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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, March 27, 2011

इंटरनेट पर अभिव्यक्ति के लिये समाज को तैयार करना होगा-हिन्दी लेख (internet and hindi bhasha-hindi lekh)

इस लेखक के ब्लाग ईपत्रिका ने पाठक तथा पाठन संख्या दो लाख पार कर ली है। यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है पर फिर भी यह बताना जरूरी है कि हिन्दी पत्रिका के बाद यह दूसरा ब्लाग है जिसने यह उपलब्धि प्राप्त की है।
दूसरे की रचना सभी के लिये समालोचना-प्रशंसा और आलोचना-का विषय होती है। फिल्म, नाटक, साहित्य, पत्रकारिता तथा चित्रकारी जैसे विषयों से रचनात्मक लोग निर्वाह कर पाते हैं क्योंकि उनके पास अपनी अभिव्यक्ति बाह्य रूप से प्रकट करने की क्षमता होती है जबकि सामान्य आदमी केवल रचना करने की सोचकर रह जाता है। वैसे देखा जाये तो हर मनुष्य अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति करना चाहता है पर कभी संकोच तथा कभी उचित ज्ञान का अभाव उसे ऐसा करने नहीं देता। तब मनुष्य दूसरे की अभिव्यक्ति में अपने मन के उतार चढ़ाव देखकर प्रसन्न होता है। यही कारण है कि इस संसार में रचनाकारों की हर प्रकार की रचना आम इंसानों के लिये मनोरंजन का विषय होती है। विश्व में इंटरनेट के आगमन ने अभिव्यक्ति के स्वरूप का विस्तार किया पर इसमें तकनीकी ज्ञान होने की अनिवार्यता ने असहज भी बनाया है। हम यहां केवल हिन्दी भाषा के संदर्भ में ही विचार करें तो अच्छा रहेगा क्योंकि अन्य भाषाओं की अपेक्षा इससे संबद्ध लोगों की संख्या अधिक होने के बावजूद इसे इंटरनेट पर प्रतिष्ठित होने में समय लग रहा है।

पहली बात तो यह कि हिन्दी में रचनाकारों की संख्या में कभी कमी नहीं रही पर स्तरीय रचनाओं को समाज के सामने प्रकट होने का मार्ग हमेशा दुरूह रहा है। हिन्दी में लिखने की क्षमता होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे पाठकों के सामने जाने का मार्ग प्रशस्त करने की कला भी आना चाहिए। आज़ादी के बाद इस देश में हिन्दी का प्रचलन बढ़ा जरूर मगर इससे जुड़े आर्थिक तथा सामाजिक ढांचे में कार्यरत प्रबंधकों ने लेखक को कभी महत्व नहीं दिया। एक तरह से यह योजना जाने अनजाने अपना काम करती रही कि इस भाषा में कोई लेखक केवल अपनी लेखन क्षमता के कारण पूज्यनीय नहीं बनना चाहिए। उसकी स्थिति लिपिकीय रहना चाहिये न कि उसके स्वामित्व का बोध समाज के सामने प्रकट हो। यही कारण है फिल्म, पत्रकारिता, साहित्य तथा कला के क्षेत्र में ऐसे लोगों को प्रतिष्ठा मिली जिनका समाज न कभी स्तरीय नहीं माना या फिर उनकी रचनाओं को वर्तमान समाज के सरोकारों से दूर काल्पनिक माना गया।
अगर हम आज हिन्दी की स्थिति को देखें तो पाएंगे कि भक्ति काल के सूर, तुलसी,मीरा, कबीर,रहीम,रसखान तथा अन्य कवि रचनाकार कम संत अधिक माने जाते हैं। इस काल का हिन्दी भाषा का स्वर्णिम काल माना जाता है जबकि दिलचस्प बात यह कि इनमें से एक की भी रचना आधुनिक हिन्दी में नहीं है। ऐसे में अन्य कालों के लेखकों को श्रेष्ठ दर्जा न मिल पाना न केवल हमारे भाषा के विकास परप्रश्नचिन्ह लगाता है बल्कि समाज को आत्ममंथन के लिये भरी प्रेरित करता है। इससे हम एक बात समझ सकते हैं कि भारतीय जनमानस ऐसे साहित्य में कम दिलचस्पी लेता है जिससे उसको अध्यात्मिक शांति नहीं मिलती।
