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Monday, December 19, 2011

बिना पांव का झूठ उड़ता चलेगा-हिन्दी कविता (bina paanv ke jhooth udta chalega-hindi kavita or poem or shayari)

जोर से चिल्लाओं
बेबस, गरीब और मरीजों की सेवा करेंगे,
कुछ कायदे कागज पर छपवाओ
सारे जहान के घर में मेवा भरेंगे।
कहें दीपक बापू
झूठ बिना पांव के
इसलिये उड़ता चलेगा,
तुम ही नहीं
तुम्हारा भाविष्य का खानदान भी
इतिहास के सहारे पलेगा,
अगर चले सत्य की राह
कुब्बत होगी तो
चढ़ जाओगे आसमान पर
वरना गैर ही क्या
अपने ही तुम पर हंसेंगे।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Monday, December 12, 2011

दीपक बापू कहिन ने पार की तीन लाख पाठक संख्या-हिन्दी संपादकीय

            दीपक भारतदीप समूह के दीपक बापू कहिन ब्लॉग/पत्रिका ने तीन लाख की पाठक/पाठ पठन संख्या पार कर ली है। यह कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है पर जब देश में भाषा का तोतलीकरण-अंग्रेजी शब्दों की मिलावट-हो रहा हो और आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत नयी पीढ़ी सहज हिन्दी को बोध से विरक्त हो रही हो तब हम जैसे फोकटिया लेखकों के लिये इतना ही बहुत है कि उनके ब्लॉग अपनी विषय सामग्री के दम पर कुछ पाठक जुटा लेते हैं। यह सही है कि हिन्दी जगत में इस लेखक का नाम कोई चर्चित हस्ताक्षर नहीं है पर इससे लिखने समय जो बेपरवाही होती है वह ऐसी रचनाओं के सृजन में सहायक होती है जिसको चुराकर लोग छापना चाहते हैं।
             जिस तरह देश को आधुनिक बनाने के नाम पर अंग्रेजी पद्धति थोपी गयी उससे बेरोजगारों की फौज बनती जा रही है। उसी तरह अब हिन्दी भाषा में अंग्रेजी शब्द जोड़कर उसका तोतलीकरण हो रहा है। हमारे देश के मध्यम वर्ग के लोगों में विकास के नाम पर केवल अधिक से अधिक धन संपदा सृजन करते रहने का स्थाई भाव है। अधिक से अधिक सुविधा जुटाने की ललक पूरे समाज में है। सबसे बड़ी बात यह है कि बहुत कुछ कमाकर आराम से जिंदगी गुजारने का लक्ष्य है। इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है। मुश्किल यह है कि एक तो लोग आराम करना नहीं जानते दूसरी बात यह कि हमारी जो पंचतत्वों से बनी यह देह है उसमें मन, बुद्धि और अहंकार जैसी तीन प्रकृतियां हैं वह ऐसा नाच नचाती हैं कि विरले ज्ञानी ही उसके दुष्प्रभाव से बच पाते हैं। अगर किसी आदमी को ंसंगमरमर से बनी इमारत में बहुत दिन से रहना पड़े तो उसका मन गांव घूमने का करता है। जो गांव में है वह महल चाहता है। इस अंतर्द्वंद्व में फंसा आदमी इधर से उधर भटकता है। बदलते परिवेश में छोटा निजी व्यवसाय या नौकरी करना छोटे होने का प्रमाण बन गया है। इसलिये हमारा सभ्य समाज अपने लड़के लड़कियों के लिये विदेशों में नौकरी ढूंढ रहा है। पहले अंग्र्रेजी जरूरी जा रही थी तो अब उसे हिंन्दी में मिलाकर हिंगलिश बनाया जा रहा है। सभी को विदेश जगह नहीं मिलेगी और जो देश में बच गये वह यहां किस तरह गांव या मध्यवर्गीय शहर में काम करेंगे क्योंकि उनकी भाषा तो तोतली हो गयी होगी।
          लोगों की अपने बच्चों के भविष्य को लेकर बड़े सपने होते हैं जो अपने शहर में पूरे नहीं होते। इसलिये वह उनको बाहर भेजकर स्वयं अकेले रहना मंजूर कर लेते हैं। यह एकाकीपन अंततः उनके लिये असहनीय होता है। दूर रहते बच्चों पर आक्षेप आता है कि वह माता पिता को देखने नहीं आते। जब संस्कृति और संस्कार की बात हो तो प्राचीन बातें करते हुए सब खुश होते हैं, पर जब स्तर की बात हो तो अपने बच्चों को विदेश या परे दूसरे शहर में रहने के लिये स्वयं तैयार करने वाले दंपत्तियों का यह अंतद्वंद्व समाज में देखा जा सकता है। लब्बोलुआब यह कि खेल रही है माया और आदमी सोच रहा है कि मैं खेल रहा हूं।
       हम जब प्राचीन संस्कारों की बात करते हैं तो यह बात भी देखना चाहिए कि तब व्यवसाय और रहन सहन सहज था। अपने लोग अपनों के पास होते थे। अब विकास के नाम पर हमने जो मार्ग अपनाया है उसमें कथित रूप से संस्कारों की बात तो करना ही नहीं चाहिए। फिर भी लोग कर रहे हैं। ऐसे में व्यंग्य के लिये विषयों की कमी नहीं होती। लोग अपने सिर का बोझ दूसरे पर डालना चाहते हैं पर स्वयं किसी का बोझ उठाने को तैयार नहीं है। एक समृद्ध, संस्कारवान तथा प्रतिष्ठत परिवार का मुखिया होने का मोह आदमी को अंततः ऐसे संकट में डालता है जहां से उबरना सभी के बूते की बात नहीं होती।
        ऐसे में हम जैसे लोग उन गुरुओं का स्मरण करते हुए प्रसन्न होते हैं जिन्होंने तत्वज्ञान दिया है। इस नश्वर देह को लेकर जिस तरह लोग नाटकबाजी करते हुए उसे बर्बाद करते हैं उसे देखकर ज्ञानी लोग दुःखी होते हैं पर मुश्किल यह है कि अपने भौतिक शक्ति केंद्रों पर मजबूती से जमे आदमियों को यह बात समझाना मुश्किल ही नहीं खतरनाक भी होता है। आज ही रहीम के दोहे पर लेख लिखा था। उसका आशय यह था कि सच है तो संसार साथ नहीं है और झूठ है तो राम नहीं मिलते। ऐसे में यहां कुछ पैसा नही भी मिलने पर इस बात की प्रसन्नता होती है कि कबीर, रहीम, तुलसी, चाणक्य, विदुर तथा अन्य विद्वानों के संदेश और उन पर व्याख्यान लिखते हुए जो ज्ञान प्राप्त हो रहा है वह अनमोल है। लोग लाखों कमाते हैं पर ज्ञान तो विरलों को ही मिल पाता है। सच बात तो यह है कि ब्लॉग हमारे गुरु हो रहे हैं।
दीपक बापू ब्लॉग के तीन लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार करने पर पाठकों, मित्र ब्लॉग लेखकों तथा अंतर्जाल पर सक्रिय अज्ञात हिन्दी विशेषज्ञों का आभार। हिन्दी विशेषज्ञों को इसलिये आभार जता रहे हैं कि क्योंकि उनकी वजह से ही अनेक टूल लिखने के लिये मिले हैं।
संपादक और लेखक
दीपक भारतदीप
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, December 3, 2011

पूरा फोटो दिखाओ, हास्य कविता लिखाओ-हिन्दी हास्य कविता (pura foto dikhao, hasya kavita likhao-hindi comedy poem)

फंदेबाज हांफता हुआ आया और बोला
’’दीपक बापू सभी टीवी चैनलों ने
पाकिस्तान से भारत में आयातित
फिल्म अभिनेत्री का नग्न फोटो दिखाया,
मगर बहुत सारा हिस्सा काले रंग में छिपाया,
आप लिखो इस पर कोई कविता,
शायद आपके ऊपर लगा फ्लाप का ठप्पा मिट जाये,
बहने लगे सफलता की सरिता,
देखो
उसकी हरकातें से अपने देश में
पूरा ज़माना बिगड़ जायेगा,
चारों तरफ नग्न फोटो का जाल छायेगा,
अपनी संस्कृति इस तरह मिट जायेगी,
संस्कारों की जगह संकीर्णता आयेगी,
आज जैसे ज्ञानियों और ध्यानियों पर
अब देश का भविष्य टिका है
कुछ करो
वरना देश की अस्मिता खतरे में पड़ जायेगी।’’

दीपक बापू ने घूरकर फंदेबाज को देखा
फिर मुंह में रखी लोंग चबाते हुए कहा
‘‘कमबख्त,
पहली बात यह है कि हमें ज्ञानी और ध्यानी कहना
एक तरह से मजाक लग रहा है,
या फिर तू तस्वीर देखकर वाकई
हादसे का शिकार हो गया है
इसलिये तेरा तीसरा नेत्र जग रहा है,
वरना क्या हमारी कविताऐं पढ़कर
तू अभी तक समझा नहीं इस बाज़ार का खेल,
खींचना है जिसे आम आदमी की जेब से पैसा
भले ही निकल जाये उसका तेल,
हम किस आधार पर
इस फिक्स निर्वस्त्र धारावाहिक पर
अपनी हास्य कविता लिखें,
बिना पूरी तस्वीर देखे टिप्पणी कर
किस तरह जिम्मेदार शहरी दिखें,
हमने देखा टीवी चैनलों पर
पूरी तस्वीर नहीं दिखा रहे हैं
किसी तरह नैतिकता का पाठ
आज के जवानों को सिखा रहे हैं,
लगता है तेरे को गुस्सा इस बात पर नहीं कि
उसने नग्न फोटो क्यों प्रकाशित कराया,
बल्कि तुझे अफसोस है इस बात का
फोटो खिंचते समय वहां तू नहीं था
इस अफसोस ने तुझे सताया,
बिगड़ा है इस बात पर कि
पूरा फोटो किसी चैनल ने क्यों नहीं दिखाया,
तेरी आंखें तरस गयी
पाकिस्तानी अभिनेत्री का जिस्म देखने के लिये
जिसने अपने देश को नंगपन सिखाया,
मगर गुरु हम भी कम नहीं है,
बाज़ार हमसे लिखवा ले
आधे अधूरे प्रमाण पर
उसमें यह दम नहीं है,
पहले पूरा फोटो लाकर दिखाओ,
हमसे एक फड़कती हास्य कविता लिखाओ,
एक नंगे फोटो से संस्कृति और संस्कारों पर खतरा
दिखाकर हमें न डराओ,
हमारे दर्शन में बहुत ताकत है
यह सभी जानते हैं,
मगर दौलत और शौहरतमंद इंसान
अपनी हवस के लिये
धर्म, संस्कृति और नैतिकता की सीमाऐं
लांघ जाते हैं
यह भी मानते हैं,
अपनी हवस मिटाने के लिये
दुश्मन देश से दोस्ती करते हैं,
फिर बिगड़ जाये तो
यहां आकर देशभक्ति का दम भरते हैं,
क्रिकेट, फिल्म और टीवी के धारावाहिकों में
फिक्सिंग होती है यह सभी को पता है,
फंसते जो लोग उनकी अपनी खता है,
इसलिये आधे अधूरे फोटो पर
हम कुछ नही लिख सकते,
शालीनता और अश्लीलता के बीच
पाखंड बहुत चल रहा है
हम अपने को उसमें फंसते नहीं दिख सकते।’’
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, November 27, 2011

महंगाई, भ्रष्टाचार और दान की दर-हिन्दी हास्य कविता (megngai,bhratshtachar or corruption and donation or dan-hindi hasya kavita or comedy poem)

