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Wednesday, December 31, 2008

अखबार मिले तो अखाड़े की खबर पढ़ पायें-व्यंग्य कविता

पुराने बुद्धिजीवियों ने बना लिया
भाषा सम्मेलन को अखाड़ा
होना ही था कबाड़ा
एक ने कहा
‘पुराने विचारों को नये संदर्भ में
देख कर आग बढ़ते जायें
अपनी परंपराओं के सहारे ही
आधुनिक संसार में अपनी भूमिका बनाये’।

दूसरे ने कहा
‘भूल जाओ अपना पुराना ज्ञान
नये ख्याल से जुड़कर करो अभिमान
चलो पश्चिम की राह
भले ही सूरज वहां डूबता हो
पूर्व में हैं पौंगा पंथ
ऐसा ज्ञान भी किस काम का
जिसमें आदमी ऊबता हो
इसलिये हमने बनाये हैं नये देवता
जो गरीबों और कमजोरों के गुण गायें
नारे लगाते और वाद गाते
आप सभी नये भी उसी राह चले जायें।’

नये लोग हैरान और परेशान थे
तभी एक आया और पुराना बुद्धिजीवी
और बोला-
न इसकी सुनो
न उसकी बात गुनो
जहां मन हो वहीं चलते जाओ
नशे में न होश खोना
अपने लिये आगे संकट हो
कभी ऐसे बीज न बोना
आंखें रखना खुली
अपनी अक्ल से अपना बोझा ढोना
एक की राह पर चलकर
पौंगा पंथी बन जाओगे
दूसरे की राह चले
तो पढ़े लिखे गुलाम बनकर
विदेशी बोझा उठाओगे
आजादी से अपनी सांस लेना
कोई और बताये राह
इससे अच्छा है अपने विवेक से चुन लेना
देख कर भी सीखा जाता है बहुत कुछ
जरूरी नहीं है हर बात तुम्हें सिखायें।’

नये युवक खड़े सम्मेंलन के अखाड़े में
शब्दिक युद्ध देख रहे थे
तय नहीं कर पाये कि
‘कहा से चलें और कहां जायें
आखिरं एक सोकर उठे बुद्धिजीवी ने कहा
‘चलो अब सभी घर जायें
हम तो सोते रहे पूरे कार्यक्रम में
यहां क्या हुआ
कल अखबार मिले तो
इस अखाड़े की खबर पढ़ पायें।’

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Monday, December 29, 2008

अपने गम पर पछताओगे बाद में-हिंदी शायरी

खींचते गये बिना सोचे समझे लकीर पर लकीर
खुद ही नहीं समझे, बन गयी ऐसी एक तस्वीर ?
कागज पर लिखे कई शब्द जो शायरी बन गये
फिर भी तन्हाई का संग रहा,रूठी रही तकदीर
ढूंढ रहे है कोई साथी भटके लोगों की भीड़ में
वफा के वादे झूठे करते, इंसान हो या कोई पीर
यकीन कोई नहीं करता कि हम कभी निभायेंगे
टूटे बिखरे लोगों को दिखाया चाहे अपना दिल चीर
......................................
मत तड़पो किसी की याद में
मिलना बिछड़ना तो दुनियां का कायदा है
जिनके लिये दिल को तकलीफ देते हो
वह भुलाकर कहीं मना रहे जश्न
जान लोग जब यह सच तो
अपने गम पर पछताओगे बाद में

