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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, March 24, 2012

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का तृतीय चरण-हिन्दी लेख (anna hazare's anti corruption movement part -3-hindi lekh or article

            अन्ना हजारे साहब फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने आंदोलन की तीसरा चरण शुरु करने वाले हैं। वह एक दिन के लिये अनशन पर बैठेंगे और इस बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध शहीद होने वाले लोगों के परिवार जन भी उनके साथ होंगे। ऐसे में देश के लोगों की हार्दिक संवेदनाऐं उनके साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ेंगी जिसकी इस समय धीमे पड़ रहे इस आंदोलन को सबसे अधिक आवश्यकता है । अन्ना हजारे के समर्थकों ने इस बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत करने वालों को संरक्षण देने के लिये भी कानून बनाने की मांग का मामला उठाया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि विषयवस्तु की दृष्टि से उनके विचारों में कोई दोष नहीं है। वैसे भी उन्होंने जब जब जो मुद्दे उठाये हैं उनको चुनौती देना अपनी निष्पक्ष विचार दृष्टि तथा विवेक का अभाव प्रदर्शित करना ही होगा।
          मूल बात यह है कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन की गति कभी मंथर, कभी मध्यम तो कभी तीव्र होने की स्थिति आम निष्पक्ष तथा स्वतंत्र विश्लेषकों के लिये विचार का विषय बनती रही है। अन्ना हजारे और उनके समर्थक कहीं न कहीं से प्रायोजित हैं यह आरोप तो बहुत पहले से ही उसके विरोधी लगाते हैं पर मौलिक तथा असंगठित क्षेत्र के आम लेखक भी यह प्रश्न उठाते हैं कि आखिर उनकी गतिविधियों के लिये धन कहां से आ रहा है? अन्ना बड़ी आयु के हैं और उनका स्वास्थ्य खराब रहना स्वाभाविक है पर उनके इलाज का समय और स्थान अनेक तरह के प्रश्नों को जन्म देते हैं। जब प्रायोजन की बात भी जब सामने हो तब आंदोलन की गति तथा गतिविधियों दोनों की अनेक प्रश्नों को जन्म देती हैं। हमारे लेखों पर अनेक लोगों ने आपत्तियां की हैं। हम जब यह लिखते हैं कि यह आंदोलन भी बाज़ार के सौदागरों के धन तथा प्रचार समूहों के प्रबंधकों के सहारे चल रहा है जो जनता के असंतोष को भटकाने के लिये चलाया जा रहा है क्योंकि वह कभी लक्ष्य के पास जाता नहीं दिखता तो अनेक पाठक प्रतिकूल टिप्पणियां लिखते हैं। हमने पहले भी लिखा था कि पांच राज्यों के चुनाव के कारण प्रचार माध्यमों के पास विज्ञापन के लिये प्रस्तुत करने के लिये इन चुनावों के समय ढेर सारी सामग्री मिल रही थी। ऐसे में अन्ना हजारे के आंदोलन पर समाचार और चर्चा के लिये उनके पास समय नहीं था। इसलिये यह आंदोलन ठंडे बस्ते में चला गया या डाल दिया गया वह अलग से विचार का विषय है।
           अब स्कूलों में छुट्टियां होती जा रही हैं। गर्मी का समय है। क्रिकेट का भी कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसे में इस आंदोलन को रंगा जा रहा है। निश्चित रूप से टीवी चैनलों पर भीड़ बनाये रखने में यह सहायक होगा।
          हम जैसे आम लेखकों पास न तो साधन होता है न समय कि कहीं से खबरें निकालें न ही यह सामर्थ्य होता है कि बड़े लोगों से गोपनीय चर्चा कर यहां कोई संकेत दें। पर कहते हैं न कि भगवान एक मार्ग बंद रखता है तो दूसरा खोल देता है। हमें उसने दैहिक तथा भौतिक रूप से इतना सामर्थ्यवान नहीं बनाया कि हम बड़े बड़े लोगों में उठ बैठकर बड़े मंचों पर चर्चा कर सकें पर उसने बौद्धिक रूप से चिंत्तन क्षमता को इतना सक्रिय कर दिया है कि सामने से आ रही खबरों के आगे पीछे अपनी दृष्टि रखकर उनके निष्कर्ष निकाल ही लेते हैं। हमारे अनुमान बाद में सही निकलते हैं इसलिये यह आत्मविश्वास ब्लॉगों पर लिखते हुए तो हो गया है कि अपनी बात लिखते हुए अब डर नहीं लगता। हमने बहुत पहले लिखा था कि यह यह आंदोलन प्रायोजित है, उस समय अनेक लोगों ने इस पर नाराजगी जताई पर हम देख रहे हैं बाद में अनेक इंटरनेट लेखक इसे स्वीकारने लगे। बहरहाल हमारे विचार और प्रयासों का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं पड़ता यह बात दिल को तसल्ली देती है । देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सफल हो यह तो हम भी कहते हैं इसलिये आंदोंलन की सक्रियता के लिये हम बाधक नहीं कहलाते वहीं अपनी बात भी कह जाते हैं। अलबत्ता हमें इसके परिणामों में बहुत दिलचस्पी है। देखें आगे क्या होता है?
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Sunday, March 4, 2012

पचास पचास फीसदी (फिफ़्टी फिफ़्टी) के खेल में फिफ़्टी फिफ़्टी-हिन्दी व्यंग्य (pachas pachas fisdi ka khel-hindi vyangya, geme of fifty fifty-hindi satire)