गुरुजी ने छेड़ा जैसे ही
महंगाई और भ्रष्टाचार विरोधी अभियान
चेले का दिल घबड़ाया,
वह दौड़ा आश्रम में आया,
और बोला
‘‘महाराज,
आप यह क्या करते हो,
जिनकी हमारे आश्रम पर पर कृपा है
ऐसे ढेर सारे समाज सेवक
बड़े पदों पर शोभायमान पाये जाते हैं,
कहीं सौदे में लेते कमीशन
कहीं कमीशन देकर सौदे कर आते हैं,
आपके दानदाता कई सेठों ने चीजों में कर दी महंगाई,
क्योंकि उनकी कृपा जबरदस्त पाई,
भ्रष्टाचार और महंगाई से
आम आदमी भले परेशान है,
पर इससे आपके दानदाताओं की बड़ी शान है,
इस तरह अभियान छेड़ने पर
वह नाराज हो जायेंगे,
बिफरे तो हमारे यहां भी
आप अपना खजाना खाली पायेंगे,
इस तरह तो आपके आश्रम में
सन्नाटा छा जायेगा,
सेठ और समाज सेवकों के घर
दान मांगने वाला आपका हर चेला
जोरदार चांटा खायेगा।’’

सुनकर गुरु जी बोले
‘‘कमबख्त, मुझे सिखाता है राजनीति
होकर मेरा चेला,
नहीं है तुझे उसका ज्ञान एक भी धेला,
महंगाई और भ्रष्टाचार
देश में बढ़ता जा रहा है,
आम आदमी हो रहा है विपन्न
अमीर के धन का रेखाचित्र चढ़ता जा रहा है,
मगर अपने दान की रकम
बीस बरस से वही है,
यह बिल्कुल
नहीं सही है,
जाकर दानदाताओं से बोल दे,
महंगाई और भ्रष्टाचार की तराजु में
अपने दान की रकम तोल दे,
हमारी रकम बढ़ा दें,
हम अपने अभियान पर
अभी नहीं की सांकल चढ़ा लें,
अगर नहीं मानते तो
यह अभियान सारे देश में छा जायेगा,
अपने पुराने दानदाता रूठें परवाह नहीं
कोई नया देने वाला आयेगा,
वैसे तुम मत परवाह करो
बस, उनके सामने जाकर अपनी चाह धरो,
मुझे मालुम है
तुम इसलिये घबड़ाये हुए हो,
क्योंकि दान की बड़ी रकम
उनसे लेकर दबाये हुए हो,
मगर मुझे चिंता नहीं
अपने दान की रकम जरूर वह बड़ा देंगे,
पंगे के डर से दान बढ़ा देंगे,
इस तरह हमारा खजाना भी
महंगाई और भ्रष्टाचार की बढ़ती
ऊंची दर तक
अपने आप पहुंच जायेंगा।’’
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Friday, November 18, 2011

समाज में चेतना-हिन्दी कवितायें (samaj mein chetana-hindi kavitaen)

नारे लेकर वह समाज में
चेतना लायेंगे,
मसलों का हल होना नहीं है
खोखले वादों का प्रमाणपत्र लेकर
जीत का जश्न मनायेंगे।
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देश में जिसे देखो
समाज में चेतना ला रहा है,
हर कोई अपने नुस्खों का महत्व
शोर के साथ सुना रहा है,
कहें दीपक बापू
बरसों से कोई मसला नहीं हुआ हल,
इतिहास में दर्ज होते नये महापुरुषों के नाम
देखकर दिमाग जाता है आग से जल,
समाज का कल्याण व्यापार बन गया है
हर सौदागर
प्रचार के लिये विज्ञापनों का जाल बुना रहा है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, November 11, 2011

बिग बॉस के घर में स्वामी-हिन्दी हास्य व्यंग्य (a swami in house of big boss-hindi satire article)

           दीपक बापू हाथ में पुराना थैला लेकर सब्जी खरीदने मंडी जा रहे थे। उनके मोहल्ले और मंडी के मार्ग के बीच में एक बहुत बड़ी कॉलोनी पड़ती थी। दीपक बापू जब भी मंडी जाते तो उसी कालोनी से होकर जाते थे। वहां बीच में पड़ने वाले शानदार मकानों, बहुमंजिला इमारतों और किसी नायिका के चेहरे की तरह चिकनी सड़कों पर अपनी साइकिल चलाते हुए वह आहें भरते थे कि ‘काश! हमारा मोहल्ला भी इस तरह का होता’।
         कुछ दिन पहले वह इसी कालोनी में जब गुजरे तब उनकी मुलाकात आलोचक महाराज से हुई तो दीपक बापू ने अपने मन की यही बात उनसे कही थी तो उन्होंने झिड़कते हुए कहा कि-‘‘रहे तुम ढेड़ के ढेड़! यह क्यों नहंी सोचते कि तुम्हारा घर ऐसी कालोनी में होता। वैसे ऐसा घर तुम्हारा भी यहां होता अगर इस तरह की बेहूदी कवितायें लिखकर बदनाम नहीं हुए होते। चाहे जिसे अपना हास्य का शिकार बनाते हो। कोई तुम्हें प्रायोजित नहीं कर सकता। बिना प्रायोजन के कवि या लेखक तो रचनाओं का बोझ ढोले वाला एक गधे की तरह होता है जो कभी अपने तो कभी जमाने का दर्द ढो्रता है।’’
            उस कालोनी में अक्सर आलोचक महाराज का आना होता था और दीपक बापू उनसे मुलाकात की आशंका से भी भयग्रस्त रहते थे। अगर उनको कहंी दूर से आलोचक महाराज दिखते तो वह साइकिल से अपना रास्ता बदल लेते या पीछे मुड़कर वापस चले जाते। आज उन्होंने देखा कि कालोनी में दूर तक सड़क पर कोई नहंी दिखाई दे रहा था-न आदमी न कुत्ता। यह दीपक बापू के लिये साइकिल चलाने की आदर्श स्थिति थी। ऐसे में चिंत्तन और साइकिल एक साथ चलना आसान रहता है। इसलिये आराम से साइकिल पर बैठे उनके पांव यंत्रवत चल रहे थे।
वह एक मकान से गुजरे तो एक जोरदार आवाज उनके कानों में पड़ी-‘ओए दीपक बापू! हमसे नजरें मिलाये बगैर कहां चले जा रहे हो।’’
          दीपक बापू के हाथ पांव फूल गये। वह आवाज आलोचक महाराज की ही थी। उन्होंने झैंपकर अपनी बायें तरफ देखा तो पाया कि चमकदार कुर्ता और धवन चूड़ीदार पायजामा पहने, माथे पर तिलक लगाये और गले में सोने की माला पहने आलोचक महाराज खडे थे। खिसियाते हुए वह आलोचक महाराज के पास गये और बोले-‘‘महाराज आप कैसी बात करते हैं, आपकी उपेक्षा कर हम यहां से कैसे निकल सकते हैं? कभी कभार हल्की फुल्की रचनायें अखबारों में छप जाती हैं यह सब आपकी इस कृपा का परिणाम है कि आपकी वक्रदृष्टि हम पर नहीं है। वैसे यहां आप ‘बिग बॉस निवास’ के बाहर खड़े क्या कर रहे हैं? जहां तक हमारी जानकारी है इस घर में आप जैसे रचनाकारों का घुसना वर्जित है। यहां की हर घटना का सीधा प्रसारण टीवी चैनलों पर दिखता है। आप जैसे उच्च व्यक्त्त्वि इसके अंदर प्रविष्ट होना तो दूर बाहर इस तरह खड़ा रहे यह भी उसके स्तर के अनुकूल नहीं दिखता।’’
           आलोचक महाराज बोलें-‘अच्छा, हमें समझा रहे हो! तुम्हारे जैसे स्तर का महान हास्य कवि यहां से निकल रहा है इस पर भी कोई सवाल कर सकता है। बिग बॉस में ढेर सारी सुंदरियां आती है, कहीं उनको देखने के प्रयास का आरोप तुम पर भी लग सकता है।’’
           दीपक बापू बोले-‘‘नहीं महाराज, हमें तो कोई जानता भी नहीं है। आप तो प्रसिद्ध आदमी है। बहरहाल हमें आज्ञा दीजिये। बिना आज्ञा यहां पोर्च तक आ गये यही सोचकर डर लग रहा है। निवास रक्षक ने अगर आपत्ति कहीं हमें पकड़ लिया तो आप हमें यहां बुलाने की बात से भी इंकार कर पहचानने ने मना कर देंगे।’’
आलोचक महाराज बोले-‘‘आज हम यहां स्वामी आगवेशधारी का इंतजार कर रहे हैं। उनको हमने बिग निवास में प्रवेश दिलवाया है। उनको समझाना है कि क्या बोलना है, कैसे चलना है? तुम जानते हो कि हम तो अब कंपनियों के पटकथाकार हो गये हैं।’’
           दीपक बापू बोले-‘‘स्वामी आगवेशधारी का यहां क्या काम है? वह तो गेरुऐ वस्त्र पहनते है और उनका अभिनय से क्या वास्ता है?’’
           आलोचक महाराज बोले-‘तुम इसलिये फ्लाप रहे क्योंकि तुम बाज़ार और प्रचार का रिश्ता समझे नहीं । अरे, दीपक बापू आजकल वही कंपनियां साहित्य, कला, राजनीति, धर्म और फिल्म में अपना पैसा लगा रही हैं जो हमें सामान बनाकर बेचती हैं। टीवी चैनल और अखबार भी उनकी छत्रछाया में चलते है। वही समाज में सक्रिय अभिनेताओं, स्वामियों, लेखकों, चित्रकारों और समाज सेवकों को प्रायोजित करती है। किसको कब कहां फिट कर दें पता नहीं। फिल्म और टीवी की पटकथा तक कंपनियां लिखवाती हैं। आदमी इधर न खप सका तो उधर खपा दिया। स्वामी धर्म और समाज सेवा के धंधे में न चला तो अभिनेता बना दिया। हमे क्या? हम तो ठहरे रचनाकार! जैसा कहा वैसा बना दिया।’’
           दीपक बापू अवाक खड़े होकर सुनते रहे फिर बोले-‘‘महाराज अब हमारे समझ में आया कि हम फ्लाप क्यों हैं? इतना बड़ा राज हमने पहली बार सुना। यह आगवेशधारी स्वामी तो कभी गरीब बंदूकचियों की दलाली करता था। फिर यह इधर हमारे तीर्थयात्रियों पर कुछ अनाप शनाप बोला। बाद में समाज सुधार आंदोलन में चला आया। वहां उसने अपने ही लोगों को पिटवाने का इंतजाम करने का प्रयास किया। बाहर किया गया। फिर कहीं श्रीश्री के यहां मौन व्रत पर चला गया। अब फिर इधर बिग बॉस के घर आ रहा है। अपने समझ में अभी तक नहीं आया। यह बाज़ार और प्रचार का मिलाजुला खेल है।’’
           आलोचक महाराज बोले-‘‘तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा! तुम्हारी बुद्धि मोटी हैं। तुम्हें इतना पहले भी कई बार समझाया कि हमारे यहां बंदूकची हों या चिमटाधारी समाज सेवा में लगें या विध्वंस मे,ं आदमी का प्रायोजन तो कंपनियां ही करती हैं, पर तुम अपनी हास्य कविताओं तक ही सीमित रहे।’’
इतने में दीपक बापू ने देखा कि एक गेरुए वस्त्रधारी पगड़ी पहने एक स्वामी कार से उतर रहे हैं। आलोचक महाराज दनदनाते हुए वहां पहुंच गये और बोले-‘‘आईये महाराज, आईये महाराज! बिग बॉस के घर में आपका स्वागत है।’’
          स्वामी ने कहा-‘‘तुम बिग बॉस हो। लगता तो नहीं है! बिग बॉस तो जींस पहने, काला चश्मा लगाये और सिर पर टोपी धारण करने वाला कोई  जवान आदमी होना चाहिए। तुम तो जैसे कुर्ता पायजामा पहनने के साथ माथे पर तिलक लगाये और सोने की माला पहने कोई नेता लग रहे हो।’
        आलोचक महाराज बोले-‘हुजूर बिग बॉस वास्तव में कौन है पता नहीं! अलबत्ता चाहे इस घर में विज्ञापन मैनेजर जिस अभिनेता को चाहते हैं वही बनकर हमारे सामने आता है। अब बताईये इस कंपनी राज में बिग बॉस भला कभी दिखता है? यहां तक कंपनियों के बॉस भी अपने को दूसरे नामों से पुकारे जाते हैं। हां, आपकी भूमिका मुझसे ही लिखवाई गयी थी। एक कंपनी ने कहा कि हमारा प्रायोजक आदमी इस समय फालतु घूम रहा है उसे काम दो। वह समाज सुधार में फ्लाप हुआ तो गरीबों के उद्धार में उसके सामने पैंच आ जाते हैं ? आपका चेहरा जनता के सामने से गायब न हो जाये इसलिये किसी टीवी धारावाहिक में उपयोग करें। इसलिये हमने तय किया कि आपको बिग बॉस से अच्छी जगह नहीं मिल सकती।’
          स्वामी ने कहा-‘कोई बात नहीं। इस समय मेरा समय ठीक नहीं चल रहा है। बिग बॉस के घर से अपनी छवि सजाकर फिर समाज सेवा करने जाऊंगा। वैसे मुझे तुम्हारे लिखे डायलाग की जरूरत नहीं है। मेरे पास अपना अध्यात्मिक ज्ञान बहुत हैं।’’
          आलोचक महाराज बोले-‘महाराज, वह ठीक है। डायलाग लिखना मेरा काम है। आप अपने चाहे मेरे लिखे बोलें या अपने सुनायें पर नाम मेरा ही होगा।’’
           स्वामी ने दीपक बापू की तरफ देखते हुए पूछा-‘‘यह बूढ़ा आदमी यहां क्या कर रहा है?’’
आलोचक महाराज ने कहा-‘यह एक फ्लाप हास्य कवि है। काम मांगने आया था। मैंने कहा कि हमें तो हमारे महाराज मिल गये अब तुम निकल लो।’’
           स्वामी ने कहा-‘‘अच्छा किया! मुझे हास्य कवियों से नफरत हैं। वैसे यह फटीचर धोती, कुर्ता और टोपी पहने हुए है। इससे बिग बॉस के घर क्या बरामदे तक नहीं आने देना चाहिए। कुछ हास्य कवियों ने मेरा मजाक बनाया है इसलिये उनसे चिढ़ हो गयी है।’
        आलोचक महाराज ने वहां से दूर ले जाकर दीपक बापू से कहां-‘‘निकल लो गुरु तुम यहां से! तुमने इस पर एक हास्य कविता लिखी थी। हमने इंटरनेट पर पढ़ी है। अगर कहीं तुम्हारा नाम इसे पता चला तो हो सकता है एकाध चमाट मार दे।’’
        दीपक बापू बाहर निकलते हुए बोले-सच कहते हो आलोचक महाराज। यह बिग बॉस का निवास और इधर यह स्वामी! फिर आपकी मौजूदगी! हमारे लिये यहां हास्य कविता लायक लिखने का विषय हो नहीं सकता। गंभीर चिंत्तन और दर्दनाक रचनायें हमसे होती नहीं हैं। सो हम तो चले।’’
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, October 27, 2011

सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा पर कितना रोयें-हिन्दी लेख (government hospital and comman public-hindi article)

         कलकत्ता के एक अस्पताल में 48 घंटे में 11 से 14 बच्चों की मौत का समाचार टीवी चैनलों पर देखने और सुनने को मिला। ऐसा समाचार वहां इसी वर्ष जून में भी मिला था। उस समय प्रचार माध्यमों की व्यग्रता देखकर अस्पताल में सुधार की बात कही गयी। अब प्रचार माध्यम स्वयं कह रहे हैं कि सुधार के नाम पर वहां शून्य है और मौतों का सिलसिला जारी है।
          भारत में शिशु दर की अधिकता ही बढ़ती जनसंख्या का कारण मानी जाती है क्योंकि जन्मदाता अपने शिशुओं के जीवन को लेकर आश्वस्त नहीं होते और बुढ़ापे में आसरे की खातिर अधिक बच्चों को जन्म देते हैं। हालांकि बढ़ती जनसंख्या में अशिक्षित नागरिकों के साथ ही देश के अविकसित होना भी एक कारण माना जाता हैं। देखा यह गया है कि विकसित देश में जनंसख्या कम होती है तो वही धनाढ्य नागरिक भी अधिक बच्चों के जनक नहीं होते। बहरहाल मौतों पर मचे बवाल पर चिकित्सकों का कहना है कि पांच या छह बच्चे कलकत्ता के उस अस्पताल में बड़ी बात नहीं है। उनका यह भी स्पष्टीकरण है कि बच्चे वहां इतनी खराब हालत में लाये जाते हैं कि उनमें से सभी को बचाना मुमकिन नहीं रहता। वहीं मृत शिशुओं के परिवार उन पर चिकित्सा में लापरवाही का आरोप लगाते हैं। वैसे हमारे देश में पं बंगाल प्रदेश तथा पड़ौसी देश बंग्लादेश अधिक आबादी और गरीबी के कारण जाने जाते हैं तब कलकत्ता जैसे महानगर के अस्पताल में ऐसी घटना होना कोई बड़ी बात नहीं लगती पर चिंताजनक तो है।
            ईमानदारी की बात यह है कि हमें दोनों की बातों से विरोध नहीं है। सीधी बात कहें तो दोनों ही अपने तर्क पर सही हो सकते हैं पर मूल बात यह है कि शिशुओं की मौत हो रही है और इसके लिये हम समाज को इस अपराध ने बरी नहीं कर सकते। एक बात तो यह है कि बढ़ते भौतिकतावाद ने शिशुओं की रक्षा के उत्तरदायित्वों से लोगों को विमुख कर दिया है। माता पिता हों या चिकित्सक दोनों ही एक तरह से ऐसी मौतों के लिये जिम्मेदार माने जा सकते हैं। हम देखते हैं कि बीमारी की शुरुआत में लोग उसे यह कहकर टाल देते हैं कि एक दो दिन में सही हो जायेगी। यहां तक घरेलू परंपरागत उपचार तक से लोग परहेज करते हैं। यहां हम यह भी बता दें कि हमारा यह अनुभव रहा है कि शुरुआती दौर में अगर घरेलू उपाय किये जायें तो खांसी, जुकान, सिरदर्द तथा अन्य बीमारियों से मुक्ति पाई जा सकती है। यह अलग बात है कि कुछ लोग झाड़ फूंक में वक्त खराब करते हैं और घरेलू उपचार में हिचकते हैं। उसके बाद जब बीमारी बढ़ती है तो फिर नीम हकीमों के चक्कर पड़ जाते हैं। जब मामला बिगड़ता है तब सरकारी अस्पताल की तरफ जाते हैं। यह भी देखा जाता है कि जब निजी चिकित्सालयों के स्वामियों को लगता है कि मरीज का अब आगे चलना मुश्किल है तब उसे सरकारी अस्पताल की तरफ रवाना करते हैं।
         सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा पर लिखना अब समय बेकार करना है। स्थिति यह है कि अगर जेब में बहुत पैसा हो तो बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो सरकारी अस्पताल का रुख करेंगे। स्थिति यह है कि जिनके पास कम पैसा है वह तो संकट में पड़ जाते हैं कि सरकारी अस्पताल जायें या निजी नर्सिंग होम की शरण लें। अनेक लोगों को तो सरकारी अस्पताल में इलाज कराने पर उलाहना भी झेलना पड़ता है। एक समय था जब सरकारी अस्पतालों में अच्छी व्यवस्था थी और वहां उपचार कराने पर विश्वास होता था कि ठीक हो जायेंगे। प्रसंगवश हमें याद आया कि उस समय विद्यालय भी सरकारी अधिक बेहतर माने जाते थे। कथित उदारीकरण के चलते सारा स्वरूप बदल गया है। कहने को हमारे यहां लोकतांत्रिक प्रणाली है पर जिस तरह जनउपयोगी सेवाओं में बदहाली के चलते उनका निजीकरण हुआ है उससे तो यही लगता है कि व्यवस्था का मुख आमजन के कल्याण से अधिक जगह धनपतियों की तरफ खुला है। जनकल्याण के दावे खोखले लगने लगे हैं क्योंकि अब रोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जीवन की अन्य दिनचर्याओं के लिये लोग अब राज्य से अधिक धनपतियों पर निर्भर हो गये हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर जनकल्याण के दावे करने वाले किस तरह उस पर अमल कर सकते हैं क्योंकि यहां तो आमजन का दैनिक सरोकार अब निजी क्षेत्र पर निर्भर हो गया है।
          आखिरी बात यह है कि अक्सर प्रचार माध्यम दावा करते हैं कि हमारी खबर के परिणाम की वजह से यह कार्यवाही हुई या वह काम हुआ। यह दावा वहीं सही सिद्ध होता है जहां निजत्व का संबंध होता है। जैसे कहीं घोटाला हुआ या हत्या हुई या कहीं चोरी हुई उसका राजफाश करने पर अपराधी तो पकड़ा जाता है पर जहां व्यवस्था का कोई दोष सामने उजागर होने पर भी उसमें सुधार नहीं होता। जब कलकत्ता के अस्पताल की खबर पहले आयी थी तब भी व्यवस्था नहीं सुधरी। इसका मतलब सीधा है कि व्यवस्था में सुधार का दावा प्रचार माध्यम नहीं कर सकते। शक्तिशाली और संगठित लोग या समूह उनकी खबरों से नहीं डरते। बहरहाल कलकत्ता का यह अस्पताल अगर इसी तरह चलता रहा तो आगे प्रचार माध्यमों के लिये इसी तरह की सनसनी खबरों में बना रहेगा।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, October 16, 2011

सुरसा महंगाई से कौन करेगा लड़ाई-हिन्दी कविताएँ (sursa mehangai se kaun karega ladai-hindi kavitaen)

जरूरत चीजों की दामों में महंगाई पर
उनको फिक्र नहीं है,
गरीब के दर्द का उनके बयानों में जिक्र नहीं है,
मगर फिर भी देशभक्ति दिखाने का नारा दिये जाते हैं,
कौन समझायें उनको
वफादारी के सबसे बड़े सबूत हैं कुत्ते
वह भी रोटी न देने पर गद्दार हो जाते हैं।
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बरसों से सुन रहे हैं
सुरसा की तरह बढ़ रही महंगाई,
इंतजार है हमें
कोई हनुमान आकर करे लड़ाई।
इंसानों में फरिश्ते नहीं होते,
हुक्मराम और प्रजा में बराबर के रिश्ते नहीं होते,
महलों में बैठे लोग
मशगुल हैं अपने ही आप में
कभी लड़ते लूट की कमाई पर
कभी करते एक दूसरे की बड़ाई।
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Friday, October 7, 2011

बगावत-‘हिन्दी लघु कथा कहानी (bagawat-hindi short story or kahani satire)