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Thursday, December 25, 2008

जब समाजों के प्रचारक स्वयं यौन शिक्षा प्रदान करेंगे-व्यंग्य

अगर विश्व में निर्मित सभी धार्मिक समाजों और समूहों का यही हाल रहा तो आगे चलकर कथित रूप से सभी धर्मों के कथित गुरु और ठेकेदार सामान्य लोगों को धार्मिक ग्रंथों की बजाय यौन शिक्षा देने लगेंगे। जैसे जैसे विश्व में लोग सभ्य और शिक्षित हो रहे हैं वह छोटे परिवारों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों में आधुनिक शिक्षा का बोलबाला है उनकी जनसंख्या कम हो रही है जिनमें नहीं है उनकी बढ़ रही है। हालांकि इसके पीछे स्थानीय सामाजिक कारण अधिक हैं पर धार्मिक गुरु जनसंख्या की नापतौल में अपने समाज को पिछड़ता देख लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने की सलाहें दे रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों की संख्या बढ़ रही है वह भी अपने लोगों को बच्चे का प्रजनन रोकना धर्म विरोधी बताकर रोकने का प्रयास कर रहे हैं। कायदे से सभी धर्म गुरुओं को केवल व्यक्ति में सर्वशक्तिमान की आराधना और समाज के लिये काम करने की प्रेरणा देने का काम करना चाहिये पर वह ऐसे बोलते हैं जैसे कि सामने मनुष्य नहीं बल्कि चार पाये वाला एक जीव बैठा हो।

उस दिन अखबार में पढ़ा विदेश में कोई धर्म प्रचारक अपने समाज के युवा जोड़ों से सप्ताह में सात दिन ही यौन संपर्क करने का आग्रह कर डाला। उसके अनुसार यह सर्वशक्तिमान का उपहार है और इसका इस्तेमाल करते हुए उसे धन्यवाद देना चाहिये। हर होती है हर चीज की। इस तरह के आग्रह करना अपने आप में एक हास्याप्रद बात लगती है। शरीर के समस्त इंद्रियां आदमी क्या पशु तक को स्वतः ही संचालित करती हैं और उसमें कोई किसी को क्या सलाह और प्रेरणा देगा? मगर धर्मगुरुओं और ठेकेदारों की चिंता इस बात की है कि अगर उनके समाज की जनसंख्या कम हो गयी तो फिर उनके बाद आने वाली गुरु पीढ़ी का क्या होगा? वह उनको ही कोसेगी कि पुराने लोगों ने ध्यान नहीं दिया

अपने ही देश में एक कथित धार्मिक विद्वान ने सलाह दे डाली कि जो धनी और संपन्न लोग हैं वह अधिक बच्चे पैदा करें। एक तरह से उनका आशय यह है कि अमीर लोगों को ही अधिक ब्रच्चे पैदा करने का अधिकार है। जब अपने देश में हो उल्टा रहा है। जहां शिक्षा और संपन्नता है वहां लोग सीमित परिवार अपना रहे हैं-हालांकि उसमें भी कुछ अपवाद स्वरूप अधिक बच्चे पैदा करते हैं। जहां अशिक्षा, गरीबी और भुखमरी है वहां अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैंं। कई बार जब गरीबी और भुखमरी वाली रिपोर्ट टीवी चैनलों में देखने और अखबार पढ़ने का अवसर मिलता है तो वहां उन परिवारों में एक दो बच्चे की तो बात ही नहीं होती। पूरे पांच छह कहीं आठ बच्चे मां के साथ खड़े दिखाई दे जाते हैं जो कुपोषण के कारण अनेक तरह की बीमारियों के ग्रसित रहते हैं। ऐसा दृश्य देखने वाले शहरों के अनेक संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की हाय निकल जाती है। वह कहतीं हैं कि कमाल है इनको बिना किसी आधुनिक चिकित्सा के यह बच्चे आसानी से हो जाते हैं यहां तो बिना आपरेशन के नहीं होते।’

तय बात है कि ऐसा कहने वाली उन महिलायें उन परिवारों की होती हैं जहां बर्तन से चैके तक का काम बाहर की महिलाओं के द्वारा पैसा लेकर किया जाता है।

हालांकि समस्या केवल यही नहीं है। लड़कियों के भ्रुण की हत्या के बारे में सभी जानते हैं। इसके कारण समाज में जो असंतुलन स्थापित हो रहा है। मगर इस पर धार्मिक गुरुओं और सामाजिक विद्वानों का सोच एकदम सतही है।

