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Tuesday, June 30, 2009

(article on savita bhabhi hindi) बात बेबात की-आलेख (hindi article)

सविता भाभी नाम की एक पौर्न साईट को बैन कर दिया गया है। बैन करने वालों का इसके पीछे क्या ध्येय है यह तो पता नहीं पर बैन के बाद इसे समाचार पत्र पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला उससे तो लगता है कि इसके चाहने वालों की संख्या बढ़ेगी। पता नहीं इस पर बैन का क्या स्वरूप है पर कैसे यह संभव है कि बाहर लोग इससे भारत में न देख पायें।
यह साइट कैसे है यह तो पता नहीं पर अनुमान यह है कि यह किसी विदेशी साईट का देसी संस्करण होगी। गूगल, याहू, अमेजन और बिंग आदि सर्च इंजिनों तो सर्वव्यापी हैं और इन पर जाकर कोई भी इसे ढूंढ सकता है। यह अलग बात है कि इनके पास कोई ऐसा साफ्टवेयर हो जो भारतीय प्रयोक्ताओं को इससे रोक सके। तब भी सवाल यह है कि अगर विदेशों में अंग्रेजी में जो पोर्न वेबसाईटें हैं उनसे क्या भारतीय प्रयोक्ताओं को रोकना संभव होगा।
इस लेखक को तकनीकी जानकारी नहीं है इसलिये वह इस बात को नहीं समझ सकता है कि आखिर इस पर यह बैन किस तरह लगेगा?
लोगों को कैसे रहना है, क्या देखना है और क्या पहनना है जैसे सवालों पर एक अनवरत बहस चलती रहती है। कुछ बुद्धिजीवी और समाज के ठेकेदार उस हर चीज, किताब और विचार प्रतिबंध की मांग करते हैं जिससे लोगों की कथित रूप से भावनायें आहत होती हैं या उनके पथभ्रष्ट होने की संभावना दिखती है। अभी कुछ धर्माचार्य समलैंगिकता पर छूट का विरोध कर रहे हैं। कभी कभी तो लगा है इस देश में आवाज की आजादी का अर्थ धर्माचार्यों की सुनना रह गया है। इस किताब पर प्रतिबंध लगाओ, उस चीज पर हमारे धर्म का प्रतीक चिन्ह है इसलिये बाजार में बेचने से रोको।
हमारा धर्म, हमारे संस्कार और हमारी पहचान बचाने के लिये यह धर्माचार्य जिस तरह प्रयास करते हैं और जिस तरह उनको प्रचार माध्यम अपने समाचारों में स्थान देते हैं उससे तो लगता है कि धर्म और बाजार मिलकर इस देश की लोगों की मानसिक सोच को काबू में रखना चाहते है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में वह शक्ति है जो आदमी को स्वयं ही नियंत्रण में रखती है इसलिये जो भी व्यक्ति इसका थोड़ा भी ज्ञान रखता है वह ऐसे प्रयासों पर हंस ही सकता है। दरअसल धर्म, भाषा, जाति, और नस्ल के आधार पर बने समूहों को ठेकेदार केवल इसी आशंका में जीते हैं कि कहीं उनके समूह की संख्या कम न हो जाये इसलिये वह उसे बचाने के लिये ऐसे षडयंत्र रचाते हैं जिनको वह आंदोलन या योजना करार देते हैं। सच बात तो यह है कि अधिक संख्या में समूह होने का कोई मतलब नहीं है अगर उसमें सात्विकता और दृढ़ चरित्र का भाव न हो।
इस लेखक ने कभी ऐसी साईटें देखने का प्रयास नहीं किया पर इधर उधर देखकर यही लगता है कि लोगों की रुचि इंटरनेट पर भी इसी प्रकार के साहित्य में है। इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि कहीं भी यौन साहित्य से मस्तिष्क और देह में विकास उत्पन्न होते हैं यह बात समझ लेना चाहिये। ऐसा साहित्य वैसे भी बाजार में उपलब्ध है और इंटरनेट पर एक वेबसाईट पर रोक से कुछ नहीं होगा। फिर दूसरी शुरु हो जायेगी। समाज के कथित शुभचिंतक फिर उस पर उधम मचायेंगे। इस तरह उनके प्रचार का भी काम चलता रहेगा। समस्या तो जस की तस ही रह जायेगी। इस तरह का प्रतिबंध दूसरे लोगों के लिये चेतावनी है और वह ऐसा नहीं करेंगे पर भारत के बाहर की अनेक वेबसाईटें इस तरह के काम में लगी हुई हैं उनको कैसे रोका जायेगा?
इसलिये प्रयास यह होना चाहिये कि समाज में चेतना लायी जाये पर ऐसा कोई प्रयास नहीं हो रहा है। इसके बनिस्बत केवल नारे और वाद सहारे वेबसाईटें रोकी जा रही है पर लोगों की रुचि सत्साहित्य की तरफ बढ़े इसके लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