          एक इंसान ने पर्वत की ऊंचाई की तरफ कई पत्थर उछाल कर फैके। उस पर्वत पर फरिश्तों का समूह बैठता था जो नीचे रहने वाले इंसानों के भाग्यविधाता थे। यह अलग बात है कि वह जुटाता ते मक्खन खाने का सामान था पर नीचे इंसानों के पास सूखी रोटी भेजता था ।
          उस इंसान ने कई पत्थर फैंके तो एक पत्थर फरिश्तों की सभा के बीच गिर ही गया। इस पर वहां हाहाकार मच गया। हमेशा वाह वाह सुनने और गपशप के आदी फरिश्तों को ऐसे पत्थर झेलने की आदत नहीं थी। उनको यह पता था कि नीचे से किसी इंसान की इतनी न हिम्मत है न औकात कि उन पर पत्थर तो क्या लकड़ी का टुकड़ा भी फैंक सके। इंसान को भूखा रखा तो ठीक और रोटी का झूठा टुकड़ा तो भी ठीक! अगर वह फरिश्ता जाति का नहीं है तो जिंदा क्या मरा क्या?
           पत्थर के टुकड़े इस तरह गिरना वहां सनसनीखेज खबर जैसा था। सारे फरिश्ते टीवी के सामने चिपक गये कि देखें आगे क्या होता है? यहां तक कि इंसानों में भी ब्रेकिंग खबर फैल गयी तो वह भी ऊपर ताक रहे थे कि कहीं से कोई फरिश्ता तो पत्थर की चोट खाकर नीचे तो नहीं टपक रहा।
          फरिश्तों ने आकाश की तरफ देखा। वहां ऐसा कोई संकेत मौजूद नहंी था कि पत्थर वहां से फैंका गया हो। फरिश्तों ने जांच शुरु की। खुफिया एजेंसी के मुखिया को तलब किया गया। फरिश्तों के प्रधान ने इस पर चिंता जताई। खुफिया संस्था के मुखिया ने बताया कि यह अंतरिक्ष के जीवों की साजिश का परिणाम है। कुछ एलियन धरती पर घूमते हैं तो कभी पर्वत पर भी चले आते हैं। इनमें कोई मौका मिलते ही पत्थर फैंक गया होगा।
           जांच जारी थी कि एक पत्थर फिर आ गिरा। अब नीचे झांका गया तो एक आदमी पर्वत की तरफ पत्थर उछाल रहा था।
          एक फरिश्ते ने जाकर अपने प्रधान को बताया कि-‘‘साहब, एक इंसान हमारी तरफ पत्थर फैंक रहा है। वह कह रहा है कि ‘तुम फरिश्ते इसलिये कहलाते हो क्योंकि मेरे जैसे इंसान नीचे रहते हैं। अगर हम न हों तुम फरिश्ते नहीं कहला सकते। आखिर हमारी तरह तुम्हें भी तो दो पांव, दो हाथ, दो आंख, एक नाक, एक मुख और दो कान हैं। अब तुम कर्तव्य विमुख हो रहे हो। हमारे साथ न्याय नहंी कर रहे हो’ इसलिये हम तुम्हें पहाड़ से उतारकर अपनी जमात में बिठायेंगे।’’
            फरिश्तों के प्रधान ने अपने सचिव से कहा-‘‘जाओ, उसे लाकर कहीं अपने पर्वत पर बसा दो। अपनी बिरादरी में शामिल करने से वह हमारी लिये वफादार हो जायेगा।’’
           सचिव ने कहा-‘‘महाराज! इस तरह हम अनेक इंसानों को ऊपर ला चुके हैं। सभी के सभी हरामखोर हैं। हमने जब उनसे कहा कि इस इंसान को रोको तो कोई मधुमेह की बीमारी का बहाना कर घर में घुस गया तो कोई दिल के दौरे की नाम लेकर अस्पताल में दाखिल हो गया। अब यह इंसान यहां मत लाईये।’
          फरिश्तों के प्रधान ने कहा‘‘मूर्ख! यह बगावत रोकने का तरीका है। इस समय वह एक इंसान पत्थर फैंकता रहा तो दूसरे भी फैंकने लगेंगे। धरती पर बरसों में कोई एक क्रांतिकारी पैदा होता है। जो इंसान पहले आये वह सब बूढें हो गये हैं। यह जवान है इसलिये उसे बुलाकर बसा लो। सुरा, सुंदरी और संपत्ति की चाशनी में डुबो दो। फिर कोई दूसरा करता है तो यह उसे कुचलने के काम आयेगा।’
           सचिव उस इंसान को पर्वत पर ले आया। एक फरिश्ते ने उससे कहा कि ‘‘अब तुम हमारे आदमी हो। यहां कोई बगावत मत करना।’
           उस इंसान ने कहा-‘मेरा काम हो गया। अब क्या मैं पागल हूं कि बगावत करूंगा। इस पर्वत पर और नीचे प्रचार में मेरा नाम आ गया। यहां सुरा और सुंदरी के साथ संपत्ति मिलेंगे। तब काहे की बगावत!’’
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Wednesday, September 21, 2011

32 रुपये और गरीबी-हिन्दी कविता (32 rupess and powerty or 32 rupaye aur garibi-hindi kavita or poem)

खबर यह थी कि
बत्तीस रुपये खर्च करने वाले लोग
गरीब नहीं माने जायेंगे,
किसी तरह की मदद नहीं पायेंगे।
तब तय किया भिखारियों की यूनियन ने
अब दानदाताओं से पांच दस रुपया मांगने की बजाय
पांच सौ और हजार रुपयें का नोट
मांगने के लिये हाथ बढ़ायेंगे,
खाना तो मिल जाता है कहीं भी
मगर दवा दारु के लिये
अब हमारा जिम्मा हमारे ही कटोरे पर है
उनको समझायेंगे।
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Sunday, September 11, 2011

नज़र और नजरिया-हिन्दी कवितायें (nazar aur nazariya,hindi kavitaen)

पुराने सामान रंगने के बाद भी
बिकने के लिये बाज़ार में सज जाते हैं,
बूढ़े चेहरे भी पुतकर क्रीम से आते पर्दे पर
लोगों के हाथ उनकी तारीफ में बज जाते हैं,
ज़माने ने आंखें भले खोलकर रखी हैं,
मगर सभी के नजरिये पर ताले लग जाते हैं।
...........................
आंखें खुली हों
मगर दिमाग बंद हो
नजारों की असलियत
लोग नहीं समझ पाते हैं,
जुबान से वह क्या बयान करेंगे
दूसरों की आवाज सुनकर
कान उनके झूमने लग जाते हैं,
कहें दीपक बापू
जगायें तो उन लोगों को
जो सो रहे हों,
यहां तो सभी जागते हुए भी
सोते नज़र आते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Tuesday, August 30, 2011

ईमानदारी का चेहरा-हिन्दी शायरी (imadari ka chehra-hindi shayari)

जमाने को रास्ता बताने के लिए
हर रोज एक नया चेहरा क्यों चाहिए,
इंसानों को इंसानों से बचाने के लिए
रोज किसी नए चौकीदार का पहरा क्यों चाहिए,
यकीनन इस धरती पर लोग
कभी भरोसे लायक नहीं रहे
वरना कदम दर कदम
धोखे से बचने के लिए एक ईमानदार क्यों चाहिए।
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आओ
बेईमानों की भीड़ में
कोई ऐसा आदमी ढूंढकर
पहरे पर लगाएँ,
जिसकी ईमानदारी के चर्चे बहुत हों,
धोखा दिया हो
मगर कभी पकड़ा नहीं गया हो।
पुराने बदनाम हैं
इसलिए उसका चेहरा भी नया हो।
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Wednesday, August 17, 2011

अन्ना हजारे (अण्णा हजारे) और बाबा रामदेव के आंदोलन की नाटकीयता विज्ञापन के लिये उपयुक्त-हिन्दी लेख (anna hazare aur swami ramdev ke andolan ki natkiyata aur vigyapn-hindi lekh)

        अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों पर टीवी समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में इतना प्रचार होता है कि अन्य विषय दबकर रह जाते हैं। एक दो दिन तक तो ठीक है पर दूसरे दिन बोरियत होने लगती है। इसमें     कोई संदेह नहीं है कि जब जब इस तरह के आंदोलन चरम पर आते हैं तब लोगों का ध्यान इस तरफ आकृष्ट होता है। अब यह कहना कठिन है कि प्रचार माध्यमों के प्रचार की वजह से भीड़ आकृष्ट होती है या उसकी वजह से प्रचार कर्मी स्वतः स्फूर्त होकर आंदोलन के समाचार देते हैं। एक बात तय है कि आम      ज जनमानस  पर उस समय गहरा प्रभाव होता है। यही कारण है कि इस दौरान समाचार चैनल ढेर सारे ब्रेक लेकर विज्ञापन भी चलाते हैं। हालांकि समाचार चैनलों के विज्ञापनों के दौरान लोग अपने रिमोट भी घुमाकर विभिन्न जगह समाचार देखते रहते हैं। इन समाचारों का प्रसारण इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि टीवी समाचार चैनल क्रिकेट और फिल्म की चर्चा भूल जाते हैं जिसकी विषय सामग्री उनके लिये मुफ्त में आती है। वैसे इन आंदोलनों के दौरान भी उनका कोई खर्च नहीं आता क्योंकि वेतन भोगी संवाददाता और कैमरामेन इसके लिये राजधानी दिल्ली में मुख्यालय पर नियुक्त होते हैं।
           इन आंदोलनों के प्रसारण को इतनी लोकप्रियता क्यों मिलती है? सीधा जवाब है कि इस दौरान इतनी नाटकीयतापूर्ण उतार चढ़ाव आते हैं कि फिल्म और टीवी चैनलों की कल्पित कहानियों का प्रभाव फीका पड़ जाता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि पूर्ण दिवसीय कोई फिल्म देख रहे हैं। अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के बाद समाचारों में इतनी तेजी से उतार चढ़ाव आया कि ऐसा लगता था कि जैसे कोई मैच चल रहा हो। स्थिति यह थी िएक मोड़ पर विचार कर ही रहे थे कि दूसरा आ गया। फिर तीसरा और फिर चौथा! अब सोच अपनी राय क्या खाक बनायें!
          बाबा रामदेव के समय भी यही हुआ। घोषणा हो गयी कि समझौता हो गया! हो गया जी! मगर यह क्या? जैसे किसी फिल्म के खत्म होने का अंदेशा होता है पर पता लगता है कि तभी एक ऐसा मोड़ आ जिसकी कल्पना नहीं की थी। कहने का अभिप्राय यह है कि इस नाटकीयता के चलते ऐसे आंदोलन प्रचार माध्यमों के लिये मुफ्त में सामग्री जुटाने का माध्यम वैसे ही बनते हैं जैसे क्रिकेट और फिल्में। हमने आज एक आदमी को यह कहते हुए सुना कि ‘इस समय लोग शीला की जवानी और बदनाम मुन्नी को भूल गये हैं और अन्ना का मामला गरम है।’ ऐसे में हमारे अंदर यह ख्याल आया कि फिल्म और क्रिकेट वाले जिस तरह मौसम का अनुमान कर अपने प्रदर्शन की तारीख तय करते हैं उसी तरह उनको अखबार पढ़कर यह भी पता करना चाहिए कि देश में कोई इस तरह का आंदोलन तो नहीं चल रहा क्योंकि उस समय जनमानस पूरी तरह उनकी तरफ आकृष्ट होता है।
         हमने पिछले दो दिनों से इंटरनेट को देखा। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव शब्दों से खोज बहुत हो रही है। यह तब स्थिति है जब टीवी चैनल हर पल की खबर दे रहे हैं अगर वह कहीं प्रतिदिन की तरह फिल्म और क्रिकेट में लगे रहें तो शायद यह खोज अधिक बढ़ जाये क्योंकि तब लोग इंटरनेट की तरफ ताजा जानकारी के लिये भागेंगे। हमने यह भी देखा है कि इन शब्दों की खोज पर ताजा समाचार लेख लगातार आ रहे थे। अगर समाचार चैनल ढील करते तो शायद इंटरनेट पर खोज ज्यादा हो जाती।
        अब खबरों की तेजी देखिये। पहले खबर आयी कि अन्ना हजारे कारावास से बाहर आ रहे हैं। अभी हैरानी से उभरे न थे कि खबर आयी कि उन्होंने बिना शर्त आने से इंकार कर दिया है। खबर आयी कि अन्ना साहेब की तबियत खराब है। मन में उनके लिये सहानुभूति जागी और यह भी विचार आया पता नहीं क्या होगा? पांच दो मिनट में पता लगा कि वह ठीक हैं।
        ऐसी नाटकीयता भले ही आम आदमी को व्यस्त रखती हो पर गंभीर लोगों के लिये ऐसे आंदोलन मनोरंजन की विषय नहीं होते। कभी कभी तो यह लगता है कि मूल विषय चर्चा से गायब हो गया है। खबरांे की नाटकीयता का यह हाल है कि अब बहस केवल अन्ना साहेब के अनशन स्थल और समय के आसपास सिमट गयी । जबकि मूल विषय देश के भ्रष्टाचार का निरोध पर चर्चा होना चाहिए था । इस पर अनेक लोगों का अपना अपना सोच है। अन्ना साहेब का अपना सोच है। ऐसे में निष्कर्ष निकालने के लिये सार्थक बहस होना चाहिए। देश में बढ़ता भ्रष्टाचार कोई एक दिन में नहीं आया न जाने वाला है। जब हम जैसे आम लेखक लिखते हैं तो वह इधर या उधर होने के दबाव से मुक्त होते हैं इसलिये कहीं न कहीं प्रचार के साथ ही प्रायोजन की धारा में सक्रिय बुद्धिजीवियों से अलग ही बात लिखते हैं पर संगठित समूहों के आगे वह अधिक नहीं चलती। स्थिति यह थी कि भ्रष्टाचार निरोध से अधिक अनशन स्थल पर ही बहस टिक गयी। हमारा तो सीधा मानना है कि आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों पर धनपति स्वयं या उनके अनुचर बैठ गये हैं। पूरे विश्व में प्रचार और समाज प्रबंधक उनके सम्राज्य के विस्तार तथा सुरक्षा के लिये आम जानमानस को व्यस्त रखते हैं। इससे जहां धनपतियों को आय होती है तो समाज के एकजुट होकर विद्रोह की संभावना नहीं रहती। हम अगर किसी देशी की वास्तविक स्थिति पर चिंतन करें तो यह बात करें तभी बात समझ में आयेगी। हमें तो इंटरनेट पर एक प्रकाशित एक लेख में यह बात पढ़कर हैरानी हुई थी कि अन्ना हजारे की गिरफ्तारी पर दुबई और मुंबई में भारी सट्टा लगा था। जहां भी सट्टे की बात आती है हमारे दिमाग में बैठा फिक्सिंग फिक्सिंग की कीड़ा कुलबुलाने लगता है। अभी तक क्रिकेट और अन्य खेलों के परिणामों पर सट्टेबाजों के प्रभाव से फिक्सिंग की बात सामने आती थी जिससे उनसे विरक्ति आ गयी पर जब ऐसी खबरें आयी तो यकीन नहीं हुआ। अन्ना साहेब भले हैं इसलिये उनके आंदोलन पर आक्षेप तो उनके विरोधी भी नहीं कर रहे पर इस दौरान हो रही नाटकीयता विज्ञापन प्रसारण के लिये बढ़िया सामग्री बन जाती है।
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Tuesday, August 9, 2011

