हम जब हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व पर विचार करते हैं तो हमारा चिंतन केवल अपने देश तक ही सीमित हो जाता है। हम उस पहचान पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं जैसी हम देखना चाहते हैं, विदेशों में हमारे धर्म, भाषा तथा विचारों को कितने व्यापक संदर्भों में देखा जाता है इसकी कल्पना तक नहीं करते। यही हम इस विषय पर अपने अपने पूर्वाग्रहों के साथ विचार करते हैं। निष्कर्ष भी हम अपनी सुविधानुसार निकालते हैं। यहीं से आत्ममुगधता की ऐसी शुरुआत होती है जिसका अंत संकीर्ण विचारों में घिरकर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम जैसी पहचान चाहते हैं वैसे ही बनाने के लिये प्रयत्नशील हो जाते हैं जबकि होना यह चाहिये कि हम अपनी भाषा, व्यक्तित्व तथा विचाराधारा के मूल तत्वों को समझने के साथ अपनी स्थापित व्यापक पहचान के साथ अपना अभियान शुरु करें।
हम पहले अपनी कल्पित बाह्य पहचान का विचार कर फिर अपना रचनाकर्म या अभियान प्रारंभ कर अंधेरी गलियों में जा रहे हैं। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर हमारी जो पहचान पुराने आधारों पर बनी है उसमें नवीनता नहीं आ पाती बल्कि हमारी बदनामी करने वालों को इससे अधिक निंदा करने का अवसर मिल जाता है।
किसी समय भारत के सांपों को खेल दिखाने वाले और अंधविश्वासों से जकड़े हुए लोगों का देश कहा जाता था। उसके बाद भारतीय दर्शन के मूलतत्वों को जानने पर पाश्चात्य विद्वानों ने ही उस छबि को सुधारा। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने के बावजूद अभी भी भारत को अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को माने वाले विदेशी लोगों की संख्या अभी भी कम नहीं है।
एक तरफ हम हिन्दू, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के पीछे देश को एक देखना चाहते हैं दूसरी तरफ देश की विविधताओं में सामंजस्य बिठाने का प्रयास भी जारी रहता है। यह बुरा नहीं है परंतु विविधताओं में समन्वय लाने के प्रयास से जो अंतद्वंद्व उभरता है उससे बचने का कोई प्रयास नहीं होता उल्टे सामाजिक और वैचारिक वैमनस्य पनपता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहां हर कोई हर समाज या समूह का आदमी अपने अपने ढंग से वैश्विक पहचान की बात सोचता है। अगर हम पहले यह देखें कि विश्व में हमारे देश की पहचान कैसी और उसके आधार क्या हैं, तभी हम सामूहिक रूप से आगे बढ़ पायेंगे। खाली पीली के पूर्वाग्रहों से आगे बढ़ना संभव नहीं है।
यह अंतिम सत्य है कि भारत की पहचान विश्व स्तर पर हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व से ही है। यहां की सांस्कृतिक, सांस्कारिक तथा सभ्यता की विविधता को सारा विश्व जानता है और यहां की सहिष्णुता, सादगी तथा सत्यनिष्ठा की भी सभी जगह कद्र है। एक बात याद रखिये इस पहचान पर हमला करने के जो प्रयास हुए हैं उन्हें भी समझना होगा। अक्सर लोग कहते हैं कि अन्य भाषाओं के लेखकों ने फिर भी वैश्विक स्तर पर नाम कमाया है पर हिन्दी भाषी कोई लेखक इसमें सफल नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि भारत की पहचान को मिटाने के लिये ही प्रयास यही किया गया है कि यहां की संस्कृत तथा हिन्दी भाषा को उपेक्षित किया जाये। जहां तक अन्य भाषियों के सम्मान का सवाल है तो उनकी रचनायें या फिल्में अंग्रेजी अनुवाद के कारण ही विदेशों में समझी गयी न कि मूल भाषा के कारण। अभी तक जिन भारतीयों को नोबल या अन्य पुरस्कार मिलें हैं उनमें कितने लोगों की रचनात्मक पृष्ठभूमि कितनी भारतीय है और कितनी विदेशी इस पर अक्सर बहस होती है। इसका कारण यही है कि मूल भारतीय पृष्ठभूमि की जबरदस्त उपेक्षा की जाती है क्योंकि वह सत्य पर आधारित है न कि झूठे समझौतों के साथ उसने अपना आधार बनाया है। दूसरा सच यह भी है कि जब भारतीय पृष्ठभूमि की बात आती है तो तुलसी, कबीर, रहीम और मीरा की रचनाओं आज भी अंतर्राष्ट्रीय पहचान कायम है। हिन्दी भाषा के महान लेखक प्रेमचंद को अब वैश्विक स्तर पर पहचाना जाता है। पुरस्कारों का कोई मोल नहीं है क्योकि हिन्दी भाषा हमारी पहचान हैं।
