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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, March 31, 2009

लफ्जों की लड़ाई में लफ्ज ही तलवार बन पाते-हिंदी शायरी

यह सच है कि लिखने से इंकलाब नहीं आते।
पर जमाना बदल दे, लफ्ज ही ऐसा सैलाब लाते।।
किसी के लफ्ज पर ही तो तलवारें म्यान से निकलीं
खूनी जंग में गूंजती चीखें, कान गीत को तरस जाते।।
किताबों ने आदमी को गुलाम बनाकर रख दिया
लफ्जों की लड़ाई में लफ्ज ही तलवार बन पाते।।
चीखते हुए तलवार घुमाओ या कलम पर करो भरोसा
मरा आदमी किस काम का, लफ्ज उसे गुलाम बनाते।।
कहें दीपक बापू दूसरों के लिखे पर चलते रहे हो
गुर्राने से क्या फायदा, क्यों नहीं मतलब के शब्द रच पाते।।
हथियार फैंकने और मारने वाले बहुत मिल जायेंगे
उनको रास्ता बताने के लिये, क्यों नहीं गीत गजल सजाते।।

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Sunday, March 22, 2009

उसने बस यही कहा ‘अच्छा लिखो’-हास्य व्यंग्य

दरवाजे पर दस्तक होते ही ब्लागर कंप्यूटर से उठा और बाहर आया तो उसे सीखचों के बाहर दूसरा ब्लागर दिखाई दिया। पहले ब्लागर ने दरवाजा खोले बगैर ही कह दिया-’‘यार, अभी मैं बिजी हूं। कल मिलने आना।’’
दूसरे ब्लागर ने हंसकर कहा-‘लगता है गृहस्वामिनी घर में नहीं है। तभी ऐसे जवाब दे रहे हो जैसे वह सैल्समेनों को देती हैं।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘कम से कम एक बात की तारीफ तो करो। तुम्हारी अकेले में सैल्समेनों जैसी इज्जत तो कर रहा हूं।’
उस समय पहला ब्लागर निकल और बनियान पहने हुए था। दूसरे ब्लागर ने कहा-‘तुम्हें शर्म आना चाहिये। इस तरह निकर और बनियान पहने घर में घूमते हो। अरे, भले ही जैसे भी लेखक हो पर हो तो सही। कोई प्रशंसक या प्रशंसिका आ जाये तो तुम्हें इस हाल में देखकर क्या कहेगी?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘ऐसे प्रशंसक तो तुम्हें ही अधिक मिलते हैं। हमें कौन पूछता है।’
दूसरा ब्लागर ने कहा-‘नहीं ऐसी बात नहीं है! कवि चाहे जैसे भी हों उनके पास इक्का दुक्का प्रशंसक मिल ही जाते हैं। देखो मैं तुम्हारा प्रशसंक हूं न! तभी तो तुमसे मिलने आता हूं। मुझसे कई लोग तुम्हारे बारे में पूछते हैं पर तुम्हारी साहित्य साधना में विघ्न न पड़े इसलिये किसी को पता नहीं देता। अब तो दरवाजा खोलो। देखो बाहर अब कितनी धूप है।’
पहला ब्लागर-‘कोई बात नहीं! सामने वाले मकानों की लाईन से होते हुए चले जाओ। वहां छाया है। आज मेरे पास समय नहीं है।’
इतने में गृहस्वामिनी आ गयी और दूसरे ब्लागर से बोली-नमस्ते भाई साहब! बहुत दिनों बाद आये हो।’
दूसरे ब्लागर बोला-‘हां, आज आपके यहां चाय पीने का मन था और भाई साहब से भी साहित्यक चर्चा करनी थी। आप इस धूप में कहां गयी थी।’
गृहस्वामिनी ने कहा-‘यहीं पड़ौस में एक सहेली की तबियत खराब थी। उसे देखने गयी थी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘भाभी जी, आपका स्वाभाव भी भाई साहब की तरह अच्छा है। अब देखिये यह मेरे साथ यहीं पर ही प्रेम से वार्ता करने लग गये। यह दरवाजा खोलना ही इनको याद ही नहीं रहा। हालांकि इनको थोड़ी देर बाद ही इस बात का अफसोस होगा कि मुझे धूप में खड़ा रखा।’
मन मारकर पहले ब्लागर को दरवाजा खोलना पड़ा। गृहस्वामिनी के साथ दूसरा ब्लागर बिना किसी आमंत्रण की प्रतीक्षा किये बिना अंदर दाखिल हो गया।’
गृहस्वामिनी तो दूसरे कमरे में चली गयी पर दूसरा ब्लागर चलते चलते पहले ब्लागर के पीछे उसके कंप्यूटर रूप तक आ गया। फिर कुर्सी पर बैठते हुए बोला-‘सच बात तो यह है कि तुम जैसी कचड़ा हास्य कवितायें लिखते हो उससे प्रशसंक तो कोई बन ही नहीं सकता। खास तौर से महिलायें तो बिल्कुल नहीं। हां, अगर कोई दूसरा हास्य कवि तुम्हें इस निकर और बनियान में देख ले तो जरूर उस पर हास्य कविता लिख लेगा।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘इधर उधर की बातें छोड़ो। बताओ कैसे आना हुआ?’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘यार, मेरे पीछे कुछ उधार देने वाले पड़े हैं। मुझे एक बैंक से लोन चाहिये ताकि इन कर्जदारों से पीछा छुड़ाकर अपना काम ढंग से शुरु कर सकूं। एक बैंक मैनेजर है जो शायद तुम्हें जानता है, किसी ने मुझे बताया? तुम उससे जरा सिफारिश कर दो।’
