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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, March 17, 2018

भूख से ज्यादा रोटी पकाने में हैं अटके-दीपकबापूवाणी (Bhookh se Jyada roti Pakane mein Atake-DeepakbapuWani)



जहां पेड़ पर पत्ते थे वहां लोहे के जंगलें लगे हैं, दीवाने दिल अब परायेपन के सगे हैं।
‘दीपकबापू’ दौलत की चमक से चक्षु दृष्टिहीन हुए, चालाक उनसे पूरी रौशनी ठगे हैं।।
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भूख से ज्यादा रोटी पकाने में हैं अटके, पांव से ज्यादा सिर के बाल हैं झटके।
‘दीपकबापू’ पैसा और पद पाकर हुए अंधे, नीचे गिरने के भय से ऊपर हैं अटके।।
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सत्ता के घोड़े पर सवार सभी पवित्र होते, भ्रष्टाचार रस में जो नहाये वही इत्र होते।
‘दीपकबापू’ राजधर्म निभा रहे कातिल बाज़ बड़े पाखंडी ही अब सच्चे जनमित्र होते।।
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दावे बहुत कातें राज करना आता नहीं, शास्त्र रटेते पर काज करना आता नहीं।
‘दीपकबापू’ सीना फुलाकर घूम रहे शहर में, ताकत पर नाज करना आता नहीं।।
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इष्ट जैसे ही भक्त भी हो जाते, गुण दोष न जाने पूजा में खो जाते।
‘दीपकबापू’ तस्वीरों के वादों पर फिदा, नारेबाजी का बोझ ढो जाते।।
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बाग़ के मीठे फल रखवाले स्वयं खायें, मालिक के मुंह कड़वा स्वाद चखायें।
‘दीपकबापू’ कलियुग का साथी लोकतंत्र, प्रजा का माल राजा अपना बखायें।।
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Sunday, March 4, 2018

राजाओं के खेल में प्रजा बनती खिलौना-दीपकबापूवाणी (RAJAON KE KHEL MEIN PRAJ BANTI KHILONA-DEEPAKBAPUWANI)

वह बड़े दिखते क्योंकि आंखों से परे हैं, प्रचार के नायक मानो सिर पर बोझ धरे हैं।
‘दीपकबापू’ विज्ञापनों से भ्रमित हो जाते, वीर पद पर विराजे लोग तो रोगों से भरे हैं।।
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पर्दे के नायकों के घर भी मन रहता है, नकली हंसी आंसुओ से वहां धन बहता है।
‘दीपकबापू’ अपने अंदर नहीं झांकते कभी, परायी अदाओं पर वाह हर जन कहता है।।
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भीड़ बहुत दिखती फिर भी होता सन्नाटा, चीखती आवाजों को खामोशी से पाटा।
दीपकबापू स्वार्थियों से खरीद लेते परोपकार, जिनके सौदे में कभी नहीं होता घाटा।।
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विकास क्रम में मंगल पर हम पहुंच गये, धरती पर खोद डालते गड्ढे रोज नये।
‘दीपकबापू’ रुपये का मोल गिराते जा रहे, डॉलर की आशिकी में बर्बाद हो गये।।
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राजाओं के खेल में प्रजा बनती खिलौना, तख्त पर बैठ चरित्र का हो जो बौना।
‘दीपकबापू’ घर का आश्रम मन ही मंदिर बनाते, लगाते तख्ती हम बाबा मौना।।
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शोर के बीच मजा तलाशते हुए लोग, बाहर ढूंढते दवा अंदर स्वयं पालते रोग।
‘दीपकबापू’ त्यागी ढूंढते दरबार में जाकर, जहां पाखंडी सजाते नये भिन्न भोग।।
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गैर को पापी कहकर स्वयं धर्म धारा में बहें, अपने स्वार्थ का काम परमार्थ कहें।
भीड़ में शोर मचाकर ले रहे नाम, ‘दीपकबापू’ सोने से र्घर भरकर उदासीन रहें।।
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अच्छे दिन की प्रतीक्षा में सब जन खड़े, चढ़ना है बस वादों के पहाड़ बड़े बड़े।
‘दीपकबापू’ आंखें खोलकर इधर उधर देखते, सपनों के घर बेबसी के ताले जड़े।।
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