कुतर्कों को तर्क से काटना चाहिये। एक दूसरी बात यह भी है कि जब आप कोई सार्वजनिक रूप से किसी व्यक्ति, किताब, दृश्य या किताब को बहुत अच्छा कहकर प्रस्तुत करते हैं तो उसके विरुद्ध तर्क सुनने की शक्ति भी आप में होना चाहिये। न कि उन पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों से अपनी भावनायें आहत होने की बात की जानी चाहिये। इस मामले में राज्य का हस्तक्षेप होना ही नहीं चाहिये क्योंकि यह उसका काम नहीं है। अगर ऐसी टिप्पणियों पर उत्तेजित होकर कोई व्यक्ति या समूह हिंसा पर उतरता है तो उसके विरुद्ध कार्यवाही होना चाहिये न कि प्रतिकूल टिप्पणी देने वाले को दंडित करना चाहिये। हमारा स्पष्ट मानना है कि या तो आप अपने धर्म, जाति, भाषा या नस्ल की प्रशंसा कर उसे सार्वजनिक मत बनाओ अगर बनाते हो तो यह किसी भी व्यक्ति का अधिकार है कि वह कोई भी तर्क देकर आपकी तारीफ की बखिया उधेड़ सकता है।
यह लेखक शायद ऐसी बातें नहीं कहता पर अंतर्जाल पर लिखते यह एक अनुभूति हुई है कि लोग पढ़ते और लिखते कम हैं पर ज्ञानी होने की चाहत उन्हें इस कदर अंधा बना देती है कि वह उन किताबों के लिखे वाक्यों की निंदा सुनकर उग्र हो जाते हैं। इस लेखक द्वारा लिखे गये अनेक अध्यात्म पाठों पर गाली गलौच करती हुई टिप्पणियां आती हैं पर उनमें तर्क कतई नहीं होता। हैरानी तो तब होती है कि विश्व की सबसे संपन्न भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा से जुड़े होने का दावा करने वाले लोग भी पौर्न साईटों, बिना विवाह साथ रहने तथा समलैंगिकता का विरोध करते हैं। बिना विवाह के ही लड़के लड़कियों के रहने में उनको धर्म का खतरा नजर आता है। यह सब बेकार का विरोध केवल अपनी दुकानें बचाने का अलावा कुछ नहीं है। ईमानदारी की बात तो यह है कि समाज में चेतना बाहर से नहीं आयेगी बल्कि उनके अंदर मन में पैदा करने लगेगी। कथित पथप्रदर्शक अपने भाषणों के बदल सुविधायें और धन लेते हैं पर जमीन पर उतर कर आदमी से व्यक्तिगत संपर्क उनका न के बराबर है।
कहने को तो कहते हैं कि आजकल की युवा पीढ़ी इनको महत्व नहीं देती पर वास्तविकता यह है कि लड़के लड़कियां विवाह करते ही इसी सामजिक दबाव के कारण हैं। कई लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताती हैं। कई लड़के और लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताते हैं। धर्म बदलकर विवाह करने पर उनको ससुराल पक्ष के संस्कार मानने ही पड़ते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उन संस्कारों को उसकी ससुराल में ही बाकी लोग महत्व नहीं देते पर उसे मनवाकर अपनी धार्मिक विजय प्रचारित किया जाता है। विवाह एक संस्कार है इसे आखिर नई पीढ़ी तिलांजलि क्यों नहीं दे पाती? इसकी वजह यही है कि जाति, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर बने समाज ठेकेदारों के चंगुल में इस कदर फंसे हैं कि उनसे निकलने का उनके पास कोई चारा ही नहीं है। आप अगर देखें। किस तरह लड़का प्यार करते हुए लड़की को उसके जन्म नाम को प्यार से पुकारता है और विवाह के लिये धर्म के साथ नाम बदलवाकर फिर उसी नाम से बुलाता है। इतना ही नहीं बाहर समाज में अपनी पहचान बचाने रखने के लिये लड़की भी अपना पुराना नाम ही लिखती है। समाज से इस प्रकार का समझौता एक तरह से कायरता है जिसे आज का युवा वर्ग अपना लेता है।

