुनियां में
सच होकर सामने आ जाये
ख्वाब जब हकीकत बनते हैं
तब भी पुरानी याद कहां छोड़ पाते हैं।
..........................


कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Saturday, October 10, 2009

बेबस क्रंदन-व्यंग्य शायरी (Bebas-vyangya shayri)

वाशिंगटन हो या लंदन
मेलबोर्न हो वैलिंगटन
घिसा जाता है सभी जगह
अपने फायदे का चंदन।
अमन के लिये चारों तरफ नारे लगाये जाते
मगर डालरों में मोह में खुल जाते
दहशतगर्दों के बंधन।
बड़े लोग ढूंढ रहे सभी जगह अपने फायदे,
आम आदमी को काबू करने वास्ते बनाते वही कायदे,
अपनी दौलत शौहरत की रखवाली के लिये
अमीरों ने गरीबों को बनाया गुलाम
तय कर दिये, कागज पर शब्द लिखकर बंधन।
आग लगाकर बुझाने वालों से उम्मीद करना बेकार
न जाने जो हंसना, क्या जाने बेबस का क्रंदन।।

....................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, October 2, 2009

पुतलों की पोल-हिंदी कविता (putlon ki pol-hindi kavita)

पर्दे के पीछे वह खेल रहे हैं
सामने उनके पुतले डंड पेल रहे हैं।
आत्ममुग्धता हैं जैसे जमाना जीत लिया
समझते नहीं भीड़ के इशारे
अपनी उंगलियों से पकड़ी रस्सी से
मनचाहे दृश्य वह मंच पर ठेल रहे हैं।
भीड़ में बैठे हैं उनके किराये के टट्टू
जो वाह वाही करते हैं
तमाम लोग तो बस झेल रहे हैं।
खेल कभी लंबा नहीं होता
कभी तो खत्म होगा
सच्चाई तो सामने आयेगी
जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी
तब जवाब मांगेंगे लोग
हम भी यही सोचकर झेल रहे हैं।

.................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, September 27, 2009

मुख में राम, बगल में रावण का साया-हास्य व्यंग्य कविता (mukh men ram, pas me ravan-hasya vyangya kavita)

सुनते हैं मरते समय
रावण ने राम का नाम जपा
इसलिये पुण्य कमाने के साथ
स्वर्ग और अमरत्व का वरदान पाया।
उसके भक्त भी लेते
राम का नाम पुण्य कमाने के वास्ते,
हृदय में तो बसा है सभी के
सुंदर नारियों को पाने का सपना
चाहते सभी मायावी हो महल अपना
चलते दौलत के साथ शौहरत पाने के रास्ते,
मुख से लेते राम का नाम
हृदय में रावण का वैभव बसता
बगल में चलता उसका साया।
.........................
गरीब और लाचार से
हमदर्दी तो सभी दिखाते हैं
इसलिये ही बनवासी राम भी
सभी को भाते हैं।
उनके नायक होने के गीत गाते हैं।
पर वैभव रावण जैसा हो
इसलिये उसकी राह पर भी जाते हैं।

....................................
पूरा जमाना बस यही चाहे
दूसरे की बेटी सीता जैसी हो
जो राजपाट पति के साथ छोड़कर वन को जाये।
मगर अपनी बेटी कैकयी की तरह राज करे
चाहे दुनियां इधर से उधर हो जाये।
सीता का चरित्र सभी गाते
बहू ऐसी हो हर कोई यही समझाये
पर बेटी को राज करने के गुर भी
हर कोई बताये।
....................

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, September 21, 2009

ब्लॉग का bounce % भी देखना जरूरी-आलेख ( a article on hindi blog)

किसी ब्लॉग की लोकप्रियता का एक आधार यह भी है कि उसका bounce % क्या है. जब यह कहा जाता है कि केवल एक आदमी ही ब्लॉग पढता है तब अपने ब्लॉग पर अनेक पाठक देखकर भ्रम पालना ठीक नहीं लगता है. इसलिए गूगल विश्लेषण को अपने ब्लॉग से अवश्य जोड़ना चाहिए.
यह bounce % प्रतिशत जितना कम होगा उतनी ही लोकप्रियता प्रमाणिक होगी. इस ब्लॉग लेखक के अनेक ब्लॉग हैं उनमें हिंदी पत्रिका का bounce % 56 जो कि अलेक्सा द्वारा बताया गया है. यह वर्ड प्रेस का ब्लॉग है और सच तो यह है कि ब्लागस्पाट से अधिक वर्डप्रेस के ब्लॉग की पाठकों तक अधिक पहुँच का प्रमाण कि उनका bounce % कम होना ही है. गूगल विश्लेषण में इस बात की सुविधा है कि वह आपको bounce % बताकर वास्तविकता से अवगत कराता है.
हमारे अन्दर सफलता का भ्रम में रहना नहीं चाहिए क्योंकि असफलता के कड़वे सच का सामना करने से ही आत्मविश्वास आता है. हिंदी पत्रिका अन्य ब्लॉग से बहुत आगे बढ़ता जा रहा है. अलेक्सा की इस पर नज़र है, इसका प्रमाण यह है कि इस लेखक के केवल इसी ब्लॉग की भारतीय रैकिंग बताते हुए उस पर भारतीय झंडे का चिह्न लगा दिया है. भारतीय रैकेंग में भी यह ब्लॉग १३१०० से ऊपर है. इसके बावजूद अलेक्सा पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि उसके निर्माण और सुधार का काम चल रहा है. चूंकि गूगल विश्लेषण वर्डप्रेस पर काम नहीं कर रहा है, इसलिए अलेक्सा के bounce % प्रतिशत पर दृष्टिपात करना बुरा नहीं है.
bounce % में भी एक कमी दिखाई देती है. वह यह कि उसमें अगर किसी पाठक ने केवल एक ही पृष्ठ देखा है तो वहां bounce % १०० आ जाता है, यानी की पाठक ने देखा पर रुका नहीं यही कारण है कि हिंदी के ब्लॉग एक जगह दिखने वाले फोरमों से bounce % कभी कम नहीं होता. संभव है आपको इन फोरमों पर दस पाठकों ने पढा हो पर bounce % १०० हो, पर अन्यत्र कहीं २ ने पढ़ा हो और वहां bounce % ४० हो. bounce का मतलब वही है जो चेक bounce होने का है. अंतर यह है चेक 100 % bounce होता है पर ब्लॉग में यह घटता बढ़ता है.
यहाँ स्पष्ट कर दें कि यह लेखक कोई तकनीक विशेषज्ञ नहीं है पर bounce % का अवलोकन करने से यही निष्कर्ष निकलता है. हिंदी पत्रिका शुरू में हिंदी फोरमों पर पंजीकृत नहीं थी पर उसने हमेशा ही अग्रता ली. इसका कारण यह था कि फोरमों पर न दिखने के कारण उस पर अनेक बार अन्य ब्लॉग से उठाकर पाठ सुधार कर रखे गए. सर्च इंजिनों पर पहुँचने के लिए सर्वाधिक प्रयोग उस पर करने के साथ ही उस पर अच्छे पाठ भी उस समय रखे गए जब वह ब्लोगवाणी पर दिखता था. यह गूगल की पेज रैंक ४ से नीचे तीन पर कैसे आया पता नहीं क्योंकि इसने पाठकों के मामले में उतरोत्तर प्रगति की है. वैसे तो इस लेखक के तीन ब्लॉग को इस समय चार की रैंक मिली है पर हिंदी पत्रिका और ईपत्रिका जिस तरह चार से तीन पर आये उससे गूगल पेज रैंक पर भी संदेह होने लगा है-क्योंकि इस लेखक के यही दो ब्लॉग निरंतर आगे बढ़ते जा रहे हैं. हिंदी पत्रिका का bounce % ५६ होने का आशय यह है कि वहां पाठक सबसे अधिक रुक रहे हैं और एक पाठ के बाद दूसरे पाठों को भी क्लिक कर रहे हैं. 100 % पाठक गूगल से आ रहे हैं. बिना फोरमों के सहायता के वहां २१५ पाठकों (पाठ पढने की संख्या ५०० से ऊपर) का आना इस बात का प्रमाण है कि हिंदी में अब खोज होने लगी है. इस खोज में विविधता है इसलिए यह कहना कठिन है कि किस तरह के लोग ढूंढ रहे हैं. अलबता लोग चर्चित विषयों को पसंद करते हैं क्योंकि उनके हिट्स बहुत होते हैं.इस लेखक का ब्लागस्पाट का अग्रता प्राप्त ब्लॉग शब्दयोग सारथि पत्रिका है जिसका bounce % 60.40 बाकी सभी ८० का ८५ के बीचे में हैं.
कुल मिलाकर जिन लोगों को अपने ब्लॉग का स्तर सही रूप से देखना हो उनको यह भी देखना चाहिए कि उनका bounce % कितना है. अगर वह १०० है तो वह ठीक नहीं है पर यह दावा करना इसलिए भी कठिन है क्योंकि वह के पाठक द्वारा एक ही पृष्ठ देखने पर bounce % 100 बताता है. हालांकि हमारा मानना है कि अगर वह १०० है तो इसका अर्थ यह है कि हमें उस ब्लॉग पर मेहनत करने की आवश्यकता है. आखरी बात यह कि यह अंतर्जाल है इसलिए दावे से कोई बात नहीं कही जा सकती, पर अपना विचार लिखना भी बुरा नहीं है. खासतौर से जब लिखने से कमाई नहीं हो तब इस तरह के खेल को बुरा भी नहीं कहा जा सकता, जो कि गूगल विश्लेषण से पता लगता है.
-----------------------------
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, September 17, 2009

