हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने
वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक
प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ
माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही
श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया
था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी। शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक
ढंग से किया गया था। कोई
बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है। इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में
अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती
हैं। फिल्म में काम करने
वालों प्रसिद्ध लोगों के
चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते। उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा
हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी
चाहिये। कभी गाय के सामने रोटी
या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों
और चित्रों का व्यापार करना है। हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं
कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है। जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु
पक्षी भी महत्वपूर्ण है। श्रेष्ठ
जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु
तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।
हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर
योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं। वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन
द्रवित हो जाता है उनको
रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं। खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं
तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है। उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है। पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर
टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक
पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना
ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का
चरित्र तय कर लेते हैं।
हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-‘चलो, तुम्हें
पीके दिखा दूं।’’
हमने कहा-‘‘पीके
हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’
वह बोला-‘‘मैं
फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’
हमने कहा।-‘‘उस
पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’
वह बोला-‘‘पैसे
मैं खर्च करूंगा।’’
हमने कहा-‘समय
तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर
की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।’
वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया। हमारे
पास इसके निवारण का एक ही
उपाय रहा कि
कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं। इस पर कोई कविता समझ में
नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।
चाकलेटी चेहरे वाले
उपभोग जगत में
इस कदर छाये
कभी वस्त्रहीन होकर
कभी सामने पीके आये।
कहें दीपक बापू भाग्य की बात
भांडों का जमाना है,
अपनी अदाओं से
उनको कमाना है,
नशे का विरोध करते हुए
समाज सुधारने के लिये
नारे लगाते
उनका हर कम
अभिनय कहलाता
हम समझायें तो
कहा जाता है यह पीके आये।
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इस सर्दी में कहीं जाने का मन
नहीं कर रहा था। सोचा किस तरह दिमाग में
गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते। इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह
बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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