पहले ब्लागर ने उसका नाम पूछा फिर दूसरे ब्लागर से कहा-‘यार, वह मुझे जानता है पर इतना नहीं कि मेरी सिफारिश को मान ले। एक बार पहले भी उसने मेरी बात नहीं मानी थी और कहा था कि तुम तो केवल कविता करना जानते हो बाकी कुछ नहीं जानते।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, मुझे उसने बताया था कि वह तुम्हारी सिफारिश नहीं मानेगा। यही बात तुम्हें बताने मैं आया हूंं कि देखो तुम्हारे लिखने की वजह से तुम्हारा कोई सम्मान नहीं है।’
पहला ब्लागर-’ठीक है बता दिया अब जाओ।’
इतने में गृहस्वामिनी आ गयी तब दूसरा ब्लागर बोला-‘इसलिये मैं सभी से कहता हूं कि अच्छा लिखो। कुछ ऐसा लिखो जो समाज के मतलब का हो। यह व्यंग्य, कहानी,लघुकथा और हास्य कविता लिखने से काम नहीं चलेगा।’
गृहस्वामिनी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-‘आप कौनसा ब्लाग लिखते हैं। जरा बताईये। मैं उसे पढ़ूंगी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘अरे, इतनी सी बात! भाई साहब तो मेरे सारे ब्लाग के नाम जानते है।’
गृहस्वामिनी ने पूछा-‘पर आप लिखते क्या हैं?’
दूसरा ब्लागर ने कहा-‘यही कि अच्छा लिखो तभी तुम्हारा सम्मान होगा।’
गृहस्वामिनी ने कहा-‘अच्छा पढ़ूंगी। अभी आप बैठिये चाय बनने के लिये गैस पर रख दी है।’
वह चली गयी तो पहले ब्लागर ने कहा-‘अच्छा हुआ तुमने अपने ब्लाग का नाम नहीं बताया। उन पर हर दूसरे पाठ में यही लिखा है ‘अच्छा लिखो’। हालांकि कैसे लिखें यह उसमें नहीं लिखा। अलबत्ता दूसरों के पाठ पर कोसते हुए बहुत कुछ लिखते हो। कभी कभी अपने ही छद्म ब्लाग पर असली की तो असली पर छद्म नाम के ब्लाग की प्रशंसा करते हो। इसलिये कुछ अच्छे ब्लाग तुम्हारे बताकर पढ़वाने पढ़ेंगे।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, यही ठीक रहेगा। बदले में ं तुम्हारी बेकार हास्य कविताओं की मै चर्चा यहां कभी नहीं करूंगा।’
पहले ब्लागर-‘वैसे यह तो बताओ कि अच्छा कैसे लिखा जाये।’
दूसरा ब्लागर-‘यही पता होता तो खुद ही लिखना शुरु नहीं कर देता।’
इतने में गृहस्वामिनी चाय लायी तब दूसरा ब्लागर बोला-‘इस चाय पर कभी हास्य कविता नहीं लिखना।‘
पहला ब्लागर बोला-‘अच्छा आईडिया दिया। इस पर तो हास्य कविता बनती है।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘हां, पर इस मुलाकात पर एक बढि़या सी रिपोर्ट जरूर लिखना।’
पहला ब्लागर बोला-‘आज ऐसा क्या हुआ? जो रिपोर्ट लिखूं।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘कितना अच्छा तो डिस्कशन हुआ। बस तुम तो यह लिखना कि ‘अच्छा लिखो।’
पहला ब्लागर-‘पर यह तो बताओ किसकी तरह अच्छा लिखो।’
दूसरे ब्लागर ने चाय का कप टेबल पर रखते हुए कहा-‘तुम अपना उदाहरण दे दो।’
इतने में गृहस्वामिनी बाहर चली गयी तो दूसरा ब्लागर बोला-‘यह बात मैंने मजाक मेंे कही थी ताकि तुम्हारा घर में अच्छा प्रभाव बना रहे। बस तुम तो एक ही बात लिखो कि ‘अच्छा लिखो’।
दूसरा ब्लागर चला गया। अंदर आकर गृहस्वामिनी ने पूछा क्या कह रहा था-‘तुमने सुना नहीं। यही कह रहा था कि अच्छा लिखो।
गृहस्वामिनी ने पूछा-‘पर यह भी तो पूछते कि कैसे अच्छा लिखना है?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘यह बात मैं खुद ही समझ लूंगा अगर उससे पूछता तो अपने अल्प ज्ञान की उसके सामने पोल खुल जाती।’
नोट-यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसका किसी घटना या व्यक्ति से लेना देना नहीं है। इसका लेखक किसी दूसरे ब्लागर को नहीं जानता।
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Wednesday, March 18, 2009