बात मुद्दे की यह है कि मनुष्य का मन उसे विचलित करता है तो नियंत्रित भी। उसे विचलित वही कर पाते हैं जो व्यापार करना चाहते हैं। फिर मनुष्य को एक मित्र चाहिये और वह ईश्वर में उसे ढूंढता है। अभी हाल ही में पश्चिम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य जब ईश्वर की आराधना करता है तो उसके दिमाग की वह नसें सक्रिय हो जाती हैं जो मित्र से बात करते हुए सक्रिय होती हैं। इसका मतलब साफ कि दिमाग की इन्हीं नसों पर व्यापारी कब्जा करते हैं। ईश्वर के मुख से प्रकट शब्द बताकर रची गयी किताबों को पवित्र प्रचारित किया जाता है। इसकी आड़ में कर्मकांड थोपते हुए धर्माचार्य अपने ही धर्म, जाति और समूहों की रक्षा का दिखावा करते हुए अपना काम चलाते हैं। मजे की बात है कि आधुनिक युग के समर्थक बाजार भी अब इनके आसरे चल रहा है। वजह यह है कि धर्म की आड़ में पैसे का लेनदेन बहुत पवित्र माना जाता है जो कि बाजार को चाहिये।
निष्कर्ष यह है कि कथित पवित्र पुस्तकों के यह कथित ज्ञानी पढ़ते लिखते कितना है यह पता नहीं पर उनकी व्याख्यायें लोगों को भटकाव की तरफ ले जाती हैं। आम व्यक्ति को समाज के रीति रिवाजों और कर्मकांडों का बंधक बनाये रखने का प्रयास होता रहा है और अगर कोई इनको नहीं मानता तो उसकी इसे आजादी होना चाहिये। यह आजादी कानून के साथ ही निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा भी प्रदान की जानी चाहिये।
किसी को बिना विवाह के साथ रहना है या समलैंगिक जीवन बिताना है या किसी को नग्न फिल्में देखना है यह उसका निजी विचार है। यह सब ठीक नहीं है और इसके नतीजे बाद में बुरे होते हैं पर इस पर कानून से अधिक समाज सेवी विचारक ही नियंत्रण कर सकते हैं। धर्म भी नितांत निजी विषय है। जन्म से लेकर मरण तक धर्म के नाम पर जिस तरह कर्मकांड थोपे जाते हैं अगर किसी को वह नापसंद है तो उसे विद्रोही मानकर दंडित नहीं करना चाहिये। कथित रूप से पवित्र पुस्तक की आलोचना करने वालों को अपने तर्कों से कोई धर्मगुरु समझा नहीं पाता तो वह राज्य की तरफ मूंह ताकता है और राज्य भी उसके द्वारा नियंत्रित समूह को अपनी हितैषी मानकर इन्हीं धर्माचार्यों को संरक्षण देता है और यही इस देश के मानसिक विकास में बाधक है।
इस लेखक का ढाई वर्ष से अधिक अंतर्जाल पर लिखते हुए हो गया है पर पाठक संख्या नगण्य है। देश में साढ़े सात करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ता है फिर भी इतनी संख्या देखकर शर्म आती है क्योंकि अधिकतर लोग इन्हीं पौर्नसाईटों पर अपना वक्त बिताते हैं पर फिर भी अफसोस जैसी बात नहीं है। एक लेखक के रूप में हम यह चाहते हैं कि लोग हमारा लिखा पढ़ें पर स्वतंत्रता और मौलिकता के पक्षधर होने के कारण यह भी चाहते हैं कि वह स्वप्रेरणा से पढ़ें न कि बाध्य होकर। अपने प्राचीन ऋषियों. मुनियों, महापुरुषों तथा संतों ने जिस अक्षुण्ण अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन किया है वह मनुष्य मन के लिये सोने या हीरे की तरह है अगर उसे दिमाग में धारण किया जाये तो। अपनी बात कहते रहना है। आखिर आदमी अपने दैहिक सुख से ऊब जाता है और यही अध्यात्मिक ज्ञान उसका संरक्षक बनता है। हमने कई ऐसे प्रकरण देखे हैं कि आदमी बचपन से जिस संस्कार में पला बढ़ा और बड़े होकर जब भौतिक सुख की वजह से उसे भूल गया तब उसने जब मानसिक कष्ट ने घेरा तब वह हताश होकर अपने पीछे देखने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कहां से शुरु हुआ और कहां पहुंचा ऐसे में सब कुछ जानते हुए भी वह लौट नहीं पाता। जैसे कर्म होते हैं वैसे ही परिणाम! अगर देखा जाये तो समाज को डंडे के सहारे चलाने वाले कथित गुरु या धर्माचार्यों से बचने की अधिक जरूरत है क्योंकि वह तो अपने हितों के लिये समाज को भ्रमित करते हैं। मजे की बात यह है कि यह बाजार ही है जो कभी नैतिकता, धर्म और संस्कार की बात करता है और फिर लोगों के जज्बात भड़काने का काम भी करता है।
यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के शिक्षित वर्ग का मनोरंजन से मन नहीं भरता। दिन भर टीवी पर अभिनेता और अभिनेत्रियों को देखकर वह बोर होता है तो कंप्यूटर पर आता है पर फिर वहां पर उन्हीं के नाम डालकर सच इंजिन में डालकर खोज करता है। यही हाल यौन साहित्य का है। टीवी और सीडी में चाहे वह कितनी बार देखता है पर कंप्यूटर में भी वही तलाशता है। ऐसे समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है। बाजार फिर उसका पैसा बटोरने के लिये कोई अन्य वेबसाईट शुरु कर देगा। इसलिये सच्चे समाज सेवी यह प्रयास प्रारंभ करें जिससे लोगों के मन में सात्विकता के भाव पुनः स्थापित किये जा सकें।
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Saturday, June 27, 2009

बरसात के लिये प्रार्थना-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya)