कम जनसंख्या होना या लडकियों का अनुपात में कम होना समस्यायें नहीं बल्कि उन सामाजिक बीमारियों का परिणाम है जिनको कथित धार्मिक ठेकेदार अनदेखा कर रहे हैं। हमारे देश में आदमी पढ़ा लिखा तो हो गया है पर ज्ञानी नहीं हुआ है। जिन लोगों ने अर्थशास्त्र पढा है उसमें भारत के पिछड़े होने का कारण यहांं की साामजिक कुरीतियां भी मानी जाती है। कहने को तो तमाम बातें की जा रही हैं पर समाज की वास्तविकताओं को अनदेखा किया जा रहा है। दहेज प्रथा का संकट कितना गहरा है यह समझने की नहीं अनुभव करने की आवश्यकता है।

लड़की वाले हो तो सिर झुकाओ। इसके लिये भी सब तैयार हैं। लड़के वाले जो कहें मानो और लोग मानते हैं। लड़की के माता पिता होने का स्वाभिमान कहां सीखा इस समाज ने क्योंकि उन्हीं माता पिता को पुत्र का माता पिता होने का कभी अहंकार भी तो दिखाना है!

यह एक कटु सत्य है कि अगर किसी को दो बच्चे हैं तो यह मत समझिये कि वहां परिवार नियोजन अपनाया गया होगा। अगर पहले लड़की है और उसके बाद लड़का हुआ है और दोनों की उमर में अंतराल अधिक है तो इसमें बहुत कुछ संभावना इस बात की भी अधिक लगती है कि वहां अल्ट्रा साउंड से परीक्षण कराया गया होगा। अनेक ऐसी महिलायें देखने को मिल सकती हैं जिन्होंने बच्चे दो ही पैदा किये पर उन्होंने अपने गर्भपात के द्वारा अपने शरीर से खिलवाड़ कितनी बार अपनी इच्छा से या दबाव में होने दिया यह कहना कठिन है।

एक धार्मिक विद्वान ने अपने समाज के लोगों को सलाह दी कि कम से कम चार बच्चे पैदा करो। दूसरे समाज के लोगों की बढ़ती जनसंख्या का मुकाबला करने के लिये उनको यही सुझाव बेहतर लगां।
अपने देश की शिक्षा पाश्चात्य ढंग पर ही आधारित है और जो अपने यहां शिक्षितों की हालत है वैसी ही शायद बाहर भी होगी। धार्मिक शोषण का शिकार अगर शिक्षित होता है तो यह समझना चाहिये कि उसकी शिक्षा में ही कहीं कमी है पर पूरे विश्व में हो यही रहा है। ऐसा लगता है कि पश्चिम में धार्मिक शिक्षा शायद इसलिये ही पाठ्यक्रम से ही अलग रखी ताकि धार्मिक गुरुओं का धंधा चलता रहे। हो सकता है कि धार्मिक गुरु भी ऐसा ही चाहते हों।

वैसे इसमें एक मजेदार बात जो किसी के समझ में नही आती। वह यह कि जनंसख्या बढ़ाने के यह समर्थक समाज में अधिक बच्चे पैदा करने की बात पर ही क्यों अड़े रहते हैं? कोई अन्य उपाय क्यों नहीं सुझाते ?
पश्चिम में एक विद्वान ने सलाह दे डाली थी कि अगर किसी समाज की जनंसख्या बढ़ानी है और समाज बचाना है तो समाज पर एक विवाह का बंधन हटा लो। उसने यह सलाह भी दी कि विवाहों का बंधन तो कानून में रहना ही नहीं चाहिये। चाहे जिसे जितनी शादी करना है। जब किसी को अपना जीवन साथी छोड़ना है छोड़ दे। उसने यह भी कहा कि अगर अव्यवस्था का खतरा लग रहा हो तो उपराधिकार कानून को बनाये रखो। जिसका बच्चा है उसका अपनी पैतृक संपत्ति पर अधिकार का कानून बनाये रखो। उसका मानना था कि संपन्न परिवारों की महिलायें अधिक बच्चे नहीं चाहतीं और अगर उनके पुरुष दूसरों से विवाह कर बच्चे पैदा करें तो ठीक रहेगा। संपन्न परिवार का पुरुष अपने अधिक बच्चों का पालन पोषण भी अच्छी तरह करेगा। कानून की वजह से उनको संपत्ति भी मिलेगी और इससे समाज में स्वाभाविक रूप से आर्थिक और सामाजिक संतुलन बना रहेगां।

