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Sunday, August 30, 2009

रिश्ते और समय की धारा-हिंदी कविता (rishtey aur samay ki dhara-hindi kavita)

हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।

अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।

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Friday, August 28, 2009

सदाबहार समाजसेवक-हिंदी हास्य कविता (sadabahar samajsevak-hindi hasya kavita)

बरसात की बूंदें जैसे ही
आकाश से जमीन पर आई।
अकाल राहत सहायता समिति के
सदस्यों के चेहरे पर चिंता घिर आई।
पहुंचे सभी अध्यक्ष के पास
और वहां अपनी बैठक जमाई।
एक बोला अध्यक्ष से
‘अध्यक्ष जी यह क्या हुआ?
हमने तो अपने घर के सामान
खरीदने का सोचा था
आखिर अकाल का लोचा था
अब यह क्या हुआ
अकाल का नारा लगाकर कर
हम चिल्ला रहे थे
इधर उधर चंदे के लिये
फोन मिला रहे थे
अब क्या होगा
मौसम विभाग की भविष्यवाणी के बिना
यह बरसात कैसे आई?
अब कैसे होगी कमाई?’

अध्यक्ष ने हंसते हुए कहा
‘क्यों परवाह करते हो
जब तक मैं अध्यक्ष हूं भाई।
अब भला चंदा मांगने
घर घर क्या जाना
अब तो इंटरनेट का है जमाना
मैंने तो तीन महीने पहले ही
जब बरसात न होने का सुना
अपनी संस्था के लिये
इंटरनेट पर चंदा मांगने का प्लान चुना
दरियादिलों ने बहुत सारा माल दिया
भले ही जितना मांगा उससे कम दाना डाल दिया
अपने हिस्से का चेक तुम ले जाओ
अब बाढ़ होने के लिये
सर्वशक्तिमान के दरबार में गुहार लगाओ
अपनी समिति का नाम
अकाल राहत की जगह
बाढ़ पीड़ित सहायता समिति दिखाओ
हम तो सदाबाहर समाजसेवक हैं
अरे, मैंने यह समिति ऐसे ही नहीं बनाई।

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Sunday, August 23, 2009

चिंता समान शत्रु नहीं-हास्य व्यंग्य (chinta saman shatru nahin-hasya vyangya)