अध्यात्म नितांत एक निजी विषय है पर जब उसकी चौराहे पर चर्चा होने लगे तो समझ लो कि कहीं न कहीं उसकी आड़ में कोई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा रहा है तो कोई अपना व्यवसाय कर रहा है। जब कहीं सार्वजनिक रूप से प्रार्थनायें सभायें होती हैं तब यह लगता है कि लोग दिखावा अधिक कर रहे हैं। आज के संचार युग में तो यह कहना कठिन है कि धर्म का बाजार लग रहा है या बाजार ही धर्म बना रहा है। ऐसा लगता है कि पहले लोगों के पास मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे इसलिये धार्मिक पात्रों की व्याख्या करना ही धर्म प्रचार मान लिया गया। इस आड़ में तमाम तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास सृजित किये गये ताकि उनकी आड़ में धरती पर उत्पन्न अनावश्यक भौतिक साधान बिक सकें जिसके माध्यम से आदमी की जेब से पैसा निकाला जाये।
अब तो प्रचार युग आ गया है और लोग अध्यात्मिक आधार पर इसलिये अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते है ताकि सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक संगठनों में अपनी छबि बनाकर पुजते रहें। वह आधुनिक बाजार में आधुनिक अध्यात्मिक व्यापारी बनकर चलना चाहते हैं पर उनकी दुकान सामान उनका बरसो पुराना ही है जिसमें केवल धार्मिक प्रतीक और कर्मकांड ही हैं। जब कहीं हिंसा हो तो वहां लोग शांति के लिये सामूहिक प्रार्थनायें करने के लिये एकत्रित होते हैं। उनको प्रचार माध्यमों में बहुत दिखाया जाता है। जब यह कहना कठिन हो जाता है कि बाजार को ऐसी खबरें चाहिये इसलिये यह सब हो रहा है या सभी विचारधारा के ज्ञानियों को प्रचार चाहिये इसलिये वह इस तरह की सामूहिक प्रार्थनायें करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि पूजा, भक्ति या साधना तो एकांत में ही परिणाम देने वाली होती है।’ इसलिये जब इस तरह के सामूहिक कार्यक्रम होते हैं तो वह दिखावा लगते हैं। आजकल अनेक स्थानों पर बरसात बुलाने के लिये प्रार्थना सभायें हो रही हैं। हर तरह की धार्मिक विचाराधारा के स्वयंभू ज्ञानी लोगों से बरसात के लिये सामूहिक प्रार्थनाऐं आयोजित कर रहे हैं। प्रचार भी उनको खूब मिल रहा है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर अपने जैसे लोगों से अपनी बात करने का एक अलग ही मजा है। कुछ लोग है जो इसमें हो रही चालाकियों को देखते हैं।
हम जरा इस बरसात के मौसम पर विचार करें तो लगेगा कि उसका आना तय है। देश के कुछ इलाकों में उसका प्रवेश हो चुका है और अन्य तरफ मानसून बढ़ रहा है।

उस दिन मई की एक शाम बाजार में तेज बरसात से बचने के लिये हम एक मंदिर में बैठ गये। उस समय तेज अंाधी के साथ बरसात हो रही थी। हालांकि गर्मी कम नहीं थी और बरसात से राहत मिली पर एक शंका मन में थी कि यह मानसून के लिये संकट का कारण बन सकता है। प्रकृत्ति का अपना खेल है और उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मनुष्य यह चाहता है कि प्रकृति उसके अनुरूप चले पर पर उसके साथ खिलवाड़ भी करता है। मई में उस दिन हुई बरसात के अगले कुछ दिनों में ही अखबारों में हमने पढ़ा कि बरसात देर से आयेगी। विशेषज्ञों ने बरसात कम होने की भविष्यवाणी की है-औसत से सात प्रतिशत कम यानि 93 प्रतिशत होने का अनुमान है।

ऐसा नहीं है कि बरसात हमेशा समय पर आती हो-कभी विलंब से तो कभी जल्दी भी आती है-पिछली बार कीर्तिमान भंजक वर्षा हुई थी। बरसात जब तक नहीं आती तब आदमी व्यग्र रहता है। ऐसे में उसके जज्बातों से खेलना बहुत सहज होता है। उसका ध्यान गर्मी पर है तो उसे भुनाओ। कहने के लिये तो कह रहे हैं कि हम सर्वशक्तिमान को बरसात भेजने के लिये पुकार रहे हैं। पर उसका समय पर चर्चा नहीं करते। जब बरसात आने के संकेत हो चुके हैं तब ऐसी प्रार्थनाओं के समाचार खूब आ रहे हैं। वैसे तो फरवरी के आसपास भी ऐसे समाचार आ गये थे कि इस बार बरसात देर से आयेगी और कम होगी। तब ऐसी प्रार्थना सभायें क्यों नहीं की गयी। उस समय नहीं तो मई में ही कर लेते।
सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के चेले चालाक हैं। उस समय करते तो कौन लोग उनको याद रखते। जब एक दो दिन या सप्ताह में बरसात आने वाली तब ऐसी प्रार्थना सभायें इसलिये कर रहे हैं ताकि जब हों तो लोग माने कि उनके ‘ज्ञानियों’ को कितनी सिद्धि प्राप्त है। बहरहाल हम देख रहे हैं कि बाजार के प्रबंधक और सर्वशक्तिमान के यह आधुनिक दूत एक जैसे चालाक हैं। टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाऐं तो व्यवसायिक हैं पर सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के यह ज्ञानी चेले भी क्या व्यवसायी है? उनकी इस तरह की चालाकियों से तो यही लगता है?
प्रसंगवश याद आया एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि ‘आपके लेखों से यह पता ही नहीं लगता कि आप किस धर्म या भगवान की बात कर रहे हैं?
दरअसल इसका कारण यह है कि हम सभी तरह की विचारधाराओं पर अपने विचार रखते हैं। किसी एक का तयशुदा नाम लेने पर लोग कहते हैं कि तुम उनके नाम पर लिखो तो जाने। जहां तक हमारी जानकारी सर्वशक्तिमान शब्द किसी भी खास विचारधारा से नहीं जुड़ा यही स्थिति उसके ठेकेदार शब्द ं की भी है। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता कि हमारी बात करते हो उनकी करके देखो तो जानो।
अगर सभी विरोध करने लगें तो हम भी कह सकते हैं कि तुम सर्वशक्तिमान और ठेकेदार शब्द से अपने को क्यों जोड़ते हो? दरअसल हमने देखा कि यह समाजों के ठेकेदारो का काम ही चालाकी पर चल रहा है और लोगों को जज्बात से भड़काने और बहलाने के काम में यह सब सक्षम होते हैं। हम इसलिये अपनी बात व्यंजना विधा में कहते हैं। हां, बरसात की पहली बूंदों का इंतजार हमें भी है। अब यह गर्मी सहना कठिन हो गया है। कभी कभी आकाश में बिना बरसते बादल देखते हैं तो भी गुस्सा आता है कि यह हमारी धरती की गर्मी नष्ट कर रहे हैं जो कि बरसात को खींचती है।
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Wednesday, June 24, 2009