उसके इस प्रस्ताव का जमकर विरोध हुआ। उसने यह सुझाव अपने समाज की कम होती जनसंख्या की समस्या से निपटने के परिप्रेक्ष्य में ही दिया था पर भारत में ऐसा कहना भी कठिन है। कम से कम कथित धार्मिक विद्वान तो ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी भक्ति की दुकान स्त्रियों की धार्मिक भावनाओं पर ही चल रही हैं। ऐसा नियम आने से समाज में अफरातफरी फैलेगी और फिर इन कथित धर्मगुरुओं के लिये ‘‘सौदे की शय’ के रूप में बना यह समाज कहां टिक पायेगा? सभी लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जिन समाजों में अधिक विवाह की छूट है उसमें सभी ऐसा नहीं करते। यह बात निश्चित है पर जो अपने रिश्तों के व्यवहार के कारण चुपचाप मानसिक कष्ट झेलते हैं वह उससे मुक्त हो जायेंगे और फिर तनाव मुक्त भला कहां इन गुरुओं के पास जाता है? ऐसा करने से उनके यहां जाने वाले मानसिक रोगियों की संख्या कम हो जायेगी यह निश्चित है। अगर तनाव में फंसे लोग जब अपने जीवन साथी बदलते रहेंगे तो फिर उनको तनाव के लिये अध्यात्म शिक्षा की आवश्यकता ही कहां रह जायेगी?

बहरहाल अपनी जनसंख्या घटती देख विश्व के अनेक धर्म प्रचारक जिस तरह अब यौन संपर्क वगैरह पर बोलने लगे हैं उससे काम बनता नजर नहीं आ रहा हैं। अब तो ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनियां में धार्मिक प्रचारक यौन संपर्क का ज्ञान बांटेंगे। वह पुरुषों को बतायेंगे कि किसी स्त्री को कैसे आकर्षित किया जाता है। लंबे हो या नाटे, मोटे हो या पतले और काले हो या गोरे तरह अपने को यौन संपर्क के लिये तैयार करो। अपनी शिष्याओं से वह ऐसी ही शिक्षा महिलाओं को भी दिलवायेंगे।’
वह कंडोम आदि के इस्तमाल का यह कहकर विरोध करेंगे कि सब कुछ सर्वशक्तिमान पर छोड़ दो। जो करेगा वही करेगा तुम तो अपना अभियान जारी रखो। बच्चे पैदा करना ही सर्वशक्तिमान की सेवा करना है।

इससे भी काम न बना तो? फिर तो एक ही खतरा है कि धर्म प्रचारक और उनके चेले सरेआम अपने सैक्स स्कैण्डल करेंगे और कहेंगे कि सर्वशक्तिमान की आराधना का यही अब एक सर्वश्रेष्इ रूप है।

यह एक अंतिम सत्य है कि पांच तत्वों से बनी मनुष्य देह में तीन प्रकृतियां-अहंकार,बुद्धि और मन- ऐसी हैं जो उससे संचालित करती हैं और सभी धर्म ग्रंथ शायद उस पर नियंत्रण करने के लिये बने हैं पर उनको पढ़ने वाले चंद लोग अपने समाजों और समूहों पर अपना वर्चस्प बनाये रखने के लिये उनमें से उपदेश देते है।ं यह अलग बात है कि उनका मतलब वह भी नहीं जानते। पहले संचार माध्यम सीमित थे उनकी खूब चल गयी पर अब वह तीव्रतर हो गये हैं और सभी धर्म गुरुओं को यह पता है कि आदमी आजकल अधिक शिक्षित है और उस पर नियंत्रण करने के लिये अनेक नये भ्रम पैदा करेंगे तभी काम चलेगा। मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है और इसलिये समाज या समूह के विखंडन का भय उसे सबसे अधिक परेशान करता है और कथित धार्मिक गुरु और ठेकेदार उसका ही लाभ उठाते हैं। यह अलग बात है कि जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र े आधार पर समाजों और समूहों का बनना बिगड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस पर किसी का बस नहीं। जिस सर्वशक्तिमान ने इसे बनाया है उसके लिये सभी बराबर हैं। कोई समाज बिगड़े या बने उसमें उसका हस्तक्षेप शाायद ही कभी होता हो। मनुष्य सहज रहे तो उसके लिये पूरी दुनियां ही मजेदार है पर समाज और समूहों के ठेकेदार ऐसा होने नहीं देते क्योंकि भय से आदमी को असहज बनाकर ही वह अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
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Saturday, December 20, 2008