कोई एक आयेगा-हिन्दी कविता (wait for one man army-hindi poem)

कोई एक हाथ ऐसा
आकाश से आयेगा,
जो हालात सुधार जायेगा
बाकी सभी हाथ सामान बटोरते रहेंगे।

कोई एक पांव जमीन पर
चलकर
सभी कांटों को कुचल जायेगा,
बाकी पांव मखमली घास पर चलते रहेंगे।

कोई एक इंसान
फरिश्ता बनकर मजबूरों का
सहारा बन जायेगा,
बाकी इंसान अपने घरों में सांस लेते रहेंगे।

यह सोच कितना अजीब है ज़माने का
एक अकेला सर्वशक्तिमान
यह दुनियां चला रहा है
वैसे ही उसका कोई एक कारिंदा
उनके टूटते हुए घर बचायेगा,
धरती के लोग तो
एक दूसरे को उजाड़ते रहेंगे।

अपनी चाहतों के जाल में फंसे लोग
ताक रहे इधर उधर
 कोई चूहा आकर आज़ाद करायेगा,
वह तो बेसुध होकर नाचते रहेंगे।
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Thursday, August 4, 2011

आज की कहानियों के दर्पण में समाज का प्रतिबिंब-हिन्दी लेख (today hindi story on TV chianal'episod and society)

          हिंदी में जो भी टीवी चैनल हम देखते हैं उसमे प्रसारित हास्य हो या सामाजिक पृष्ठभूमि वाला धारावाहिक, उनकी कहानियों का आधार बड़े शहरों की बहुमंजलीय इमारतों में रहने वाले लोगों की दिनचर्या ही होती है। कहा जाता है की साहित्य समाज का दर्पण है और इन कहानियों को यदि साहित्य माना जाये तो फिर कहना पड़ेगा कि पूरा भारत एक सभ्य और सम्पन्न देश है। छोटे शहरों, गांवों और गली, मुहल्लों और छोटे बाजारों का अस्तित्व ही मिट चुका है। इसका आभास बहुत कम बुद्धिजीवियों को होगा कि वह बड़े शहरों से बाहर जिस समुदाय को केवल प्रयोक्ता या उपभोक्ता समझकर चल रहा है, वह छोटे शहरों और गांवों में रहता है वह मानसिक रूप से धीरे धीरे इस बात को समझता है कि देश के बड़े शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी, रचनाकार, साहित्यकार, चित्रकार और फिल्मकार उसके साथ विदेशी जैसा व्यवहार कर रहे हैं। देखा तो यह भी जा रहा है कि हमारे देश के प्रसिद्ध बौद्धिक पुरुष किसी न किसी विदेशी समाज की सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विचारधारा से प्रभावित होकर अपना काम करते हैं। छोटे शहरों में रहने वाले लेखक, कवि, रचनाकार तथा कलाकार भी इस बात को मानते हैं कि बड़े शहरों का न होने के कारण उनको कभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर नहीं आ सकते। इस तरह हम देश में एक वैचारिक विभाजन देख सकते हैं।
            देश का शक्तिशाली बौद्धिक तबका अभी इस बात कि परवाह नहीं कर रहा है क्योंकि उसको लगता है कि देश में किसी भी प्रायोजित मुद्दे पर अपनी मुखर आवाज के दम पर चाहे जब लोगों को अपनी लय पर चला सकता है क्योंकि प्रचार माध्यम तो आखिर बड़े शहरों में ही चल रहे हैं और वहाँ केवल उसकी आवाज ही गूँजती है। सच कहें तो ऐसा लगता है कि देश केवल महानगर और राजधानियाँ रह गई हैं और छोटे श्हर उनके शासित प्रजा जहां के लोगों का अस्तित्व बेजुबानों से अधिक नहीं है।
                      कालांतर में इसके भयावह परिणाम होंगे। अभी तक देश का कथित बौद्धिक समुदाय सभी देश प्रेम तो कभी हादसों के समय समस्त लोगों को आंदोलित कर लेता है पर जैसे जैसे अधिक से अधिक लोगों में अपने छोटे शहर या गाँव की उपेक्षा का भाव होने की अनुभूति बढ़ती जाएगी वह उनके उठाया मुद्दों से विरक्ति दिखन लगेगा।
             टीवी चैनलों की कहानियों और कथानक साहित्य नहीं होते यह हम विशाल भारत की स्थिति को देखें तो साफ दिखाई देता है। विदेशी प्रष्ठभूमि की कहानी को देशी पात्रों के मिश्रण से तैयार करना वैसे भी साहित्य नहीं होता। व्यावसायिक रूप से यह इसलिए लाभप्रद दिखता है क्योंकि जिस हालत में रहता है उसे विपरीत कहानी देखना और सुनना चाहता है। भारत में छोटे शहरों में रहने वाले लोग बहुमंजलीय इमारतों में रहने वाले पात्रों को इसलिए देखते हैं क्योंकि उनके घर वैसे नहीं हैं और न वैसा माहोल मिलता है। कालांतर में वह इससे उसक्ता जाएगा और तब चित्तन और मनन का जब दौर चलगा तब उसका सोच अपनी उपेक्षा की तरफ जाएगा। तब देश के कथित बौद्धिक समुदाय के मुद्दों पर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देगा जैसी वह अपेक्षा करेगा।

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Sunday, July 24, 2011

ग्रेटर नोएडा मामलाः किसान और मध्यमवर्ग के हितों का आपसी संघर्ष-हिन्दी लेख (greater noeda -controvarsry in formar and middle class-hindi article)-

          ग्रेटर नोएडा मसले पर टीवी चैनलों पर जमकर बहस हो रही है। मामला देखें तो न्यायपालिका के उस निर्णय का है जो ज़मीन अधिगृहीत करने वाली संस्था तथा भूस्वामियों के बीच दिया गया है। यह ज़मीन अधिगृहीत कर भवन निर्माताओं को दी गयी थी जिन्होंने मकान बनाने का सपना दिखाकर मध्यमवर्गीय लोगों से पैसा ले लिया। अब न्यायालय के निर्णय के बाद किसान जमीन वापस मांग रहे हैं और मकान का सपना देख रहे मध्यम वर्गीय लोग आर्तनाद करते हुए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।
          कभी कभी तो इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि मध्यम वर्गीय समाज और किसानों के बीच यह जंग है। स्पष्टतः यह प्रचार और बहस विज्ञापनों के बीच सामग्री जुटाने का प्रयास भर है। मध्यम वर्गीय समाज और किसान बड़ी संख्या में है पर प्रत्यक्ष इस विवाद में उनके आपसी चर्चा योग्य कोई तत्व कहीं स्थापित नहीं हो सकते पर उनको लक्ष्य करके ही बहस और प्रचार हो रहा है जबकि मुख्य समस्या भवन निर्माताओं और भूमि अधिगृहीत करने वाली संस्था के बीच है। न किसानों से सीधे जमीन मध्यम वर्गीय लोगों को दी न ही उन्होंने ली। अलबत्ता पैसा मकान देने वालों का ही फंसा है।
        हम जैसे लोगों के लिये समाज को किसान तथा मध्यमवर्ग में बांटना कठिन है क्योंकि यह तो केवल अंग्रेजों की राजनीति रही है कि फूट डालो राज करो जो अब भी जारी है।
      मामला अभी चल रहा है पर एक बात तय रही है कि किसानों का जमीन बहुत जल्दी आसानी से मिल जायेगी यह लगता नहीं है अलबत्ता मध्यम वर्गीय लोगों के मकान लेने का सपना जरूरी महंगा हो जायेगा। संभव है कई लोगों का पूरा भी न हो। इस बहस में व्यवस्था की नाकामी कोई नहीं देख पा रहा है। किसान और मध्यम वर्गीय समाज आंदोलनों पर उतारू हैं जबकि दोनों ने कुछ गंवाया ही है। ऐसे में सवाल यह है कि इसमें कमा कौन रहा है?
सच बात तो यह है कि देश में उदारीकरण के बाद ऐसी अदृश्य शक्तियां कार्यरत हो गयी हैं जिनके हाथों की लंबाई का अंदाज नहीं लगता। आर्थिक शिखर पुरुष यह तो चाहते हैं कि देश का कानून उनके लिये उदार हो पर उस सीमा तक जहां से उनका काम शुरु होता है। बाकी जनता का नियंत्रण तो वह अपने व्यवसायिक कौशल से कर लेंगे। इसके अलावा जब पूंजीपतियों और उत्पादकों के हित की बात आती है तो हमारे देश के आर्थिक रणनीतिकार, विश्लेषक और चिंतकों की बुद्धि तीव्र गति पकड़ लेती हैं पर जब आम आदमी या उपभोक्ता की बात आती है तो सभी की सोच समाप्त होती दिखती है। हम पहले भी लिख चुके हैं कि देश में लाइसैंसीकरण प्रणाली पर भारतीय आर्थिक शिखर पुरुष लंबे समय हमेशा नाराजगी जताते रहे है पर उनके काम नहीं रुकते इसलिये अब कहना भी बंद कर दिया है।
हम ग्रेटर नोएडा के मामले में देखें तो आधिकारिक सस्थाओं ने ज़मीन अधिगृहीत कर बड़े भवन निर्माताओं को सौंप दी। संभवतः छोटे भवन निर्माता दिल्ली के पास की जमीन इसलिये नहीं खरीद सकते होंगे क्योंकि ऐसे तमाम कानून हैं जिससे कृषि योग्य जमीन को आवासीय स्थल में परिवर्तित होने से रोकते हैं। एक सामान्य आदमी के लिये यह संभव नहीं है कि वह कहीं जमीन खरीद का भवन बना सके। जबकि बड़े बड़े पूंजीपतियों ने देश के अनेक भाग चिन्हित कर कृषि भूमि योग्य जमीन को खरीदा क्योंकि उनके साथ ऐसी संस्थायें खड़ी थी जिनके ऐसे कानून बाधक नहीं होते और जो इसके लिये अधिकृत हैं कि देश की आवास समस्या का हल करें।
          बड़े धनपति अब देश के कानून में बदलाव की मांग नहीं करते क्योंकि उनके लिये हर काम आसान हो गया है। इस तरह देश शक्तिशाली और कमजोर दो भागों में बंट गया है। मध्यम वर्ग भी तक शक्तिशाली वर्ग के सहारे चलकर कमजोर पर भारी रहता था पर लगता है कि अब वह अप्रासांगिक होता जा रहा है। शक्तिशाली वर्ग का बस नहीं चलता वरना वह विदेश में सीधे जाकर यहां का काम चलाये। उनको अमेरिका, इंग्लैंड,फ्रांस और अन्य पश्चिमी देशों में अपना पैसा रखना पसंद है। उसकी तिजोरियां वहीं है और तय बात है कि उनकी आत्मा भी वहीं बसती है। इसलिये अनेक आर्थिक, सामाजिक तथा कला क्षेत्र के शिखर पुरुष कभी कभी ऐसे बयान देते हैं जैसे कि वह विदेशी हों। अब उदारीकरण के बाद तो ऐसे हो गया है कि किसान, निम्न और मजदूर वर्ग को मध्यम वर्ग से लड़ाकर शक्तिशाली वर्ग इस देश में अपना राज चलाता दिखता है। ऐसा लगता है कि वह इन विवादों से निजी संबंध नहीं रखता जबकि वह उसी के पैदा किये हुए हैं। एक तरफ किसान है जिन्होंने मजबूरी में जमीन दी तो दूसरी तरफ मध्यम वर्गीय लोग हैं जिनके सपनों पर ही अनेक शक्तिशाली लोग धनवान हो गये जिनके हाथ में गया धन फिर कभी लौटकर समाज के पास वापस नहीं आता।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, July 16, 2011