दूसरे की सोच के गुलाम-व्यंग्य कविता (soch ke gulam-vyangya kavita)

हम यूं तन्हा नही रह जाते
अगर उस भीड़ में शामिल होते।
सभी चले जा रहे थे
उम्मीदों के गीत गा रहे थे
हमने वजह पूछी
पर किसी ने नहीं बताई
ऐसा लगा किसी के खुद ही समझ नहीं पाई
हम भी बढ़ाते उनके साथ कदम
अगर दूसरे की सोच के गुलाम होते।
.......................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, September 13, 2009

सविता भाभी, छद्म ब्लागर और सच का सामना-हिन्दी हास्य कविता (savita bhabhi,chhadma blogger aur sach ka samana-hasya kavita)

नाम कुछ दूसरा था पर
नायिका सविता भाभी रखकर वह
सच का सामना प्रतियागिता में पहुंची
और एक करोड़ कमाया।
प्रतिबंधित वेबसाईट की कल्पित नायिका को
अपने में असली दर्शाया।
यह देखकर उसका रचयिता
छद्म नाम लेखक कसमसाया।
पीसने लगा दांत
भींचने लगा मुट्ठी और
गुस्से में आकर एक जाम बनाया।
पास में बैठे दूसरे
पियक्कड़ ब्लाग लेखक से बोला
‘‘यार, कैसी है यह अंतर्जाल की माया।
अपनी नायिका तो कल्पित थी
यह असल रूप किसने बनाया।
हम जितना कमाने की सोच न सके
उससे ज्यादा इसने कमाया।
हमने इतनी मेहनत की
पर टुकड़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं आया।’

दूसरे पियक्कड़ ब्लाग लेखक ने
अपने मेहमान के पैग का हक
अदा करते हुए उसे समझाया
‘यार, अच्छा होता हम असल नाम से लिखते
अपने कल्पित पात्र के मालिक तो दिखते
हम तो सोचते थे कि
यौन विषय पर लिखना बुरा काम है
पर देखो हमारे से प्रेरणा ले गये
यह टीवी चैनल
कर दिया सच का सामना का प्रसारण
जिसमें ऐसी वैसी बातें होती खुलेआम हैं
हम तो हिंदी भाषा के लिये रास्ता बना रहे थे
यह हिंदी टीवी चैनल अंग्रेजी का खा रहे थे
हमारी हिंदी की कल्पित पात्र
सविता भाभी को असली बताकर
अपना कार्यक्रम उन्होंने सजाया,
पर हम भी कुछ नहीं कर सकते
क्योंकि अपना नाम छद्म बताया।
जब लग गया प्रतिबंध तो
हम ही नहीं गये उसे रोकने तो
कोई दूसरा भी साथ न आया।
हमारी कल्पित नायिका ने
हमको नहीं दिया कमाकर जितना
उससे ज्यादा टीवी चैनल वालों ने कमाया।
यह टीवी वाले उस्ताद है
ख्यालों को सच बनाते
और सच को छिपाते
नकली को असली बताने की
जानते हैं कला
इसलिये सविता भाभी का भी पकड़ लिया गला
अपने हाथ तो बस अपना छद्म नाम आया।

..............................
नोट-यह हास्य कविता एक काल्पनिक रचना है और किसी भी घटना या व्यक्ति से इसका लेनादेना नहीं है। अगर संयोग से किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
...............................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, September 9, 2009

इश्क और मंदी का दुःखड़ा-हास्य व्यंग्य कविता (ishq and economy-hindi comedy satire poem

आशिक ने माशुका को समझाया
‘‘मोबाईल पर इतनी बात मत करो
मैं नहीं उठा सकता खर्चा
हर हफ्ते कपड़े भी न मांगो
रोज होटल में खाने की जिद छोड़ दो
मोटर साइकिल पर
इतनी सवारी करना मुश्किल है
पैट्रोल हो गया है महंगा
मेरे वेतन में भी हो गयी कटौती
अब शादी कर लेते हैं तो
कई समस्याओं से बच जायेंगे
क्योंकि मंदी की पड़ी रही है मुझ पर छाया।‘’

हाथ पकड़ कर साथ चल रही
माशुका ने तत्काल उसे छुड़ाया।
और गुस्से में बोली
‘‘अखबारे में मैंने पढ़ा था
सब जगह है मंदी
पर इश्क पर नहीं पड़ी इसकी छाया।
लगता है तुम अब कंजूस बन रहे हो
तुम्हें देखकर नहीं लगता कि
मंदी के जुर्म सहे हो
कहीं तुमने शादी करने के लिये
उसका बहाना तो नहीं बनाया।
अभी तो हमारे खेलने खाने के दिन है
जब अभी इश्क में खर्चा नहीं उठा सकते तो
शादी के बाद क्या कहर बरपाओगे
घर का काम भी मुझसे ही करवाओगे
इसलिये अगर वाकई मंदी है तो
फिर शादी ही नहीं इश्क को भी भूल जाओ
बस मंदी का दुःखड़ा गाओ
जब बढ़ जाये वेतन तब शादी के सोचना
उससे पहले कोई मिल गया मुझे साथी
तो अपने बाल नोचना
अब मेरा मूड खराब है
जब तेजी आये तब मेरे पास आना
अब न करो मेरा और अपना वक्त जाया।’’

-----------
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

Sunday, September 6, 2009

जिन्न और पियक्कड़-हास्य व्यंग्य कविता (jinna aur drunkar-hasya kavita)

शराब की बोतल से जिन्न निकला
और उस पियक्कड़ से बोला
-"हुकुम मेरे आका!
आप जो भी मुझसे मंगवाओगे
वह ले आउंगा
बस शराब की बोतल नहीं मंगवाना
वरना मुझसे हाथ धोकर पछताओगे.


सुनकर पियक्कड़ बोला
-"मेरे पास बाकी सब है
उनसे भागता हुआ ही शराब के नशे में
घुस जाता हूँ
दिल को छु ले, ऐसा कोई प्यार नहीं देता
देने से पहले प्यार, अपनी कीमत लेता
तुम भी दुनिया की तमाम चीजें लेकर
मेरा दिल बहलाओगे
मैं तो शराब ही मांगूंगा
मुझे मालूम है तुम छोड़ जाओगे.
जाओ जिन्न किसी जरूरतमंद के पास
मुझे नहीं खुश कर पाओगे..
-------------------------
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

Wednesday, September 2, 2009

बिजली का आना और जाना-हिंदी हास्य कविता (bijli par hindi hasya kavita)

अच्छे विषय पर सोचकर
कविता लिखने बैठा युवा कवि
कि बिजली गुल हो गयी।
कागज पर हाथ था उसका
कलम अंधेरे में हुई लापता
जो सोचा था विषय
उसका भी नहीं था अतापता
अब वह बिजली पर पंक्तियां सोचने लगा
‘कब आती और जाती है
यह तो बहुत सताती है
इसका आसरा लेकर जीना खराब है
इससे तो अच्छा
तेल से जलने वाला चिराग है
जिंदगी की कृत्रिम चीजें अपनाने में
पूरे जमाने से भूल हो गई।’