आतंक के साये में कविराज-हास्य व्यंग्य

देश में आतंकवाद को लेकर तमाम तरह की चर्चा चल रही है। अनेक तरह की संस्थायें शपथ लेने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। अनेक जगह छात्र और शिक्षक सामूहिक रूप से शपथ ले रहे हैं तो कई कलाकार और लेखक भी इसी तरह ही योगदान कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से आशय केवल बम रखकर या बंदूक चलाकर सामूहिक हिंसा करने तक ही सीमित है? टीवी पर ऐसे डरावने समाचार आते हैं भले ही वह उसमें आंतक जैसा कोई रंग नहीं देखते पर आदमी के दिमाग में वैसे ही खौफ छा जाता है जैसे कि कहीं बम या बंदूक की घटना से होता है। उस समय बम और बंदूक की हिंसा का परिदृश्य भी फीका नजर आता है।
हुआ यूं कि उस दिन कविराज बहुत सहमे हुए से एक डाक्टर के पास जा रहे थे। अपने सिर पर उन्होंने टोपी पहन ली और मुंह में नाक तक रुमाल बांध लिया। हुआ यूं कि उनकी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में छपी थीं। जो संभवतः फ्लाप हो गयी क्योंकि जिन लोगों ने उसे पढ़ा वह उसके कविता के रचयिता कवि से उनका अर्थ पूछने के लिये ढूंढ रहे थे। पत्रिका कोई मशहूर नहीं थी इसलिये कुछ लोगों को फ्री में भी भेजी जाती थी। उनमें कविराज की कवितायें कई लोगों को समझ में नही आयी और फिर वह उनसे वैसे ही असंतुष्ट थे और अब बेतुकी कविता ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वह कवि से वाक्युद्ध करने का अवसर ढूंढ रहे थे। कविराज उस दिन घर से इलाज के लिये यह सोचकर ही निकले कि कहीं किसी से सामना न हो जाये और इसलिये अपना चेहरा छिपा लिया था।

मन में भगवान का नाम लेते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे डाक्टर का अस्पताल कुछ ही कदम की दूरी पर था तब उन्होंने चैन की सांस ली कि चल अब अपनी मंजिल तक आ गये। पर यह क्या? डाक्टर के अस्पताल से आलोचक महाराज निकल रहे थे। वह उनके घोर विरोधी थै। वैसे उन्होंने कविराज की कविताओं पर कभी कोई आलोचना नहीं लिखी थी क्योंकि वह उनको थर्ड क्लास का कवि मानते थे। दोनों एक ही बाजार में रहते थे इसलिये जब दोनेां का जब भी आमना सामना होता तब बहस हो जाती थी।

दोनों की आंखें चार हुईं। आलोचक महाराज शायद कविराज को नहीं पहचान पाते पर चूंकि वह घूर कर देख रहे थे तो पहचान लिये गये। आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम कविराज हो न! हां, पहचान लिया। देख ली तुम्हारी सूरत अब तो वापस डाक्टर के पास जाता हूं कि कोई ऐसी गोली दे जिससे किसी नापसंद आदमी की शक्ल देखने पर जो तनाव होता है वह कम हो जाये।’

