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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, March 28, 2015

कोई किसी का नाथ नहीं है-हिन्दी कविता(koi kisi ka naath nahin ia-hindi poem)



सवार है वह सत्ता के रथ पर
घोड़ों की लगाम
उनके हाथ में नहीं है।

सारथि चाबुक के सहारे
रास्ता तय कर रहा है
सवार की सलाह
उसके साथ नहीं है।

कहें दीपक बापू तख्त पर
बैठने वालों के चेहरे देखकर
उनके शक्तिमान होने का अहसास
केवल एक भ्रम है,
जिंदगी की चाल
चलने के अपने क्रम है,
कोई राजा
कोई प्रजा
कोई किसी का नाथ नहीं है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Tuesday, March 24, 2015

व्यवसायिक क्रिकेट मनोरंजन उद्योग मानना चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख(cricket is not a play but a tred-hindi article on cricket match)



          अभी आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता समाप्त भी नहीं हुई है कि भारत में एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का प्रचार प्रारंभ हो गया है। सभी टीवी चैनल पर उसका विज्ञापन आ रहा है।  तय बात है कि क्रिकेट जहां आम लोगों के लिये खेल है तो व्यवसायियों के लिये यह मनोरंजन का सामान बन गया है।  मेरे विचार से क्रिकेट का खेल तभी तक खेल है जब तक उसे मुफ्त मन बहलाने के लिये अपनाया जाये। जहां पैसे का लेनदेन हो वहां इसे व्यापार मानना चाहिये।  एक तरह से यह फिल्म की तरह ही आम जनमानस का मनोरंजन करता है।
          ऐसे में यह सवाल उठता है कि जिस तरह छोटे बड़े व्यापारियों से कर वसूली की जाती है उसी तरह क्या क्रिकेट से भी की जायेगी?  जब सड़क पर ठेले और फुटपाथ पर गुमटी लगाने वाले से कर वसूला जाता है यह मानकर कि वह कमाता है तो क्या क्रिकेट का व्यापार करने वालों से भी राजस्व वसूली नहीं की जाना चाहिये?

          अनेक आर्थिक विशेषज्ञ तो यही कहते हैं कि इस पर उसी तरह मनोरंजन कर लगना चाहिये। हालांकि क्रिकेट से छोटी या बड़ी राशि कमाने वाले कथित नये पुराने खिलाड़ी इसे प्रोत्साहन देने के लिये करमुक्त की सुविधा जारी रखने के समर्थक हैं।  जहां तक नये तथा युवा खिलाड़ियों की बात है तो सभी को राष्ट्रीय या क्लब स्तरीय टीम में जगह नहीं मिलती पर अनेक इस प्रयास में रहते हैं कि शायद उनका भाग्य चमक जाये।  इतना ही नहीं अनेक क्रिकेट कोच तथा संस्थान हजारों युवकों को महान खिलाड़ी बनाने का सपना दिखाकर अपनी कमाई कर रहे हैं।  देखा जाये तो क्रिकेट खेल से सट्टा व्यवसाय ही नहीं बल्कि प्रशिक्षण उद्योग भी फलने फूलने के लिये खड़ा हो गया है।  हमने देखा है कि अनेक नवयुवक क्रिकेट खिलाड़ी बनने के लिये हाथ पांव मारने के बाद जीवन के दूसरे मार्ग की तरफ मुड़ गये पर इसके पहले उन्होंने ढेर सारी राशि अपने अपूर्ण सपने पर व्यय कर दी। जब से रंग बिरंगे कपड़े पहनने का प्रचलन क्रिकेट खिलाड़ियों में आया है तब से वह फिल्मी नायक की तरह लगते हैं।  जिस तरह पहले लोग फिल्म में भूमिका पाने के लिये लालायित रहते थे अब क्रिकेट खिलाड़ी बनने का प्रयास करते हैं-फिल्मों के बारे में तो अब यह धारण बन गयी है कि वहां पर अब वंशवाद की परंपरा चल पड़ी है इसलिये वहां सामान्य परिवार के लोग जाने की नहीं सोचते। शायद यही कारण है कि अनेक आर्थिक तथा सामाजिक विद्वान व्यवसायिक क्रिकेट को खेल नहीं वरन् मनोरंजन का व्यापार मानते हुए उससे राजस्व वसूली की सिफारिश करते हैं।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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Tuesday, March 17, 2015