खामोशी वह चाबी है-हिन्दी शायरी (khamoshi vah chabi hai-hindi shayari

 आओ
कुछ लोगों को
दूसरे के  क़सूरों पर चिल्लाते देखें,
अपने दोनों हाथ मदद के लिए
लुटेरों के सामने उठाते देखें।
किसी के गम से हमदर्दी नहीं है जिनको
धंधे के आँसू वही बहाते हैं,
इसी तरह हमदर्द कहलाते हैं,
अपने कदमों को बढ़ाते वह  तेजी  से तब
आकाओं से इशारा मिलता जब,
आओ
अपनी आँखों से देखो
अपने नजरिये से सोचो
हंसी का खज़ाना मिलने लगेगा
खामोशी वह चाभी  है
उससे दिल-ओ-दिमाग को खोलकर देखें।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, July 6, 2011

गरीब की झुग्गी, अमीर का आशियाना-हिन्दी शायरी (garib ki jhuggi aur amir ka ashiyana-hindi shayri)

पहले अपनी फिक्र और
फिर अपनों की चिंता में
बड़े लोग महान बनते जा रहे हैंे,
कहीं पूरी बस्ती
कहीं पूरे शहर
खास पहचान लिये
इमारतों से तनते जा रहे हैं।
वहां बेबस और लाचार
आम इंसान का प्रवेश बंद है,
हर आंख पसरी है उनके लिये
जिनके पास सोने के सिक्के चंद हैं,
दब रही है गरीब की झुग्गी
अमीरी के आशियाने उफनते आ रहे हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Thursday, June 30, 2011

आधुनिक चिकित्सा में ध्यान का उपयोग-हिन्दी लेख *surgery and yoga sadhanna-hindi lekh

                ईरान के डाक्टर का एक किस्सा प्रचार माध्यमों में देखने को मिला जिसे चमत्कार या कोई विशेष बात मानकर चला जाये तो शायद बहस ही समाप्त हो जाये। दरअसल इसमें ध्यान की वह शक्ति छिपी हुई है जिसे विरले ही समझ पाते हैं। साथ ही यह भी कि भारतीय अध्यात्म के दो महान ग्रंथों ‘श्रीमद््भागवत गीता’ तथा ‘पतंजलि योग साहित्य’ को भारतीय शिक्षा प्रणाली में न पढ़ाये जाने से हमारे देश में से जो हानि हो रही है उसका अब शिक्षाविदों को अंांकलन करना चाहिए। यह भी तय करना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इन दो ग्रंथों का शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल न कर कहीं हम अपने देश के लोगों के अपनी पुरानी विरासत से परे तो नहीं कर रहे हैं।
           पहले हम ईरान के डाक्टर हुसैन की चर्चा कर लें। ईरान के हुसैन नाम के चिकित्सक अपने मरीजों को बेहोशी का इंजेक्शन दिये बिना ही उनकी सर्जरी यानि आपरेशन करते हैं। अपने कार्य से पहले वह मरीज को आंखें बंद कर अपनी तरफ घ्यान केंद्रित करते हैं। उसके बाद अपने मुख से वह कुछ शब्द उच्चारण करते हैं जिससे मरीज का ध्यान धीरे धीरे अपने अंगों से हट जाता है और आपरेशन के दौरान उसे कोई पीड़ा अनुभव नहीं होती। इसे कुछ लोग हिप्टोनिज्म विधा से जोड़ रहे हैं तो कुछ डाक्टर साहब की कला मान रहे हैं। हमें यहां डाक्टर हुसैन साहब की प्रशंसा करने में कोई संकोच नहीं है। उनके प्रयासों में कोई दिखावा नहीं है और न ही वह कोई ऐसा काम कर रहे हैं जिससे अंधविश्वास को बढ़ावा मिले। ऐसे लोग विरले ही होते हैं जो अपने ज्ञान का दंभ भरते हुए दिखावा करते हैं। सच कहें तो डाक्टर हुसैन संभवत उन नगण्य लोगों में हैं जो जान अनजाने चाहे अनचाहे ध्यान की विधा का उपयोग अपने तरीक से करना सीख जाते हैं या कहें उनको प्रकृत्ति स्वयं उपहार के रूप में ध्यान की शक्ति प्रदान करती है । उनको पतंजलि योग साहित्य या श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं होती। ध्यान की शक्ति उनको प्रकृति इस तरह प्रदान करती है कि वह समाधि आदि का ज्ञान प्राप्त किये बिना उसका लाभ लेने के साथ ही दूसरों की सहायता भी करते हैं।
           हुसैन साहब के प्रयासों से मरीज का ध्यान अपनी देह से परे हो जाता है और जो अवस्था वह प्राप्त करता है उसे हम समाधि भी कह सकते हैं। उस समय उनका पूरा ध्यान भृकुटि पर केद्रित हो जाता है। शरीर से उनका नाता न के बराबर रहता है। इतना ही नहीं उनके हृदय में डाक्टर साहब का प्रभाव इतना हो जाता है कि वह उनकी हर कही बात मानते है। स्पष्टतः ध्यान के समय वह हुसैन साहब को केंद्र बिन्दु बनाते हैं जो अंततः सर्वशक्मिान के रूप में उनके हृदय क्षेत्र पर काबिज हो जाते हैं। वहां चिक्त्सिक उनके लिये मनुष्य नहीं शक्तिमान का आंतरिक रूप हो जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी देह के विकार वैसे भी स्वतः बाहर निकलने होते है ऐसे में हुसैन जैसे चिकित्सक के प्रयास हों तो फिर लाभ दुगुना ही होता है। देखा जाये तो ध्यान में वह शक्ति है कि वह देह को इतना आत्मनिंयत्रित और स्वच्छ रखता है उसमें विकार अपना स्थान नहीं बना पाते।
         इतिहास में ईरान का भारत से अच्छा नाता रहा है। राजनीतिक रूप से विरोध और समर्थन के इतिहास से परे होकर देखें तो अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि ईरान की संस्कृति हमारे भारत के समान ही है। कुछ तो यह मानते हैं कि हमारी संस्कृति वहीं से आकर यहां परिष्कृत हुई पर मूलतत्व करीब करीब एक जैसे हैं।
         ध्यान कहने को एक शब्द है पर जैसे जैसे इसके अभ्यस्त होते हैं वैसे ही इस प्रक्रिया से लगाव बढ़ जाता है। वैसे देखा जाये तो हम दिन भर काम करते हैं और रात को नींद अच्छी आती है। ऐसे में हम सोचते हैं कि सब ठीक है पर यह सामान्य स्थिति है इसमें मानसिक तनाव से होने वाली हानि का शनैः शनै प्रकोप होता है। हम दिन में काम करते है और रात को सोते हैं इसलिये मन और देह की शिथिलता से होने वाले सुख की अनुभूति नहीं कर पाते। जब कोई सामान्य आदमी ध्यान लगाना प्रारंभ करता है तब उसे पता लगता है कि उससे पूर्व तो कभी उसका मन और देह कभी विश्राम कर ही नहीं सकी थी। सोये तो एक दिमाग ने काम कर दिया और दूसरा काम करने लगा और जागे तो पहले वाली दिमाग में वही तनाव फिर प्रारंभ हो गया। इसके बीच में उसे विश्राम देने की स्थिति का नाम ही ध्यान है और जिसे जाग्रत अवस्था में लगाकर ही अनुभव किया जो सकता है।
ध्यान के विषय में यह लेख अवश्य पढ़ें
पतंजलि योग विज्ञान-योग साधना की चरम सीमा है समाधि (patanjali yog vigyan-yaga sadhana ki charam seema samadhi)
        भारतीय योग विधा में वही पारंगत समझा जाता है जो समाधि का चरम पद प्राप्त कर लेता है। आमतौर से अनेक योग शिक्षक योगासन और प्राणायाम तक की शिक्षा देकर यह समझते हैं कि उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया। दरसअल ऐसे पेशेवर शिक्षक पतंजलि योग साहित्य का कखग भी नहीं जानते। चूंकि प्राणायाम तथा योगासन में दैहिक क्रियाओं का आभास होता है इसलिये लोग उसे सहजता से कर लेते हैं। इससे उनको परिश्रम से आने वाली थकावट सुख प्रदान करती है पर वह क्षणिक ही होता है । वैसे सच बात तो यह है कि अगर ध्यान न लगाया जाये तो योगासन और प्राणायाम सामान्य व्यायाम से अधिक लाभ नहीं देते। योगासन और प्राणायाम के बाद ध्यान देह और मन में विषयों की निवृत्ति कर विचारों को शुद्ध करता है यह जानना भी जरूरी है।
    पतंजलि योग साहित्य में बताया गया है कि 
           ------------------------------
      देशबंधश्चित्तस्य धारण।।
    ‘‘किसी एक स्थान पर चित्त को ठहराना धारणा है।’’
     तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम्।।
       ‘‘उसी में चित्त का एकग्रतापूर्वक चलना ध्यान है।’’
        तर्दवार्थमात्रनिर्भासयं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
        ‘‘जब ध्यान में केवल ध्येय की पूर्ति होती है और चित्त का स्वरूप शून्य हो जाता है वही ध्यान समाधि हो जाती है।’’
        त्रयमेकत्र संयम्।।
          ‘‘किसी एक विषय में तीनों का होना संयम् है।’’
           आमतौर से लोग धारणा, ध्यान और समाधि का अर्थ, ध्येय और लाभ नहीं समझते जबकि इनके बिना योग साधना में पूर्णता नहीं होती। धारणा से आशय यह है कि किसी एक वस्तु, विषय या व्यक्ति पर अपना चित्त स्थिर करना। यह क्रिया धारणा है। चित्त स्थिर होने के बाद जब वहां निरंतर बना रहता है उसे ध्यान कहा जाता है। इसके पश्चात जब चित्त वहां से हटकर शून्यता में आता है तब वह स्थिति समाधि की है। समाधि होने पर हम उस विषय, विचार, वस्तु और व्यक्ति के चिंत्तन से निवृत्त हो जाते हैं और उससे जब पुनः संपर्क होता है तो नवीनता का आभास होता है। इन क्रियाओं से हम अपने अंदर मानसिक संतापों से होने वाली होनी को खत्म कर सकते हैं। मान लीजिये किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति को लेकर हमारे अंदर तनाव है और हम उससे निवृत्त होना चाहते हैं तो धारणा, ध्यान, और समाधि की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। संभव है कि वस्तु,, व्यक्ति और विषय से संबंधित समस्या का समाधाना त्वरित न हो पर उससे होने वाले संताप से होने वाली दैहिक तथा मानसिक हानि से तो बचा ही जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
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Wednesday, June 22, 2011

रिश्ते बन गये कर्ज जैसे-हिन्दी शायरी (ban gaye karz jaise-hindi shayari)