कविराज के लिये यह मुलाकात हादसे से कम नहीं थी। अपनी छपी कविताओं की चर्चा न हो इसलिये कविराज ने सहमते हुए कहा-‘क्या यार, बीमारी में भी तुम बाज नहीं आते।
आलोचक महाराज ने कहा-‘हां, यही तो मैं कह राह हूं। मैं जुकाम की वजह से परेशान हूं और तुम अपना थोबड़ा सामने लेकर आ गये। शर्म नहीं आती। यहां क्यों आये हो?’
कविराज ने बड़ी धीमी आवाज में कहा-‘ डाक्टर के पास कोई आदमी क्यों जाता हैं? यकीनन कोई कविता सुनाने तो जाता नहीं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मगर हुआ क्या? बुखार,जुकाम,खांसी या सिरदर्द? कोई बडी बीमार तो हुई नहीं हुई क्योंकि खुद ही चलकर आये हो।’
कविराज ने कहा-‘तुम्हें क्यों अपनी बीमारी बताऊं? तुम मेरी कविता पर तो आलोचना लिखोगे नहीं पर बीमारी पर कुछ ऐसा वैसा लिखकर मजाक उड़ाओगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं जो इस बीमारी में भी मेरे को शक्ल दिखाने आ गये। बताने में क्या जाता है? हो सकता है कि मैं इससे कोई अच्छा डाक्टर बता दूं। यह डाक्टर अपना दोस्त है पर इतना जानकार नहीं है।’
कविराज ने कहा-‘बीमारी तो नहीं है पर हो सकती है। मैं सावधानी के तौर पर दवाई लेने आया हूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘ कर दी अपने बेतुकी कविता जैसी बात। मैं तो सोचता था कि बेतुकी कविता ही लिखते हो पर तुम बेतुके ढंग से बीमार भी होते हो यह पहली बात पता लगा।’

कविराज ने कहा-‘‘ बात यह हुई कि आज मैंने घर पर देशी घी से बना खाना बना था। पत्नी के मायके वाले आये तो उसने जमकर देशी धी का उपयोग किया। जब टीवी देख रहे थे तो उसमें ‘देशी धी के जहरीले होने के संबंध में कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि उसमें तो साबुन में डाले जाने वाला तेल भी डाला जाता है। वह बहुत जहरीला होता है। उसमें उस ब्रांड का नाम भी था जिसका इस्तेमाल हमारे घर पर होता है। यार, मेरे मन में तो आतंक छा गया। मैंने सोचा कि बाकी लोग तो मेरा मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वह तो उस खबर को देखना ही नहीं चाहते थे। इसलिये अकेला ही चला आया।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘डरपोक कहीं के! तुम्हारा चेहरा तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कि गोली खाकर आये हो। अरे, यार घी खाया है तो अब मत खाना! ऐसा कोई धी नहीं है जो गोली या बम की तरह एक साथ चित कर दे।’

कविराज ने कहा-‘पर आदमी टीन लेकर रखेगा तो यह जहर धीरे धीरे अपने पेट में जाकर अपना काम तो करेगा न! गोली या बम की मार तो दिखती है पर इसकी कौन देखता है। यह जहर कितनों को मार रहा है कौन देख रहा है? सच तो यह है कि मुझे इसका भी आतंक कम दिखाई नहीं देता। यार उस दिन एक मित्र बता रहा था कि हर खाने वाली चीज की डुप्लीकेट बन सकती है। तब से लेकर मैं तो आतंकित रहता हूं। जो चीज भी खाता हूं उसके डुप्लीकेट होने का डर लगता है।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘तो क्या डर का इलाज कराने आये हो?’
कविराज ने कहा -‘‘नहीं डाक्टर से ऐसी गोली लिखवाने आया हूं जो रोज ऐसा जहर निकाल सके। जिंदा रहने के लिये खाना तो जरूरी है पर असली या नकली है इसका पता लगता नहीं है इसलिये कोई ऐसी गोली मिल जाये तो कुछ सहारा हो जायेगा। गोली से भले ही रोज का जहर नहीं निकले पर अपने को तसल्ली तो हो जायेगी कि हमने गोली ली है कुछ नहीं होगा। नकली खाने के आतंक में तो नहीं जिंदा रहना पड़ेगा।