कुछ देर बाद बिजली वापस आई
कवि की सोच में भी
बीभत्स रस की जगह श्रृंगार ने जगह पाई
उसकी याद में
अपने साथ पढ़ने वाली
बिजली नाम की लड़की
पहले ही थी समाई
बिजली आने पर भूल गया वह दर्द अपना
अब उसने लिखा
‘मैं उसका नाम नहीं जानता
उसकी अदाओं को देखकर
बिजली ही मानता
जब भी जिंदगी अंधेरे से बोझिल हो जाती
उसकी याद मेरे अंदर रौशनी जैसे आती
उसका चेहरा देखकर दिल का बल्ब जल उठता है
कोई दूसरा उसे देखे तो
करंट जैसा चुभता है
मेरी कविताओं के हर शब्द की
ट्यूबलाईट उसकी याद के बटन से जलती है
उसके आंखों की चमक बिजली जैसी
चारों तरफ मरकरी जैसी रौशनी दिखती
जब वह चलती है
उसकी याद में मेरे दिल का मीटर तो
बहुत तेजी से चलता है
पर वह बेपरवाह
मुझे समझने में भूल करती है।

.................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, August 30, 2009

रिश्ते और समय की धारा-हिंदी कविता (rishtey aur samay ki dhara-hindi kavita)

हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।

अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।

...................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, August 28, 2009

सदाबहार समाजसेवक-हिंदी हास्य कविता (sadabahar samajsevak-hindi hasya kavita)

बरसात की बूंदें जैसे ही
आकाश से जमीन पर आई।
अकाल राहत सहायता समिति के
सदस्यों के चेहरे पर चिंता घिर आई।
पहुंचे सभी अध्यक्ष के पास
और वहां अपनी बैठक जमाई।
एक बोला अध्यक्ष से
‘अध्यक्ष जी यह क्या हुआ?
हमने तो अपने घर के सामान
खरीदने का सोचा था
आखिर अकाल का लोचा था
अब यह क्या हुआ
अकाल का नारा लगाकर कर
हम चिल्ला रहे थे
इधर उधर चंदे के लिये
फोन मिला रहे थे
अब क्या होगा
मौसम विभाग की भविष्यवाणी के बिना
यह बरसात कैसे आई?
अब कैसे होगी कमाई?’

अध्यक्ष ने हंसते हुए कहा
‘क्यों परवाह करते हो
जब तक मैं अध्यक्ष हूं भाई।
अब भला चंदा मांगने
घर घर क्या जाना
अब तो इंटरनेट का है जमाना
मैंने तो तीन महीने पहले ही
जब बरसात न होने का सुना
अपनी संस्था के लिये
इंटरनेट पर चंदा मांगने का प्लान चुना
दरियादिलों ने बहुत सारा माल दिया
भले ही जितना मांगा उससे कम दाना डाल दिया
अपने हिस्से का चेक तुम ले जाओ
अब बाढ़ होने के लिये
सर्वशक्तिमान के दरबार में गुहार लगाओ
अपनी समिति का नाम
अकाल राहत की जगह
बाढ़ पीड़ित सहायता समिति दिखाओ
हम तो सदाबाहर समाजसेवक हैं
अरे, मैंने यह समिति ऐसे ही नहीं बनाई।

..........................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, August 23, 2009

चिंता समान शत्रु नहीं-हास्य व्यंग्य (chinta saman shatru nahin-hasya vyangya)

डाक्टर साहब बाहर ही मिल गये। उस समय वह एक किराने वाले से सामान खरीद रहे थे और हम पहले लेचुके सामान का पैसा उसे देने गये थे। दुपहिया से जैसे ही उतरे डाक्टर साहब से नमस्कार किया और पैसा देकर जैसे ही वापस मुड़े तो डाक्टर साहब ने पूछा-‘कहीं बाजार जा रहे हैं।’
हमने कहा-‘हां, आज अवकाश का दिन है सोच रहे हैं कि बाजार जाकर घूमे और सामान खरीद लायेें।’
डाक्टर साहब बोले-हां, सप्ताह में एक बार बाजार जाना स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। आदमी रोज घर का खाना खाते हुए उकता जाता है, इसलिये कभी बाजार में खाना बुरा नहीं है।’
हम रुक गये और उनकी तरफ घूर कर देखा और कहा-‘पर एक बार जब हम बीमार पड़े थे तब आपने कहा था कि बाजार का खाना ठीक नहीं होता। तब से लगभग हमने यह कार्य बंद ही कर दिया है।’
वह बोले-‘हां, पर यह छह वर्ष पहले की बात है। वैसे आजकल आप सुबह योग कर लेते हैं इसलिये अब आपको इतनी परेशानी नहीं आयेगी। वैसे क्या आपने वाकई बाजार का खाना पूरी तरह बंद कर दिया है।’
हमने कहा-‘अधूरी तरह किया था पर अब तो टीवी वगैरह ने नकली घी, तेल, दूध, चाय तथा खोये का ऐसा खौफ भर दिया है कि बाजार में खाने के सामान की खुशबू नाक को कितना भी परेशान करे पर उस पर अपना ध्यान नहीं जाने देते।’
डाक्टर साहब बोल-‘हां, यह तो सही है पर सभी जगह थोड़े ही नकली सामान मिल रहा है।’
हमने कहा-‘आपकी बात सही है पर हम करें क्या? आधा आपने डराया और आधा इन टीवी वालोें ने। जैसे आपकी सलाह के बाद हमने योग साधना शुरु की वैसे ही बाहर का खाना भी बंद कर दिया है।’
डाक्टर साहब बोले-‘ आप अपने स्वास्थ्य के प्रति आप सजग है, यह अच्छी बात है। वैसे आप बहुत दिनों से घर नहीं आये।’
हमने हंसते हुए कहा-‘डाक्टर साहब, आपके घर आने से बचने के लिये तो रोज सुबह इतनी मेहनत करते हैं। पहले आपकी और अब टीवी वालों की चेतावनी को इसलिये ही याद रखते हैं क्योंकि हमें आपके घर आने से डर लगता है। अनेक बार तो बुखार और जुकान की बीमारियों से स्वतः ही निपटते हैं क्योंकि सोचते हैं कि हमने जो खराब खाना खाया है उसका दुष्प्रभाव कम होते ही सब ठीक हो जायेगा।’
डाक्टर साहब हंस पड़े-हां, वैसे भी हम छोटी मोटी बीमारियों का इलाज करते हैं पर बड़ी बीमारी के लिये तो बड़े डाक्टर के पास मरीज को भेजना ही पड़ता है।’
हमने बातों ही बातों में उनसे पूछा-‘डाक्टर साहब आप नकली खून की पहचान कर सकते हैं।’
वह एकदम बोले-‘हम तो होम्योपैथी के डाक्टर हैं। इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते अलबत्ता टीवी पर देखा तो हैरान रह गये।’
हमने कहा-‘मतलब यह है कि कभी किसी को बड़ी बीमारी हो और उसमें दूसरे का खून शरीर में देना जरूरी हो तो आपके पास न आयें। आपने तो हमारी उम्मीद ही तोड़ दी।’
डाक्टर साहब बोले-‘आपकी बात सुनकर मेरा ध्यान अपने चचेरे भाई की तरफ चला गया है। एक किडनी खराब होने के कारण वह एक अस्पताल में भर्ती है और उसे निकाला जाने वाला है। उसके लिये भी खून की जरूरत है। मैं अभी जाकर अपने दूसरे चचेरे भाई को फोन कर कहता हूं कि जरा देखभाल कर खून ले आये।’
डाक्टर साहब के चेहरे पर चिंता के भाव आ गये और वह शीघ्र वहां से चले गये। एक डाक्टर की आंखों में ऐसे चिंता के भाव देखकर हमें हैरानी हुई साथ ही यह चिंता भी होने लगी कि कहीं हमें अपने या किसी अन्य के लिये खून की जरूरत हुई तो क्या करेंगे? ऐसे में हमें सिवाय इसके कुछ नहीं सूझता तो फिर योग साधना का विचार आता है। सोचने लगे कि थोड़ी योग साधना से छोटी बीमारियों को ठीक कर लेते हैं तो क्यों न कल से अधिक अधिक कर बड़ी बीमारियों को अपने से दूर रखने का प्रयास करें। हालांकि कभी कभी लगता है कि इनसे अच्छा तो टीवी देखना ही बंद कर दें। वह बहुत सारी चिंतायें देने लगता है। कहा भी गया है कि ‘चिंता सम नास्ति शरीरं शोषणम्।’
-------------------------------
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, August 9, 2009

कागजी पुलिंदे-व्यंग्य कविता (kagzi pulinde-vyangya kavieaen)