इधर हम हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व को लेकर केवल अपने देश तक ही सोचकर सीमित हो जाते हैं। एक बात याद रखिये हिन्दी भाषी भारतीय अपनी संस्कृति के साथ पूरे विश्व में फैलें हैं। अगर हम हिन्दू शब्द को धर्म जैसे संकीर्ण विषय तक सीमित रख कर भी सोचें तो भारत में संख्या अधिक है पर इसका आशय यह नहीं है कि अन्यत्र उनका कोई आधार नहीं है। कहा जाता है कि इंडोनेशियो में भले ही धर्म कोई भी माना जाता हो पर वहां हिन्दू संस्कृति अब भी अपना वजूद बनाये हुए हैं-यह अलग बात है कि कुछ पश्चिमी देश उसे अपने धन बल से समाप्त करने के लिये जुटे हैं। थाईलैण्ड, मलेशिया तथा श्रीलंका में बड़े पैमाने पर हिन्दू हैं। पाकिस्तान में भी बहुत हिन्दू रहते हैं। इसके बावजूद सभी देशों में कभी हिन्दू धर्म या संस्कृति को लेकर सामजंस्य बिठाने का प्रयास कभी नहीं हुआ। यह काम भारत का था पर यहां किसी भी हिन्दू विचारक ने इस पर काम नहीं किया। इसके अलावा मध्य एशिया में हिन्दू बड़े पैमाने पर हैं पर कभी किसी हिन्दू धार्मिक शिखर पुरुष ने यह प्रयास या अभियाना प्रारंभ नहीं किया कि वहां सभी उन्मुक्त भाव से अपने धर्म का पालन कर सकें। हालांकि इस विषय पर अनेक लोग यह दावे करते हैं कि वहां सब ठीक ठाक है। अगर उनकी बात सही है तो उसको लेकर सार्वजनिक रूप से दावे क्यों नहीं किये जाते। क्या इसके पीछे यह खौफ है कि अधिक चर्चा से बात बिगड़ सकती है और उन देशों गैर हिन्दू लोग उत्तेजित हो सकते हैं? अगर यह ठीक भी है तो भी हिन्दू व्यक्तित्व के दृढ होने का प्रमाण नहीं है जोकि एक अनिवार्य शर्त है।
विश्व में भारत की पहचान हिन्दी से ही है। आप चाहें लाख सिर पटक लें पर अंतिम सत्य यही है। पिछला समय कैसा था, इस पर सोचने की बजाय यह देखें कि अब क्या चल रहा है? अब इंटरनेट के सर्च इंजिनों में निर्णय होना है। भारत में इंटरनेट प्रयोक्ता हिन्दी को समर्थन नहीं दे रहे हैं, उस पर अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और उसके लिये केाई प्रोत्साहन नहीं है, यह बात निराश कर सकती है पर आशावाद का मुख्य कारण भी यही हिन्दी है। जब विश्व में भारत की वैचारिक, साहित्यक तथा सांस्कारिक विषयों की खोज होगी तो लोग हिन्दी को ही प्राथमिकता देंगे। अंग्रेजी में लिखने वाले कितनी भी डींगें हांकें पर अनुवाद टूलों ने अगर पूर्ण शुद्धता प्राप्त कर ली तो भारत के हिन्दी लेखकों को ही अग्रिम पंक्ति में पायेंगे। हिन्दी लेखकों के पास लिखने के लिये बृहद विषय हैं। जिन भारतीयों ने अंग्रेजी भाषा में लिखना तय किया है उनके पास सामाजिक विषयों पर लिखने के लिये अधिक नहीं है। अगर होगा भी तो वह लिख पायेंगे इसमें संदेह है। क्योंकि भाषा और लिपि का संबंध भाव से होता है इसलिये जो विषय हिन्दी में लिखा जा सकता है उसका वैसा भाव लिखते समय अंग्रेजी में नहीं आ सकता। इसका मतलब सीधा है कि जिन लेखकों की शिक्षा हिन्दी में हुई है और अंग्र्रेजी में लिखने में असमर्थ हैं वह हिन्दी में लिखकर अंतर्जाल पर छाने के लिये प्रयास मौलिक रचनायें करेंगे। ऐसे में हिन्दी का बोलबाला ही रहेगा। अभी यह कहना कठिन होगा कि हिन्दी के पाठकों की संख्या कब बढ़ेगी और देश में लेखकों केा समर्थन कब मिलेगा? अलबत्ता जिस तरह कुछ लोग अंतर्जाल पर बाहरी दुनियां से अलग गजब का लेखन कर रहे हैं उससे हिन्दी के पाठक भी उनकी अनदेखी नहीं कर पायेंगे। विदेशों में तो उनको पढ़ा ही जायेगा।
हिन्दुत्व को लेकर अधिक विवाद की गुंजायश नहीं है। हिन्दुत्व का सीधा मतलब यही है कि अध्यात्मिक ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत किया जाये। हिन्दुत्व में साकार और निरंकार दोनों भावों का मान्यता दी जाती है। कहने का अभिप्राय है कि किसी के अपराध को क्षमा करने की सहिष्णुता और अपने विरुद्ध आक्रमण करने वाले का प्रतिकार करना हिन्दुत्व की पहचान है। इतना ही नहीं हर प्रकार के अध्यात्मिक ज्ञान से परिचित होना जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्ण्धि होती है। ऐसे में अपने जैसे सत्संगी-धार्मिक, जातीय, भाषाई तथा अन्य आधार पर समान लोग-जहां भी मिले उनसे व्यवहार बनाये। अतः जिन लोगों को हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व से सकारात्मक सरोकार है उनको अपना दृष्टिकोण व्यापक करते हुए अपनी सक्रियता का दायरा बढ़ाना चाहिये। याद रहे आलोचना करने वाले कितने भी तर्क करें हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के व्यापक प्रभाव को वह जानते हैं। शेष फिर कभी
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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