दोनों की बात उनका डाक्टर मित्र सुन रहा था और वह बाहर आया और कविराज से बोला-‘इस नकली खाने के आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह जो बीमारियां पैदा करता है उनका इलाज तो संभव है पर उसके आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह तो जब बीमारी सामने आये तभी मेरे पास आना।’

कविराज का मूंह उतर गया। वह बोले-ठीक है यार, कम से कम यह तसल्ली तो हो गयी कि ऐसी कोई गोली नहीं है जो नकली खाने के आतंक का इलाज कर सके। तसल्ली हो गयी वरना सोचा कि कहीं हम पीछे न रह जायें इसलिये चला आया।’

कविराज वापस जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘इस पर कोई कविता मत लिख देना क्योंकि मैं तब लिख दूंगा कि तुम कितने डरपोक हो। कितनी बेतुकी बात की है‘नकली खाने का आतंक’। कहीं लिख मत देना वरना लोग हंसेंगे और मैं तो तुम्हें अपना दोसत कहना ही बंद कर दूंगा। मेरी सलाह है कि तुम टीवी कम देखा करो क्योंकि तुम अब आतंक के कई चेहरे बना डालोगे जैसे चैनल वाले रोज बनाते हैं।’
कविराज ने कहा-‘‘यार, मैं तो नकली खाने के आतंक ने इतना डरा दिया है कि इस पर कविता लिखने के नाम से ही मेरे होश फाख्ता हो जाते हैं।
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Sunday, December 14, 2008

अपनी असली दुनिया में लौट आया करो-व्यंग्य कविता

वह खुद हैं राह में भटके हुए
एक ही ख्याल पर अटके हुए
बताते हैं उन लोगों को रास्ता
हवस के पेड़ पर जो लटके हुए
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पर्दे पर चलचित्र देखकर
ख़्वाबों में न खो जाया करो
जो मरते दिखते हैं
वह फिर जिदा हो जाया करते हैं
जो मर गए
वह भी कभी कभी जिदा
नजर आया करते हैं
माया नगरी में कहीं सत्य नहीं बसता
जेब हो खाली तो
देखने के लिए कुछ नहीं बचता
रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं
काले चरित्र के व्यक्तित्व का मालिक
देखो तो, दिल बहला लेना उनको देखकर
फिर अपनी असली दुनिया में लौट आया करो

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Thursday, December 11, 2008

सुबह के बने रिश्ते दोपहर तक हो जाते हैं बासी-व्यंग्य कविता

कभी कभी मन को घेर लेती है उदासी
दिन भर गुजरता है
जाने पहचाने लोगों के बीच
फ़िर भी अजनबीपन का अहसास साथ रहता है
जुबान से निकलते जो शब्द निकलते हैं
आदमी के दिल से उपजे नही लगते
उनका अंदाज़-ऐ-बयाँ साफ़ कहता है
सुबह जो बनते हैं रिश्ते
दोपहर तक हो जाते हैं बासी

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Wednesday, December 10, 2008

हर जगह गरीब मजदूर पर ही होता निशाना-व्यंग्य कविता

अपने लिए नहीं मांगते सिंहासन
दो पल की रोटी की खातिर
मजदूर इधर से उधर जाते
अपने पसीने की धारा में
अपना पूरा जीवन गुजारते
नहीं किसी का खून चूसने जाते
नहीं करते चोरी
न करते लूट
इसलिए रोज चैन की नींद सो जाते

जिनका जीवन बीतता है रोज
छल कपट के साथ
दौड़ते जाते माया के पीछे
फिर भी नहीं आती वह हाथ
दिन में चैन नहीं है
रात को नींद नही
वह गरीब मजदूर को नहीं सह पाते

ऊंचे महलों में भी जिनको सुख नसीब नही
थाली में सजे पकवान
पर पेट में जाने का उनकों रास्ता नहीं
मजदूर के तिनकों के घरोंदों को
भी देखते तिरछी नजर से
उसकी रोटी के सूखे टुकड़े को
देख कर उनके पेट जलते
क्योंकि सुख का मतलब वह नहीं समझ पाते