जब हम आधुनिक काल के रचनाकारों को देखते हैं तो वह समाज की घटनाओं को अपनी रचना में जगह देते हैं तो वह केवल तथ्यात्मक हो जाते हैं। वह मानकर चलते हैं कि उनकी प्रस्तुति से समाज स्वयं चिंतन कर निष्कर्ष निकाले। इसके विपरीत भारतीय जनमानस ऐसी स्पष्ट रचना चाहता है जिसमें तथ्यों के साथ स्पष्ट निष्कर्ष और प्रेरणा हो। देश की गरीबी, बेरोजगारी तथा अपराध का ग्राफ बढ़ा है और अगर हम समाज की स्थिति का अवलोकन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि लोगों में चेतना इसलिये नहीं है क्योंकि वह चिंतन नहीं करते। चिंतन से चेतना आती है और चेतना से ही चिंतन होता है। तब ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी रचनायें हों जिससे चिंतन पैदा हो या चेतना। यह तभी संभव है जब कोई अपनी रचनाओं को तथ्यात्मक प्रस्तुति की सीमा से बाहर निकालकर स्पष्ट संदेश दे। हालांकि जरूरत इस बात की भी है कि समाज उनको प्रोत्साहित करे। जबकि हो यह रहा है कि मनोरंजन परोसकर उनकी चेतना और चिंतन क्षमता को समाप्त किया जा रहा है।

ऐसे में जब इंटरनेट पर हिन्दी लिखने का सवाल आता है तो यह भी स्थिति सामने होती है कि पढ़ने वाले बहुत कम हैं। इस पर दूसरी समस्या यह कि यहां लेखक के स्वामी होने का प्रश्न तो दूर उसकी लिपिकीय स्थिति भी नहीं है जो कार्यालय में लिख कर पैसा कमाते हैं। उसे एकदम फोकटिया प्रयोक्ता मानकर छोड़ दिया गया है। ऐसे में वही लोग इस पर लिख सकते हैं जिनके पास इंटरनेट पर पैसा खर्च करने की क्षमता के साथ लिखने के साथ ही पढ़ने का शौक है। जिन लोगों को यहां लिखने से पैसा मिल सकता है तो उनकी भी स्थिति परांपरागत बाज़ार के बंधुआ से अधिक नहीं है और ऐसे में वैसी रचनायें आयेंगी जो बाहर मिल जाती हैं। तब ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ है कि हिन्दी का आम पाठक सरलता से पढ़ सके जाने वाले अखबार की जगह अपनी आंखें यहां बरबाद करेगा।
इधर इंटरनेट पर पिछले सात आठ वर्ष से हिन्दी में लिखने का प्रयास हो रहा है पर इसमें तेजी से बढ़ोतरी पिछले चार वर्ष में हुई है। वह भी एकदम नाकाफी है। हम इसके लिये हिन्दी पाठकों को दोष नहीं दे सकते क्योंकि यह बात नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहां नयी तकनीकी को अपनाने की क्षमता तो है पर उसमें सुविधा की चाहत भी है। इंटरनेट खोलने और उसमें लिखने के लिये थोड़ा अधिक तकनीकी ज्ञान चाहिए। इसके विपरीत घर आये अखबार को उठाकर पढ़ने में कोई अधिक कष्ट नहीं होता। फिर लिखना स्वयं की अभिव्यक्ति की चाहत वालों के लिये है और मोबाइल इसके लिये अच्छा काम करता है। हाथ में उठाकर किसी को भी संदेश भेज दो। वह चाहे जैसा भी हो दिवाली या होली की बधाई का हो या इश्क के इजहार के लिये। मतलब यह कि इंटरनेट का अभी अभिव्यक्ति के लिये उपयोग करने के लिये लोग तैयार नहीं है।