प्रचार की मूर्ति-हास्य व्यंग्य कवितायेँ

ओ आम इंसान!
तू क्यों
ख़ास कहलाने के लिए मरा जाता है.
खास इंसानों की जिन्दगी का सच
जाने बिना
क्यों बड़ी होने की दौड़ में भगा जाता है.
तू बोलता है
सुनकर उसे तोलता है
किसी का दर्द देखकर
तेरा खून खोलता है
तेरे अन्दर हैं जज्बात
जिनपर चल रहा है दुनिया का व्यापार
इसलिए तू ठगा जाता है.
खास इंसान के लिए बुत जैसा होना चाहिए
बोलने के लिए जिसे इशारा चाहिए
सुनता लगे पर बहरा होना चाहिए
सौदागरों के ठिकानों पर सज सकें
प्रचार की मूर्ति की तरह
वही ख़ास इन्सान कहलाता है.
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प्रचार की चाहत में उन्होंने
कुछ मिनटों तक चली बैठक को
कई घंटे तक चली बताया.
फिर समाचार अख़बार में छपवाया.
खाली प्लेटें और पानी की बोतलें सजी थीं
सामने पड़ी टेबल पर
कुर्सी पर बैठे आपस में बतियाते हुए
उन्होंने फोटो खिंचवाया
भोजन था भी कि नहीं
किसी के समझ में नहीं आया.
भला कौन खाने की सोचता
जब सामने प्रचार से ख़ास आदमी
बनने का अवसर आया.

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Thursday, March 12, 2009

टूटी फूटी खबर-हास्य व्यंग्य

चंदा लेकर समाज सेवा करने वाली उस संस्था के समाजसेवी बरसों तक अध्यक्ष रहे। पहले जब वह युवा थे तब उनके बाहूबल की वजह से लोग उनको चंदा खूब देते थे। समाज सेवा के नाम पर वह कहीं मदद कर फोटो अखबारों में छपवाते थे। वैसे लोगों को मालुम था कि समाज सेवा तो उनका बहाना है असली उद्देश्य कमाना है मगर फिर भी कहने की हिम्मत कोई नहीं करता था और हफ्ता वसूली मानकर दान देते थे। समाजसेवी साहब अब समय के साथ वह बुढ़ाते जा रहे थे और इधर समाज में तमाम तरह के दूसरे बाहूबली भी पैदा हो गये थे तो चंदा आना कम होता जा रहा था। समाजसेवी के चेले चपाटे बहुत दुःखी थे। उनकी संस्था के महासचिव ने उनसे कहा कि ‘साहब, संस्था की छबि अब पुरानी पड़ चुकी है। कैसे उसे चमकाया जाये यह समझ में नहीं आ रहा है।’

सहसचिव ने कहा कि -‘इसका एक ही उपाय नजर आ रहा है कि अपने संगठन में नये चेहरे सजाये जायें। अध्यक्ष, सचिव और सहसचिव रहते हुए हमें बरसों हो गये हैं।

महासचिव घबड़ा गया और बोला-‘क्या बात करते हो? तुम समाजसेवी साहब को पुराना यानि बूढ़ा कह रहे हो। अरे, हमारे साहब कोई मुकाबला है। क्या तुम अब अपना कोई आदमी लाकर पूरी संस्था हड़पना चाहते हो?’
समाज सेवी ने महासचिव को बीच में रोकते हुए कहा-‘नहीं, सहसचिव सही कह रहा है। अब ऐसा करते हैं अपनी जगह अपने बेटों को बिठाते हैं।
महासचिव ने कहा-‘पर मेरा बेटा अब इंजीनियर बन गया है बाहर रहता है। वह भला कहां से आ पायेगा?
सहसचिव ने कहा-‘मेरा बेटा तो डरपोक है। उसमें किसी से चंदा वसूल करने की ताकत नहीं है। फिर लिखते हुए उसे हाथ कांपते हैं तो खाक लोगों को रसीद बनाकर देगा?’
समाजसेवी ने कहा-‘ इसकी चिंता क्यों करते हो? मेरा बेटा तो बोलते हुए हकलाता है पर काम तो हमें ही करना है। हां, बस नाम के लिये नया स्वरूप देना है।’
सहसचिव ने कहा-‘पर लोग तो आजकल सब देखते हैं। प्रचार माध्यम भी बहुत शक्तिशाली हैं। किसी ने संस्था के कार्यकलापों की जांच की तो सभी बात सामने आ जायेगी।’