इतना बड़ा देश है
समस्याओं के लगे ढेर हैं
सुलझाने वाले कागजी शेर हैं
वह कभी हल नहीं हो पायेंगी।
इसलिये जिंदा रखना जरूरी है
देशभक्ति और समाज कल्याण के
कागजी पुलिंदे
जरूरत पड़े तो भुला दो
और कर लो जिंदे
यूं ही जुबानी चर्चायें करते रहो
सुर्खियों में रहे, ऐसी बात कहो
मुसीबतें समय से खुद ही
आयेंगी और जायेंगी।
...................
आम आदमी हो तो
हमेशा देश के लिये
भक्ति दिखाते जाओ
वरना मुश्किल हो जायेगा।
अगर खास हो तो बस
बैठकर अपने रिश्ते निभाओ
किसी में हिम्मत नहीं है
जो सच से सामना करायेगा।

........................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, August 7, 2009

पूरी गिनती 0 से ९ होती है, यार-हास्य व्यंग्य (ginti 0 to 9-hasya vyangya

आज की तारीख में एक समय था जो एक से लेकर नौं तक की पंक्ति बना रहा था-1 2 3 4 5 6 7 8 9। इस बात का जोर शोर से प्रचार हुआ।
अब इसे इस तरह कह सकते हैं कि 12 बजकर 34 मिनट 56 सैकंड तारीख सात माह 8 वर्ष 9। इस कथित एतिहासिक समय को खूब देखने और सुनने का अवसर मिला। एक लड़की बता रही थी कि उसके पास एक कोई एस.एम.एस आया है। इधर एक लड़का ओरकुट पर भी इसी प्रकार की विषय सामग्री पढ़े होेन की बात कह रहा था। हमने भी इधर उधर पढ़ा और देखा। कमाल है क्या गजब है कि बाजार को हर रोज कोई न कोई अवसर मिल ही नहीं जाता है।
खैर, इस समय में क्या खास था यह समझ में नहीं आता। याद रखिये गिनती के दस अंक होते हैं या यूं कहें कि गिनती 0 से 9 तक होती है।
कमबख्त यह जीरो भी अजीब है। अगर आंकड़े के पीछे लगे तो संख्या की ताकत बढ़ा देता है और पहले लगे तो कोई फायदा नहीं देता। अगर बाजार का बस हो तो वह एक को जीरो लगाकर एक करोड़ बना दे पर अगर उसे लगे कि इस जीरो से खतरा है या कोई उम्मीद नहीं है तो उसे भुला दे। इतना ही गणित की गिनती से ही जीरो निकालकर लोगों को भरमा दे। तारीखों और समय की उलटपुलट का सवाल है। पहले समय आना चाहिये या तारीख! बाजार ने अपनी सुविधा से समय को पहले चुना। जरूरत पड़ेगी तो तारीख को पहले चुनेगा।
फिर एक मजे की चीज है कि यह सब अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक है। यही बाजार जब हिन्दी संवत् में देखेगा तो शायद उसे भुनाने का भी प्रयास करे। इतनी सी छोटी बातों को बड़े स्तर पर प्रचार करने का आशय यह है कि बाजार अब बहुत ताकतवर हो चुका है। दूरसंचार से जुड़े व्यवसायियों के लिये छोटे मोटे अवसर भी कमाने का अवसर बनते जा रहे हैं। इधर देश टीवी चैनलों पर नित प्रतिदिन दूध, घी, ,खोवे तथा अन्य वस्तुओं में मिलावट की जानकारी। असली जैसे लगने वाले नकली नोटों का प्रचलने बढ़ने से प्रशासन की चिंताओं की चर्चा देखकर दिल की धड़कने बढ़ने लगती हैं।
याद रखिये यह अपराध भी उसी विकास यात्रा पर आ रहे हैं जहां अपनी अर्थव्यवस्था के चलने का दावा देश के आर्थिक विशेषज्ञ करते हैं। उपभोक्ता प्रवृत्तियों का बढ़ाना बाजार के लिये अच्छा संकेत हो सकता है पर ऐसे अपराधों मेें-जिनसे पूरा समाज अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से प्रभावित होता है-वृद्धि भी भयानक संकेत दे रही है। कभी कभी तो लगता है कि ऐसी छोटी बातों का प्रचार कर हम किसे भरमा रहे हैं? इस तरह अपने को खुश करना चाहते हैं या विदेशों को यह बताना चाहते हैं कि अब आधुनिक सभ्य समाज का एक अंग बन गये हैं।

कभी कभी मन निराश हो जाता है। प्रचार माध्यमों पर प्रस्तुत समाचारों, धारावाहिकों और अन्य कार्यक्रमों को देखते हैं तो एक आकर्षक समाज दिखता है पर जहां हमारे पांव खड़े हैं वहां उसकी चमक एक सपना दिखाई देती है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हम समाज की मूल धारा से अलग ही लेखक हैं क्योंकि जो दूसरे लेखक लिख रहे हैं उससे हमारी सोच अलग दिखती है। हालांकि लीक से हटकर यह एक अच्छी बात हो सकती है पर विषय सामग्री के तत्व निरंतर अन्य लेखकों से विपरीत दिखने लगें तो स्वयं की सोच पर भी संदेह हो जाता है। हां क्यों न होगा! सभी गिनती एक से नौ तक ही कर रहे हैं और हमारा स्मृति कोष यह मानने को तैयार ही नहीं है कि वह 0 से नौ तक की नहीं होती और यह भी कि लोगों को चमत्कृत करने के लिये जीरो का होना जरूरी था। वैसे इस प्रचार को अधिक भाव शायद इसलिये मिला भी नहीं।
.......................................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, August 3, 2009

लफ्जों के सौदे-हिंदी शायरी (lafzon ke saude-hindi kavita)

उनको आसमान दिखता है
इसलिये उड़ते जाते हैं।
जमीन पर पांव रखना
उन्हें गवारा नहीं इसलिये
उड़ने के लिये लड़े जाते हैं।

दौलतमंदों के प्यादे बनना उनको मंजूर है
पर गरीब का वजीर होने पर भी शर्माते हैं।

लफ्जों का ढेर बेचने बैठे हैं
कोई चाहे तो ईमान भी उपहार में ले जायें
पैसे की खातिर किताबें सजाये जाते हैं।

यह दुनियावी खेल है
आदमी अपने ख्याल क्या खुद
बिकने को तैयार बैठा है
खरीददार के इंतजार में पलकें पसारे जाते हैं।

नामा हो तो लोग नाम बदल दें
मशहूरी के लिये हंगामा हो तो
अपना काम बदल दें
दौलतमंदों का काम है ईमान से खेलना
बेईमानों का काम है सामान बेचना
अक्लमंदों की अक्ल जब तुलती हो
कौड़ियों के दाम में
तब लफ्जों के सौदे पर
भला क्यों शोर मचाये जाते हैं।
झूठ के पांव नहीं पर पंख होते हैं
जमीन पर न चले पर
आसमान में लोग उसे खूब उड़ाये जाते हैं।
सच तो खड़ा रहेगा अपनी जगह
फिर उसकी चिंता में दिमाग क्यों खपाये जाते हैं।

...................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, August 2, 2009

जड़ चिंतन-हिन्दी व्यंग्य (hindi article)

आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री श्री केविन रूड किसी समय सफाई कर्मचारी का काम करते थे-यह जानकारी अखबार में प्रकाशित हुई देखी। अब वह प्रधानमंत्री हैं पर उन्होंने यह बात साहस के साथ स्वीकार की है। उनकी बात पढ़कर हृदय गदगद् कर उठा। एक ऐसा आदमी जिसने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में पसीना बहाया हो और फिर शिखर पर पहुंचा हो यह आस्ट्रे्रलिया की एक सत्य कहानी है जबकि हमारे यहां केवल ऐसा फिल्मों में ही दिखाई देता है। यह आस्ट्रेलिया के समाज की चेतन प्रवृत्तियों का परिचायक है।
कभी कभी मन करता है कि हम भी ऐसी कहानी हिंदी में लिखें जिसमें नायक या नायिका अपना खून पसीना करते हुए समाज के शिखर पर जा बैठा हो पर फिर लगता है कि यह तो एक झूठ होगा। हम तो बरसों से इस देश में देख रहे हैं जड़ता का वातावरण है। अपने आसपास ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने जीवन भर पसीना बहाया और बुढ़ापे में भी उनका वही हाल है। उनके बच्चे भी अपना पसीना बहाकर दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से कमा रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर देख रहे हैं। फिल्म, पत्रकारिता, धार्मिक प्रचार,संगीत समाज सेवा और अन्य आकर्षक पेशों में जो लोग चमक रहे थे आज उनकी औलादें स्थापित हो गयी हैं। पहले लोग प्रसिद्ध गुरु के नाम पर उसके उतराधिकारी शिष्य को भी गुरु मान लेते थे। अनेक लोग अपनी पहचान बनाने के लिये अपने गुरु का नाम देते थे पर आजकल अपने परिवार का नाम उपयोग करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं। समाज में परिवर्तन तो बस दिखावा भर है! यह परिवर्तन बहुत सहजता से होता है क्योंकि यहां गुरु को नहीं बल्कि को बाप को अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
नारा तो लगता है कि ‘गरीब को रोटी दो,मजदूर को काम दो।’ उसकी यही सीमा है। रोटी और काम देने का ठेका देने वाले अपने कमीशन वसूली के साथ समाज सेवा करते हैं। कोई गरीब या मजदूर सीधे रास्ते शिखर पर न पहुंचे इसका पक्का इंतजाम है। गरीबों और मजदूरों में कैंकड़े जैसी प्रवृत्ति पायी जाती है। वह किसी को अपने इलाके में अपने ही शिखर पर किसी अपने आदमी को नहीं बैठने दे सकते। वहां वह उसी को सहन कर सकते हैं जो इलाके, व्यवसाय या जाति के लिहाज से बाहर का आदमी हो। उनको तसल्ली होती है कि अपना आदमी ऊपर नहीं उठा। इस वजह स समाज में उसकी योग्य पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता। अगर कोई एक आदमी अपने समाज या क्षेत्र में शिखर पह पहुंच गया तो बाकी लोगों का घर में बैठना कठिन हो जायेगा न! बीबीयां कहेंगी कि देखो-‘अमुक कितना योग्य है?’
इसलिये अपने निकट के आदमी को तरक्की मत करने दो-इस सिद्धांत पर चल रहा हमारे देश का समाज जड़ता को प्राप्त हो चुका है। यह जड़ता कितना भयानक है कि जिस किसी में थोड़ी बहुत भी चेतना बची है उसे डरा देती है। फिल्मों और टीवी चैनलों के काल्पनिक पात्रों को निभाने वाले कलाकारों को असली देवता जैसा सम्मान मिल रहा है। चिल्लाने वाले पात्रों के अभिनेता वीरता की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। ठुमके लगाने का अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां सर्वांग सुंदरी के सम्मान से विभूषित हैं।
उस दिन हम एक ठेले वाले से अमरूद खरीद रहे थे। वह लड़का तेजतर्रार था। सड़क से एक साधू महाराज निकल रहे थे। उस ठेले पर पानी का मटका रखा देखकर उस साधु ने उस लड़के से पूछा-‘बेटा, प्यास लगी है थोड़ा पानी पी लूं।’
लड़के ने कहा-‘थोड़ा क्या महाराज! बहुत पी लो। यह तो भगवान की देन है। पूरी प्यास मिटा लो।
साधु महाराज ने पानी पिया। फिर उससे बोले-‘यह अमरूद क्या भाव दे रहे हो। आधा किलो खुद ही छांट कर दे दो।’
लड़का बोला-‘महाराज! आप तो एक दो ऐसे ही ले लो। आपसे क्या पैसे लेना?’
साधु ने कहा-‘नहीं! हमारे पास पैसा है और उसे दिये बिना यह नहीं लेंगे। तुम तोल कर दो और हम पैसे देतेे हैं।
लड़के ने हमारे अमरूद तोलने के पहले उनका काम किया। उन साधु महाराज ने अपनी अंटी से पैसे निकाले और उसको भुगतान करते हुए दुआ दी-‘भले बच्चे हो! हमारी दुआ है तरक्की करो और बड़े आदमी बनो।’
वह लड़का बोला-‘महाराज, अब क्या तरक्की होगी। बस यही दुआ करो कि रोजी रोटी चलती रहे। अब तो बड़े आदमी के बेटे ही बड़े बनते हैं हम क्या बड़े बनेंगे?’
साधु महाराज तो चले गये पर उस लड़के को कड़वे सच का आभास था यह बात हमें देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इस देश में जो पसीना बहाकर रोटी कमा रहे हैं वह इस समाज का जितना सच जानते हैं और कोई नहीं जानता। वातानुकूलित कमरों और आराम कुर्सियों पर देश की चिंता करने वाले अपने बयान प्रचार माध्यमों में देकर प्रसिद्ध हो जाते हैं पर सच को वह नहीं जानते। उनके भौंपू बने कलमकार और रचनाकार भी सतही रूप से इस समाज को देखते हैं। उनकी चिंतायें समाज को उठाने तक ही सीमित हैं पर यह व्यक्तियों का समूह है और उसमें व्यक्तियों को आगे लाना है ऐसा कोई नहीं सोचता। चिंता है पर चिंतन नहीं है और चिंतन है तो योजना नहीं है और योजना है तो अमल नहीं है। जड़ता को प्राप्त यह समाज जब विदेशी समाजों को चुनौती देने की तैयारी करता है तो हंसी आती है।
अभी आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने पर यहां सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी शोर मचा रहे थे। वह ललकार रहे थे आस्ट्रेलिया के समाज को! उस समाज को जहां एक आम मेहनतकश अपनी योग्यता से शिखर पर पहुंच सकता है। कभी अपने अंदर झांकने की कोई कोशिश न करता यह समाज आस्ट्रेलिया के चंद अपराधियों के कृत्यों को उसके पूरे समाज से जोड़ रहा था। इस जड़ समाज के बुद्धिजीवियों की बुद्धि भी जड़ हो चुकी है। वह एक दो व्याक्ति या चंद व्यक्तियों के समूहों के कृत्यों को पूरे समाज से जोड़कर देखना चाहते हैं। दुःखद घटनाओं की निंदा करने से उनका मन तब तक नहीं भरता जब तक पूरे समाज को उससे नहीं जोड़ लेते। समाज! यानि व्यक्तियों का समूह! समूह या समाज के अधिकांश व्यक्तियों का उत्थान या पतन समाज का उत्थान या पतन होता है। मगर जड़ चिंतक एक दो व्यक्तियों को उदाहरण बनाकर समाज का उत्थान या पतन दिखाते हैं।
विदेश में जाकर किसी भारतीय ने तरक्की की उससे पूरे भारतीय समाज की तरक्की नहीं माना जा सकता है। मगर यहां प्रचारित होता है। जानते हैं क्यों?
इस जड़ समाज के शिखर पर बैठे लोग और पालतू प्रचारक यहां की नयी पीढ़ी को एक तरह ये यह संदेश देते हैं कि ‘विदेश में जाकर तरक्की करो तो जाने! यहां तरक्की मत करो। यहां तरक्की नहीं हो सकती। यहां तो धरती कम है और जितनी है हमारे लिये है। तुम कहीं बाहर अपने लिये जमीन ढूंढो।’
सामाजिक संगठनों, साहित्य प्रकाशनों, फिल्मों, कला और विशारदों के समूहों में शिखर पर बैठे लोग आतंकित हैंे। वह अपनी देह से निकली पीढ़ी को वहां बिठाना चाहते हैं। इसलिये विदेश के विकास की यहां चर्चा करते हैं ताकि देश का शिखर उनके लिये बना रहे।
यहां का आम आदमी तो हमेशा शिखर पुरुषों को अपना उदाहरण मानता है। शिखर पुरुषों की जड़ बुद्धि हमेशा ही जड़ चिंतकों को सामने लाती है और वह उसी जड़ प्रवृत्ति को प्रचार करते है ताकि ‘जड़ चिंतन’ बना रहे। विकास की बात हो पर उनके आकाओं के शिखर बिगाड़ने की शर्त पर न हो। एक चेतनाशील समाज को जब जड़ समाज ललकारता है तब अगर हंस नहीं सकते तो रोना भी बेकार है।
........................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, July 29, 2009

जमाना जड़ रहे-हिंदी व्यंग्य कविता (hindi hasya kavita)

