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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, December 29, 2014

फिल्म वाले बोले तो ठीक हम बोले तो पीके आये-हिन्दी लघु व्यंग्य चिंत्तन(film wale bole to theek ham bole to pk aaye-hindi short satire thought)


    हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी।  शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक ढंग से किया गया था।  कोई बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है।  इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती हैं।  फिल्म में काम करने वालों प्रसिद्ध लोगों  के चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते।  उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी चाहिये। कभी गाय के सामने  रोटी या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों और चित्रों का व्यापार करना है।  हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है।  जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु पक्षी भी महत्वपूर्ण है।  श्रेष्ठ जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।
            हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं।  वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन द्रवित हो  जाता है उनको रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं।  खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है।  उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है।  पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का चरित्र तय कर लेते हैं।
            हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-चलो, तुम्हें पीके दिखा दूं।’’
            हमने कहा-‘‘पीके हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’
            वह बोला-‘‘मैं फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’
            हमने कहा।-‘‘उस पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’
            वह बोला-‘‘पैसे मैं खर्च करूंगा।’’
            हमने कहा-समय तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।
            वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया।  हमारे पास इसके निवारण का  एक ही उपाय रहा  कि कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं।  इस पर कोई कविता समझ में नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।
चाकलेटी चेहरे वाले

उपभोग जगत में

इस कदर छाये

कभी वस्त्रहीन होकर

कभी सामने पीके आये।



कहें दीपक बापू भाग्य की बात

भांडों का जमाना है,

अपनी अदाओं से

उनको कमाना है,

नशे का विरोध करते हुए

समाज सुधारने के लिये

नारे लगाते

उनका हर कम

अभिनय कहलाता

हम समझायें तो

कहा जाता है यह पीके आये।

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            इस सर्दी में कहीं जाने का मन नहीं कर रहा था।  सोचा किस तरह दिमाग में गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते।  इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Tuesday, December 23, 2014

तरक्की और शिक्षा के दावे-हिन्दी कविता(tarakki aur shiksha ke dave-hindi poem)



तरक्की बेमतलब लगती

जब ज़माने में

वफा के कुऐं सूखे हों।



शिक्षा के दावे खोखले लगते

जब लोग बोलते ढेर सारे शब्द

मगर उनके अर्थ रूखे हों।





कहें दीपक बापू भरोसे के साथ

चलना भूल गये सभी,

दिमाग में हलचल थमी

सामानों की भीड़ में

दिल खो गये हैं अभी,

दौलत के लगा लिये ढेर

लगता है फिर भी

लोग अभी भूखे हों।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Tuesday, December 16, 2014

समझदारी-हिन्दी कविता(samajhdari-hindi poem)




खोदे थे राह में गड्ढे
दूसरे को गिराने के लिये
धोखे में स्वयं गिर गये।

लगाते रहे दूसरों पर आरोप
अपनी नाकामियों का
सोचा कभी नहीं
कामयाबी के पीछे दौड़ते हुए
लालच के जाल में घिर गये।

कहें दीपक बापू नीयत का खेल
कोई समझे या नहीं,
अपने ख्याल आते हैं सामने
सच के रूप में हर कहीं,
नासमझों ने बुलाई आफतें
समझदारों के दिन फिर गये।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Wednesday, December 10, 2014

सपने के सौदागर-हिन्दी कविता(sapane ke saudagar-hindi poem)



आधुनिक वेशभूषा धारी
पसीना बहाने से
बहुत डरते हैं।

यही वजह है
लोग भूख से कम
ज्यादा खाने से
बहुत मरते हैं।

कहें दीपक बापू रोटी के सपने
बेचने वाले
बाज़ार में हर जगह मिल जाते है,
सारे ज़माने के भले का नारा
इस तरह लगाते
लोगों के कान हिल जाते हैं,
समाज सेवा के नाम पर
वही अपने घर भरते हैं।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Thursday, December 4, 2014

चमकते सिंहासन पर भक्ति-हिन्दी कविता(chamakte sinhasay par bhaki-hindi poem)





दूसरे पर तरह खाते वही
अपनी देह पर तरह तरह के
वेश धारण करने में
जिनकी आसक्ति है।

चमकते सिंहासन पर विराजे
समाज सेवा के व्यापार में
बेचते भ्रम सत्य के नाम पर
उनके शब्दों में इतनी शक्ति है।


कहें दीपक बापू प्रमाण पत्र
कोई नहीं  देखता
प्रसिद्ध हो जाने पर
प्रश्न नहीं उठाता
चतुराई में सिद्धि आने पर,
गुरु को दोष देना व्यर्थ
शिष्य वही आते
जिनकी जादू में भक्ति है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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