डाक्टर साहब बाहर ही मिल गये। उस समय वह एक किराने वाले से सामान खरीद रहे थे और हम पहले लेचुके सामान का पैसा उसे देने गये थे। दुपहिया से जैसे ही उतरे डाक्टर साहब से नमस्कार किया और पैसा देकर जैसे ही वापस मुड़े तो डाक्टर साहब ने पूछा-‘कहीं बाजार जा रहे हैं।’
हमने कहा-‘हां, आज अवकाश का दिन है सोच रहे हैं कि बाजार जाकर घूमे और सामान खरीद लायेें।’
डाक्टर साहब बोले-हां, सप्ताह में एक बार बाजार जाना स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। आदमी रोज घर का खाना खाते हुए उकता जाता है, इसलिये कभी बाजार में खाना बुरा नहीं है।’
हम रुक गये और उनकी तरफ घूर कर देखा और कहा-‘पर एक बार जब हम बीमार पड़े थे तब आपने कहा था कि बाजार का खाना ठीक नहीं होता। तब से लगभग हमने यह कार्य बंद ही कर दिया है।’
वह बोले-‘हां, पर यह छह वर्ष पहले की बात है। वैसे आजकल आप सुबह योग कर लेते हैं इसलिये अब आपको इतनी परेशानी नहीं आयेगी। वैसे क्या आपने वाकई बाजार का खाना पूरी तरह बंद कर दिया है।’
हमने कहा-‘अधूरी तरह किया था पर अब तो टीवी वगैरह ने नकली घी, तेल, दूध, चाय तथा खोये का ऐसा खौफ भर दिया है कि बाजार में खाने के सामान की खुशबू नाक को कितना भी परेशान करे पर उस पर अपना ध्यान नहीं जाने देते।’
डाक्टर साहब बोल-‘हां, यह तो सही है पर सभी जगह थोड़े ही नकली सामान मिल रहा है।’
हमने कहा-‘आपकी बात सही है पर हम करें क्या? आधा आपने डराया और आधा इन टीवी वालोें ने। जैसे आपकी सलाह के बाद हमने योग साधना शुरु की वैसे ही बाहर का खाना भी बंद कर दिया है।’
डाक्टर साहब बोले-‘ आप अपने स्वास्थ्य के प्रति आप सजग है, यह अच्छी बात है। वैसे आप बहुत दिनों से घर नहीं आये।’
हमने हंसते हुए कहा-‘डाक्टर साहब, आपके घर आने से बचने के लिये तो रोज सुबह इतनी मेहनत करते हैं। पहले आपकी और अब टीवी वालों की चेतावनी को इसलिये ही याद रखते हैं क्योंकि हमें आपके घर आने से डर लगता है। अनेक बार तो बुखार और जुकान की बीमारियों से स्वतः ही निपटते हैं क्योंकि सोचते हैं कि हमने जो खराब खाना खाया है उसका दुष्प्रभाव कम होते ही सब ठीक हो जायेगा।’
डाक्टर साहब हंस पड़े-हां, वैसे भी हम छोटी मोटी बीमारियों का इलाज करते हैं पर बड़ी बीमारी के लिये तो बड़े डाक्टर के पास मरीज को भेजना ही पड़ता है।’
हमने बातों ही बातों में उनसे पूछा-‘डाक्टर साहब आप नकली खून की पहचान कर सकते हैं।’
वह एकदम बोले-‘हम तो होम्योपैथी के डाक्टर हैं। इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते अलबत्ता टीवी पर देखा तो हैरान रह गये।’
हमने कहा-‘मतलब यह है कि कभी किसी को बड़ी बीमारी हो और उसमें दूसरे का खून शरीर में देना जरूरी हो तो आपके पास न आयें। आपने तो हमारी उम्मीद ही तोड़ दी।’
डाक्टर साहब बोले-‘आपकी बात सुनकर मेरा ध्यान अपने चचेरे भाई की तरफ चला गया है। एक किडनी खराब होने के कारण वह एक अस्पताल में भर्ती है और उसे निकाला जाने वाला है। उसके लिये भी खून की जरूरत है। मैं अभी जाकर अपने दूसरे चचेरे भाई को फोन कर कहता हूं कि जरा देखभाल कर खून ले आये।’
डाक्टर साहब के चेहरे पर चिंता के भाव आ गये और वह शीघ्र वहां से चले गये। एक डाक्टर की आंखों में ऐसे चिंता के भाव देखकर हमें हैरानी हुई साथ ही यह चिंता भी होने लगी कि कहीं हमें अपने या किसी अन्य के लिये खून की जरूरत हुई तो क्या करेंगे? ऐसे में हमें सिवाय इसके कुछ नहीं सूझता तो फिर योग साधना का विचार आता है। सोचने लगे कि थोड़ी योग साधना से छोटी बीमारियों को ठीक कर लेते हैं तो क्यों न कल से अधिक अधिक कर बड़ी बीमारियों को अपने से दूर रखने का प्रयास करें। हालांकि कभी कभी लगता है कि इनसे अच्छा तो टीवी देखना ही बंद कर दें। वह बहुत सारी चिंतायें देने लगता है। कहा भी गया है कि ‘चिंता सम नास्ति शरीरं शोषणम्।’
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Sunday, August 9, 2009

कागजी पुलिंदे-व्यंग्य कविता (kagzi pulinde-vyangya kavieaen)

इतना बड़ा देश है
समस्याओं के लगे ढेर हैं
सुलझाने वाले कागजी शेर हैं
वह कभी हल नहीं हो पायेंगी।
इसलिये जिंदा रखना जरूरी है
देशभक्ति और समाज कल्याण के
कागजी पुलिंदे
जरूरत पड़े तो भुला दो
और कर लो जिंदे
यूं ही जुबानी चर्चायें करते रहो
सुर्खियों में रहे, ऐसी बात कहो
मुसीबतें समय से खुद ही
आयेंगी और जायेंगी।
...................
आम आदमी हो तो
हमेशा देश के लिये
भक्ति दिखाते जाओ
वरना मुश्किल हो जायेगा।
अगर खास हो तो बस
बैठकर अपने रिश्ते निभाओ
किसी में हिम्मत नहीं है
जो सच से सामना करायेगा।

