बाज़ार से सामान खरीदते रहे घर सजाने के लिये।
फिर भी मन नहीं भरा चल पड़े कबाड़ जलाने के लिये।
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कत्ल तलवार से ही नहीं जुबान से भी किये जाते हैं।
सिर का जख्म तो दिखे पर दिल के दर्द तो पिये जाते हैं।
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चलित दूरभाष हाथ में सभी पकड़े, दिल दिमाग खाली हवा में जकड़े।
‘दीपकबापू’ बुद्धि भ्रम में फंसे, संकरे मार्ग चौराहे पर होते बेबात लफड़े।।
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हथियारों के भंडार जमा कर लिये, पसीना लूटा अभाव कमा कर दिये।
‘दीपकबापू’ शांति का नारा लगाते, बेकारों को झंडे डंडे थमा कर दिये।।
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सुबह दरबार मेे जाकर सिर झुकाते, शाम मदिरालय में गर्दन झुलाते।
‘दीपकबापू’ मर्जी के मालिक नहीं, लोग उधार नशे से नींद को सुलाते।।
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चेहरों की चमक कृत्रिम लेप से बढ़ी, नकली सुंदरता की कीमत चढ़ी।
‘दीपकबापू’ आंखों पर चढ़ाया चश्मा, चक्षुओं पर उधार की दृष्टि गढ़ी।।
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दौलतमंदों के घर ज़माने का दर्द मन बहलाने के लिये बिकता है।
सुविधाओं के महल में बैठे हैं, आंसू केवल पर्दे पर दिखता है।
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सौदागरों के जो जीवित बुत बन जाते, मरकर भी पत्थर की तरह तन जाते।
‘दीपकबापू’ जिंदगी को व्यापार बनाया, गुलाम बिके खरीददार अमीर बन जाते।।
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प्रकृति के नियमों से मुंह मोड़ा, कृत्रिम विचार से जीवन जोड़ा।
‘दीपकबापू’ भंवर में फंसे हैं, नया किनारा बना नहीं पुराना तोड़ा।
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वह काला चेहरा धवल कर आये पर नीयत तो काली थी।
दुश्मनों ने पोल खोली, जिस पर सफेद चादी डाली थी।।
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नासमझों से बहस करते थक गये, मूर्खों को समझाते पक गये।
‘दीपकबापू’ शब्द बेकार में खर्च किये, लोग बिना सोचे बक गये।।
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क्षणिका
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पंचतारा चिकित्सालय
बीमारों की बढ़ती भीड़
अमीर होने की निशानी है।
गरीबों की बात
कभी नहीं करना
पिछड़ापन हो या विकास
उसे बदहाली पानी है।
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