उधार की रौशनी में
जिंदगी गुजारने के आदी लोग
अंधेरों से डरने लगे हैं,
जरूरतों पूरी करने के लिये
इधर से उधर भगे हैं,
रिश्त बन गये हैं कर्ज जैसे
कहने को भले ही कई सगे हैं।
--------------
आसमान से रिश्ते
तय होकर आते हैं,
हम तो यूं ही अपने और पराये बनाते हैं।
मजबूरी में गैरों को अपना कहा
अपनों का भी जुर्म सहा,
कोई पक्का साथ नहीं
हम तो बस यूं ही निभाये जाते हैं।
--------------
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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Saturday, June 18, 2011

साढ़े चार साल में दो लाख पाठक/पाठ पठन संख्या जुटा सका दीपक बापू कहिन ब्लाग-हिन्दी संपादकीय(hindi editorial on Deepak Bapu kahin)

            कल दीपक बापू कहिन ब्लाग ने दो लाख की पाठ पठन/पाठक संख्या पार कर ली। इसमें उसे चार साल का समय लगा जबकि इससे बाद के बने ब्लाग ‘हिन्दी पत्रिका’ तथा ‘ईपत्रिका’ ने ढाई लाख की सीमा तक पदार्पण कर लिया है। अभी भी यह कहना कठिन है कि हिन्दी ब्लाग जगत अपनी कोई उपस्थिति समाज की प्रक्रिया में दर्ज करा पा रहा है।
दीपक बापू कहिन के दो लाख पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने पर प्रसन्नता व्यक्त करने से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह जिंदगी के अनुभव सिखाने और समझाने वह ब्लाग है जिस पर लिखा जाता है पढ़ने के लिये, पर यह पढ़कर कई चीजें दिखाने वाला साबित हुआ है। यह इस लेखक का सबसे पहला ब्लाग है। ब्लाग बन गया यह भी पता नहीं लगा। यह ब्लाग है इसका पता दूसरा ब्लाग बनाने पर लगा।
       बहरहाल अपने साढ़े चार वर्ष की ब्लाग यात्रा से इस लेखक को बहुत कुछ ऐसी बातें प्रत्यक्ष रूप से अब समझ में आयीं जिनका पहले अनुमान भर  था। यह महत्वपूर्ण बात नहीं है कि हमारे ब्लागों को कितने लोगों ने पढ़ा बल्कि इन ब्लागों ने भारतीय समाज की सच्चाईयों कों गहराई से समझने का अवसर मिला यह तथ्य अत्यंत रोचक है। इसका आभास ब्लागों पर लिखे बिना नहीं हो सकता था क्योंकि बाज़ार, प्रचार तथा समाज के शिखर पुरुषों के लक्ष्य और उनकी पूर्ति में लगे प्रबंधकों ने अभिव्यक्ति के संगठिन साधनों पर इस कदर नियंत्रण कर रखा है उनकी योजनाबद्ध विचारधारा के प्रवाह को कोई समझ ही नहीं सकता। न लेखक न पाठक, न रचनाकार न दर्शक! लेखक रचनाकार प्रायोजित होकर वही लिख और रच रहे हैं जैसे उनके प्रायोजक चाहते हैं तो पाठक और दर्शक उसे स्वतंत्र वह मौलिक कृति समझ लेते हैं। एक सच यह कि प्रायोजित लेखन और रचना में अभिव्यक्ति अपना प्रभाव नहीं दिखाती क्योंकि वह चिंत्तन रहित होती है। दूसरा सच यह कि लेखन और रचनाकारी का प्रभाव अंततः समाज पर पड़ता है चाहे कोई इसे माने या नहीं। अगर हम आज अपने समाज को उथला, अंगभीर, चेतना विहीन, कायर तथा सामयिक विषयों से उदासीन पाते हैं तो इसका कारण यही है कि हमारे अखबार, टीवी, फिल्में और अन्य कलायें समाज के ऐसे ही स्वरूप का निर्माण कर रही हैं जिसमें आम इंसान के समक्ष प्रश्न छोड़ जाते हैं पर उत्तर नहीं होता। संवेदनाओं को उभारकर निराशा के अंधेरे में धकेला जाता है। साफ बात है कि प्रायोजक नहीं चाहते कि समाज स्वतंत्र रूप से मौलिक चिंतन वाला हो क्योंकि इससे वह अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढेगा। निराशा से आगे आकर आशाओं के लिये युद्ध करेगा जो कि उनके व्यापार के लिये खतरनाक है। जड़ समाज शिखर पुरुषों की सत्ता को स्थिर बनाये रखने में सहायक है कालांतर में वह राष्ट्र के लिये चिंत्तन के नाम पर केवल स्वार्थ पूर्ति का भाव संड़ांध फैलाने जा रहा है।
          ऐसे में ब्लाग लेखन एक आशा है पर फिलहाल उस पर विराम लगा मानना चाहिए। वजह यह कि बाज़ार और प्रचार के संयुक्त उपक्रमों ने टेलीफोन कंपनियों के प्रयोक्ता बनाये रखने के लिये एक समय ब्लाग का प्रचार किया। असीमित अभिव्यक्ति और पाठकों के बीच यह सेतु तेजी से बन सकता था पर बाद में ट्विटर और अब फेसबुक के प्रचार ने इसे हाशिए पर डाल दिया है। पहले अभिनेताओं, नेताओं, कलाकारों तथा अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के ब्लागों की चर्चा होती थी। अब यही ट्विटर और फेसबुक के लिये हो रहा है। पहले सुपर स्टार के ब्लाग की चर्चा हुई अब उनके ट्विटर और फेसबुक की बात होने लगी है। मतलब एक सुपर स्टार है जिसे बाज़ार अभिव्यक्ति की हर विधा के प्रचार लिये उपयोग करता है ताकि आम प्रयोक्ता आकर्षण के शिकार बने रहें। लोग भी उधर जाते हैं। अब लोगों से चर्चा में पता लगता है कि फेसबुक उनके लिये महत्वपूर्ण विषय हैं। ऐसे में ब्लाग लेखन निरुत्साहित हुआ है यानि अभी पहने तो यहां नये हिन्दी लेखकों यहां अपेक्षा नहंी करना चाहिए और अगर आयें तो उनको पाठक आसानी से मिलें यह संभव नहीं हैं। ऐसे में पाठक हमारा ब्लाग देखें तो वह कहीं उसे फेसबुक समझकर भूल जायेंगे यह सत्य भी स्वीकार करना चाहिए।
बीच में पाठक संख्या बढ़ती नज़र आती थी पर अब थम गयी है। सही मायने में अपनी औकात बतायें तो वह यह है कि हम अभी भी एक इंटरनेट प्रयोक्ता हैं और लेखक के रूप में हमारी भूमिका एक लेख के रूप में भारत में कहीं चर्चित होने की संभावना नहीं है। हर महीने सवा छह सौ रुपये अगर इंटरनेट पर न भरें तो अपने ही ब्लागों को देखने से वंचित रह जायें। फिर यह कोई कहने वाला भी नहीं है कि आकर दुबारा लिखो। फिर भी विचलित नहीं है क्योंकि बाज़ार, प्रचार और समाज के शिखर पुरुषों के संगठित गिरोह के रूप में कार्य करने का पहले तो अनुमान ही था पर अब लिखते लिखते दिखने भी लगा है। इससे आत्मविश्वास बढ़ा ही है कि चलो किसी का दबाव हम पर नहीं है।
         प्रायोजक लेखकों की औकात देख ली। किसी ने पाठ चुराये तो किसी ने विचार। हमारे एक मित्र ने एक बड़े लेखक का लेख देखकर हमसे कहा कि ‘यार, ऐसा लगता है कि जो बातें तुम हमसे कहते हो वही उसने अब लिखी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं तुम्हारा ब्लाग पढ़ा हो। वरना इतने साल से वह लिख रहे हैं पर ऐसी बात नहीं लिख पाये।’’
हमने कहा-‘‘पता नहीं, पर इतना जरूर जानते हैं कि आम पाठक भले ही ब्लाग न पढ़ता हो पर ऐसा लगता है कि बौद्धिक लोग पढ़ते होंगे और संभव है उन्होंने भी पढ़ा हो। अलबत्ता हमें आत्ममुग्धता की स्थिति में मत ढकेलो।’’
          हमारे दो पाठों के अनेक अंश लेकर एक लेख बना दिया गया। अध्यात्मिक ब्लाग को तो ऐसा मान लिया गया है जैसे कि कोई मुफ्त में लिख रहा हो। हमें हंसी आती है। पहले दुःख हुआ था पर श्रीमद्भागत गीता, पतंजलि योग शास्त्र, चाणक्य नीति, विदुर नीति, कबीर, रहीम, तुलसीदास,कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा गुरुग्रंथ साहिब पर लिखते लिखते ज्ञान चक्षु खुलते जा रहे हैं। ऐसे में दृष्टा बनकर देह को कर्ता के रूप में देखते हैं। वह दैहिक कर्ता कुछ नहीं कह सकता पर उसकी बात हम उससे लिखवा रहे हैं कि ‘ऐ मित्रों, पाठ चुराते रहो, विचार चुराते रहो इससे कुछ नहीं होने वाला! तुम इसके अलावा कुछ कर भी नहीं सकते। हमने कर्ता को देखा है वह जिन हालातों में लिखता है, सोचता है और चिंत्तन करता है वैसे में रहने की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। सबसे बड़ी बात उस जैसा परिश्रम तुम नहीं कर सकते न तुम में वह योग्यता है। यह योग्यता केवल अध्यात्मिक चेतनाशील व्यक्ति के पास ही आ सकती है। पाखंड, शब्द चोरी, अहंकार और भ्रष्टाचार में लगे तुम जैसे लोगों के पास न भक्ति है न शक्ति! बस आसक्ति है जो कभी तुम्हें ऐसा लिखने नहीं देगी।’’
      किसी से शिकायत करना बेकार है। अंग्रेजी शिक्षा को धारण कर चुका और हिन्दी फिल्मों की नाटकीयता को सत्य मानकर चलने वाला समाज चेतना दिखाये ऐसी अपेक्षा करना भी बेकार है। श्रीमद्भागत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरत रहे हैं‘ और इंद्रियों ही इंद्रिय गुणों में सक्रिय हैं, यह विज्ञान का सूत्र भी है। यह आज तक किसी ने नहीं लिखा कि श्रीमद्भागवत गीता दुनियां के अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान और विज्ञान दोनों ही हैं। ऐसे में जब समाज जिन पदार्थों को ग्रहण कर रहा है, जिन दृश्यों को देख रहा है और जिस गंध को निरंतर सूंध रहा है उसमें विरलों के ही ज्ञानी और चेतनशील होने की संभावना है। अधिक अपेक्षा रखना हम जैसे योग और ज्ञान साधक के लिये उचित भी नहीं है।
          फिर भी हम लिखते रहेंगे क्योंकि आखिरी सच यह कि हजारों में से कोई एक पढ़ेगा। उन हजारों में से भी कोई एक समझेगा। उन हजारों में से भी कोई एक मानेगा। यह हमारे लिये बहुत है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भावगत का संदेश देते समय यह मान लिया था कि सभी उनकी बात नहीं समझेंगे। फिर भी उन्होंने दिया। वह हमारे आदर्श पुरुष हैं। यह उनकी कृपा है कि नित लिखते लिखते या कहें ज्ञान बघारते बघारते हम उस राह पर चल पड़े जिसकी कल्पना भी नहीं की। इसलिये हम तो विरले ही हुए। लोग खूब ज्ञान पर लिखते हैं उसे बघारते हुए धन ंसंपदा भी बना लेते हैं पर वह ज्ञान उनकी जिंदगी में काम नहीं आता। हमारे काम खूब आ रहा है। कई बार वाणी से शब्द निकलते हैं, अपने हाथ से ऐसे काम हो जाते हैं, ऐसे स्वर सुनने में आते हैं और ऐसे दृश्य सामने प्रस्तुत होते हैं जिनके आत्मिक संपर्क से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है। हम कह सकते हैं कि यह पहले भी होता होगा पर सुखद अनुभूतियां अब होने लगी हैं। जिन लोगों को लगता हो कि यह फालतु आदमी है लिखता रहता है उनको बता दें कि हमारे पास अपने मन को लगाने के लिये लिखने के अलावा कोई मार्ग कभी रहा ही नहीं है। जय श्रीकृष्ण, जय श्री राम, हरिओम
       इस अवसर पर अपने पाठकों और साथी ब्लाग लेखकों का आभार इस विश्वास के साथ कि आगे भी अपना सहयेाग बनाये रखेंगे। यह उनके पठन और सत्संग का ही परिणाम है कि हमारे अंदर गजब का आत्मविश्वास आया है। इसके लिये आभारी हैं।जय श्रीकृष्ण, जय श्री राम, हरिओम
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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Saturday, June 11, 2011