ऐसे में लोग अपनी अभिव्यक्ति को दूसरे के सामने देखकर खुश होते हैं। बड़े पाठ या कविताओं की रचना का माद्दा सभी में नहीं हो सकता। अगर देखा जाये तो मोबाइल ने भारतीय समाज में अंतिम व्यक्ति के हाथ में अपनी जगह बना ली है। मोबाइल में कैमरा, टीवी और रेडियो की सुविधायें हैं और लोग धड़ल्ले से उनका उपयोग कर रहे हैं। उसमें भी तकनीकी ज्ञान चाहिए पर अपनी सुविधा के लिये भारतीय जनमानस उस हद तक चला जाता है। मोबाइल के इर्दगिर्द सिमट रहे समाज में अभिव्यक्ति के लिये कंप्यूटर या लैपटाप के लिये कम ही जगह बची है। यह अलग बात है कि कंप्यूटर पर काम कर चुके आदमी के लिये मोबाईल छोटी चीज हो जाती है। चाहे कितने भी प्रयास किये जायें मोबाईल पर संदेश तो सीमित शब्द संख्या में ही लिखा जायेगा। उसमें भी आंख और हाथ को जो कष्ट होता है उसकी अनुभूति संदेश की अभिव्यक्ति के कारण नहीं होती है पर अंततः उबाऊ तो है।
एक बात तय हो गयी है कि भारतीय समाज प्रचार से संचालित होता है। जिनके पास प्रचार की शक्ति है वह चाहें तो लोगों के दिमाग में जगह बना सकते हैं। जब पहले ब्लाग की चर्चा प्रचार माध्यम करते थे तब लोगों का ध्यान इसकी तरफ आकर्षित हुआ। फिर ट्विटर आया और अब फेसबुक। ट्विटर में एक बार में सीमित संख्या के शब्द दर्ज किये जा सकते हैं जबकि फेसबुक असीमित शब्द संजो सकती है। प्रचार माध्यम जब पहले ब्लाग की चर्चा करते थे तो प्रचार में शिखर पर प्रतिष्ठत लोगों के ब्लाग की चर्चा अवश्य करते थे। अब ट्विटर या फेसबुक की चर्चा भी होती है तो लगभग यही रवैया है। मतलब सीधी बात यह है कि जो भी शिखर पुरुष करते हैं वही समाज देखे, यह प्रचार माध्यमों का रवैया है। यही वजह है कि अनेक लोगों ने ट्विटर और फेसबुक पर अपना खाते खोल लिये। यह आसान था पर ब्लाग बनाना थोड़ा कठिन है यह अलग बात है कि लेखकों के लिये ब्लाग से बढ़िया कोई चीज नहीं है। यह अलग बात है कि हिन्दी लेखक के लिये यह मार्ग कठिन है। अगर वह केवल लेखक हैं तो उनके विचार, कवितायें, या लेख के अंश कोई भी चुरा कर अपने नाम से अभिव्यक्ति दे सकता है। यह हो भी रहा है। जैसा कि भारतीय बाज़ार व्यवस्था की योजना वह लेखक को केवल लिखने के दम पर पनपने नहीं दे सकती। यही कारण है कि राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और अपराध के विषयों पर प्रचार माध्यमों में प्रतिष्ठित लेखक हमेशा उसी लकीर पर चलते हैं जो एक बार बनाई तो उसके स्वामी हो गये। उथले विचारों और निरर्थक बहसों के साथ ही अंगभीर संवाद होता है। गंभीर विषय पर बात करते हास्य की बात कहकर अगर कहा जाये कि लोगों का जायका कदला जा रहा है तो समझ लीजिये कि लेखक-पाठक तथा वक्ता-श्रोता में सहज भाव की कमी है।
हम जब ब्लाग पर लिखते हैं तो यह लक्ष्य नहीं रखते कि कौन पढ़ रहा है बल्कि यह सोचते हैं कि हम लिख रहे हैं। पैसा नहीं मिलता। फोकटिया लेखक है इसलिये रचनायें हमेशा ही मनस्थिति से प्रभावित होती हैं। कुछ तो ऐसी हैं जो बहुत समय बाद पढ़ने पर ऐसा लगता है कि यह बेकार लिखा गया। जो अच्छी लगती हैं उन पर भी यह ख्याल आता है कि इससे अच्छा लिखा जा सकता था। आभासी दुनियां में यह शब्दों का सफर अपने होने की आत्ममुग्धता से भरपूर है। लोगों ने क्या समझा यह कभी विचार नहीं किया। लिखते लिखते हम क्या सीखे, नजरिये