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Friday, August 7, 2009

पूरी गिनती 0 से ९ होती है, यार-हास्य व्यंग्य (ginti 0 to 9-hasya vyangya

आज की तारीख में एक समय था जो एक से लेकर नौं तक की पंक्ति बना रहा था-1 2 3 4 5 6 7 8 9। इस बात का जोर शोर से प्रचार हुआ।
अब इसे इस तरह कह सकते हैं कि 12 बजकर 34 मिनट 56 सैकंड तारीख सात माह 8 वर्ष 9। इस कथित एतिहासिक समय को खूब देखने और सुनने का अवसर मिला। एक लड़की बता रही थी कि उसके पास एक कोई एस.एम.एस आया है। इधर एक लड़का ओरकुट पर भी इसी प्रकार की विषय सामग्री पढ़े होेन की बात कह रहा था। हमने भी इधर उधर पढ़ा और देखा। कमाल है क्या गजब है कि बाजार को हर रोज कोई न कोई अवसर मिल ही नहीं जाता है।
खैर, इस समय में क्या खास था यह समझ में नहीं आता। याद रखिये गिनती के दस अंक होते हैं या यूं कहें कि गिनती 0 से 9 तक होती है।
कमबख्त यह जीरो भी अजीब है। अगर आंकड़े के पीछे लगे तो संख्या की ताकत बढ़ा देता है और पहले लगे तो कोई फायदा नहीं देता। अगर बाजार का बस हो तो वह एक को जीरो लगाकर एक करोड़ बना दे पर अगर उसे लगे कि इस जीरो से खतरा है या कोई उम्मीद नहीं है तो उसे भुला दे। इतना ही गणित की गिनती से ही जीरो निकालकर लोगों को भरमा दे। तारीखों और समय की उलटपुलट का सवाल है। पहले समय आना चाहिये या तारीख! बाजार ने अपनी सुविधा से समय को पहले चुना। जरूरत पड़ेगी तो तारीख को पहले चुनेगा।
फिर एक मजे की चीज है कि यह सब अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक है। यही बाजार जब हिन्दी संवत् में देखेगा तो शायद उसे भुनाने का भी प्रयास करे। इतनी सी छोटी बातों को बड़े स्तर पर प्रचार करने का आशय यह है कि बाजार अब बहुत ताकतवर हो चुका है। दूरसंचार से जुड़े व्यवसायियों के लिये छोटे मोटे अवसर भी कमाने का अवसर बनते जा रहे हैं। इधर देश टीवी चैनलों पर नित प्रतिदिन दूध, घी, ,खोवे तथा अन्य वस्तुओं में मिलावट की जानकारी। असली जैसे लगने वाले नकली नोटों का प्रचलने बढ़ने से प्रशासन की चिंताओं की चर्चा देखकर दिल की धड़कने बढ़ने लगती हैं।
याद रखिये यह अपराध भी उसी विकास यात्रा पर आ रहे हैं जहां अपनी अर्थव्यवस्था के चलने का दावा देश के आर्थिक विशेषज्ञ करते हैं। उपभोक्ता प्रवृत्तियों का बढ़ाना बाजार के लिये अच्छा संकेत हो सकता है पर ऐसे अपराधों मेें-जिनसे पूरा समाज अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से प्रभावित होता है-वृद्धि भी भयानक संकेत दे रही है। कभी कभी तो लगता है कि ऐसी छोटी बातों का प्रचार कर हम किसे भरमा रहे हैं? इस तरह अपने को खुश करना चाहते हैं या विदेशों को यह बताना चाहते हैं कि अब आधुनिक सभ्य समाज का एक अंग बन गये हैं।