समाजसेवी ने कहा-‘चिंता क्यों करते हो? यहां के सभी प्रचार माध्यम वाले मुझे जानते हैं। उनमें से कई लोग मुझसे कहते हैं कि आप अब अपना काम अपने बेटे को सौंपकर पर्दे के पीछे बैठकर काम चलाओ। वह चाहते हैं कि हमारी संस्था पर समाचार अपने माध्यमों में दें लोग पूरानों को देखते हुए ऊब चूके हैं। उल्टे प्रचार माध्यमों को तो हमारी संस्था पर कहने और लिखने का अवसर मिल जायेगा। इसलिये हम तीनों संरक्षक बना जाते हैं और अपनी नयी पीढ़ी के नाम पर अपनी जिम्मेदारी लिख देते है। अरे, भले ही महासचिव का लड़का यहां नहीं रहता पर कभी कभी तो वह आयेगा। मेरा लड़का बोलते हुए हकलता है तो क्या? जब भी भाषण होगा तो संरक्षक के नाम पर मैं ही दे दूंगा। सहसचिव के लड़के का लिखते हुए हाथ कांपता है तो क्या? उसके साथ अपने क्लर्क भेजकर काम चलायेंगे लोगों को मतलब नयी पीढ़ी के नयेपन से है। काम कैसे कोई चलायेगा? इससे लोग भी कहां मतलब रखते हैं? जाओ! अपनी संस्था के सदस्यों को सूचित करो कि नये चुनाव होंेगे। हां, प्रचार माध्यमों को अवश्य जानकारी देना तो वह अभी सक्रिय हो जायेंगे।’

सहसचिव ने कहा-‘यह नयी पीढ़ी के नाम जिम्मेदारी लिखने की बात मेरे समझ में तो नहीं आयी।’
महासचिव ने कहा-‘इसलिये तुम हमेशा सहसचिव ही रहे। कभी महासचिव नहीं बना पाये।’
समाजसेवी ने महासचिव को डांटा-‘पर तुम भी तो कभी अध्यक्ष नहीं बन पाये। अब यह लड़ना छोड़ो। अपनी नयी पीढ़ी को एकता का पाठ भी पढ़ाना है भले ही हम आपस में लड़ते रहे।’
सहसचिव ने कागज उठाया और लिखने बैठ गया। महासचिव ने फोन उठाया और बात करने लगा-‘यह टूटी फूटी खबर है ‘मदद संस्था में नयी पीढ़ी को जिम्मेदारी सौंपी जायेगी।’
समाजसेवी ने पूछा-‘यह टूटी फूटी खबर क्या है?‘
महासचिव ने कहा-‘ब्रेकिंग न्यूज।’
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Sunday, March 8, 2009

झूठ की आकर्षक चादर सभी को भाती-हिंदी शायरी

उजाड़ दिये चमन बेअक्ली से खुद जिन्होंने अपने
वही बाजार में बेच रहे हैं खुशी के महंगे सपने।

मदारी की तरह कहीं नारी पुरुष तो
कही अमीर गरीब को सांप नेवले की तरह लड़ाकर
खुशहाली का ख्वाब चादर से पांव बढ़ाकर
भीड़ को बहला रहे हैं
किसी को खून बहता नहीं
पर वह अपने तरीके से जख्म सहला रहे हैं
न आग है न अंगारा
लोगों के जज्बात लगते हैं कंपने।

धुंआ हो गयी है जमाने की सोच
झूठ की आकर्षक चादर सभी को भाती है
सच कड़वा है
सामने न आये इसलिये
सब लगे हैं उसे ढंकने

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Monday, March 2, 2009

इतिहास के पत्थर-व्यंग्य कविता

प्रस्तर की इमारतों को दिखाकर
वह उसका इतिहास बताते हैं
सुनने वाले निहारते हुए
स्वयं भी पत्थर हो जाते हैं
पता नहीं इतिहास पर होता शक उनको
या पत्थर पढ़ने लग जाते हैं
बिचारे इंसान
इतिहास की सोच के पत्थर
अपने सिर पर क्यों ढोये जाते हैं

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