में कैसे सुधार आया, कई मिथक कैसे टूट गये, समाज की व्यवस्था में कैसे शिखर बनते बिगड़ते हैं, यह सब हमने इंटरनेट पर लिखते लिखते देखा। सच बात तो यह है कि हम पहले भी परंपरागत विषयों पर दूसरों के तर्क नहीं मानते थे तब बहस होती तो अपने तर्क ठोस ढंग से नहीं कह पाते। अब अपनेत तर्क हैं जिनसे किसी भी विषय पर किसी को भी घेरा जा सकता है। यह लिखने से आये आत्मविश्वास का ही परिणाम है। ईपत्रिका के दो लाख पठन/पाठक संख्या पर करने पर बस इतना ही है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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Sunday, March 20, 2011

लीबिया पर नाटो देशों का हमला तेल संपदा के लिए-हिन्दी लेख (nato country atack aur libiya for oil sector-hindi article)

लीबिया पर कथित रूप से नाटो देशों के हमले होने का मतलब यह कतई नहीं लिया जाना चाहिए कि यह सब कोई वहां की जनता के हित के लिये किया गया है। लीबिया में जनअसंतोष न हो यह तो कोई भी निष्पक्ष विचारक स्वीकार नहीं कर सकता। दुनियां में कौनसा ऐसा देश है जहां अपने शिखर पुरुषों के प्रति निराशा नहीं है। जब आधुनिक लोकतंत्र वाले देशों में जनअसंतोष है तो एक तानाशाह के देश में खुशहाली होने का भ्रम वैसे भी नहंी पालना चाहिए। लोकतांत्रिक देशों में तो फिर भी आंदोलनों से वह असंतोष सामने आता है पर तानाशाही वाले देशों में तो उसे इस तरह कुचला जाता है कि भनक तक नहीं लगती। ऐसा चीन में दो बार हो चुका है।
लीबिया में एक जनआंदोलन चल रहा है। जिसके नेतृत्व का सही पता किसी को नहीं है। इस आंदोलन को कुचलने के लिये वहां के तानाशाह गद्दाफी ने कोई कसर नहीं उठा रखी है। गद्दाफी कोई भला आदमी नहीं है यह सभी को पता है पर एक बात याद रखनी होगी कि कम से कम उसके चलते लीबिया में एक राज्य व्यवस्था तो बनी हुई है जिसके ढहने पर लीबिया के लोगों की हालत अधिक बदतर हो सकती है। गद्दाफी का पतन हो जाये तो अच्छा पर लीबिया का पतन खतरनाक है। वहां की जनता ही नहीं वरन् पूरी दुनियां के लोगों को इसका दुष्परिणाम भोगना पड़ेगा क्योंकि वहां का तेल उत्पादन वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपना योगदान देता है।
गद्दाफी के विरुद्ध असंतोष कोई नई बात नहीं है। अब वहां आंदोलन चला तो यह पता नहीं लग सका कि वह बाहरी संगठित शक्तियों के कारण फलफूला या वाकई आम जनता अब अधिक कष्ट सहने को तैयार नहीं है इसलिये बाहर आई। अगर हम गद्दाफी के इतिहास को देखें तो पश्चिमी देशों का ऐजेंट ही रहा है। उसने खरबों रुपये की राशि अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में जमा की होगी-यह इस आधार पर लिखा जा रहा है क्योंकि फ्रांस तथा अमेरिका ने उसकी भारी भरकम जब्त कर ली है-और अगर गद्दाफी मर गया तो इन देशों को ढेर सारा फायदा होगा। हमारे देश के जनवादी लेखक अमेरिका का विरोध करते हैं पर वह कभी विकासशील देशों की लूट का माल पश्चिमी देशों में किस तरह पहुंचता है इसका अन्वेषण नहीं करते। वह अमेरिकी साम्राज्यवाद का रोना रोते हैं पर उसका विस्तारित रूप आजतक नहीं समझ पाये। उनके पसंदीदा मुल्क चीन और रूस तक के देशों में अमेरिका को प्रसन्न करने वाले पिट्ठू बैठे हैं। इन देशों के शिखर पुरुषों के कहीं कहीं पारिवारिक और आर्थिक इन्हीं देशों में केंद्रित हैं। यही कारण है कि जब सुरक्षा परिषद में किसी देश के विरुद्ध प्रस्ताव आना होता है तो उसका पहले सार्वजनिक रूप से विरोध करते हैं पर जब विचार के लिये बैठक में प्रस्तुत होता है तो वीटो करना तो दूर वहां से भाग जाते है। लीबिया के मामले में यही हुआ। सुरक्षा परिषद में लीबिया के खिलाफ प्रस्ताव में दोनों देश नदारत रहे। यह दोनों गद्दाफी का खुलकर समर्थन करते रहे पर ऐन मौके पर मुंह फेरकर चल दिये।
एक आम व्यक्ति और लेखक के नाते हम लीबिया के आम आदमी की चिंता कर सकते हैं। भले ही नाटो देश वहां की जनता के भले के लिये लड़ने गये हैं पर सारी दुनियां जानती है कि युद्ध के बुरे नतीजे अंततः आम आदमी को ही भुगतने होते हैं। मरता भी वही, घायल भी वही होता है और भुखमरी और बेकारी उसे ही घेर लेती हैं। यह अलग बात है कि शिखर पुरुष जुबानी जमा खर्च करते हैं पर उससे कुछ होता नहीं है।
मान लीजिए गद्दाफी का पतन हो गया तो वहां शासन कौन करेगा? तय बात है कि इन पश्चिमी देशों का ही पिट्ठू होगा। वहां की तेल संपदा वह इन देशों के नाम कर देगा। वैसे गद्दाफी भी यही कर रहा था पर लगता है कि उसके खेल से अब यह नाटो देश ऊब गये हैं इसलिये कोई दूसरा वहां बिठना चाहते हैं। यह भी संभव है कि आंदोलनकारियों ने तेल उत्पादक शहरों पर कब्जा कर लिया तो यह देश डर गये कि अब गद्दाफी उनके काम का नहीं रहा। इसलिये लोकतंत्र पर उसको साफ कर वहां अपना आदमी बिठायें। गद्दाफी का पैसा तो वह ले ही चुके हैं पर डालर के अंडे देने वाली मुर्गियां यानि तेल क्षेत्र लेना भी उनके लिये जरूरी है। अपने आर्थिक हितों को लेकर यह देश कितने उतावले हैं कि बिना सूचना और समाचार के अपने हमले कर दिये। इस बात पर शायद कम ही प्रेक्षकों का ध्यान गया होगा कि लीबिया में गद्दाफी के तेल वाले क्षेत्रों पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया था। मतलब यह नाटो देशों के काम का नहीं रहा। फिर अब विद्रोहियों पर उनके हितैषी बनकर उन पर ही नियंत्रण के लिये गद्दाफी को मारने चल दिये। उनका मुख्य मकसर तेल संपदा की अपने लिये रक्षा करना है न कि लीबिया में लोकतंत्र लाना।
जहां तक इन देशों के लोकतंत्र के लिये काम करने का सवाल है तो सभी जानते हैं कि पूंजीवाद के हिमायती यह राष्ट्र पूंजीपतियों के इशारे पर चलते हैं। जरूरत पड़े तो अपराधियों को भी अपने यहां सरंक्षण देते हैं। दूसरे देशों में जनहित का दावा तो यह तब करें जब अपने यहां पूरी तरह कर लिया हो। लोकतंत्र के नाम पर पूंजीपतियों के बंधुआ बने यह राष्ट्र अपने हितों के लिये काम करते हैं और अगर यह लीबिया की जनता की हित का दावा कर रहे हैं तो उन पर कोई यकीन कर सकता है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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Saturday, March 5, 2011

बदनामी में फिक्सिंग-हिन्दी चिंत्तन तथा हास्य कविताएँ (badanami mein fixing-hindi chittan and hasya kavitaen)

धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की निष्पक्षता का पता नहीं हमारे देश के बुद्धिजीवी लोग क्या अर्थ निकालते हैं पर सच बात यह है कि इससे व्यवसायिक क्षेत्र के लोगों को उद्दण्डता दिखाने की छूट मिल गयी है। देशभक्ति, समाज कल्याण, गरीबों की आवाज बुलंद करने तथा लोगों का स्वस्थ मनोरंजन से प्रतिबद्धता जताने वाले हमारे देश के प्रचार माध्यम अपने व्यवसायिक हितों के लिये ऐसे कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं जिससे उनकी बौद्धिक क्षमताओं पर संदेह होता हैं। ऐसा लगता है कि देशभक्ति, समाज कल्याण तथा गरीबों की आवाज बुलंद करने वाले उनके कार्यकर्ता इनको बेचने वाले नारों से अधिक नहीं समझते। यही कारण है कि समाचार और मनोरंजन के के नाम पर ऐसे कार्यक्रम बन रहे हैं जिनमें फूहड़ता तो होती है उसके लिये बदनाम लोगों को भी नायक की तरह प्रतिष्ठित किया जाता है। बॉस तथा इंसाफ जैसे आकर्षक शब्दों वाले कार्यक्रमों में बदनाम लोगों को जिस तरह नायक बनाया गया यह उसका प्रमाण है। अब तो हद ही हो गयी है जब उन्हीं बदनाम लोगों को एक कॉमेडी धारावाहिक में लाया गया।
कॉमेडी में उन लोगों को देखकर यह विश्वास हो गया कि धनपति और उनके प्रचार भोंपू हम नये नायकों का निर्माण कर उन्हें समाज पर थोप रहे हैं। यह पक्रिया भी इस तरह चलती है कि पता ही नहीं चलता।
पहले कोई नशे के आरोप में जेल गया। उस समय वह सारे देश में खलनायक बनाया गया। कोई यकीन नहीं कर सकता था कि प्रचार माध्यमों में का यह महान खलनायक कुछ दिन बाद मनोरंजन के क्षेत्र में नायक बनकर आयेगा। फिर कुछ दिन बाद वह स्वयंवर नामक धारावाहिक में आया। फिर बिगबॉस में आया। अब वह कॉमेडी के एक कार्यक्रम में भी आ गया। अपनी अदाओं के लिये अच्छी छवि न रखने वाली एक गायिका भी उस कॉमेडी कार्यक्रम में आ गयी। इससे एक बात लगती है कि समाचार और मनोरंजन के क्षेत्र में फिक्सिंग चल रही है। अच्छे काम से किसी की छवि नहीं बन सकती और बदनाम होना इस संसार में आसान है। इसलिये बाजार तथा उसके भौंपूओं ने बदनामी का संक्षिप्त मार्ग लोगों में नये नायकों और नायिकाओं को स्थापित करने के लिये कर रहे हैं। मतलब आजकल के जमान में बदनामी की भी फिक्सिंग होती है।
बाज़ार और उसके प्रचार भोंपू बकायदा योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। भले ही दोनों अलग दिखते हैं पर ऐसा लगता है कि जिस तरह उनके विज्ञापन देने वाले लोग एक ही होते हैं वैसे ही उनके मालिक भी एक हैं। जैसा कि पहले लोगों ने देखा कि सास बहु के धारावाहिक चल रहे थे। उससे लोग उकता गये। उसके बाद रियल्टी शो की असलियत लोगों को समझ में आ गयी तब उससे भी लोग मुंह फेरने लगे। अब कॉमेडी लोगों को भाने लगी। कॉमेडी के नाम चाहे पर भले ही फूहड़ता दिखाई जा रही है पर कथित टीआरपी रेटिंग के भ्रम ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कॉमेडी इस देश में पसंद की जा रही है। हालत यह हो गयी है कि अभी हाल ही में संपन्न फिल्मी पुरस्कार समारोह में बड़े बड़े अभिनेताओं ने मंचों पर कॉमेडी की। इससे बाज़ार तथा उसके मातहत प्रचारतंत्र के साथ ही पूरे मनोरंजन क्षेत्र का चाल, चरित्र तथा चिंतन का रूप समझा जा सकता है जो कि केवल पैसा कमाने तक ही सीमित है।