पचास पचास (फिफ्टी फिफ्टी) का खेल-हिन्दी व्यंग्य
लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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             पचास फीसदी सफलता का अनुमान कर कोई भी काम नहीं करना चाहिए न ही किसी खेल में शामिल होना चाहिए। कम से कम हम जैसे आदमी के लिए पचासफ़ीसदी अनुमान के मामले में किस्मत कभी साथ नहीं देती। शाम को कभी देर से घर लौटते है, तब दो चाबियों के बीच के खेल में हम अक्सर यह देखते हैं की यह पचास पचास फीसदी गलत ही निकलता है। अपने घर की चाबियों के गुच्छे में तीन चाबिया होती हैं। दो चाबियों का रूप एक जैसा है। उनके तालों में बस एक ही अंतर है कि एक पुराना है और दूसरा नया। अंधेरे में यह पता नहीं लगता कि हम जिस चाबी को पकड़ कर ताला खोल रहे हैं वह उसी ताले की हैं। अनुमान करते हैं पर वह हमेशा गलत निकलता है। बाद में उसके नाकाम होने पर हम दूसरी चाबी लगाकर खोलते हैं। ताला नया है तो पहले चयन में चाबी पुराने की आती है, अगर पुराना है तो नये ताले की पहले आती है। यही स्थिति पेंट की अंदरूनी जेब में रखे पांच सौ और एक सौ के नोट की भी होती है। मानो दोनों रखे हैं और हमें पांच सौ का चाहिए तो एक सौ का पहले आता है और और जब सौ का चाहिए तो पांच सौ का आता है। उसी तरह जब कभी जेब में एक और दो रुपये का सिक्का है और साइकिल की हवा भराने पर जेब से निकालते हैं तो दो का सिक्का पहले हाथ आता है और जब स्कूटर में हवा भराते हैं तो एक रुपये का सिक्का पहले हाथ में आता है।
         यह बकवास हमने इसलिये लिखी है कि आजकल लोग बातों ही बातों में शर्त की बात अधिक करते हैं। किसी ने कहा ‘‘ऐसा है।’
        दूसरे ने कहा-‘‘ ऐसा नहीं है।’’
         पहले कहता है कि ‘‘लगाओ शर्त।’’
        अब दूसरा शर्त लगता है या नहीं अलग बात है। पहले धड़ा लगता था तो अनेक ऐसे लोग लगाते थे जो निम्न आय वर्ग के होते थे। उस समय हम उन लोगों पर हसंते थे। अब क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले पढ़ेलिखे और नयी पीढ़ी के लोग हैं। पहले तो हम यह कहते थे कि यह सट्टा लगाने वाला अशिक्षित है इसलिये सट्टा लगा रहा है पर अब शिक्षित युवाओं का क्या कहें?
       हमारे देश के शिक्षा नीति निर्माताओं को यह भारी भ्रम रहा है कि वह अंग्रेजी पद्धति से इस देश को शिक्षित कर लेंगे जो की अब बकवास साबित हो रहा है। पहले अंग्रेजी का दबदबा था फिर भी आम बच्चे हिन्दी पढ़ते थे कि अंग्रेजी उनके बूते की भाषा नहीं है। अब तो जिसे देखो अंग्रेजी पढ़ रहा है। इधर हमने फेसबुक पर भी देखा है कि हिन्दी तो ऐसी भाषा है जिससे लिखने पर आप अपने आपको बिचारगी की स्थिति में अनुभव करते हैं। अंग्रेजी वाले दनादन करते हुए अपनी सफलता अर्जित कर रहे हैं। मगर जब रोमन लिपि में हिन्दी सामने आती है तो हमें थोड़ा अड़चन आती है। अनेक बार ब्लॉग पर अंग्रेजी में टिप्पणियां आती हैं तब हम सोचते हैं कि लिखने वाले ने हमारा लेख क्या पढ़ा होगा? उसने शायद टिप्पणी केवल अपना नाम चमकाने के लिये दी होगी।
जब हम ब्लॉग पर किसी पाठ के टिप्पणी सूचक आंकड़े देखते हैं तब मन ही मन पूछते हैं कि हिन्दी में होगी या अंग्रेजी में। उसमें भी इस फिफ्टी फिफ्टी का आंकड़ा फैल होता है। जब सोचते हैं कि यह अंग्रेजी में होगी तो हिन्दी में मिलती है और जब सोचते हैं कि हिन्दी की सोचते हैं तो अंग्रेजी में निकलती है। फेसबुक पर यह आंकड़ा नहीं लगाते क्योंकि पता है कि केवल रोमन या अंग्रेजी में ही विषय होगा। हिन्दी में लिखने वाले केवल ब्लाग लेखक ही हो सकते हैं और उनमें से कोई फेसबुक पर हमारा साथी नहीं है।
            अपनी बकवास हम यह लिखते हुए खत्म कर रहे हैं कि अनुमानों का खेल तभी तक खेलना चाहिए जब तक उसमें अपनी जेब से कोई खर्चा न हो। क्रिकेट हो या टीवी पर होने वाले रियल्टी शो उनमें कभी भी फिफ्टी फिफ्टी यानि पचास पचास फीसदी का खेल नहीं खेलें। वहां अपना नियंत्रण नहीं है। जेब से एक की जगह दो का सिक्का आने पर उसे फिर वापस रखा जा सकता है पर किसी दूसरे के खेल पर लगाया गया पैसा फिर नहीं लौटता है। सत्यमेव जयते

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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