वह लोग आसमान से नहीं उतरे
जो जमाने में बदलाव लायेंगे।
किताबों ने बना दिया है
उनकी अक्ल को जड़
इतिहास के इंसानों को
वह आसमान से उतरा बतायेंगे।
जमीन पर पैदा आदमी
जड़ की तरह जमा रहे
भीड़ में भेड़ की तरह सजता रहे
इसलिये झूठे किस्से बाजार में सजायेंगे।
ओ। भीड़ में सजे भेड़ की तरह सजे इंसानों
जिनके इशारों पर चलते हुए
अपनी जिंदगी और जमाने में
बदलाव की उम्मीद लगाये बैठे हो
अपनी कामयाबी की जड़ों को
तुम्हारी लिये वह मिट्टी में नहीं मिलायेंगेे।
गुलाम बनकर अपने पैरों पर
मारोगे तुम कुल्हारी
वह उनके दर्द से अपना कक्ष सजायेंगे।
.................................
जड़ बनकर लोग खड़े रहें
उन पर खड़ा करें अपनी कामयाबी महल।
बदलाव की वह कभी नहीं करेंगेपहल।
............................
नारा लगाते हैं वह
जमाने को बदल देंगे।
पर उनके काबू में रहे आम इंसान
इसलिये सभी जगह वह दखल देंगे।
....................................
जमाना जड़ रहे
उसी पर उनकी पीढ़ियों का भविष्य टिका है।
इसलिये कहते हैं वह सबसे यही
‘होगा वही सब कुछ
जो सर्वशक्तिमान ने लिखा है’।

...........................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, July 26, 2009

पहरेदार-हिंदी लघुकथा (paharedar-hindi laghu katha)

एक बेकार आदमी साक्षात्कार देने के लिये जा रहा था। रास्ते में उसका एक बेकार घूम रहा मित्र मिल गया। उसने उससे पूछा-‘कहां जा रहा है?
उसने जवाब दिया कि -‘साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। इतने सारे आवेदन भेजता हूं मुश्किल से ही बुलावा आया है।’
मित्र ने कहा-‘अरे, तू मेरी बात सुन!’
उसने जवाब दिया-‘यार, तुम फिर कभी बात करना। अभी मैं जल्दी में हूं!’
मित्र ने कहा-‘पर यह तो बता! किस पद के लिये साक्षात्कार देने जा रहा है।’
उसने कहा-‘‘पहरेदार की नौकरी है। कोई एक सेठ है जो पहरेदारों को नौकरी पर लगाता है।’
उसकी बात सुनकर मित्र ठठाकर हंस पड़ा। उसे अपने मित्र पर गुस्सा आया और पूछा-‘क्या बात है। हंस तो ऐसे रहे हो जैसे कि तुम कहीं के सेठ हो। अरे, तुम भी तो बेकार घूम रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘मैं इस बात पर दिखाने के लिये नहीं हंस रहा कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और मुझे नहीं! बल्कि तुम्हारी हालत पर हंसी आ रही है। अच्छा एक बात बताओ? क्या तम्हें कोई लूट करने का अभ्यास है?’
उसने कहा-‘नहीं!’
मित्र ने पूछा-‘कहीं लूट करवाने का अनुभव है?’
उसने कहा-‘नहीं!
मित्र ने कहा-‘इसलिये ही हंस रहा हूं। आजकल पहरेदार में यह गुण होना जरूरी है कि वह खुद लूटने का अपराध न कर अपने मालिक को लुटवा दे। लुटेरों के साथ अपनी सैटिंग इस तरह रखे कि किसी को आभास भी नहीं हो कि वह उनके साथ शामिल है।’
उसने कहा-‘अगर वह ऐसा न करे तो?’
मित्र ने कहा-‘तो शहीद हो जायेगा पर उसके परिवार के हाथ कुछ नहीं आयेगा। अलबत्ता मालिक उसे उसके मरने पर एक दिन के लिये याद कर लेगा!’
उसने कहा-‘यह क्या बकवास है?’
मित्र ने कहा’-‘शहीद हो जाओगे तब पता लगेगा। अरे, आजकल लूटने वाले गिरोह बहुत हैं। सबसे पहले पहरेदार के साथ सैटिंग करते हैं और वह न माने तो सबसे पहले उसे ही उड़ाते हैं। इसलिये ही कह रहा हूं कि जहां तुम्हारी पहरेदार की नौकरी लगेगी वहां ऐसा खतरा होगा। तुम जाओ! मुझे क्या परवाह? हां, जब शहीद हो जाओगे तब तुम्हारे नाम को मैं भी याद कर दो शब्द बोल दिया करूंगा।’
मित्र चला गया और वह भी अपने घर वापस लौट पड़ा।
..............................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, July 23, 2009

जवानी दीवानी और बुढ़ापा-हास्य व्यंग्य कविता (javani divani aur budhapa-hindi hasya kavita)

जब वह जवान थे
तब तक लिये खूब लिये उन्होंने मजे
अब बुढ़ापे में नैतिक चक्षु जगे।
किताबों में छिपाकर खूब पढ़ा यौन साहित्य
जब मन में आया
वयस्कों के लिये लगी फिल्म देखने
स्कूल छोड़कर भगे।
अब बुढ़ापे में आया है
समाज का ख्याल
उठा रहे अश्लीलता का सवाल
मचा रहे धमाल
युवाओं को संयम का उपदेश देने लगे।
.............................
फिल्म और किताब पर
उनको समाज हिलता नजर आता है।
भले अपनी जवानी में
नैतिकता का मतलब न समझा हो
बुढ़ापे में जवानों को समझाने में
कुछ अलग ही मजा आता है।

.....................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, July 19, 2009

संगीत बन गया है सोच का अपहरण करने वाला अस्त्र-आलेख(music in hindi film and tv)

किसी समय फिल्मों में पाश्र्व संगीत की सहायता से दृश्यों को भावपूर्ण बनाया जाता था। सामान्य स्थिति में दो व्यक्तियों के मध्य केवल संवाद होने पर तीसरा व्यक्ति उन पर सहजता से ध्यान देता है। अगर उनके वार्तालाप में कुछ बात अपने समझने लायक हो तो उस पर अपनी राय भी देता है। अगर वार्तालाप का विषय उसे प्रिय न हो तो वह अनसुना भी कर सकता है। चूंकि फिल्मों में दर्शक को बांधे रखना जरूरी है इसलिये उसमें संगीत इस तरह डाला जाता है कि बेकार का संवाद भी प्रभावपूर्ण हो जाता है क्योंकि जो भाव अभिनेत्री अभिनेत्री के शब्द और सुर नहीं उभार सकते वह काम संगीत कर देता है। निर्देशक इस संगीत को मसाले की तरह सजाता है ताकि दर्शक एक मिनट भी अपने दिमाग में जाकर विचार न करे।
अगर किसी संवाद में विरह रस इंगित करना है तो उसी तरह का संगीत जोड़ दिया जाता है जिससे दर्शक या श्रोता उसमें बह जाये। अगर कहीं वीभत्स रस भरना है तो उसी तरह का भयानक शोर वाला संगीत प्रस्तुत किया जाता है। कहीं करुणा का भाव है तो संगीत को इस तरह जोड़ा जाता है कि संवाद और पात्र के सुर प्रभावी न हों तो भी आदमी अपनी जज्बातों की धारा में बह जाये। जैसे जैसे मनोरंजन के साधनों का विस्तार हुआ तो रेडियो और टीवी चैनलों में भी इसका प्रयोग होने लगा है। एक तरह से पाश्र्व संगीत आम आदमी के निजी भावों का अपहरण करने वाला साधन बन गया है।
टीवी चैनलों में सामाजिक धारावाहिकों में वीभत्स सुर का खूब प्रयोग हो रहा है। कहीं सास, कहीं बहु तो कहीं ननद जब अपने मन में किसी षड्यंत्र का विचार करती दिखाई देती है तो उसके पाश्र्व में दनादन संगीत का शोर मचा रहता है जिसमें संवाद न भी सुनाई दे तो इतना तो लग जाता है कि वह कोई भला काम नहीं करने जा रही। करोड़पति बनाने वाला कार्यक्रम सभी को याद होगा। अगर उसमें संगीत के उतार चढ़ाव नहीं होता तो शायद इतने दर्शक उससे प्रभावित नहीं होते।
यह केवल टीवी चैनल ही उपयोग नहीं कर रहे बल्कि अनेक संत अपने प्रवचनों में भी अपनी बात के लिये इसका उपयोग कर रहे हैं। उस दिन एक संत देशभक्ति की बात करते हुए भावुक हो रहे थे। वह शहीदों की कुर्बानी को याद करते हुए आंखों में आंसु बहाते नजर आये। उस समय पाश्र्व में करुण रस से सराबोर संगीत बज रहा था। स्पष्टतः यह व्यवसायिकता का ही परिणाम था।
सच कहें तो यह पाश्र्व संगीत एक तरह से पैबंद की तरह हो गया है। धारावाहिकों और फिल्मों में अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय से अधिक उनकी उससे अलग गतिविधियों की चर्चा अधिक होती है। हमारे अभिनेता और अभिनेत्रियां खूब कमा रहे हैं पर फिर भी उनको विदेशी कलाकारों से कमतर माना जाता है। सिफारिश के आधार पर ही लोग फिल्मों और धारावाहिकों में पहुंच रहे हैं। कहने को कलाकार हैं पर कला से उनका कम वास्ता कमाने से अधिक है। कुछेक को छोड़ दें तो अनेक हिंदी में काम करने वाले कलाकारों को तो हिंदी भी नहीं आती। अक्सर लोग यह सोचते हैं कि यह कलाकार अंग्रेजी में बोलकर हिंदी का अपमान करते हैं पर यह एक भ्रम लगता है क्योंकि उनकी पारिवारिक और शैक्षिक प्रष्ठभूमि इस बात को दर्शाती है कि उनको हिंदी का ज्ञान नहीं है। इतना ही नहीं अनेक गायक और गायिकायें ऐसे भी हैं जो केवल इसी पाश्र्व संगीत के कारण चमक जाते हैं।
देश में अनेक विवादास्पद धारावाहिकों को लेकर चर्चा होती है अगर आप गौर करें तो पायेंगे कि वह पाश्र्व संगीत के सहारे ही लोगों के जज्बातों को उभारते हैं। अगर उनमें संगीत न हो तो शायद आदमी इतना प्रभावित भी न हो और उनकी चर्चा भी न करे। यह तो गनीमत है कि समाचारों के साथ ऐसे ही किसी पाश्र्व संगीत की कोई प्रथा विदेश में नहीं है वरना हमारे समाचार चैनल उसका अनुकरण जरूर करते। अलबत्ता वह सनसनी खेज रिपोर्टों में वह इसका उपयोग खूब करते हैं तभी थोड़ी सनसनी फैलती नजर आती है। इसके अलावा वह ऐसे ही संगीतमय धारावाहिकों का प्रचार अपने कार्यक्रमों में कर संगीत की कमी को पूरा कर लेते हैं। सच कहा जाये तो पाशर्व संगीत आदमी की सोच को अपहरण करने वाला अस्त्र बन गया है।
.....................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, July 13, 2009

