तिनका तिनका कर बनाया घर
पर वह भी कभी दिल में न बस सका
ख्वाहिशें लिये भटकता शहर-दर-शहर
दोपहर की जलती धूप हो शाम की छाया
कभी चैन नसीब न हो सका
चाहत है पाना कागज के टुकड़ों की माया
देखना है सोने से बनी काया
एक लोहे और लकड़ी की चीज आती
तो दूसरे के लिये मन ललचाया
कहीं देखकर आंखें ललचाती सुंदर कामिनी की काया
तन्हाई में जब होता है मन
तब भी ढूंढता है कुछ नया
जिसका ख्वाब भी नहीं आया
खुले आकाश में कोई देखे
रात के झिलमिलाते सितारे
चंद्रमा की चमक देखे
जो होती सूरज के सहारे
आंखों से ओझल होते हुए भी
कर जाता हमारी रौशनी का इंतजाम
नहीं मांगने आता है नाम
सदियों से वह यही करता आया
इसलिये देखकर हमेशा मुस्कराया
अनंत है कुछ पाने का मोह
जो अंधा बनाकर दौड़ाये जा रहा है
कहीं अंत नहीं आता इंसान की ख्वाहिशों का
जब तक है उसके पास काया
डूबते हुए भी नहीं छोड़ता माया
अपनों के इर्दगिर्द बनाये घेरे को दुनिया कहता
अस्ताचल में जाते हुए भी
जमाने से हमदर्दी नहीं होती
जब चमक रहा होता है तब भी
तंग दायरों मे रहते हुए मुरझा जाती उसकी काया
.......................................
पर वह भी कभी दिल में न बस सका
ख्वाहिशें लिये भटकता शहर-दर-शहर
दोपहर की जलती धूप हो शाम की छाया
कभी चैन नसीब न हो सका
चाहत है पाना कागज के टुकड़ों की माया
देखना है सोने से बनी काया
एक लोहे और लकड़ी की चीज आती
तो दूसरे के लिये मन ललचाया
कहीं देखकर आंखें ललचाती सुंदर कामिनी की काया
तन्हाई में जब होता है मन
तब भी ढूंढता है कुछ नया
जिसका ख्वाब भी नहीं आया
खुले आकाश में कोई देखे
रात के झिलमिलाते सितारे
चंद्रमा की चमक देखे
जो होती सूरज के सहारे
आंखों से ओझल होते हुए भी
कर जाता हमारी रौशनी का इंतजाम
नहीं मांगने आता है नाम
सदियों से वह यही करता आया
इसलिये देखकर हमेशा मुस्कराया
अनंत है कुछ पाने का मोह
जो अंधा बनाकर दौड़ाये जा रहा है
कहीं अंत नहीं आता इंसान की ख्वाहिशों का
जब तक है उसके पास काया
डूबते हुए भी नहीं छोड़ता माया
अपनों के इर्दगिर्द बनाये घेरे को दुनिया कहता
अस्ताचल में जाते हुए भी
जमाने से हमदर्दी नहीं होती
जब चमक रहा होता है तब भी
तंग दायरों मे रहते हुए मुरझा जाती उसकी काया
.......................................
दीपक भारतदीप