द्वन्द्व की पटकथा-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ

अब मंच और पर्दे के नाटक
नहीं किसी को भाते हैं,
खबरों के लिए होने वाले
प्रायोजित आंदोलन और अनशन ही
मनोरंजन खूब कर जाते हैं।
------------------
हर मुद्दे पर
उन्होने समर्थन और विरोध की
अपनी भूमिका तय कर ली है,
उनके आपसी द्वन्द्व के
पर्दे पर चलते हुए दृश्य को
देखकर कभी व्यथित न होना
कुछ हंसी तो
कुछ दर्द की
चाशनी में नहाये शब्दों से
उन्होंने  पहले ही अपनी  पटकथा भर ली है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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Friday, June 3, 2011

आम जीवन शैली वाले लोग बाबा रामदेव को समझा रहे हैं-हिन्दी लेख (baba ramdev aur aam jivan shaili vale log-hindi lekh)

           भारत स्वाभिमान यात्रा करते करते बाबा रामदेव अब ऐसे मोड़ पर आ गये हैं जहां इतिहास अपनी कोई नई पारी खेलने के लिये तैयार खड़ा दिखता है। उन पर लिखने और बोलने वाले बहुत हैं पर उनका दायरा बाबा के ‘सुधार आंदोलन’ के विरोध या समर्थन तक ही सीमित है। बाबा के समर्थक और भक्त बहुत होंगे  पर सच्चे अनुयायी कितने हैं, इसका सही अनुमान कोई नहीं  कर पाया। बाबा के प्रशंसक उनके शिष्यों के अलावा दूसरे ज्ञानी भी हो सकते हैं इसका आभास भी किसी को नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि बाबा रामदेव के सभी प्रशंसक उनके शिष्य हों पर इतना तय है कि उनके कार्यक्रम के प्रति सकारात्मक भाव इस देश के अधिकांश बौद्धिक वर्ग में है। हमारी मुख्य चर्चा का विषय यह है कि बाबा रामदेव की योग शिक्षा की प्रशंसा करने वाले कुछ लोगों को उनकी इतर गतिविधियां पंसद नहीं आ रही हैं और वह उनको ऐसा या वैसा न करने की शिक्षा देते हुए बयान दे रहे हैं तो इधर उनके प्रशंसक भी केवल ‘आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’ का नारे लगाते हुए उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ज्योति प्रज्जवलित किये हुए हैं। इन सभी के बीच स्वामी रामदेव के व्यक्त्तिव का पढ़ने का प्रयास कोई नहीं कर रहा जो कि जरूरी है।
       स्वामी रामदेव के आंदोलन के समर्थन या विरोध से अधिक महत्वपूर्ण बात हमारे नजरिये से यह है कि इससे देश में लोगों के अंदर चेतना और कर्म शक्ति का निर्माण होना चाहिए। अगर उनका यह अभियान ऐसा लाभ देश को देता है तो प्रत्यक्ष उससे हम लाभान्वित न भी हों पर इसकी प्रशंसा करेंगे। मूल बात यह है कि जब हम पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं तो हमारी न केवल शक्ति बढ़ती है बल्कि स्वयं अपना हित भी होता है। जब हम केवल अपने हित पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो शक्ति और चिंतन सिमट जाता है। आजकल मनुष्य का खानपान और रहनसहन ऐसा हो गया है कि उसके अंदर चेतना और कर्म शक्ति का निर्माण वैसे भी सीमित मात्रा में होता है। ऐसे में योग साधना ही एकमात्र उपाय है जिससे कोई मनुष्य अपना सामान्य स्तर प्राप्त कर सकता है वरना तो वह भेड़ों की तरह हालतों के चाबुक खाकर भटकता रहे।
         अब बात करें सीधी! जो लोग योग साधना करने और न करने वालों के बीच का देख पायें या समझ पायें हों वही अगर स्वामी रामदेव के कर्म पर टिप्पणियां करें तो बात समझ में आये। दो फिल्मी हीरो बाबा रामदेव के आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। अगर हम उनके विरोध का विश्लेषण करें तो शायद बात रास्ते से भटक जायेगी पर यह बताना जरूरी है कि उन दोनों में से कोई योग साधना की प्रक्रिया और साधक की शक्ति को नहीं जानता।
          एक कह रहा है कि ‘बाबा रामदेव को अपने काम से काम रखना चाहिए।’
        दूसरा कह रहा है कि ‘स्वामी रामदेव को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की बजाय अपने भक्तों को इससे बचने की सलाह देना चाहिए।’’
         कुछ समय पहले जब अन्ना हजारे जी के आंदोलन के समय इन्हीं अभिनेताओं ने उनका समर्थन किया था और अब उनका यह रुख उनको संदेहास्पद बना देता है। इस पर हम शायद टिप्पणी नहीं करते पर यह दोनो उस ं बाज़ार और प्रचार तंत्र के मुखपत्र की तरह पेश आ रहे हैं जो भारतीय अध्यात्म से घबड़ाया रहता है। उसमें उसे कट्टरत्व की बू आने लगती है। इधर अन्ना हजारे की कथित सिविल सोसाइटी ने भी बाबा रामदेव को सलाह दे डाली कि वह अपने आंदोलन से धार्मिक तत्वों को दूर रखें।
     ऐसे में यह सवाल उठाता है कि विश्व का बाज़ार तथा प्रचारतंत्र-हम यहां मानकर चल रहे हैं कि अब आर्थिक उदारीकरण के चलते सारे विश्व के आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष संगठित होकर काम करते हैं-कहीं दो भागों मे बंट तो नहीं गया है।
      वैसे तो किसी आम लेखक की औकात नहीं है कि वह इतने बड़े आंदोलनों के शिखर पुरुषों पर टिप्पणी करे पर ब्लाग लिखने वालों के पास अपनी भड़ास निकालने का अवसर आता है तो वह चूकते नहीं है। जिस तरह भारतीय प्रचार माध्यमों ने हिन्दी ब्लाग लेखकों को अनदेखा किया उससे यह बात साफ लगती है कि बाज़ार अपने प्रचार तंत्र के साथ अनेक घटनाओं को रचता है। वह घटना के नायकों को धन देता है खलनायकों को पालता है। सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक आर्थिकीकरण ने हालत यह कर दिया है कि कोई भी आंदोलन धनपतियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग के बिना चल ही नहीं सकता। ऐसे में अन्ना हज़ारे और स्वामी रामदेव के आंदोलनों का परिणाम जब तक प्रथ्वी पर प्रकट नहीं होता तब तक उन पर भी संदेह बना रहेगा। मतलब यह कि हम तो कथित सिविल सोसइटी और कथित नायकों के विरोध तथा संदेहास्पद रवैये से आगे जाकर अपनी बात कह रहे हैं जो कि स्वयं ही बाज़ार के प्रायोजित लगते हैं। हम जैसे लेखकों की जिज्ञासा के कारण ऐसे आंदोलनों में रु.िच रहती है। फिर जब बात योग शिक्षक की अध्यात्मिक से इतर गतिविधियों की हो और उनके विरोध करने वाले ज्ञान और सात्विकता से पैदल हों तो उनका प्रतिवाद करने का मजा किसी भी ऐसे योग साधक को आ सकता है जो हिन्दी में लिखना जानता हो। हिन्दी फिल्मों के जिन दो अभिनेताओं ने स्वामी रामदेव का विरोध किया है वह हिन्दी नहीं जानते कम से कम उनकी पत्रकार वार्ताऐं और टीवी साक्षात्कार देखकर तो यही लगता है। ऐसे में वह दोनों इस लेख को पढ़ेंगे या उनके समर्थक इसे समझेंगे यह खतरा कम ही हो जाता है। बहरहाल बुढ़ा चुके और अभिनय की बजारय विवादों से अधिक प्रचारित यह दोनों अभिनेता बाज़ार और प्रचारतंत्र के उस हिस्से के मुखौटे हैं जो स्वामी रामदेव के अभियान से भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के प्रचार बढ़ने की आशंका से त्रस्त है। हालांकि ऐसा भी लगता है कि बाज़ार का दूसरा वर्ग उसे हिलाने के लिये भी ऐसे आंदेालन प्रायोजित कर सकता है यह बात हम लिख रहे हैं जो कि इन दोनों अभिनेताओं और सिविल सोसाइटी वालेां की हिम्मत नहीं है क्योंकि तब इनके आर्थिक स्वामियों  की उंगली उठनी शुरु हो जायेंगी। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि हिन्दी से पैदल दोनों यह अभिनेता कहीं स्वामी रामदेव का विरोध इसलिये तो नहीं कर रहे क्योंकि वह हिन्दी के प्रचार का काम भी प्रारंभ कर चुके हैं।
      बाबा रामदेव के आंदोलन में  चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)
      अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।
    उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’
          आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।
            जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।
अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।
            संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।
       मगर यह अनुमान ही है क्योंकि यह दोनों अभिनेता  तो दूसरे के लिखे वाक्य बोलने के आदी हैं इसलिये संभव है कि बाजार और प्रचारतंत्र के संयुक्त प्रबंधकों का यह प्रयास हो कि इस आंदोलन की वजह से देश में किसी ऐसी स्थाई एकता का निर्माण न हो जाये जो बाद में उनके लिये विध्वंसकारी साबित हो। इसलिये साम्प्रदायिक बताकर इसे सीमित रखना चाहिए। शायद प्रबंधक यह नहीं चाहते हों कि कहीं उनका यह प्रायोजित अभियान कभी उनके लिये संकट न बन जाये। कहीं वह सिविल सोसाइटी और इन अभिनेताओं के माध्यम से इस अभियान से किसी वर्ग को दूर रहने का संदेश तो नहीं भेजा जा रहा।
          आखिरी बात बाबा रामदेव के बारे में। देश का कोई मामूली योग साधक भी यह जानता है कि बचपन से योग साधना में रत रामकृष्ण यादव अब स्वामी रामदेव बन गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भौतिक से अधिक उनकी अभौतिक अध्यात्मिक शक्ति है। सिद्धि और चमत्कारों के लिये सर्वशक्तिमान की तरफ हाथ फैलाये रखने वाले लोग इस बात को नहीं समझेंगे कि योग साधना इंसान को कितना शारीरिक तथा मानिसक रूप से शक्तिशाली बनाती है। जबकि फिल्में और टीवी चैनल इस भ्रमपूर्ण संसार मे अधिक भ्रम फैलाते हैं और उनके नायक किंग, भगवान, बॉडी बिल्डर भले ही प्रचारित हों पर उनकी कोई व्यक्तिगत औकात नहीं होती। जो चाहे जैसा नचाता है नचा ले। जो बुलवाता है बुलवा ले। एक महायोगी  की एक एक क्रिया, एक एक शब्द और एक एक कदम मौलिकता धारण किये होंता है। बाबा रामदेव के आंदोलन लंबा चलने वाला है। इस पर बहुत कुछ लिखना है और लिखेंगेे। बाबा रामदेव के हम न शिष्य हैं न समर्थक पर इतना जरूर कहते हैं कि योगियों की लीला अद्भुत होती है, कुछ वह स्वयं करते हैं कुछ योगामाता ही करवा लेती है। सो वह खास लोग जो आम जीवन शैली अपनाते हैं वह उनको समझाने से बाज आयें तो उनके लिये बेहतर रहेगा वरना वैसे ही वह भ्रमपूर्ण जीवन जीते हैं और योग का विरोध उनकी उलझने अधिक बढ़ायेगा।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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