कभी कभी मन निराश हो जाता है। प्रचार माध्यमों पर प्रस्तुत समाचारों, धारावाहिकों और अन्य कार्यक्रमों को देखते हैं तो एक आकर्षक समाज दिखता है पर जहां हमारे पांव खड़े हैं वहां उसकी चमक एक सपना दिखाई देती है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हम समाज की मूल धारा से अलग ही लेखक हैं क्योंकि जो दूसरे लेखक लिख रहे हैं उससे हमारी सोच अलग दिखती है। हालांकि लीक से हटकर यह एक अच्छी बात हो सकती है पर विषय सामग्री के तत्व निरंतर अन्य लेखकों से विपरीत दिखने लगें तो स्वयं की सोच पर भी संदेह हो जाता है। हां क्यों न होगा! सभी गिनती एक से नौ तक ही कर रहे हैं और हमारा स्मृति कोष यह मानने को तैयार ही नहीं है कि वह 0 से नौ तक की नहीं होती और यह भी कि लोगों को चमत्कृत करने के लिये जीरो का होना जरूरी था। वैसे इस प्रचार को अधिक भाव शायद इसलिये मिला भी नहीं।
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Monday, August 3, 2009

लफ्जों के सौदे-हिंदी शायरी (lafzon ke saude-hindi kavita)

उनको आसमान दिखता है
इसलिये उड़ते जाते हैं।
जमीन पर पांव रखना
उन्हें गवारा नहीं इसलिये
उड़ने के लिये लड़े जाते हैं।

दौलतमंदों के प्यादे बनना उनको मंजूर है
पर गरीब का वजीर होने पर भी शर्माते हैं।

लफ्जों का ढेर बेचने बैठे हैं
कोई चाहे तो ईमान भी उपहार में ले जायें
पैसे की खातिर किताबें सजाये जाते हैं।

यह दुनियावी खेल है
आदमी अपने ख्याल क्या खुद
बिकने को तैयार बैठा है
खरीददार के इंतजार में पलकें पसारे जाते हैं।

नामा हो तो लोग नाम बदल दें
मशहूरी के लिये हंगामा हो तो
अपना काम बदल दें
दौलतमंदों का काम है ईमान से खेलना
बेईमानों का काम है सामान बेचना
अक्लमंदों की अक्ल जब तुलती हो
कौड़ियों के दाम में
तब लफ्जों के सौदे पर
भला क्यों शोर मचाये जाते हैं।
झूठ के पांव नहीं पर पंख होते हैं
जमीन पर न चले पर
आसमान में लोग उसे खूब उड़ाये जाते हैं।
सच तो खड़ा रहेगा अपनी जगह
फिर उसकी चिंता में दिमाग क्यों खपाये जाते हैं।

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Sunday, August 2, 2009

जड़ चिंतन-हिन्दी व्यंग्य (hindi article)

आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री श्री केविन रूड किसी समय सफाई कर्मचारी का काम करते थे-यह जानकारी अखबार में प्रकाशित हुई देखी। अब वह प्रधानमंत्री हैं पर उन्होंने यह बात साहस के साथ स्वीकार की है। उनकी बात पढ़कर हृदय गदगद् कर उठा। एक ऐसा आदमी जिसने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में पसीना बहाया हो और फिर शिखर पर पहुंचा हो यह आस्ट्रे्रलिया की एक सत्य कहानी है जबकि हमारे यहां केवल ऐसा फिल्मों में ही दिखाई देता है। यह आस्ट्रेलिया के समाज की चेतन प्रवृत्तियों का परिचायक है।
कभी कभी मन करता है कि हम भी ऐसी कहानी हिंदी में लिखें जिसमें नायक या नायिका अपना खून पसीना करते हुए समाज के शिखर पर जा बैठा हो पर फिर लगता है कि यह तो एक झूठ होगा। हम तो बरसों से इस देश में देख रहे हैं जड़ता का वातावरण है। अपने आसपास ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने जीवन भर पसीना बहाया और बुढ़ापे में भी उनका वही हाल है। उनके बच्चे भी अपना पसीना बहाकर दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से कमा रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर देख रहे हैं। फिल्म, पत्रकारिता, धार्मिक प्रचार,संगीत समाज सेवा और अन्य आकर्षक पेशों में जो लोग चमक रहे थे आज उनकी औलादें स्थापित हो गयी हैं। पहले लोग प्रसिद्ध गुरु के नाम पर उसके उतराधिकारी शिष्य को भी गुरु मान लेते थे। अनेक लोग अपनी पहचान बनाने के लिये अपने गुरु का नाम देते थे पर आजकल अपने परिवार का नाम उपयोग करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं। समाज में परिवर्तन तो बस दिखावा भर है! यह परिवर्तन बहुत सहजता से होता है क्योंकि यहां गुरु को नहीं बल्कि को बाप को अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
नारा तो लगता है कि ‘गरीब को रोटी दो,मजदूर को काम दो।’ उसकी यही सीमा है। रोटी और काम देने का ठेका देने वाले अपने कमीशन वसूली के साथ समाज सेवा करते हैं। कोई गरीब या मजदूर सीधे रास्ते शिखर पर न पहुंचे इसका पक्का इंतजाम है। गरीबों और मजदूरों में कैंकड़े जैसी प्रवृत्ति पायी जाती है। वह किसी को अपने इलाके में अपने ही शिखर पर किसी अपने आदमी को नहीं बैठने दे सकते। वहां वह उसी को सहन कर सकते हैं जो इलाके, व्यवसाय या जाति के लिहाज से बाहर का आदमी हो। उनको तसल्ली होती है कि अपना आदमी ऊपर नहीं उठा। इस वजह स समाज में उसकी योग्य पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता। अगर कोई एक आदमी अपने समाज या क्षेत्र में शिखर पह पहुंच गया तो बाकी लोगों का घर में बैठना कठिन हो जायेगा न! बीबीयां कहेंगी कि देखो-‘अमुक कितना योग्य है?’
इसलिये अपने निकट के आदमी को तरक्की मत करने दो-इस सिद्धांत पर चल रहा हमारे देश का समाज जड़ता को प्राप्त हो चुका है। यह जड़ता कितना भयानक है कि जिस किसी में थोड़ी बहुत भी चेतना बची है उसे डरा देती है। फिल्मों और टीवी चैनलों के काल्पनिक पात्रों को निभाने वाले कलाकारों को असली देवता जैसा सम्मान मिल रहा है। चिल्लाने वाले पात्रों के अभिनेता वीरता की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। ठुमके लगाने का अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां सर्वांग सुंदरी के सम्मान से विभूषित हैं।
उस दिन हम एक ठेले वाले से अमरूद खरीद रहे थे। वह लड़का तेजतर्रार था। सड़क से एक साधू महाराज निकल रहे थे। उस ठेले पर पानी का मटका रखा देखकर उस साधु ने उस लड़के से पूछा-‘बेटा, प्यास लगी है थोड़ा पानी पी लूं।’
लड़के ने कहा-‘थोड़ा क्या महाराज! बहुत पी लो। यह तो भगवान की देन है। पूरी प्यास मिटा लो।
साधु महाराज ने पानी पिया। फिर उससे बोले-‘यह अमरूद क्या भाव दे रहे हो। आधा किलो खुद ही छांट कर दे दो।’