अल्फ़ाजों की लहरें-हिंदी शायरी (hindi shayri)

दिल में जलती गम की आग
गर्मी में दोपहर की तपिश
उसे और बढ़ा देती है।
वर्षा की बूंदों के इंतजार में
में पथरा गयी हैं आंखें
जल रहा है बदन
कोई सागर ढूंढता हूं
जिसकी ठंडक तसल्ली दे सके
पर नउम्मीदी नरक सजा देती है।
उठा रहा हूं इसलिये अल्फाजों की लहरें
शायद बन जाये शायरी का कोई सागर
जिससे रौशन हो दिल
यही उम्मीद आसरा बढ़ा देती है।
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Monday, June 22, 2009

इश्तिहार-त्रिपदम (hindi tripadam)

इश्तिहार
प्यारे मजमून
धोखे से भरे।

अनजाने में
सामने आ जाये तो
दिल में भरे।

कामयाबी के
ढेर सारे सपने
सोने से भरे।

झूठे हों तो भी
देखने की कीमत
दर्शक भरे।

तस्वीर में
चमकते चेहरे
रंग से भरे।

अलसुबह
देख वह चेहरे
आईना डरे।

मेला या खेल
नट और खिलाड़ी
पैसे से भरे।

पैसे के लिये
इश्तिहारी खेल
सच से परे।

खामोश देखो
जब सिक्के न हों
जेब में भरे।

इश्तिहार
पढ़कर करना
याद से परे।

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Tuesday, June 16, 2009

यह सब बकवास है-हास्य व्यंग्य

अगर यह पहले पता होता कि इंटरनेट पर लिखते हुए पाठकों को त्वरित प्रतिक्रिया का अधिकार देना पड़ेगा और उसका वह उपयोग अपना गुस्सा निकालने के लिये कर सकते हैं तो शायद ब्लाग/पत्रिका पर लिखने का विचार ही नहीं करते-मन में यह डर पैदा होता कि कहीं ऐसा वैसा लिख तो लोग अंटसंट सुनाने लगेंगे। कुछ अनाम टिप्पणीकार हैं जो लिख ही देते हैं बकवास या फिर यह सब बकवास।
रोमन लिपि में उनके लिये यह लिखना कोई कठिन काम नहीं होता। एक दो नाम जेहन में हैं। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया दोहराई है। तब मन में सवाल आता है कि एक बार जब पता चल गया कि यह लेखक बकवास लिखता है तो पढ़ने आते ही क्यों हो? अरे, भई हमने तो अपने ब्लाग पर ही अपना नाम लिख दिया ताकि नापसंद करने वालों को मूंह फेरने में असुविधा न हो। उस पर हर पाठ के साथ लिख देते हैं कविता, कहानी, आलेख और हास्य व्यंग्य ताकि जिनको उनसे एलर्जी हो वह भी मूंह फेर ले। फिर काहे चले आते हो यह बताने के लिये कि यह सब बकवास है।’
हम भी क्या करें? प्रति महीने सात सौ रुपये का इंटरनेट का बिल भर रहे हैं। अपने अंदर बहुत बड़े साहित्यकार होने का बरसों पुराना भ्रम है जब तक वह नहीं निकलेगा लिखना बंद नहीं करेंगे। फिर पैसा भी तो वसूल करना है।
उस पर हमने बकवास लिखा है तो तुम ही कुछ ऐसा लिखो कि हम लिखना छोड़ पढ़ना शुरु कर दें। हम भी क्या करें? डिस्क कनेक्शन और समाचार पत्र पत्रिकाओं पर भी बराबर पैसा खर्च करते हैं पर उनमें भी मजा नहीं आता। हम लिखते कैसा हैं यह तो बता देते हो कि वह बकवास है पर हम भी यह बता दें कि मनोरंजन और साहित्य पाठन की दृष्टि से हमारी पंसद बहुत ऊंची है। टीवी में हमारी पसंद कामेडी धारावाहिक ‘यस बोस’ और ताड़क मेहता का उल्टा चश्मा है तो किताबों की दृष्टि से अन्नपूर्णा देवी का स्वर्णलता प्रेमचंद का गोदान और श्री लालशुक्ल का राग दरबारी उपन्यास हमें बहुत पंसद है। उसके बाद हमारी पसंद माननीय हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी और नरेंद्र कोहली हैं। जब पढ़ने का समय मिलता है तब समाचार पत्र और पत्रिकाओं में अच्छी सामग्री ढूंढते हैं। नहीं मिलती तो गुस्सा आता है इसलिये ही लिखने बैठ जाते हैं तब बकवास ही लिखी जा सकती है यह हमें पता है।
हो सकता है कुछ लोग न कहें पर देश में आम आदमी की मानसिकता की हमें समझ है। पहले थोड़ा कम थी पर इंटरनेट पर लिखते हुए अधिक ही हो गयी है। सर्च इंजिनों में हिंदी फिल्म के अभिनेता और अभिनेत्रियों की अधिक तलाश होती है। उसके बाद पूंजीपति और किकेट खिलाड़ी भी अधिक ढूंढे जाते हैं। अगर हम क्रिकेट खिलाड़ी होते तो हमारा ब्लाग लाखों पाठक और हजारों टिप्पणियां जुटा लेता। फिल्मों में होते तो ब्लाग पर दस लाख पाठक और दस बीस हजार कमेंट एक पाठ पर आ जाते। क्रिक्रेट या फिल्मों पर गासिप लिखते पर क्या मजाल कोई लिख जाता कि बकवास। वहां तो लोग ऐसे कमेंट लगाते हैं जैसे कि उनके श्रद्धेय खिलाड़ी या अभिनेता की नजरें अब इनायत होती हैं। किसी पूंजीपति का ब्लाग होता तो प्रशंसा वाली कमेंट भी डालने में घबड़ाते कि कहीं लिखते हुए गलती होने पर फंस न जायें क्योंकि तब तो माफी की गुंजायश भी नहीं होती।