शायद इसलिए जब भी
होता है कहीं हंगामा
मजदूर बनता है निशाना
दुनिया के लोग भले ही अमीरों के
स्वांग पर करते हैं नजर
पर मजदूर के सच की अग्नि की
आंच भी नहीं झेल पाते
कोई नहीं होता हमदर्द पर फिर भी
मजदूर जिए जाते
यह जिन्दगी सर्वशक्तिमान की देन है
यही सन्देश फैलाते जाते
अमीरों के चौखट पर
हाजिर करने वाले बहुत होते पर
पर मजदूरों के पसीने के बिना
कभी किसी के महल नहीं बन पाते

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Monday, December 8, 2008

अपना अपना दाव-हास्य कविता

पोता घर में घुसा
तो दादा ने पूछा
'क्या देखकर आया
रिजल्ट आ गया न'
पोता बोला
''हाँ गया
पर अभी पूरी तरह नहीं मालुम
किसको कितनी सीटें मिलीं हैं'

दादा बोले
''तुम सुबह कहकर निकले थे
मैं रिजल्ट देखने जा रहा हूँ
अगर चुनाव का रिजल्ट देखना था
तो घर पर ही देख लेते
कुछ हम से भी राजनीति सीख लेते
हम ही बता देते
किसकी सूरत हुई फक और किसकी खिली है''

पोता बोला
''दादाजी आपकी पीढी
मुफ्त में मजे लेने की आदी है
हमारे लिए तो समय की बर्बादी है
फिल्म, क्रिकेट और चुनाव है
आपके लिए मनोरंजन और खेल
पर हम खर्च करने के आदी हैं
दूसरे की हार जीत पर
हंसना-रोना समय की बर्बादी है
हम तो खेलते हैं अपना दाव
जीत हमारी हो
इसलिये देखते भाव
दाव जीते तो होती है पार्टी
हारें तो निकल जाता तेल
फिल्म में आप देखते अभिनेता की सूरत
चुनाव में देखते प्रत्याशी की सीरत
हमें इससे मतलब नहीं
हमें तो अपने दाव जीतने से वास्ता
फ़िदा उसी पर होते हैं
दिखाता है जो दाव जीतने का रास्ता
हम तो अपना खेल भी
साथ-साथ खेलते है
यही शिक्षा नई पीढ़ी को मिली'

पोता चला गया तो दादा ने
अपने बेटे से कहा
''कुछ गलती हमसे ही हुई है
हमने तो ऐसी शिक्षा नही दी
फिर इसे कहाँ मिली
मुझसे तो दूर बचपन गुजारा था इसने
पर तुम्हारे तो पास रहा
फिर बनी संस्कारों से परे रहा
जिसे खेल और मनोरंजन
करना नहीं आता
अपना धन और मन तबाह करना आता है
ऐसी नयी पीढी मिली

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Saturday, December 6, 2008

खुशी हो या गम लोग सज जाते हैं-व्यंग्य कविता

फिल्में का असर कुछ हुआ है
इस तरह असर कि लोग
खुशी हो या गम सज जाते हैं
दिल में नहीं जज्बात
इसलिये चेहरे पर नहीं दिखते
पर फिर भी मौके पर
अपनी हाजिरी देने पहुंच जाते हैं
मत मांगो उनसे प्रमाण
अभिनय देखने के आदी हो गये है लोग
इसलिये खुद भी दिखाने पहुंच जाते हैं
...........................

दिल में हो या न हो जज्बात
दिखाने कहीं भी पहुंच जाओ
और खूब प्रचार पाओ
गम हो गया खुशी का मौका
इस पर मत डालो नजर
चेहरे पर आती नहीं वैसी लकीर
जैसे है सामने मंजर
पर फिर भी वहां दिख जाओ
अगर कहीं आ गये जमाने की नजर में
तो चमक जाओगे
हर जगह नाम पाओगे
सभी का यही है दस्तूर
मौका मिलने पर उसका फायदा उठाओ

.................................
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