लड़का बोला-‘महाराज! आप तो एक दो ऐसे ही ले लो। आपसे क्या पैसे लेना?’
साधु ने कहा-‘नहीं! हमारे पास पैसा है और उसे दिये बिना यह नहीं लेंगे। तुम तोल कर दो और हम पैसे देतेे हैं।
लड़के ने हमारे अमरूद तोलने के पहले उनका काम किया। उन साधु महाराज ने अपनी अंटी से पैसे निकाले और उसको भुगतान करते हुए दुआ दी-‘भले बच्चे हो! हमारी दुआ है तरक्की करो और बड़े आदमी बनो।’
वह लड़का बोला-‘महाराज, अब क्या तरक्की होगी। बस यही दुआ करो कि रोजी रोटी चलती रहे। अब तो बड़े आदमी के बेटे ही बड़े बनते हैं हम क्या बड़े बनेंगे?’
साधु महाराज तो चले गये पर उस लड़के को कड़वे सच का आभास था यह बात हमें देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इस देश में जो पसीना बहाकर रोटी कमा रहे हैं वह इस समाज का जितना सच जानते हैं और कोई नहीं जानता। वातानुकूलित कमरों और आराम कुर्सियों पर देश की चिंता करने वाले अपने बयान प्रचार माध्यमों में देकर प्रसिद्ध हो जाते हैं पर सच को वह नहीं जानते। उनके भौंपू बने कलमकार और रचनाकार भी सतही रूप से इस समाज को देखते हैं। उनकी चिंतायें समाज को उठाने तक ही सीमित हैं पर यह व्यक्तियों का समूह है और उसमें व्यक्तियों को आगे लाना है ऐसा कोई नहीं सोचता। चिंता है पर चिंतन नहीं है और चिंतन है तो योजना नहीं है और योजना है तो अमल नहीं है। जड़ता को प्राप्त यह समाज जब विदेशी समाजों को चुनौती देने की तैयारी करता है तो हंसी आती है।
अभी आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने पर यहां सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी शोर मचा रहे थे। वह ललकार रहे थे आस्ट्रेलिया के समाज को! उस समाज को जहां एक आम मेहनतकश अपनी योग्यता से शिखर पर पहुंच सकता है। कभी अपने अंदर झांकने की कोई कोशिश न करता यह समाज आस्ट्रेलिया के चंद अपराधियों के कृत्यों को उसके पूरे समाज से जोड़ रहा था। इस जड़ समाज के बुद्धिजीवियों की बुद्धि भी जड़ हो चुकी है। वह एक दो व्याक्ति या चंद व्यक्तियों के समूहों के कृत्यों को पूरे समाज से जोड़कर देखना चाहते हैं। दुःखद घटनाओं की निंदा करने से उनका मन तब तक नहीं भरता जब तक पूरे समाज को उससे नहीं जोड़ लेते। समाज! यानि व्यक्तियों का समूह! समूह या समाज के अधिकांश व्यक्तियों का उत्थान या पतन समाज का उत्थान या पतन होता है। मगर जड़ चिंतक एक दो व्यक्तियों को उदाहरण बनाकर समाज का उत्थान या पतन दिखाते हैं।
विदेश में जाकर किसी भारतीय ने तरक्की की उससे पूरे भारतीय समाज की तरक्की नहीं माना जा सकता है। मगर यहां प्रचारित होता है। जानते हैं क्यों?
इस जड़ समाज के शिखर पर बैठे लोग और पालतू प्रचारक यहां की नयी पीढ़ी को एक तरह ये यह संदेश देते हैं कि ‘विदेश में जाकर तरक्की करो तो जाने! यहां तरक्की मत करो। यहां तरक्की नहीं हो सकती। यहां तो धरती कम है और जितनी है हमारे लिये है। तुम कहीं बाहर अपने लिये जमीन ढूंढो।’
सामाजिक संगठनों, साहित्य प्रकाशनों, फिल्मों, कला और विशारदों के समूहों में शिखर पर बैठे लोग आतंकित हैंे। वह अपनी देह से निकली पीढ़ी को वहां बिठाना चाहते हैं। इसलिये विदेश के विकास की यहां चर्चा करते हैं ताकि देश का शिखर उनके लिये बना रहे।
यहां का आम आदमी तो हमेशा शिखर पुरुषों को अपना उदाहरण मानता है। शिखर पुरुषों की जड़ बुद्धि हमेशा ही जड़ चिंतकों को सामने लाती है और वह उसी जड़ प्रवृत्ति को प्रचार करते है ताकि ‘जड़ चिंतन’ बना रहे। विकास की बात हो पर उनके आकाओं के शिखर बिगाड़ने की शर्त पर न हो। एक चेतनाशील समाज को जब जड़ समाज ललकारता है तब अगर हंस नहीं सकते तो रोना भी बेकार है।
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