सच से परे होकर-हिंदी शायरी (sach se pare hokar-hindi shayri)

खड़े हो जिस ख्याली शिखर पर
वह अब बिफर रहा है।
तुम चले जा रहे जिस मंजिल की तरफ
उसका ढांचा अब बिखर रहा है।
दुनियां में हर जंग से लड़कर
उसे जीतना आसान तो तब होगा
जब अपने दुश्मन को पहले समझ पाओ
अपनी उल्झनों में पड़कर
तुम्हारा दिल दिमाग सिहर रहा है
सच से परे होकर
अंदाज से दुनियां की शयों से
मोहब्बत करने वाले
तेरे ही उल्टे दावों से तेरा खेल बिगड़ रहा है।

.........................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, July 10, 2009

आखिरी सच-व्यंग्य कविता (akhri sach-hindi vyangya kavita)

डरपोक लोगों के समाज में
बहादुर बाहर से किराये पर लाये जाते हैं.
किसी गरीब को न देना पड़े मुआवजा
इसलिए किसी की कुर्बानी
कहाँ दी गयी
इससे न होता उनका वास्ता
उधार के शहीदों के गीत
चौराहे पर गाये जाते हैं.

कमअक्लों की महफ़िल में
बाहरी अक्लमंदों के
चर्चे सुनाये जाते हैं
किसी कमजोर की पीठ थपथपाने से
अपनी इज्जत छोटी न हो जाए
इसलिए उनको दिए इसके दाम
सभी के सामने सुनाये जाते हैं.
घर का ब्राह्मण बैल बराबर
ओन गाँव का सिद्ध
यूंही नहीं कहा जाता
दौलतमंदों और जागीरदारों की चौखट पर
हमेशा नाक रगड़ने वाले समाज की
आज़ादी एक धोखा लगती है
फिर भी उसके गीत गाये जाते हैं.
---------------------
उसने कहा ''मैं आजाद हूँ
खुद सोचता और बोलता हूँ.''
उसके पास पडा था किताबों का झुंड
हर सवाल पर
वह ढूंढता था उसमें ज़वाब
फिर सुनाते हुए यही कहता कि
'वही आखिर सच है जो मैं कहता हूँ

------------------------
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, July 6, 2009

नही भज सकते अब साली और भाभी-व्यंग्य कविता (hasya vyangya kavita)

दनदनाता हुआ आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, तुम्हारे हिट होने के मिली गयी चाभी
तुम भी बना लो कोई व्यंग्य पात्र
जिसके नाम के साथ जोड़ दो भाभी।
गारंटी है हमारी, तुम्हारे फ्लाप होने का
सिलसिला भी टूट जायेगा
हर विरोधी सामने से फूट जायेगा
देखो प्रतिबंधित हो गयी एक वेबसाईट
जिसकी नायिका थी कोई कल्पित भाभी
लोग उसे अब अधिक ढूंढ रहे हैं
नाम लेकर लिख लिखकर कंप्यूटर पर कूद रहे हैं
तुम अपना ब्लाग भी पहुंचा दो
हिट का ताला खोलने वाली यही है एक चाभी।

सुनकर पहले चौंके
फिर अपना पसीना पौंछते कहें बोले दीपक बापू
‘कमबख्त इंटरेनेट पर कोई नाम हिट नहीं होता
बूढ़े हों या जवान ‘सेक्स’ शब्द डालकर
लगाते हैं यौन साहित्य के अथाह समुद्र में गोता।
अपनी आंखें फोड़ते रहेंगे
अपने ही शरीर का रस जलाकर
किससे शिकायत करेंगे
नाम कोई भी हो
घरवाली शब्द हिट नहीं दिला सकता
साली लिखो तभी कोई जाल में फंसता
जेठ को हिट नहीं बना सकती भाभी
देवर ही उसके यौन साहित्य की है एक चाभी।
तुमने आने में कर दी है देरी
हम लगा चुके भाभी साहित्य घर की फेरी।
मिल भी गये हिट वहां तो
हमारे किस काम आयेगा
हम ठहरे फोकटिया, धेला भी हाथ नहीं आयेगा।
फिर सोचो
आदमी कब तक उस श्रृंगार रस से चिपका रहेगा
कभी तो अति होने की बात कहेगा
फिर हास्य रस की तरफ आयेगा
फंदेबाज, सच कहें तो
तुमने इतने हिट दिला दिये हैं
उन पर ही हमें नाज है
तुम्हारे सामने पहली बार खोला यह राज है
इससे अधिक क्या कहें
नहीं भज सकते अब साली और भाभी।

...............................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, July 2, 2009

हिंदी भाषा के वीभत्स शब्दों पर भरोसा-व्यंग्य आलेख (hasya vyangya in hindi)