मतलब कॉमेडी हिट हो गयी। बाज़ार और उसके प्रचारक भोंपूओं के पास जो अपने बदनाम फिक्स नायक नायिका हैं वह खाली बैठे थे। उनके नाम का उपयोग करने के लिये अब उनसे कॉमेडी करवाई जा रही है। वैसे हमारे मनोरंजन क्षेत्र के लोगों के कार्यक्रम देखें तो एक बात लगती है कि एक दूसरे का अपमान करना, इशारों में मां बहिन की गालियों का भाव का निर्माण तथा अस्वाभाविक यौन क्रीड़ाओं की चर्चा करना ही कॉमेडी है। हिन्दी में कथाओं और पटकथाओं का रोना अक्सर रोया जाता है पर मनोरंजन के व्यापारी ही इसके लिये जिम्मेदार हैं। वह चाहती हैं कि हिन्दी कहानीकार उनके घर आये। वह यह नहीं जानते कि हिन्दी का कहानीकार लिखने पर जिंदा नहंी रहता। लिखने वाले बहुत हैं पर उनके पास न पैसा है न समय कि वह चप्पले चटखाते हुए उनके दरवाजे खटखटायें। मनोरंजन के शहंशाहों को पैसा देने वाले धनपतियों को भी हिन्दी से अधिक मतलब नहीं है। यही कारण है कि हिन्दी में अच्छा लिखने के बावजूद स्तरीय लेख उन तक नहीं पहुंच पाता। हिन्दी में लेखक नहीं है यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। मनोरंजन के क्षेत्र के शिखर पुरुष हिन्दी लेखक को लिपिक की तरह उपयोग करना चाहते है जो कि संभव नहीं है। उनको लिपिक तो मिल जायेंगे पर वह इसी तरह का सतही लेखन ही कर पायेंगे जैसा वह दिखा रहे हैं।
हिन्दी में हास्य व्यंग्य लिखने वाले बहुत हैं। यह सही है कि फिल्मी या टीवी धारावाहिक की पटकथा या नाटक लिखने की अलग से कोई विधा हिन्दी में नहीं पढ़ाई जाती पर सच यह है कि हिन्दी में कहानी लेखन ही इस तरह का होता है कि उससे पटकथा और नाटक की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अगर पूरा पैसा मिले तो इस देश में सैंकड़ों लेखक ऐसा मिल जायेंगे जो गज़ब की कहानियाँ   लिखकर दे सकते हैं कि पटकथा या नाटक के रूप में उसे लिखने की आवश्यकता ही नहीं रहे। यह सब होना नहीं है क्योंकि भारत के धनपति और उनके भोंपू पैसा कमाना जानते हैं पर व्यवसायक करने का कौशल उनमें नहीं है। किसी नये समाज का निर्माण करने की क्षमता उनमें नहीं बल्कि जो मौजूद है उसका दोहन करना ही उनको आता है।
इस विषय पर प्रस्तुत है हास्य व्यंग्य कवितायें
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टीवी धारावाहिकों में
कॉमेडी के नाम पर उनकी मूर्खताओं पर भी हसंकर
हम अपना दिल खुश करते हैं,
विज्ञापन वाली चीजों पर खर्च किये हैं
उनका खर्च जो अपनी जेब से भरते हैं।
हंसने जैसा कुछ नहीं होता उनमें
पर रोकर क्यों करें जी खराब
नहीं हंसें तो
अपना ही पैसा जायेगा बेकार
इसलिये मन ही मन डरते हैं।
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पति ने अपनी रोती पत्नी से कहा
‘चिंता क्यों करती हो भागवान,
लड़का नशे के आरोप में जेल गया
तुम क्या जी खराब किये जाती हो,
देखना
बहुत जल्दी शान से लौटकर आयेगा।
दोस्त लोग पहनायेंगे फूल मालायें
वह शहर का बिग बॉस बन जायेगा
फिर अपना स्वयंवर भी रचायेगा।
भगवान की कृपा रही तो
कामेडी किंग भी बन जायेगा।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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