लब्बोलुआब यह है कि अधिकतर हिंदी पाठक केवल इसी बात की ताक में रहते हैं कि खास आदमी ने क्या लिखा है। उसका गासिप भी उनके लिये पवित्र संदेश होता है। जिनके पहनने, ओढ़ने, बाल रखने के तरीके के साथ चलने और नाचने की अदाओं को नकल करते हैं उनके बारे में ही पढ़ने में उनकी रुचि है। दोष भी किसे दें। पौराणिक हों या नवीन कथाओं में हमेशा ही माया के शिखर पर बैठने वालों को ही नायक बनाकर प्रस्तुत किया गया या फिर ऐसे लोगों को ही त्यागी माना गया जिन्होंने घरबार छोड़कर समाज की सेवा के लिये तपस्या की। पहले मायावी शिखर पुरुषों की संख्या कम थी इसलिये उनके किस्से पवित्र बन गये पर अब तो जगह जगह माया के शिखर और उस पर बैठे ढेर सारे लोग। पहले तो शिखर पुरुषों को आदमी अपने पास ही देख लेता था क्योंकि आतंकवाद का खतरा नहीं था। अब तो शिखर पुरुषों के आसपास कड़ी सुरक्षा होती है और द्वार के बाहर खड़ा उनका सेवक भी सम्मान पाता है। आम आदमी की हिम्मत नहीं होती कि उनके घर के सामने से निकल जाये।

इतने सारे आधुनिक शिखर पुरुषों की सफलता की कहानी पढ़ने के लिये समय चाहिये। उनके चेहरे टीवी, फिल्म, और पत्र पत्रिकाओं में रोज दिखते हैं। लोग देखते ही रह जाते हैं ऐसे में उनके बोले या लिखे शब्दों पर लोग मर मिटने को तैयार हैं। किसी समय आम आदमियों में चर्चा होती तो कुछ ज्ञानी लोग रहीम,कबीर तंुलसीदास के दोहे आपसी प्रसंगों में सुनाते थे अब धारावाहिकों और फिल्मों के डायलोग सुनाते हैं-वह आधुनिक विद्वान भी है जो फिल्म और क्रिकेट पर गासिप लिख और सुना सकता है। ‘जय श्री राम’ के मधुर उद्घोष से अधिक ‘अरे, ओ सांभा’ जैसा कर्णकटु शब्द अधिक सुनाई देता है।
हम ठहरे आम आदमी। आम आदमी होना ही अपने आप में बकवास है। न बड़ा घर, न कार, न ही कोई प्रसिद्धि-ऐसे में संतोष के साथ जीना कई लोगों को पड़ता है पर उसमें चैन की सांस लेकर मजे से लिखें या पढ़ें यह हरेक का बूता नहीं है। हर आम आदमी की आंख खुली है कि कहीं से माल मिल जाये पर उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो कभी कभी अपनी आंख वहां से हटाकर सृजनात्मक काम में लगाते हैं तब उनको भी यह पता होता है कि वह कोई खास आदमी नहीं बनने जा रहे। हम ऐसे ही जीवों में हैं।

पहले लिखते हुए कुछ मित्र मिले जो आज तक निभा रहे हैं। अब अंतर्जाल पर भी बहुत सारे मित्र हैं। हम सोचते हैं कि इस तरह उनसे संपर्क बना रहे इसलिये लिखते हैं। हो सकता है कि वह भी यही सोचते हों कि ‘सब बकवास है’ पर कहते नहीं । इससे हमारा भ्रम बना हुआ है और दोस्ती बनी रहे इसलिये वह ऐसी बात लिखते भी नहीं।
सच बात तो कहें कि हम लिखते हैं केवल अपने जैसे आम आदमी के लिये जो खास आदमी के सामने पड़कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहता या फिर उन तक पहुंचने का अवसर उसे नहीं मिलता। ऐसे में वह स्वयंभू लेखक होने का भ्रम पाकर लिखता चला जाता है। वैसे भ्रम में तो वह लोग भी है जो खास आदमी को अवतारी पुरुष समझकर उसकी तरफ झांकते रहते हैं कि कब उसकी दृष्टि पड़े तो हम अपने को धन्य समझें। उसकी दृष्टि पड़ जाये तो क्या हो जायेगा? सभी की देह पंचतत्वों से बनी है और एक दिन उसको मिट्टी में मिलना है।
सो जब तक जीना है तब तक अपने स्वाभिमान के साथ जियो। एक लेखक होने पर कम से कम इतना तो आदमी ही करता ही है कि वह अपने आसपास से जो आनंद प्राप्त करता है उसके बदले में वह अपने शब्द दाम के रूप में चुकाता है भले ही वह कुछ को विश्वास तो कुछ को बकवास लगते हैं पर बाकी दूसरे लोग तो बस जुटे हैं आनंद बटोरने में। कहीं उसकी कीमत नहीं चुकानी। कभी क्रिकेट तो कभी फिल्म-धारावाहिक की कल्पित कहानियों में मनोरंजन ढूंढता है अपने अंदर कुब्बत पैदा कर दूसरे का मनोरंजन करे ऐसा साहस कितने कर पाते है। बस अब इतनी ही बकवास ठीक है क्योंकि लिखने वालों को तो बस एक ही शब्द लिखना है तो हम क्यों इससे अधिक शब्द प्रस्तुत करें।
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Monday, June 8, 2009

वफादारी-हिन्दी लघुकथा

वह दोनों एक ही कार्यालय में काम करते थे पर बोस की नजरों में इनमें एक पहला नंबर और दूसरा दो नंबर कहलाता था। पहला नंबर हर काम को जल्दी कर अपने बास के पास पहुंच जाता और अपनी प्रशंसा पाने के लिये दूसरे की निंदा करता। बोस भी उसकी हां मां हा मिलाता और दूसरे नंबर वाले को डांटता।
दूसरे नंबर का कर्मचारी चुपचाप उसकी डांट सुनता और अपने काम में लगा रहता था।
एक दिन पहले नंबर वाले कर्मचारी ने दूसरे नंबर वाले से कहा-‘यार, तुम्हें शर्म नहीं आती। रोज बोस की डांट सुनते हो। जरा ढंग से काम किया करो। तुम्हें तो डांट पड़ती है बोस तुम्हारे पीछे मुझसे ऐसी बातें कहता है जो मैं तुमसे कह नहीं सकता।’
दूसरे कर्मचारी ने कहा-‘तो मत कहो। जहां तक काम का सवाल है तुम केवल फोन से आयी सूचनायें और चिट्ठियां इधर उधर पहुंचाने का काम करते हो। तुम बोस की चमचागिरी करते हो। उसके घर के काम निपटाते हो। बोस तुम्हारे द्वारा दी गयी सूचनायें और पत्रों के निपटारे का काम मुझे देता है और हर प्रकरण पर दिमाग लगाकर काम करना पड़ता है। कई पत्र लिखकर स्वयं टाईप भी करने पड़ते हैं तुम तो बस उनकी जांच ही करते हो पर उससे पहले मुझे जो मेहनत पड़ती है वह तुम समझ ही नहीं सकते। कभी कुछ ऊंच नीच हो जायेगा तो इस कंपनी से बोस भी नौकरी से जायेगा और मैं भी।’
पहले कर्मचारी ने कहा-‘उंह! क्या बकवास करते हो। यह काम मैं भी कर सकता हूं। तुम कहो तो बोस से कहूं इसमें से कुछ खास विषय की फाइलें मुझे काम करने के लिये दे। अपने जवाबों को टाईप भी मैं कर लिया करूंगा। मुझे हिंदी और अंग्रेजी टाईप दोनों ही आती हैं।’
दूसरे कर्मचारी ने कहा-‘अगर तुम्हारी इच्छा है तो बोस से जाकर कह दो।’
पहले कर्मचारी ने जाकर बोस को अपनी इच्छा बता दी। बोस राजी हो गया और उसने दूसरे कर्मचारी का कुछ महत्वपूर्ण काम पहले नंबर वाले को दे दिया।
पहले कर्मचारी ने बहुत दिन से टाईप नहीं किया था दूसरा वह पिछले तीन वर्षों से बोस की चमचागिरी के कारण कम काम करने का आदी हो गया था और दूसरे कर्मचारी के बहुत सारे महत्वपूर्ण कामों के बारे में जानता भी नहीं था-उसका अनुमान था कि दूसरे कर्मचारी के सारे काम बहुत सरल हैं जिनको कर वह बोस को प्रसन्न करता है।

उसके सारे पूर्वानुमान गलत निकले। वह न तो पत्रों के जवाब स्वयं तैयार कर पाता न ही वह दूसरे कर्मचारी की तरह तीव्र गति से टाईप कर पाता। काम की व्यस्तता की वजह से वह बोस की चमचागिरी और उसके घर का काम नहीं कर पाता।
बास की पत्नी के फोन उसके पास काम के लिये आते पर उनको करने का समय निकालना अब उसके लिये संभव नहीं रहा था। इससे उसका न केवल काम में प्रदर्शन गिर रहा था बल्कि बास की पत्नी नाराजगी भी बढ़ रही थी और एक दिन बास ने कंपनी के अधिकारियों को उसके विरुद्ध शिकायतें की और उसका वहां से निष्कासन आदेश आ गया।
वह रो पड़ा और दूसरे वाले कर्मचारी से बोला-‘यह मैंने क्या किया? अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। अब क्या कर सकता हूं?’
दूसरे कर्मचारी ने कहा-‘तुम चिंता मत करो। कंपनी के उच्चाधिकारी मेरी बात को मानते हैं। मैं उनसे फोन पर बात करूंगा। बस तुम एक बात का ध्यान रखना कि यहां अपने साथियों से वफादारी निभाना सीखो। याद रखो अधिकारी के अगाड़ी और गधे के पिछाड़ी नहीं चलना चाहिए।’
दूसरे कर्मचारी के प्रयासों से पहला कर्मचारी बहाल हो गया। दूसरे कर्मचारी की शक्ति देखकर बोस ने उसे तो डांटना बंद कर दिया पर पहले वाले को तब तक परेशान करता रहा जब तक स्वयं वह वहां से स्थानांतरित होकर चला नहीं गया।
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Friday, June 5, 2009

बड़ा आदमी-लघुकथा

वह शिक्षित बेरोजगार युवक संत के यहां प्रतिदिन जाता था। उसने देखा कि उनके आशीर्वाद से अनेक लोगों की मनोकामना पूरी हो जाती हैं। एक दिन उसने संत के चरणों में सिर झुकाते हुए कहा-‘महाराज, अभी तक आपके चरणों में सिर झुकाता रहा पर कुछ मांगने का साहस नहीं हो सका। आज आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिये ताकि मैं भी बड़ा आदमी बन जाऊं।’
संत से मुस्कराकर पूछा-क्या बनना चाहते हो?
उस युवक ने कहा-‘महाराज, एक अंग्रेज विद्वान ने कहा है कि इस धरती पर सबसे बड़ा आदमी तो क्लर्क है। वही बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!
कुछ दिनों के बाद वह फिर संत के चरणों में आकर गिर पड़ा और बोला-‘महाराज क्लर्क बनने से मेरे रोजगार की समस्या तो दूर हो गयी पर बड़ा आदमी फिर भी नहीं बन सका। जो उपरी कमाई का हिस्सा बड़े क्लर्क को उसके डर के मारे देना पड़ता है। आप मुझे बड़ा क्लर्क बना दीजिये।’
संत ने कहा-तथास्तु!
वह बड़ा क्लर्क बना। फिर कुछ दिनों के बाद आया और बोला-‘महाराज, उससे भी बड़ा आदमी नहीं बन सका। उपरी कमाई का हिस्सा अफसर को उसके डर के मारे देना पड़ता है। आप तो मुझे अफसर बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
कुछ दिनों बाद वह फिर संत के चरणों में आकर गिर पड़ा और बोला-‘महाराज, अफसर से भी बड़ा वजीर है। आप तो वह बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
कुछ समय बाद वह फिर आया और बोला-महाराज, अब यह आखिरी बार मांग रहा हूं। वजीर से भी बड़ा राजा है। आप तो मुझे राजा बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
मगर एक दिन फिर आया और चरणों में गिर पड़ा-‘महाराज, राजा से भी बड़े आप हैं। यह मुझे वहां गद््दी पर बैठकर लगा क्योंकि आप जनता के हृदय में बसते हैं और इसलिये आपसे डरकर रहना पड़ता है। आप तो मुझे अपने जैसा संत बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु।’
फिर वह कुछ दिन बाद आया और चरणों में गिर पड़ा तो संत ने कहा-‘अब यह मत कहना कि मुझे सर्वशक्तिमान बनाकर स्वर्ग में बिठा दो। यह मेरे बूते का नहीं है। इतना बड़ा मैं किसी को नहीं बना सकता।’
उसने कहा-‘महाराज, आपसे जो मांगा आपने दिया पर मैं लालची था जो किसी को कुछ नहीं दे सका बल्कि आपसे मांगता ही रहा। आपने आशीर्वाद देकर क्लर्क से संत तक बड़ा आदमी बनाया पर मैं हमेशा छोटा ही बना रहा क्योंकि मेरे मन में केवल अपनी कामनायें थीं जो केवल आदमी को छोटा बनाये रखती हैं।’
संत ने कहा-‘तुम आज बड़े आदमी हो गये क्योंकि तुमने सच जान लिया है।’
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