वादों के सौदागर-हिन्दी कविता(vadon ke saudagar-hindi poem)



कागज़ पर हिसाब
लिखने का लाभ नहीं
जब दिल में ही
गड़बड़ फैली हो।

वह लोग कभी
अहसान का कर्ज नहीं चुकाते
जिनकी नीयत मैली हो।

कहें दीपक बापू वादों के सौदे
होते हैं भलाई के व्यापार में
ख्वाबों को सच में
वह सौदागर नहीं बदलते
जिनकी भरी थैली हो।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Saturday, March 7, 2015

प्रचार माध्यमों के प्रसारणों के समाज पर प्रभाव का अध्ययन आवश्यकर-हिन्दी चिंत्तन लेख(prachar madhyamon ke prasarnon ke samaja par prabhav ka adhyaya jaroori-hindi thought article)


            अंतर्जाल पर इस बात पर विवाद छिड़ा हुआ है कि दिल्ली दुष्कर्म के अपराधी पर वृत्त चित्र के प्रसारण के बाद कहीं सभ्रांत व्यवस्था से नाराजगी की वजह से ही दीमापुर नागालैंड में तो कहीं ऐसे ही कर्म के कथित आरोपी को भीड़  ने केंद्रीय जेल से निकालकर तो नहीं मार डाला। हम इस बात का न तो इस विचार का समर्थन कर रहे हैं न ही विरोध मगर जिस तरह फिल्म, टीवी तथा समाचार पत्रों की विषय सामग्री का प्रभाव समाज पर पड़ता है उसे देखकर तो यह लगता है कि किसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
            हमने तो यह भी देखा है कि सन् पचहतर से से दो हजार तक मुबईया फिल्मों में एंग्री यंगमेन छवि का प्रचार हुआ था उसे समाज का मनोरंजन जरूर हुआ पर लोगों में कहीं कायरता का भाव भी घर करता चला गया।  इन फिल्मों में कहीं किसी लड़की के साथ अभद्र व्यवहार होता दिखाया जाता था जिसमें भीड़ खड़ी देखती थी और कोई नायक आकर ही उसे बचाता था।  उससे भी बढ़ी चीज यह कि कोई फिल्मी पुलिस या सामान्य पात्र खलनायकों से पंगा लेता तो उसकी बहिन, बेटी या प्रेमिका की दुर्गति दिखाई जाती थी।  सीधी बात कहें तो उस समय जो अपराध केवल महानगरीय संस्कृति भाग थे वह पूरे देश में होते दिखे। हम कहते हैं कि फिल्मों ने अपराधों का देशव्यापीकरण किया पर यह आग्रह नहीं है कि सभी इस तर्क को माने।
            मनुष्य के मन का विज्ञान हर कोई नहीं जानता-इसमें पारंगत होने के लिये श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करना श्रेयस्कर हो सकता है। आंतरिक भावों का निर्माण कब किस तरह हो जाये पता नहीं।  इतना तय है कि मनुष्य अपने मन का ही गुलाम होता है। इसलिये किसी प्रेरणा के कारणों को न तो मान्य किया जा सकता है न खारिज।  दिल्ली से लंदन और फिर दीमापुर मनुष्य मन की यात्रा कैसे हो जाये पता नहीं।  इस पर तो अनुमान ही लगाये जा सकते हैं।  बहरहाल इसी विषय पर पहली रचना भी ठीक इसी क्रम में है।
http://aajtak-patrika.blogspot.in/2015/03/navin-aur-prachin-samajik-siddhanton-ka.html
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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