समलैंगिकों को कानूनी अधिकार क्या मिला इस देश में एक ऐसी बहस चली पड़ी है जिसका आदि या अंत फिलहाल नजर नहीं आता। यहां हम समलैंगिकों के अधिकारों या उनकी मनस्थिति पर विचार न कर यही देखें कि इस पर तर्क क्या दिया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आज थोड़ा हिंदी के उस वीभत्स रूप पर जरा गौर करें जो समलैंगिकों को डरा सकता है। यह डर है गालियों का। अधिकतर शिक्षित लोग गालियां न देते हैं न सुनने का उनमें सामथ्र्य होता है। कुछ लोग देते हैं पर सुनने की हिम्मत नहीं करते।
समलैंगिक एक आकर्षक शब्द लगता है पर यह केवल बड़े शहरों में रहने वाले मनोविकारी लोगों को ही सुहा सकता है। छोटे शहरों और गांवों में अगर समलैंगिक अगर पहुंच जाये तो उसे जो शब्द अपने लिये सुनने को मिलेगा उसे वह समझेगा नहीं और सच बात तो यह है कि उस शब्द का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि आशय ही समलैंगिकता के अधिक निकट है। समलैंगिक संबंध वही बनायेगा जिसने उस शब्द को कभी सुना नहीं होगा।
जब हिंदी के वीभत्य रूप का विचार आया तो यह प्रश्न भी उठा कि क्या जितने भयानक शब्द हिंदी-जिसे विश्व की सर्वाधिक मधुर और वैज्ञानिक भाषा भी अब माना जाने लगा है-में होते हैं उतने किसी अन्य भाषा में भी शायद ही होते होंगे। कम से कम अंग्रेजी में तो नहीं होते होंगे क्योंकि अपने यहां अंग्रेजी में बोलने वाले हेकड़ हमेशा ही गालियों के लिये हिंदी का जिस सहारा लेते हैं उससे तो यही लगता है।
बात से बात यूं निकली कि एक विद्वान ने कहा कि समलैंगिक संबंध बीमारी नहीं है-यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है। अगर यह सच है तो पश्चिम और पूर्व की संस्कृति में जमीन आसमान का अंतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उससे अधिक तो अंतर तो मानवीय सोच में है। अगर इस तरह की सोच ही सभ्यता का प्रतीक है तो हम भारतीय असभ्य भले मगर विश्व के अध्यात्मिक गुरु कहे जाने वाले अपने भारत देश में विश्व संगठन की यह राय कतई स्वीकारी नहीं जा सकती।
अगर हमारे देश के विद्वानों का यह मानना है कि जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन बीमारी नहीं मानता तो उसे हम भी नहीं मानेंगे तो कुछ कहना व्यर्थ है। इस देश के विद्वानों और प्रचार माध्यमों का कहना ही क्या? स्वाईन फ्लू के देश में कुल सौ मरीज भी नहीं है पर आप उसके बारे में पढ़ेंगे और सुनेंगे तो लगेगा कि जैसे पूरा देश ही स्वाईन फ्लू की चपेट में हैं जबकि उससे हजार गुना लोग तो टीवी, पीलिया आंत्रशोध और मलेरिया से पीड़ित हैं उससे बचाव के तरीकों का प्रचार अधिक नहीं होता क्योंकि उसकी दवायें तो ऐसे ही बिक जाती हैं पर स्वाइन फ्लू को एक विज्ञापन की जरूरत है जो जागरुकता पैदा करने के नाम पर ही चलता है। हम तो आज तक यही नहीं समझ पाये कि हेपेटाइटिस और पीलिया में अंतर क्या है? आखिर हैपेटाइटिस के टीके लगते हैं पर वह पीलिया से किस तरह अलग हमें पता नहीं।
बात हम करें समलैंगिक संबंधों की तो उसके लिये जो हिंदी में शब्द है वह इतना वीभत्स है कि हमारा बूता तो यहां लिखने का नहीं हैं। अक्सर एक पुरुष जब दूसरे से नाराज होता है तो वही शब्द कहता है और फिर झगड़ा अधिक बढ़ जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन को उस गाली के बारे में नहीं मालुम होगा! अंग्रेजी में गिटिर पिटिर करने वालों को नहीं पता कि मंकी (बंदर) शब्द उनके लिये जिस तरह नस्लवाद का प्रतीक है वैसे ही पुरुष समलैंगिक संबंधों के लिये ऐसा शब्द हिंदी में है जिस पर कोई भला लेखक तो लिख ही नहीं सकता।
अंतर्जाल पर एक लेखक ने उस भयानक लगने वाले शब्द को अपने ब्लाग पर लिखा था। हिंदी के ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरम पर जब हमने उसे पढ़ा तो पूरा दिन उस फोरम का रुख नहीं किया। इतना ही नहीं उस फोरम ने बाद में उस लेखक का ब्लाग का लिंक ही अपने यहां से हटा लिया। उससे मन इतना खराब हुआ कि दो आलेख और तीन व्यंग्य कवितायें जब तक नहीं लिख डाली तब चैन नहीं आया। नहीं लिखा तो वह शब्द।
हिंदी वार्तालाप करने वाले सामान्य लोगों में बहुत से लोग गालियों का उपयोग करते हैं। हां, अब शिक्षित होते जाने के साथ ही गालियों का आद्यक्षर कर लिया है जैसे कि अंग्रेजी का संक्षिप्त नाम लिखते हैं। सभ्य लोग इन्ही आद्यक्षरों के सहारे काम चलाकर अपने गुस्से का इजहार कर लेते हैं। इसकी एक दिलचस्प घटना याद आ रही है। आस्ट्रेलिया के साथ एक मैच में एक भारतीय खिलाड़ी ने आस्ट्रेलियो के खिलाड़ी को मंकी (बंदर) कह डाला। इस पर भारी हायतौबा मची। भारतीय खिलाड़ी पर प्रतिबंध भी लगा। आरोप लगाया कि यह तो सरासर नस्लवाद है। भारत में इस पर जमकर विरोध हुआ। कहा गया कि ‘भारतीय कभी नस्लवादी नहीं होते।’

सच कहा होगा। आप तो जानते हैं कि चाय के ठेलों, विद्वानों की बैठकों और बाजारों में ऐसे घटनाओं पर खूब चर्चा होती है। एक सज्जन ने कहा-‘हम भारतीय बहुत सज्जन हैं। विदेश में जाकर ऐसी हरकतें करें यह संभव नहीं है। फिर गुस्से में बंदर कहें यह तो संभव ही नहीं है। बंदर तो यहां प्यार से कहा जाता है। हां, यह संभव है कि भारतीय सभ्य खिलाड़ी ने क्रोध में आकर उस गाली का आद्यक्षर प्रयोग किया हो जिसका स्वर मंकी (बंदर) के रूप में सुनाई दिया हो।’
पता नहीं उस आदमी का यह कहना सही था या गलत पर जो लोग उसे सुन रहे थे उनका मानना था कि ऐसा भी हो सकता है।
जब हमने एक विद्वान सज्जन द्वारा समलैंगिकता को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उसे बीमारी न मानने की बात सुनी तब लगा कि अब हमारे देश के लोग उस हर चीज और विचार पर फिर से दृष्टिपात करें जो उन्होंने अपनाया है। एक भयानक मनोविकार अगर बीमारी नहीं है तो फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन किस आधार पर यह कहता है कि ‘इस दुनियां में चालीस फीसदी से अधिक लोग मनोविकारों का शिकार है पर उनको पता नहीं है।’
अगर वह इसे मानसिक रोग नहीं मानता तो उसे जाकर बतायें कि हिंदी में इसके लिये विकट शब्द है जो बहुत भड़काने वाला है। यह शब्द उस मंकी शब्द से अधिक विस्फोटक है जिसे वह लोग नस्लवाद का प्रतीक मानते हैं।
वैसे जब चालीस फीसदी मनोरोगियों के होने की बात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कही थी तब हमने सोचा कि वह संख्या कम ही बता रहा है क्योंकि इंसान जिस तरह की हरकतें कर रहे हैं उससे तो यह संख्या पचास से अधिक ही लगती है और यह वह लोग हैं जिनके पास धन, प्रतिष्ठा और पद की ताकत है, वह मदांध हो रहा है। किसी को कुचलकर वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है। बाकी पचास फीसदी तो गरीब हैं जिनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो ऐसे मनोविकार पाल सकें।
अगर हमारी बात पर यकीन न हो तो इस विषय पर टीवी पर चर्चायें सुन लो। अखबार पढ़ लेना। कुछ लोग समलैंगिक अधिकार मिलने पर नाच रहे हैं तो कुछ विरोध में धर्म और संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं। जो नाच रहे हैं उनके मनोरोगी होने पर हम क्या कहें? मगर जो विरोध कर रहे हैं वह मनोरोगी हैं या भावनाओं के व्यापारी यह भी देखने वाली बात है।
कह रहे हैं कि
1.इससे समाज भ्रष्ट हो जायेगा।
2.क्या इस देश में माता पिता चाहेंगे कि उनके बच्चे समलैंगिक बन जायें।
3.यह तो पूरी प्रकृति के लिये खतरा है
उनके सारे तर्क हास्यास्पद हैं। हमें तो अपनी मातृभाषा के हिंदी शब्द कोष में अदृश्य रूप से मौजूद वीभत्स शब्दों के साथ ही अपने देश के युवकों और युवतियों में अध्यात्मिकता की तरफ बढ़ते रुझान पर पूरा भरोसा है। बड़े शहरों का पता नहीं छोटे शहरों तथा गांवों में रहने वाले युवक भी उन शब्दों का उपयोग करते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि समलैंगिक शब्द के लिये कौनसा शब्द है? वैसे भी हमारे महापुरुष कहते हैं कि असली भारती गांवों में बसता है। समलैंगिकता भी वैसा ही रोग है जैसा स्वाईन फ्लू-दिखेगा कम पर प्रचार माध्यमों में चर्चित अधिक होगा। चंद समलैंगिक लोगों की वजह से देश की युवा पीढ़ी को अज्ञानी मान लेना हमें स्वीकार्य नहीं है। इस देश के युवक युवतियां पश्चिमी देशों से अधिक चेतनशील हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वहां पहुंचकर अपनी योग्यता का लोहा नहीं मनवाते। यह योग्यता मनोविकारी नहीं अर्जित कर सकते।
....................................
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

लोकप्रिय पत्रिकायें

विशिष्ट पत्रिकायें

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर