समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, January 29, 2010

जमाने के सरताज-हिन्दी क्षणिकाएँ (zamane ke sartaj-hindi shayri)

खजाना भरने  वालों को

भला कहां सम्मान मिल पाया,

चमके वही लोग

बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।

-------

शरीर से रक्त

बहता है पसीना बनकर

कांटों को बुनती हुई

हथेलियां लहुलहान हो गयीं

अपनी मेहनत से पेट भरने वाले ही

रोटी खाते बाद में

पहले खजाना  भर जाते हैं।

सीना तानकर चलते

आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट लेकर

लिया है जिम्मा जमाने का भला करने का

वही सफेदपोश शैतान उसे लूट जाते हैं।

----------

अब लुटेरे चेहरे पर नकाब नहीं लगाते।

खुले आम की लूट की

मिल गयी इजाजत

कोई सरेराह लूटता है

कोई कागजों से दाव लगाते।

वही जमाने के सरताज भी कहलाते।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Monday, January 25, 2010

ताजे खून के ढूंढ रहे गुमाश्ते-हिन्दी शायरी (taza khoon dhoondh rahe-hindi shayri)

कभी शिकायत नहीं की अपने दर्द की

शायद इसलिये उन्होंने बेकद्री का रुख दिखाया,

इशारों को कभी समझा नहीं

काम निकलते ही अपनों  से अलग परायों में बिठाया,

जब अपने मसले रखे उनके सामने

बागी कहकर, हमलावरों में नाम लिखाया

------------

नयी पीढ़ी को आगे लाने के वास्ते,

खोल रहे हैं सभी अपने रास्ते।

पुरानों को बरगलाना मुश्किल है

उनकी जेबें हैं खाली, बुझे दिल हैं

खून जल चुका है जिन बेदर्दो की तोहीन से

ताजे खून के लिये वही ढूंढ रहे गुमाश्ते।

-------------

वह देश और समाज का भविंष्य

सुधारने के लिये उठाते हैं कसम,

जबकि अपनी आने वाले सात पुश्तों का

खाना जुटाने के लिये लगाते दम।

उनके काम पर क्या उठायें उंगली

आखें खुली है

पर अक्ल के पर्दै मिराये बैठे हम।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Friday, January 22, 2010

भाषा, व्यक्त्तिव और धर्म की पहचान पर विचार की आवश्यकता-हिन्दी लेख (dharma aur bhasha ki pahchan-hindi article)

हम जब हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व पर विचार करते हैं तो हमारा चिंतन केवल अपने देश तक ही सीमित हो जाता है। हम उस पहचान पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं जैसी हम देखना चाहते हैं, विदेशों में हमारे धर्म, भाषा तथा विचारों को कितने व्यापक संदर्भों में देखा जाता है इसकी कल्पना तक नहीं करते। यही हम इस विषय पर अपने अपने पूर्वाग्रहों के साथ विचार करते हैं। निष्कर्ष भी हम अपनी सुविधानुसार निकालते हैं। यहीं से आत्ममुगधता की ऐसी शुरुआत होती है जिसका अंत संकीर्ण विचारों में घिरकर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम जैसी पहचान चाहते हैं वैसे ही बनाने के लिये प्रयत्नशील हो जाते हैं जबकि होना यह चाहिये कि हम अपनी भाषा, व्यक्तित्व तथा विचाराधारा के मूल तत्वों को समझने के साथ अपनी स्थापित व्यापक पहचान के साथ अपना अभियान शुरु करें।
हम पहले अपनी कल्पित बाह्य पहचान का विचार कर फिर अपना रचनाकर्म या अभियान प्रारंभ कर अंधेरी गलियों में जा रहे हैं। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर हमारी जो पहचान पुराने आधारों पर बनी है उसमें नवीनता नहीं आ पाती बल्कि हमारी बदनामी करने वालों को इससे अधिक निंदा करने का अवसर मिल जाता है।
किसी समय भारत के सांपों को खेल दिखाने वाले और अंधविश्वासों से जकड़े हुए लोगों का देश कहा जाता था। उसके बाद भारतीय दर्शन के मूलतत्वों को जानने पर पाश्चात्य विद्वानों ने ही उस छबि को सुधारा। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने के बावजूद अभी भी भारत को अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को माने वाले विदेशी लोगों की संख्या अभी भी कम नहीं है।

एक तरफ हम हिन्दू, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के पीछे देश को एक देखना चाहते हैं दूसरी तरफ देश की विविधताओं में सामंजस्य बिठाने का प्रयास भी जारी रहता है। यह बुरा नहीं है परंतु विविधताओं में समन्वय लाने के प्रयास से जो अंतद्वंद्व उभरता है उससे बचने का कोई प्रयास नहीं होता उल्टे सामाजिक और वैचारिक वैमनस्य पनपता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहां हर कोई हर समाज या समूह का आदमी अपने अपने ढंग से वैश्विक पहचान की बात सोचता है। अगर हम पहले यह देखें कि विश्व में हमारे देश की पहचान कैसी और उसके आधार क्या हैं, तभी हम सामूहिक रूप से आगे बढ़ पायेंगे। खाली पीली के पूर्वाग्रहों से आगे बढ़ना संभव नहीं है।
यह अंतिम सत्य है कि भारत की पहचान विश्व स्तर पर हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व से ही है। यहां की सांस्कृतिक, सांस्कारिक तथा सभ्यता की विविधता को सारा विश्व जानता है और यहां की सहिष्णुता, सादगी तथा सत्यनिष्ठा की भी सभी जगह कद्र है। एक बात याद रखिये इस पहचान पर हमला करने के जो प्रयास हुए हैं उन्हें भी समझना होगा। अक्सर लोग कहते हैं कि अन्य भाषाओं के लेखकों ने फिर भी वैश्विक स्तर पर नाम कमाया है पर हिन्दी भाषी कोई लेखक इसमें सफल नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि भारत की पहचान को मिटाने के लिये ही प्रयास यही किया गया है कि यहां की संस्कृत तथा हिन्दी भाषा को उपेक्षित किया जाये। जहां तक अन्य भाषियों के सम्मान का सवाल है तो उनकी रचनायें या फिल्में अंग्रेजी अनुवाद के कारण ही विदेशों में समझी गयी न कि मूल भाषा के कारण। अभी तक जिन भारतीयों को नोबल या अन्य पुरस्कार मिलें हैं उनमें कितने लोगों की रचनात्मक पृष्ठभूमि कितनी भारतीय है और कितनी विदेशी इस पर अक्सर बहस होती है। इसका कारण यही है कि मूल भारतीय पृष्ठभूमि की जबरदस्त उपेक्षा की जाती है क्योंकि वह सत्य पर आधारित है न कि झूठे समझौतों के साथ उसने अपना आधार बनाया है। दूसरा सच यह भी है कि जब भारतीय पृष्ठभूमि की बात आती है तो तुलसी, कबीर, रहीम और मीरा की रचनाओं आज भी अंतर्राष्ट्रीय पहचान कायम है। हिन्दी भाषा के महान लेखक प्रेमचंद को अब वैश्विक स्तर पर पहचाना जाता है। पुरस्कारों का कोई मोल नहीं है क्योकि हिन्दी भाषा हमारी पहचान हैं।
इधर हम हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व को लेकर केवल अपने देश तक ही सोचकर सीमित हो जाते हैं। एक बात याद रखिये हिन्दी भाषी भारतीय अपनी संस्कृति के साथ पूरे विश्व में फैलें हैं। अगर हम हिन्दू शब्द को धर्म जैसे संकीर्ण विषय तक सीमित रख कर भी सोचें तो भारत में संख्या अधिक है पर इसका आशय यह नहीं है कि अन्यत्र उनका कोई आधार नहीं है। कहा जाता है कि इंडोनेशियो में भले ही धर्म कोई भी माना जाता हो पर वहां हिन्दू संस्कृति अब भी अपना वजूद बनाये हुए हैं-यह अलग बात है कि कुछ पश्चिमी देश उसे अपने धन बल से समाप्त करने के लिये जुटे हैं। थाईलैण्ड, मलेशिया तथा श्रीलंका में बड़े पैमाने पर हिन्दू हैं। पाकिस्तान में भी बहुत हिन्दू रहते हैं। इसके बावजूद सभी देशों में कभी हिन्दू धर्म या संस्कृति को लेकर सामजंस्य बिठाने का प्रयास कभी नहीं हुआ। यह काम भारत का था पर यहां किसी भी हिन्दू विचारक ने इस पर काम नहीं किया। इसके अलावा मध्य एशिया में हिन्दू बड़े पैमाने पर हैं पर कभी किसी हिन्दू धार्मिक शिखर पुरुष ने यह प्रयास या अभियाना प्रारंभ नहीं किया कि वहां सभी उन्मुक्त भाव से अपने धर्म का पालन कर सकें। हालांकि इस विषय पर अनेक लोग यह दावे करते हैं कि वहां सब ठीक ठाक है। अगर उनकी बात सही है तो उसको लेकर सार्वजनिक रूप से दावे क्यों नहीं किये जाते। क्या इसके पीछे यह खौफ है कि अधिक चर्चा से बात बिगड़ सकती है और उन देशों गैर हिन्दू लोग उत्तेजित हो सकते हैं? अगर यह ठीक भी है तो भी हिन्दू व्यक्तित्व के दृढ होने का प्रमाण नहीं है जोकि एक अनिवार्य शर्त है।
विश्व में भारत की पहचान हिन्दी से ही है। आप चाहें लाख सिर पटक लें पर अंतिम सत्य यही है। पिछला समय कैसा था, इस पर सोचने की बजाय यह देखें कि अब क्या चल रहा है? अब इंटरनेट के सर्च इंजिनों में निर्णय होना है। भारत में इंटरनेट प्रयोक्ता हिन्दी को समर्थन नहीं दे रहे हैं, उस पर अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और उसके लिये केाई प्रोत्साहन नहीं है, यह बात निराश कर सकती है पर आशावाद का मुख्य कारण भी यही हिन्दी है। जब विश्व में भारत की वैचारिक, साहित्यक तथा सांस्कारिक विषयों की खोज होगी तो लोग हिन्दी को ही प्राथमिकता देंगे। अंग्रेजी में लिखने वाले कितनी भी डींगें हांकें पर अनुवाद टूलों ने अगर पूर्ण शुद्धता प्राप्त कर ली तो भारत के हिन्दी लेखकों को ही अग्रिम पंक्ति में पायेंगे। हिन्दी लेखकों के पास लिखने के लिये बृहद विषय हैं। जिन भारतीयों ने अंग्रेजी भाषा में लिखना तय किया है उनके पास सामाजिक विषयों पर लिखने के लिये अधिक नहीं है। अगर होगा भी तो वह लिख पायेंगे इसमें संदेह है। क्योंकि भाषा और लिपि का संबंध भाव से होता है इसलिये जो विषय हिन्दी में लिखा जा सकता है उसका वैसा भाव लिखते समय अंग्रेजी में नहीं आ सकता। इसका मतलब सीधा है कि जिन लेखकों की शिक्षा हिन्दी में हुई है और अंग्र्रेजी में लिखने में असमर्थ हैं वह हिन्दी में लिखकर अंतर्जाल पर छाने के लिये प्रयास मौलिक रचनायें करेंगे। ऐसे में हिन्दी का बोलबाला ही रहेगा। अभी यह कहना कठिन होगा कि हिन्दी के पाठकों की संख्या कब बढ़ेगी और देश में लेखकों केा समर्थन कब मिलेगा? अलबत्ता जिस तरह कुछ लोग अंतर्जाल पर बाहरी दुनियां से अलग गजब का लेखन कर रहे हैं उससे हिन्दी के पाठक भी उनकी अनदेखी नहीं कर पायेंगे। विदेशों में तो उनको पढ़ा ही जायेगा।
हिन्दुत्व को लेकर अधिक विवाद की गुंजायश नहीं है। हिन्दुत्व का सीधा मतलब यही है कि अध्यात्मिक ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत किया जाये। हिन्दुत्व में साकार और निरंकार दोनों भावों का मान्यता दी जाती है। कहने का अभिप्राय है कि किसी के अपराध को क्षमा करने की सहिष्णुता और अपने विरुद्ध आक्रमण करने वाले का प्रतिकार करना हिन्दुत्व की पहचान है। इतना ही नहीं हर प्रकार के अध्यात्मिक ज्ञान से परिचित होना जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्ण्धि होती है। ऐसे में अपने जैसे सत्संगी-धार्मिक, जातीय, भाषाई तथा अन्य आधार पर समान लोग-जहां भी मिले उनसे व्यवहार बनाये। अतः जिन लोगों को हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व से सकारात्मक सरोकार है उनको अपना दृष्टिकोण व्यापक करते हुए अपनी सक्रियता का दायरा बढ़ाना चाहिये। याद रहे आलोचना करने वाले कितने भी तर्क करें हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के व्यापक प्रभाव को वह जानते हैं। शेष फिर कभी




कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Monday, January 18, 2010

सोचने की पहल-व्यंग्य कविता (sochne ki pahal-vyangya kavita)

महानायकों के झुंड के बीच

खड़ा है आम आदमी

हैरान होता  यह सोचकर कि

किसकी आरती वह पहले करे।

सुबह छाया पर्दे पर फिल्म का नायक

दोपहर को गा रहा है भजन गायक

शाम को नजर आ रहा है

आतंक का खलनायक

किसे करे प्रेम

किस पर दिखाये गुस्सा

पहले नज़रों में उसके चेहरा तो तो भरे।

मगर पर्दे पर हर पल

दृश्य बदल रहा है

कभी हंसी आती है तो

कभी दिल दहल रहा है

इतने नायक और खलनायकों को

देखने से तो पहले फुरसत तो मिले

तब वह कुछ वह सोचने की पहल करे।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Sunday, January 10, 2010

वफादारी का लफ्ज भरना-हिन्दी शायरी (vafadari aur lafza-hindi shayri)

रिश्ते किसी तरह निभाऐं,

दिल में न हो पर

दुनियां को दिखाऐं।

सभी टूटे हुए हैं जमाने से

पर छिपा रहे हैं

आप भी छिपायें।

---------



अपनी नीयत में कभी खोट

नहीं पालना

जला कर राख कर देगा।

छलियों पर नज़र रखना पर

छल को दिल में जगह

कभी मत देना

तुम्हें ही खाक कर देगा।

-----------

लोग दिखाने के लिये दर्द दिखा रहे हैं

तुम भी हमदर्दी दिखा देना।

जिनको सच में है तकलीफ

वह बताने नहीं आयेंगे

तुम उन तक पहुंच कर मदद बांटना

हमदर्दी का पाठ दुनियां को सिखा देना।

---------

पल पल धोखा खाकर भी

किसी से गद्दारी मत करना।

जिन्होंने तोड़े हैं दिल

वह भी कोई जन्नत में नहीं गये

वफा जिनको नहीं आयी

बना नहीं सके वह दोस्त नये,

तुम हर दर्द भूल जाओगे

बस अपने हाथ से

सभी जगह वफादारी का लफ्ज भरना।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

Sunday, January 3, 2010

धर्म के नाम पर सेल-आलेख (sale on name of religion)

धार्मिक सत्संगों का आयोजन कोई सरल और सस्ता काम नहीं है। प्रबंधन एक कला है और जिस आदमी को कोई आर्थिक व्यवसाय करना हो तो केवल उसे संबंधित क्षेत्र की जानकारी के साथ प्रबंध का ज्ञान होना चाहिए तो वह अच्छा काम कर लेता है पर अगर प्रबंध क्षमता का सत्संग में प्रयोग करना हो तो उसके लिये कुछ अध्यात्मिक ज्ञान के साथ धार्मिक दिखना भी जरूरी है। अपने यहां सत्संग भी एक व्यवसाय है और धर्म प्रेमी धनिकों में मौजूद देवत्व की आराधना कर उसने धन प्राप्त करना कोई इतना सरल काम नहीं होता जितना अन्य व्यवसायों में लगता है। अन्य व्यवसायों में प्रबंधक स्वयं भी पूंजी लगा सकता है पर सत्संग के आयोजन में कोई ऐसा जोखिम नहीं उठाता क्योंकि उसमें केवल किताबें या मूर्तियां ही नहीं बेचना होता बल्कि एक अदद संत भी रखना पड़ता है।
विदेश में कहीं किसी धार्मिक कार्यक्रम का टीवी पर सीधा प्रसारण हो रहा था। आमतौर से धार्मिक विषयों पर व्यंग्य नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा कर आप अपनी कुंठाओं का परिचय देते भी लग सकते हैं, पर ऐसे कार्यक्रमों में कुछ ऐसी गतिविधियां भी होती हैं जो वहां मौजूद लोगों को भी हंसाती हैं भले ही वह उस समय कहते न हों। उस धार्मिक कार्यक्रम में कुछ बुद्धिजीवियों के भाषण हुए तो संतों ने भी प्रवचन दिये। उच्च वर्ग के धार्मिक लोगों के माध्यम से सी.डी. आदि का विमोचन करवाकर उनकी भी धार्मिक भावनाओं को तृप्त किया गया-अपने देश में खास भक्त कहलाने पर बड़े लोगों को शायद एक अजीब अनुभूति होती है।
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के प्रयास के रूप में हो रहे उसे कार्यक्रम को टीवी पर देखकर अनेक ऐसी बातें मन में आयीं जो सब की सब यहां लिखना कठिन है। कार्यक्रम का अधिकतर भाग किसी माननीय संत की प्रशंसा में गुजरा। वहां दो संतों की मूर्तियां भी रखी गयी थीं जिन पर बड़े लोग मंच पर आकर प्रणाम करते और फिर अपना व्याख्यान देते।
इन मूर्तियों को देखकर लगता था कि वह संत ही केवल भारतीय अध्यात्म के आधार हैं। हां, वह पर सर्वशक्तिमान के भारतीय स्वरूपों में प्रचलित नामों का उल्लेख हुआ पर उनकी मूर्तियां वहां न देखकर एक खालीपन लगा। एक बात यहां बता दें कि भगवान श्रीराम, कृष्ण या शिव जी की मूर्तियां जरूर हम लोग देखते हैं पर वह हमारे अंदर निरंकार के रूप में स्वाभाविक रूप से विराजमान रहते हैं। दूसरी बात यह है कि यह मूर्तियां पत्थर, धातु या लकड़ी की बनती हैं पर उनके अस्तित्व का आभास ही हमें शक्ति देता है। संतों की मूर्तियां रखना गलत नहीं है पर ऐसी जगह पर सर्वशक्तिमान की मूर्ति न होना इस बात का प्रमाण है कि वह सत्संग अधूरा है। दूसरी बात यह है कि देहधारी संत चाहे कितने भी माननीय हों पर उनकी मूर्तियों में कहीं न कहीं उनकी मृत्यु की अनुभूति है इसलिये उनसे आम भारतीय अधिक लगाव हृदय में धारण नहीं कर पाता। भारतीय अध्यात्म का आधार यही है कि आत्मा कभी नहीं मरता और देह नश्वर है। इसलिये जिसमें देह का आभास है वह मूर्तियां भारतीय भक्त को नागवार लगती हैं। भगवान श्री राम, श्रीकृष्ण और श्री शिवजी के साथ अन्य देवताओं की मूर्तियों में ऐसा आभास नहीं होता। दरअसल यह प्रतिमायें पूजना इसलिये भी गलत है कि हम दूसरी विचारधाराओं के ऐसे ही कदम की आलोचना करते हैं। इधर यह भी देखने में आ रहा है कि हमारे पूज्यनीय संतों की समाधियां पूजी जा रही हैं। यह परब्रह्म से परे रखने का प्रयास भर है ताकि लोग मायावी दुनियां में ही घूमते रहें। ऐसे कथित ज्ञान लोग नाम तो सर्वशक्तिमान के रूपों का लेते हैं पर सामने अपना चेहरा लगा लेते हैं-यह धार्मिक भावनाओं का एक तरह से दोहन है।
संत कबीर एक महान संत कवि हुए हैं मगर उनकी मूर्ति रखकर पूजा करने का आशय यही है कि आप उनको समझे ही नहीं। जो गुरु तत्व ज्ञान देगा और उसका शिष्य ब्रह्म तत्व को समझ जायेगा तो स्वयं ही गुरु का मानेगा। यह बात श्रीमद्भागवत गीता भी कहती है और संत कबीर उसकी पुष्टि भी करते हैं। गुरु का दायित्व है कि वह शिष्य को गोविंद दिखाये-इससे यूं भी कह सकते हैं कि सत्गुरु से मिलाये। मगर आजकल के नये गुरु गोविंद के नाम पर अपना चेहरा लगा लेते हैं और स्वयं को ही सत्गुरु की तरह स्थापित करने का उनका प्रयास रहता है।
हम यहां उन माननीय गुरुओं की आलोचना नहीं कर रहे जिनकी तस्वीरें वहां रखी थीं। यकीनन उन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान ग्रहण कर इतने सारे लोगों का सुनाया होगा। अब उनके बाद के शिष्यगण उनकी मूर्तियां लगाकर अपना सत्संग व्यवसाय चला रहे होंगे। केवल यही प्रसंग नहीं है बल्कि कई ऐसे अन्य उदाहरण भी है जिसमें तत्व ज्ञान का उपदेश करने वाले संत इस संसार से दैहिक रूप से क्या विदा होते हैं उनके चेहरे पत्थरों में सजाकर उनकी पूजा की जाती है। उनकी कर्मस्थली में जहां कभी सर्वशक्तिमान की मूर्तियां की आराधना करते हैं उनके जाते ही उनका महत्व कम प्रचारित होता है और संतों को सत्गुरु की जगह दी जाती है। कुछ लोगों ने संत शिरोमणि कबीरदास जी की मूर्तियां भी बनवाई हैं जबकि भारतीय अध्यात्मिक का वह एक ऐसा प्रकाशमान पुंज थे जो अपन रचनाओें से हमेशा ही भारतीय जनमानस में रहेंगे। उनकी मूर्तियां बनवाना ही उनके पथ से अलग हटना है। ऐसा अनेक संतों के शिष्य कर रहे हैं।
आखिरी मजेदार बात यह रही कि उसी कार्यक्रम में घोषणा की जा रही थी कि कार्यक्रम की कैसिटें और सर्वशक्तिमान की मूर्तियां आज ही यहां दरों में बीस प्रतिशत कटौती पर मिलेंगी। कैसिटें आज कम हैं इसलिये आज आर्डर दें तो कम दर पर भेजी जायेंगी।
यह बात हंसी पैदा करने वाली थी साथ ही यह संदेश भेजने वाली थी कि इसमें कोई व्यवसाय है। यह धर्म के नाम पर लगी सेल अचंभित करने वाली थी। अब इससे एक ही बात लगती है कि संतों के वर्तमान उतराधिकारी और प्रबंधक शिष्य आम आदमी के बारे में यह धारणा रखते हैं कि वह भक्त होने के कारण वह इसे बुरा नहीं समझते या फिर ऐसी अपेक्षा करते हैं कि पुराने मनीषियों की बात मानते हुए भक्तों को अपने गुरुओं को में दोष नहीं देखना चाहिये और हम तो गुरु हैं चाहे जो करें।’
हम भी गुरुओं की आलोचना के खिलाफ हैं पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में यह वर्णित है कि पहले सत्य को समझो और देखभाल के गुरु बनाओ। दूसरों में दोष मत देखो पर दुर्जन का साथ भी न करो। सीधा आशय यही है कि कहीं न कहीं अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो-यही भारतीय अध्यात्मिक संदेशों का आधार है। बहरहाल धर्म के नाम यह यह सेल लगाना ठीक नहीं है पर लगती भी है तो चिंतित होने वाली बात नहीं है। अपना तो एक ही काम है कि जहां भी समय मिले अच्छी बात सुनो उसक मंथन करो। जो अच्छा लगे उसे ग्रहण करो और जो बुरा, उसे भुला दो।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

लोकप्रिय पत्रिकायें

विशिष्ट पत्रिकायें

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर